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RNI:QUJMUL 2014/66126
BAN 2454-3705
श्रतसागर तसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY) December 2018, Volume : 65, Luo : 07, Annual Subscription Rs. 10w-Polo Per copy Ro 18DUU Hree Kinked De
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पंचांगुप्तीदेवी यंत्र पट्ट (आचार्य विजय समणारिम.सा. के व्यक्तिगत संग्रह में ) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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प.पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पदासागरसूरीश्वरजी म.सा. की दीक्षा के ६४ वर्ष प्रवेश प्रसंग की झलकियाँ..
श्रीलग
પૂજાપાઠ આવMટન શ્રી પારાશસૂરીશ્વરજી મહારાજના संयम
हमावर्षमा भनवेल સા રજા રિ
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SHRUTSAGAR
RNI : GUJMUL/2014/66126
December-2018 ISSN 2454-3705
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-५, अंक-७, कुल अंक-५५,दिसम्बर-२०१८
Year-5, Issue-7, Total Issue-55, Decembers-2018 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/
आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. त्रिवेदी
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १५ दिसम्बर, २०१८, वि. सं. २०७५, मार्गशीर्ष शुक्ल-८
व आराधन
वा कन्य.
तवीर जी
श्री महान
5
अमृत
पतु विद्या
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१८
अनुक्रम 1. संपादकीय
रामप्रकाश झा 2. आध्यात्मिक पदो
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी 6 3. Awakening
Acharya Padmasagarsuri 8 4. पंचंगुलिमहामंत्रमयं स्तोत्रम् गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी 10 5. मौनएकादशी १५० जिनकल्याणक स्तवन
श्री गजेन्द्र शाह 6. सोळमा शतकनी गुजराती भाषा मधुसूदन चिमनलाल मोदी 7. पुस्तक समीक्षा 8. समाचार सार
मा
जेहने वसि जिभ्यादे बाई, तेहने वस सहु कोई। राय-रांणा सुर दानव मानव, ते उत्तम फल होई॥
प्रत क्र. ४४०२० भावार्थः- जिसके वश में जिह्वाबाई होती है अर्थात् जिसकी वाणी में मिठास होती है, राजा, देवता, दानव, मानव सभी उसके वश में हो जाते हैं और (मधुर वाणी के कारण) वह उत्तम फल को प्राप्त करता है।
* प्राप्तिस्थान आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनीक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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SHRUTSAGAR
December-2018
संपादकीय
रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नूतन अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें असीम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
इस अंक में गुरुवाणी शीर्षक के अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “आध्यात्मिक पदो” की गाथा ८० से ९२ तक प्रकाशित की जा रही हैं। इस कृति के माध्यम से साधारण जीवों को आध्यात्मिक उपदेश देते हुए अहिंसा, सत्यपालन, आहारादि से संबंधित प्रतिबोध कराने का प्रयत्न किया गया है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, जिसके अन्तर्गत जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है।
अप्रकाशित कृति के रूप में सर्वप्रथम गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “पंचंगुलीमहामन्त्रमय स्तोत्र” प्रकाशित किया जा रहा है। कल ३७ गाथाओं में रचित इस कृति में सीमंधरस्वामी की अधिष्ठायिका पंचांगुली देवी का माहात्म्य तथा उनकी आराधना के द्वारा प्राप्त होनेवाले इहलौकिक सुखों का वर्णन किया गया है। द्वितीय कति के रूप में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर के कार्यकर्ता पं. श्री गजेन्द्रभाई शाह के द्वारा सम्पादित “मौन एकादशी १५० जिनकल्याणक स्तवन” प्रकाशित किया जा रहा है। इसके कर्ता श्री दयाकुशल गणि ने इस कृति की कुल ४७ गाथाओं के माध्यम से मौन एकादशी पर्व की महिमा का सुन्दर वर्णन करते हुए यह स्पष्ट किया है कि मौन, साधक की आध्यात्मिक व अचिन्त्य शक्तियों को जाग्रत करने का एक श्रेष्ठ साधन है।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में बुद्धिप्रकाश, पुस्तक ८२ के प्रथम अंक में प्रकाशित “सोलमा शतकनी गुजराती भाषा" नामक लेख का गतांक से आगे का भाग प्रकाशित किया जा रहा है। इस लेख के माध्यम से सोलहवीं सदी की रचनाओं में प्रचलित गुजराती भाषा के स्वरूप तथा उच्चारणभेद का वर्णन किया गया है। ___ अन्त में मुनि श्री धर्मरत्नविजयजी म. सा. द्वारा सम्पादित “अर्हन्नामसहस्रकम्" पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित की जा रही है।
हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे आगामी अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके।
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श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१८ आध्यात्मिक पदो
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी (गतांक से आगे)
(हरिगीत छंद) रत्नत्रयीथी कर्मनी सत्ता टळे छे भव्यने, जेना प्रकाशे सज्जनो करता रहे कर्तव्यने; एवं कथेलुं वेद छे निश्चय जणायूँ छु भणी, एवी अमारी वेदनी छे, मान्यता निश्चय खरी. आत्मा विभु चेतन कहो के ब्रह्म आदि नाम जे, ब्रह्मा कहो हरिहर कहो अल्ला खुदा गुणधाम जे; परब्रह्म नारायण कहो स्याद्वाद सापेक्षा धरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. तीर्थंकरोनी वाणीमां प्रभु नाम सर्व समाय छे, सापेक्षनयवचनोविषे वेदो समाइ जाय छे; श्रद्धा अमारी तादृशी व्यापक विचारो झळहळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. जे विश्वव्यापक सद्विचारो वेद ते व्यापक भण्या, सहुजातनी भाषाविषे सहु देशमां जाता गण्या; मानो खरा ए वेदने दिल सत्य वातो नीकळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. ज्यां त्यांथी आवी ने भले सागरविषे नदीओ सहु, सागरविषे नदीओ रही सरितामां सागर कंइ लहुं; श्री जैन शासनमा रह्या छे वेद व्यापक इश्वरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. व्यवहारनी शुभ रीतियो ते वेद सघळा धारवा, सह देश भाषा कालमां वेदो थता अवधारवा; पशु पक्षी वृक्षो आदिमां वेदो जीवंता छे वळी, एवी अमारी वेदेनी छे मान्यता निश्चय खरी.
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December-2018
SHRUTSAGAR
आंखोथकी आंखो लडे वचनोविषे झेरो वहे, काती हृदयमां कारमी, वन्हि घणी प्राणो दहे; त्यां वेद साचा नहि वसे ने सत्य जातुं झट टळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. जैनागमो प्रतिकुल जे मिथ्यात्ववर्धकग्रन्थ छे, सापेक्ष वचनो वण हो सावद्य तमनो पन्थ छे; हिंसादि पापो ज्यां लख्यां ते वेद साचा छे नहीं, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. जैनागमो अविरूद्ध जे जे अन्य ग्रन्थोमा रह्यं, सापेक्षदृष्टया मान्य छे ते सद्गुरूगमथी लघु; जे पुस्तकोमां धर्म नहि मिथ्यात्व वातो बहु रही, ते मान्य नहि क्यारे थती अनुभवथकी जोशो सही. सहु देशमां सह कालमां सह जीवनं सारूं करे, एवा उपायो ते सकल वेदो ज साचा ते खरे; कल्याणनी जे योजनाओ वेद मान्या व्यवहरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. दिन साथ रात्री जग रही प्रतिपक्षता सर्वत्र छे, साचाज साथे जूठ छे ज्यां छत्री छे त्यां छत्र छे; अन्वय अने व्यतिरेकथी ए मान्यता जग संचरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. साचुं विवेक ग्राह्य छे साचा विवेके जाणशो, मनमां विवेक ज लावशो ए वेद साचो जाणशो; शुभ सत्य वैदिक तत्त्व जे ग्रहशो विवेक परवरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. शास्त्रो करोडो वांचतां माध्यस्थ्य वण कंइ ना सरे, साचो विवेक ज वेद छे ए पामतां सुखडां मळे; व्यवहार वेदो पामतां पाश्चात्य दुनिया सुधरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी.
92
(क्रमशः)
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श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१८
Awakening
(from past issue...)
Acharya Padmasagarsuri
A jeweller takes a long time to learn the art of finding out the worth of a lifeless and inert diamond; When that is so, is it easy to acquire the ability of finding out the worth of the soul which is conscious? If a man has to study for sixteen years to get a Master's degree, will it not be necessary to spend at least four or five years to attain (Samyaktva) Rightness in respect of moral and spiritual matters. If you make it a rule to study and get by heart two Sutras (aphorisms) a day, within a period of five years, you can memorize more than 3500 Sutras. Little drops of water make the mighty ocean. This proverb will be meaningful with respect to your life. You will become a Srutjnani i.e. an enlightened man, by studying the scriptures.
Your enlightement will give you inspiration to act in the right manner. In this manner, your life will be decorated by the ornaments of the right philosophical outlook, right knowledge and right character.
In the past material comforts were few, but today they are abundant. Inspite of it in the past people were happy and enjoyed peace of mind; but today material comforts have increased hundreds of times, but there is a dearth of happiness and peace. Happiness lies within man and he cannot get it by running after it as if it is present in outward things like material comforts. There seems to be happiness at a distance like a mirage but if we go near it we will be disappointed to find that it is not there. One night, an old woman was searching for something on a road where there was light. When she was asked what she was searching for, she replied that she was searching for her lost needle. People asked her, “Where did you lose your needle?” The old woman said, “I lost it in my house”.
People asked her: “Why don't you search for it in your house?”
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AC
SHRUTSAGAR
December-2018 The old woman said, “There is no light in the house”.
We may laugh at the foolishness of the old woman, but we are not less foolish than that old woman because we go out in search of happiness to find it in outward objects, when it lies within us.
Mental peace lies in patience and forbearance. A certain man, in his attempt to provoke an enlightened man was uttering abusive words. He was making all sorts of accusations against him; and was condemning him. But the enlightened man remained patient. When he stopped shouting, the enlightened man gave him a vessel full of water, and said, “Brother, please drink this water. You have been delivering a lecture for a long time and your throat has gone dry”.
Hearing this, the man perspired with shame. After drinking the water, he thought that this was a trick to defeat him. He thought, “Why should I fall into his trap?”.
In consequence, he began shouting with greater vigour. The enlightened man kept smiling. The sun set. That man stopped shouting when he was tired. The enlightened man gave him refreshments and food; and when he returned home, he sent his son to accompany him upto his house, so that he might reach his house safely. His efforts having thus failed, he gave up his anger permanently. He became ennobled under the influence of the enlightened man's patience, forbearance and forgiveness just as a piece of iron becomes gold by the touch of the philosopher's stone (Parasmani).
A similar incident took place in the life of Galib. Amimuddin, a famous poet wrote a book condemning Galib. Having read it, someone asked Galib. “Sir, have you not written any reply to this book?”
Galib replied: “If a donkey kicks you, would you also kick the donkey?”
One who can practise and make others realize the value of patience is able, noble, stable and courageous.
(Continue...)
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श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१८ पंचंगुलिमहामंत्रमयं स्तोत्रम्
गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी प्रस्तुत कृति सीमंधरस्वामीजीना शासननी अधिष्ठायिका “देवी पंचागुलि”ना महात्म्यने दर्शावतु मारुगुर्जर भाषानुं लघु काव्य(स्तोत्र) छे। कविए अहिं देवीना वंदन-पूजनादि द्वारा प्राप्त थता ईहलौकिक सुखोना वर्णननी वात विस्तृत स्वरूपे करी छे, तो वळी साथे-साथे देवीना नारी सहज, विशिष्ट देहलावण्यनी वर्णना द्वारा पण काव्यनी रसाळतामां उमेरो कर्यो छे। बीजी रीते जोइए तो कविए पंचांगुलिदेवीना मंत्र पदो ने अहीं गर्भित रीते गुंथी काढ्यानुं जणाय छे. कवितुं नाम ‘हरख होवार्नु काव्यांतमां जणावायु छे पण आ नामथी विद्वान तरीके मुनि के श्रावक बे मांथी कोने ग्रहण करवा ते अस्पष्ट रहे छे । जो के काव्यनी रसाळता, शब्दलालित्य कविना मुनि होवापणा पर विशेष भार मूके छे । कृतिना रचना वर्ष संदर्भे कोई विवरण प्राप्त थतुं नथी। आ कृतिनी सौथी जुनी प्रत १८मी पूर्वार्धनी प्राप्त थाय छे । आना आधारे १८मी सदी पहेलानी रचना होवानुं अनुमान करी शकाय।
प्रान्ते संपादनार्थ प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत zerox आपवा बद्ल श्रीनेमि-विज्ञानकस्तूरसूरि ज्ञानमंदिर (सुरत)ना व्यवस्थापकोनो तेमज आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर(कोबा)ना व्यवस्थापकोनो खूब खूब आभार ।
॥ श्री गुरुभ्यो नमः॥ सामी सिरिमंधर पय नमेवि, हुं वन्निसु तस सासणा(ण)-देवि, पंचंगुलि मंगुल तणुं मूल, सुर सेवित सेवित सानुकूल
॥१॥ पुहविं-परसिद्ध ते पुरुष धिन्न, जेहनई पंचंगुलि सुप्रसन्न, तेहनइं घरि मणि माणिक सुवन्न, धण कण कोठार अखूट अन्न ताहरइ चरणि जस रहइ मन्न, तेहनइ सयंवरि वरइ कन्न, ते करइ अवनि अनिवार' पुन्न, दुज्जण नवि काढइ कोई कन्न मनमाहिं धरइ जे खरी खंति, ताहरूं नाम जे नर जपंति, ते तणा चाड दे संति अंति, वली पिसुण कोडि पयमाल ३ हुंति ॥४॥ १. मंगळ, २. चरणमां, ३. स्वयंवरमां, ४. कन्या, ५. घj, ६. दुर्जन, ७. क्षति, कान पकडवो ?, ८. उमंग, ९. तेह, १०. जरूरत, ११. शांति, १२. दुष्ट, १३. खुवार,
॥२॥
॥३॥
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॥५॥
॥६॥
॥७॥
॥८॥
॥९॥
SHRUTSAGAR
December-2018 प्रणवक्षर पंचंगुलि बइ वार, परिसरि परिसरि संयुगति सार, पहिलं गुरु-भगति करी उदार, इम करु मंत उच्चार सार अरि-भूतभय हरणहार, मयमत्ता(त्त)"मयगल वसिकरणहार, दालिद्द दुक्ख दुम्मरण वारि", अति-दुट्ठ कट्ठ° कंतार' तारि२२ जे विघनरूप लोहमय दंड, ते मोडी माय करइ बइ खंड, जेहनइं चरणि ताहरइं रंग, ते चरण तणा आ(अ)ठील३-भंग आलस छंडी ऊगतइ सूर, जे भगति-भोग नर करइ भूरि, नित जपइ नाम आणंद पूरि, तस चउसट्ठि कामण करइ दूरि चउरासी चेटक२५ अतिहिं घोर, तुं हरइ दोष हेला कठोर, वनि वाघनइ सिंघनई चरड चोर, ते बांधीनइ तइं कर्या मोर२९ तुझ नामिं सोगा निद्दलंति, वेताल२ माल विसराल हुँति, अरि मारि उपद्रव उपसमंति, शाकिनी राकिनी आवी नमंति जे जगि चालइ बंद६ दोर ढोर२७, वली धसइ धाडि पाडंति सोर, ते पर धन हरइ हरामखोर, ते मरइ देखि ताहरूं जोर
॥११॥ मोटा झोटिंग पिशाच प्रेत, ताहरइ नामि ते हुइ अचेत, तुझ तेजिं ताव जरा जाइ, व्यंतर नवि थाइ अंतराइ जे करइ करावइ भगति ताति, जे जडइ२ जडाव३ दिवस राति, तसि सीसि पडइ दिनमाहिं सात, पंचंगुलि केरो वज्रघात
॥१३॥ ताहरु माई मूल मंत, विधि सहित जपइ सिरि धरइ जंत५, आराधइ जे नर अचल चित्त, तेहनइं तुं आपइ विपुल वित्त
॥१४॥ पंचंगुलि तुं परतखि देवि, पामइ पोढिमनर तुह नमेवि, विधि मंत्रजाप पूजा करेवि, भगति भूमीपति हूआ केवि
॥१५॥
॥१०॥
॥१२॥
१४. ॐ कार, १५. मदमस्त, १६. हाथी, १७. दारिद्र, १८.अपमृत्यु, १९. रोके, २०. कष्ट, २१. जंगल(?), २२. पार उतारे, २३. बेडी, २४. मंत्रविधान, २५. मेलीविद्या प्रयोग, २६. क्षणमात्रमां, २७. सिंहने, २८. लूटारा, २९. हाजर कर्या, ३०. शोक, ३१. चूरो थाय, ३२. वेताल ३३. मल्ल(?), ३४. नष्ठ थर्बु, ३५. राक्षसीनी(?), ३६. बांधेल, ३७. पशु, ३८. दोडवू, ३९. धाडपाडु चोर, ४०. एक प्रकारचं भूत, ४१. घणी, ४२. खोट करे, ४३. करावे, ४४. वज्रनो भार, ४५. यंत्र, ४६. संपत्ति, ४७. मोटो, ४८. केटलाय.
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॥१७॥
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१८ पंचंगुलि तुह पादारविंद, सेवंति भमर यम अमर-वृंद, चरणिं(णां)गुलि-नखमणि-किरणपूर, उदयो उदयाचलि यसो' सूर ॥१६॥ सोविन्नवानि करि करि समान, ओपइ'२ अपुव्व तुह जणणि जाणु'५, कदलीदल-कोमल-विपुल-वट्ट, तपतपई तेजि जंघा सुघट्ट८ नीचा निगूढ सुनितंब-बिंब, महा मेखल खलकइ मणि-कयंब, कटि सोहइ सीहणि तणो लंकर, तुं टालइ तिहुअण तणो वंक३ ॥१८॥ लवणिम जलपूरित-नाभिकूप, ते पासइ तिवली ५ तरंगरूप,
ओपइ अलपोदर ६ अति उदार, उत्तंग पयोधर ऊपरि हार ॥१९॥ पुट्ठा अट्ठारस सरल हस्त, सोहइ आयुध करि "सुप्रशस्त, जे सवि हुंकार (हुं) हथीयारि राज(जि), ते भगत तणा भयहरण काजि ॥२०॥ नवि जाणुं खेटक तणुं काम, जपमाली जपइ जिणंद नाम, कंठ त्रय रेखा हसित-कंब, तुं जागई जगि जगदेक अंब सुप्रसिद्ध-सिद्ध-संगीत-पुन्न, जाची जबादि-रसकलित-कन्न, मणिमय-कुंडल-मंडित-कपोल, तंबोल-कृताधर-रंगरोल
॥२२॥ उद्दाम-तूर-निधि-निष्कलंक, निज मूखि जीत्यो पूंनिम मयंक, नवरंग नयण नासा रसाल, भूभंग-विभासुर -विपुल-भाल
॥२३॥ राखडी-विराजित-वेणि-दंड, जाणे मणिधर फणिंद चंड, झगमगइ मुगट-मणि-तिलक-तेज, आराधक ऊपरि अधिक हेज कस्तूरि केसर पत्र भंग, नयणे काजल सोहइ सुरंग, सुखकरणि सरणि५ ताहरइ राखि, सेवक पामइ करुणा-कटाख्य ६ पंचंगुलि तुं महिमानिवास, पूरइ सेवकजन तणी आस, जे एक मनो(ना) सेवइ छ मास, ते पांमइ भोग भला विलास
॥२६॥
॥२१॥
॥२४॥
॥२५॥
४९. भ्रमर ५०. जेम. ५१ जेम. जाणे के.५२.सवर्णवर्णी. ५३.शोभवं. ५४. माता. ५५.साथल.५६. केलस्थंभ, ५७. तपq, ५८. सारा घाट वाळी, ५९. कंदोरो, ६०. मणिओनो समुदाय, ६१. सींहण, ६२. कमरनो वळांक, ६३. दोष, ६४. सौंदर्य, ६५. पेट पर पडती त्रण रेखा, ६६. नानु पेट, ६७. स्तन, ६८. पुष्ट, ६९. हाथमां, ७०. ?,७१. शिकार, ७२. गळानो भाग, ७३. जगतनी एक मात्र, ७४. माता, ७५. ?,७६. ?,७७. ?,७८. शोभतु, ७९. रंग वडे लाल,८०. श्रेष्ठ, ८१.रूनो समुदाय, ८२. चंद्र, ८३. शोभता, ८४. स्त्रीओना माथा परनुं घरेणुं, ८५. शरणमां, ८६. कटाक्ष,
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॥३०॥
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December-2018 धन तणी कोडि धवल हिं वास, वारु घरि घोडा तणी लासि८,, जगिजणणि वसइ मनमाहिं जास, जस सचराचरि१ फिरइ तास ॥२७॥ तुझ सेवक नवि दीसइ उदास, भोगवइ भूमि गिरूआ गरास ताहरा गुण जे जपइ भास ३, छूटइ छइल्ल ते पाप-पास एतलो अंब ताहरो वीसास५, तइं मान्यो ते नर नहीं निरास, तुं करइ विघन केरो विणास, ओपाइ मति नव नव विलास
॥२९॥ पंचंगुलि सेवइ सावधान, ते पुरुषमाहिं कहीइ प्रधान, जे जपइ तुझ नामाभिधान, ते पामइ पगिपगि नव निधान जे एकांत करइ ताहरुं ध्यान, आरोगइ ते वली अन्न पान, मनरंगि महीपति दीइ दान, याचकनइं दीइ दीनार दान
॥३१॥ जे करइ तुझ गुण तणु गान, ते पुरुष पुत्र संतानवान, नित जमण जमइ पकवान धान, आवडइ वली विद्या-वितान कलिकालमाहिं तुं कामधेन, ओलगइ१९ तुझ सुर तणी सेन, आई तुं अभिनव अमरवेलि, माहरी माय चिंता म मेलि०१ तुं पूरइ परमाणंद पूरि, तुं आपइ सुख संतान सूरि१०२, घरि भरि ०३ ऋद्धि तुं हरइ रोग, तुं देवि भणी लइ भला भोग तुं तिहुयणजण-नयणाभिराम, बीजुं तुह प्रत्यंगिरा नाम, उद्दाम-काम जिनधर्म-धाम, सेवकजन-मन-विश्राम-ठाम तुह्म नामिं अह्म घरि आठ सिद्धि, तुह्म नामिं सामिणि सुप्रसिद्धि, तुह्म नामि नव रस हुइ वृद्धि, तुम नामि लगिं पुहवी प्रसिद्धि श्रीपंचंगुलि परिहरि प्रमाद, सेवकनइं आपे सुप्रसाद, एकांत कृपा करी करो सार, इम हरख पइंपइ१०४ वार वार
॥ इति श्री पंचंगुलिमहामंत्रमयं स्तोत्रम् ॥ लिखितं श्रीसीरोहीनगरे ।
॥३२॥
॥३३॥
॥३४॥
॥३५॥
॥३६॥
॥३७॥
८७. घर, ८८. समूह, ८९. जगजननी, ९०. यश, ९१. चर-अचर जग्याए, ९२. जमीन, ९३. बोलवा वडे, ९४. रसिक, ९५. विश्वास, ९६. डगले-पगले, ९७. द्रव्यनाम, ९८.?, ९९. सेवे, १००. माता, १०१. मूकशो, १०२. शूर, १०३. भरवू, १०४. बोले,
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दिसम्बर-२०१८ गणि दयाकुशल कृत मौनएकादशी १५० जिनकल्याणक स्तवन
श्री गजेन्द्र शाह समस्त विश्व सुख और शांति के पीछे भाग रहा है, लेकिन उसे पता नहीं कि जिस सुख और शांति के पीछे भाग रहा है, वह भागने से नहीं अपितु विरमित होने से ही प्राप्य है। रुकना है, स्थिर होना है। अपने आप में लीन होना है। दुःख व सुख के कारण हमारे भीतर ही विद्यमान हैं। उसे हमें ढूँढना है और उस तरीके से जीना है। हम बाल्यावस्था से युवा और वृद्ध हो जाते हैं, परन्तु जीवन का वास्तविक अर्थ एवं जीने का सही तरीका नहीं जान पाते हैं । वैसे जीवन को सार्थक करने व शांतिमय बनाने के कई तरीके हैं, परन्तु उनमें से यदि किसी एक को प्राधान्य देना हो तो वह है 'मौन'। विवादमूल वाणी
संसार के जितने भी विवाद है सब को मिटाने की ताकत मौन में है, तभी तो कहा गया है कि 'मौनं सर्वार्थ साधनम्' । मौन सर्वार्थ साधक है तो सर्वानर्थक कौन है? उसका उत्तर है अनियंत्रित वचन । कहा जाता है कि 'अंधे का बेटा अंधा' द्रौपदी का यह छोटा सा वाक्य महाभारत का कारण बना । आज भी घर-घर में, देश, राज्य व विश्व में इसीका कहर है। इंसान के पूरे शरीर में हड्डियाँ हैं, परन्तु जिह्वा में एक भी नहीं, फिर भी यह दुसरों की हड़ी-पसली एक करने की ताकत रखती है। जिह्वा के बारे में कईं बातें, कहावतें, श्लोक, सुभाषित, दोहे, काव्य, कवित्तादि मिलते हैं। यथा- दाँत व जिह्वा में से दाँत बाद में आते हैं और पहले चले जाते हैं, परन्तु जिह्वा जन्म से होती है और अंत तक रहती है। (इससे हमें अपना वाणीव्यवहार कोमल व मृदु रखने का संदेश मिलता है)। दूसरी बात यह है कि- कितना भी स्निग्ध क्यूँ न खाया जाए, जिह्वा कभी चिकनी नहीं होती। जिह्वा के लिये यह भी कहा जाता है कि- प्रत्येक इन्द्रिय के पास प्रायः एक-एक कार्य है, परन्तु जिह्वा एक ऐसी इन्द्रिय है, जो 'वाद' एवं स्वाद' ये दोनों काम अकेली ही कर लेती है। इसके दोनों कार्यों का प्रभाव पूरी दुनिया पर देखने को मिलता है। वाद से कोर्ट-कचहरियाँ उभर रही हैं और स्वाद से अस्पतालों में लाईनें लगी हैं। विवाद मूल बानी और रोग मूल खानी' ।
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December-2018 उचित कथन के अनुचित परिणाम का एक कारण अयोग्य प्रस्तुति
वाणी के लिए कहा गया है कि‘बात बात सब एक है, बतलावन में फेर। एक बात बादल मिले, एक ही देत बिखेर’ ॥
जिस प्रकार वात अर्थात् पवन, एक ही होता है, लेकिन एक पवन से बादल इकट्ठे होते है तो दूसरे से बिखर भी जाते हैं। उसी प्रकार कईं बार बातें सब एक होती हैं, लेकिन बताने के तरीके भिन्न-भिन्न होने से कहीं बात बन जाती है तो कहीं बिगड़ जाती है। हम कई बार सही होने पर भी हमारी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता है, क्योंकि हमारे पास प्रस्तुति का सही तरीका नहीं होता है। कवि ने कहा है कि
‘कागा किस का धन हरे, कोयल किसकुं देत। एक बानी के कारणे ,जग अपना कर लेत' ॥
कठोरता से दुनिया जरूर जीती जा सकती है, लेकिन दिल नहीं। वाणी से संबधित शास्त्रों में कईं बातें आती है। कहाँ बोलना, कहाँ रुकना, कहाँ सुनाना व कहाँ सुनना, इन सभी बातों का विवेक जीवन में आ जाए तो जीवन उपवन बनने में देर नहीं लगती। शब्द व तीर जब तक हमारे पास हैं, तब तक हम उसके मालिक है, छूट जाने के बाद उसके ऊपर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रहता है, अतः सोच-विचारकर व तोल-तोलकर बोलने की बातें ग्रंथों में पाई जाती हैं। कितनी भी अच्छी बात क्यूँ न हो, योग्य समय व योग्य स्थान पर ही शोभा देती है। कहा गया है कि
सबद रतन मुख कोटडी, चुप कर दीजे ताल। घराक होय तो खोलिए, बानी बचन रसाल ॥
शब्द रूपी रत्न को मुख रूपी डब्बी में मौन का ताला लगाकर रखना चाहिए और अच्छे ग्राहक मिले तभी खोलना चाहिए। गलत व्यक्ति के सामने कही गई अच्छी बात भी गलत परिणाम देती है। शक्कर भले ही अच्छी हो, लेकिन गधे के लिए वह ज़हर है। दूध भले ही पौष्टिक हो, लेकिन सर्प के लिए विषवृद्धि का कारण है। इस विषय में सुगृही पक्षी व वानर का दृष्टांत भी प्रसिद्ध है, यथा
उपदेशो न दातव्यो यादृशे तादृशे जने। पश्य मूर्ख वानरेण सुगृही निर्गृही कृता॥ कईं बार कुछ परिस्थितियों में अपनी सही बात को गौण रखकर सामने वाले
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दिसम्बर-२०१८ की गलत बात को भी मान लेना पड़ता है। जैसे कोई विद्वान मार्ग पर जा रहा था । सामने एक मूर्ख ग्वाला मिल गया। उसके हाथ में लाठी था। वह लटू लेकर बोला'बोल ! मेरे और तेरे में विद्वान कौन?' वह विद्वान समझ गया कि यहाँ सही बोलने में लठ्ठ ही पड़ने वाला है, अतः वह बोला -
तू ज्ञानी का ज्ञानी और मैं अज्ञानी का दास। तूने उठाई लाठी और मैंने उठाई घास ॥
ऐसा उदाहरण कपिल केवली एवं वृद्धवादीसूरि हेतु भी आता है। अधीर एवं विद्यागर्वित सिद्धसेन ब्राह्मण ने रास्ते में ही वृद्धवादीसूरि को रोका और वाद करने लगा। न्याय हेतु वहाँ उपस्थित ग्वाले जैसे लोगों को नियुक्त किया। आचार्य श्री ने विद्वता की बात न करके ग्वालों वाली बात की और जीत गये । सिद्धसेन को धैर्य आने पर पुनः राजसभा में वाद करके जीता और शिष्य बनाया । कपिल केवली को ५०० चोरों ने घेर लिया और वहाँ उन्होंने उनकी भाषा में रास-गरबा करते-करते प्रतिबोधित किया। समय, स्थान, जीव विशेष व प्रसंगानुरूप किया गया वाणीव्यवहार ही अपेक्षित परिणाम दे पाता है। मौनम् सर्वार्थ साधनम्
कई बार कार्य बोलने से होता है तो कई बार मौन रहने से होता है। एक बैलगाड़ी के नीचे बच्चा आ गया और मर गया। गाड़ी वाले को न्यायालय में खड़ा किया गया, लेकिन वह देर तक मौन ही रहा, तब बच्चे की माँ ने कहा कि उस दिन तो जोर-जोर से बोल रहा था कि 'हटो, हटो, गाड़ी आ रही है, अब क्या हो गया। बस, इस वाक्य से सिद्ध हो गया कि इसने तो चेतावनी दी थी, लेकिन माँ की लापरवाही के कारण हादसा हुआ है। एक छोटे-से मौन ने गाड़ी वाले को बचा लिया। यह ताकत है मौन की।
इस विषय में समयसुंदरजी ने कल्पलता टीका में गंगा तेली का एक सुंदर दृष्टांत दिया है, जो सुप्रसिद्ध है। राजा भोज ने एक अजेय विद्वान के सामने गंगा तेली को खड़ा कर दिया। बिना कुछ बोले मात्र इशारों में ही वाद हुआ। विद्वान ने जगत्कर्ता एक शिव के प्रतीक के रूप में एक ऊँगुली दिखाई और गंगा ने दो ऊँगलियाँ दिखाईं। विद्वान समझा कि शिव और शक्ति दो हैं। विद्वान ने पाँच इन्द्रियों के लिये पंजा दिखाया और गंगा ने मुट्ठी दिखाई। विद्वान समझा कि पाँच इन्द्रियों को काबू करना ही हितावह है। इस प्रकार विद्वान हार गया और मूर्ख जीत गया। गंगा के लिये विद्वान की एक ऊँगुली का अर्थ था तेरी एक आँख फोड़ दूंगा अतः गंगा ने उनकी दोनों आँखें
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December-2018 फोड़ने के उत्तर में दो अंगुलियाँ दर्शाई थी। गंगा के लिए हाथ दिखाने का अर्थ थप्पड़ मारना था, इसलिए उसने मुट्ठी बाँधकर मुक्का से मारने का इशारा किया । बिना बोले, संकेत मात्र से एक प्रखर विद्वान को एक मूर्ख ने जीत लिया। यहाँ बोलने से काम बिगडने वाला था, जीत जो हुई, उसके पीछे ताकत है मौन की। सावद्य वचन से बचने का श्रेष्ठ उपाय मौन
गुजराती में कहावत है कि 'न बोल्यामां नव गुण' लोकोक्ति से नहीं बोलने में नौ गुण कहे जाते हैं, लेकिन मौन के गुण इससे अधिक है। पंच महाव्रतधारी महात्माओं से प्रश्न करने पर उत्तर मिलता है जहा सुखं' अर्थात् जैसे सुख हो वैसे करो। 'जाओ' कहने में भी दोष है और मना करने में भी दोष है, अतः वे 'जहा सुखं' का प्रयोग करते हैं। सावद्य वचन से बचने का यह एक शास्त्रीय उपाय है। दूसरा उपाय है मौन। इससे सारे सावद्य वचनों का परिहार हो जाता है। मौन युक्त जीवन होने से ही साधु को 'मुनि' भी कहा जाता है। तीर्थंकरों का मौन
तीर्थंकर भगवंतों हेतु कहा गया है कि वे दीक्षा के बाद जब तक केवलज्ञान नहीं होता है तब तक प्रायः मौनधारी रहते हैं। भगवान महावीर स्वामी के द्वारा छद्मस्थ काल के प्रथम चातुर्मास में ग्रहण किये गए पाँच अभिग्रहों में से एक अभिग्रह मौन का था। साढे बारह वर्षों के छद्मस्थ काल में प्रभु प्रायः मौनधारी रहे थे। मौनम् अनुमतं
कईं बार कल्याणकारी मौन का सही अर्थ समझने में अज्ञजन असमर्थ होते हैं। गलत अर्थ लेकर अनर्थ कर बैठते हैं। जैसे कि भगवान महावीर के मौन का ग्वाले ने गलत अर्थ लगाया कि मेरे बैल इधर ही थे, इन्होंने जानते हुए भी मुझे नहीं बताया, ऐसा सोचकर उपसर्ग करने लगा। भगवान नेमिनाथजी ने विवाह की बात पर गोपियों के सामने मौन रखा तो उन्होंने 'मौनं अनुमतम्' मानकर विवाह की तैयारी कर ली। साधक के मौन को न समझ पाने में अज्ञानता के सिवाय अन्य कोई कारण नहीं हो सकता है।
साधक आत्मा के लिए मौन आध्यात्मिक अचिंत्य शक्तियों को जागृत करने का एक प्रबल साधन है। मौन इहलौकिक व पारलौकिक समग्र अर्थों को सिद्ध करने की ताकत रखता है। इस विषय में सुव्रत सेठ का दृष्टांत प्रसिद्ध है।
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दिसम्बर-२०१८ मौनम् परमौषधम्
एक घर में सास-बहु का विवाद हररोज होता था, बहु के द्वारा एक महात्मा से प्रार्थना करने पर महात्मा ने उसे अभिमंत्रित जल दिया और कहा कि जब भी जगड़ा हो तब मुँह में रख लेना, सब ठीक हो जाएगा। जल को वह बोतल में भरकर रखती थी, जगड़ा होने पर मुह में रख लेती थी। ऐसा करते-करते हररोज की शांति हो गई। यहाँ चमत्कार अभिमंत्रित के नाम से दिये गये सादे जल का नहीं बल्कि मौन का है। इस प्रकार मौन इहलोक में भी हितकारी है । बाह्याभ्यन्तर बिमारियों में परम
औषधरूप है। वर्ष का सब से बड़ा दिन मौन एकादशी
जैनदर्शन में मृगशीर्ष शुक्ला एकादशी का दिन मौन पूर्वक आराधना के कारण मौन एकादशी के रूप में प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण द्वारा २२वें तीर्थकर श्रीनेमिनाथजी को पूछे जाने पर प्रभु ने सम्पूर्ण वर्ष में सबसे बड़े व महत्वपूर्ण दिन के रूप में इसी दिन का प्रतिपादन किया था। विविध क्षेत्रों को मिलाकर कुल १५० जिनकल्याणकों का संबंध होने के कारण इस दिन की महत्ता बढ़ जाती है। इस दिन उपवास करने से १५० उपवास का फल प्राप्त होता है। इस विषय में कईं महापुरुषों ने अनेक कृतियों की रचनाएँ की हैं। उनमें से ही एक महत्वपूर्ण एवं प्रायः अप्रकाशित कृति का यहाँ प्रकाशन किया जा रहा है। __ प्रथम ढाल की प्रथम गाथा के बाद की आंकणी को दिया गया गाथांक २' हमने नहीं लिया है, क्योंकि उसके बाद की गाथा में प्रतिलेखक द्वारा पुनः गाथांक २' देने से आंकणी का गाथांक क्षति से दिया जाना संभव है। प्रस्तुत कृति में उल्लिखित तीर्थंकर नामों को Bold किया गया है तथा अशुद्ध पाठ का शुद्ध पाठ कोष्ठक में दिया गया है। कृति परिचय:
कृति के प्रारंभ में मंगलाचरण के रूप में कर्ता द्वारा माता शारदा एवं सद्गुरु का स्मरण किया गया है। मारुगुर्जर भाषा में लिखी गई इस पद्यबद्ध कृति में ६ ढाल एवं कलश दिया गया है। कृति का गाथा प्रमाण ४७ है। प्रस्तुत कृति में ढाईद्वीप के तीनों चौबीसियों के १५० जिनकल्याणकों के साथ ही मृगशीर्ष शुक्ला एकादशी की महिमा का गुणगान किया गया है ।
प्रस्तुत कृति में १५० जिनेश्वरों के नामोल्लेख के साथ कर्ता की जाप विधि दर्शाने
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December-2018 की पद्धति स्तुत्य है। उसमें उन्होंने सर्वप्रथम जाप के पद, क्रमांक के साथ बताए हैं। तत्पश्चात् कृति में विविध क्षेत्रों के तीनों काल के जिनेश्वरों के नाम दर्शाते हुए उन नामों के साथ नाथाय नमः' या 'सर्वज्ञाय नमः' जैसे पद न देकर पद क्रमांक का ही उल्लेख किया है, जिससे विषय संक्षिप्त तो हआ ही साथ-साथ नाम व जापपद समझने में आसानी भी हो गई। जाप हेतु पदों का क्रम निम्न प्रकार है
सर्वज्ञाय पहिलइ पदिइं, बीजइ अह्रार्ह)ते नाम । नमो नाथाय त्रीजइ कहुं, चउथइ सर्वज्ञ ठाम ॥३॥ नाथाय वली पंचमइ, जाप अनुक्रम एह। प्रथम जंबुद्वीप भरतना, अतीत जिन कहुं तेह ॥४॥
१५० जिनेश्वरों के जाप, पाँच पदों में करने को कहा गया है। उसमें प्रथम पद में भगवान के नाम के पीछे सर्वज्ञाय' पद जोड़कर जाप करने की बात है। दूसरे में 'अर्हते, तीसरे में नाथाय, चौथे में सर्वज्ञाय' और पाँचवे में पुनः ‘नाथाय' पद जोड़कर जाप करने का विधान किया गया है। जिस भगवान के साथ जिस पद क्रमांक का निर्देश किया गया हो, उस क्रमांक का पद जोड़कर जाप करना चाहिए। कई जगह कर्ता ने नाम के साथ क्रमांक नहीं भी दिया है, वहाँ भगवान के नाम के साथ 'जिन' शब्द से पहले पद सर्वज्ञाय' का संकेत व 'शिवसुख' जैसे शब्दों से 'नाथाय' पद के ग्रहण का संकेत हो सकता है। जिस जिनेश्वर का तीन पदों में जाप करना है, वहाँ नाम के साथ त्रिणि' या 'निहुँ' जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। यथा
श्रीय महाजस जिन जपो, श्रीय सर्वानुभूति। त्रिहुं पदे जाप एहनो, पंचमइ श्रीधर थुत्ति ॥५॥
यहाँ महाजस' जिनेश्वर के साथ क्रमांक का निर्देश नहीं है। लेकिन जिन जपो' से ही प्रथम क्रमांक के पद 'सर्वज्ञाय नमः' के जाप हेतु संकेत दिया गया हो सकता है, क्योंकि इस तीर्थंकर के साथ इसी पद का प्रयोग किया जाता है। उसके बाद गाथा में सर्वानुभूति' भगवान के नाम के साथ लिहुं पदे जाप एहनो' लिखा है। इसका अर्थ है, प्रथम के तीन पद के साथ इस भगवान का जाप करना है, यथा- 'श्रीसर्वानुभूति सर्वज्ञाय नमः, श्रीसर्वानुभूति अर्हते नमः, श्रीसर्वानुभूति नाथाय नमः' । 'श्रीधर' प्रभु हेतु पंचमई लिखा है। पाँचवा पद 'नाथाय' का है। अर्थात् यहाँ श्रीधर नाथाय नमः' का जाप करना है। इस प्रकार सम्पूर्ण कृति में जाप क्रम समझ लेना है।
जापक्रम बताकर कर्ता द्वारा मौन एकादशी दिन हुए कल्याणक वाले १० क्षेत्रों
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दिसम्बर-२०१८ के तीन काल के जिनेश्वरों का पदक्रम सह नाम स्मरण किया गया है। उसमें खंडक्रमजंबुद्वीप, धातकीखंड व पुष्करावर्तद्वीप है। क्षेत्रक्रम- भरत व ऐरवत है। काल क्रमअतीत, वर्तमान व अनागत है। जिनेश्वर नामों की संख्या ९० प्राप्त होती है। उनमें से किसी का १, किसी के २, किसी के ३ आदि कल्याणक होने के कारण कुल १५० कल्याणक होते हैं। इस कृति का अध्ययन करने से विविध क्षेत्रों के तीनों चौबीसियों के उपरोक्त जिनेश्वरों का मंगल स्मरण हो जाता है। कर्ता ने कृति के अंत में भी आराधना हेतु विधि, फलश्रुति व संदेश देते हुए कहा कि
अढाइद्वीपि मझारि, दश क्षेत्रे जिन ए धुंणुं ए। जिम लहो परिमाणंद, मौनधर गुणणुं गणो ए॥४३॥ पोसह करो अहोरत्त, वरस एकादशि लगि सही ए। पछइ ऊझवणुं भावि, करीइ विधि एणी परि कहीइ ए॥४४॥ लही मानव भव सार, उत्तमकुल पामी करी ए। सुद्ध धरम समकित्त, आराधो उल्हट धरीइ ए॥४५॥ ए तपथी बहुमान रिद्धि वृद्धि सुख संपदा ए। पामइ प्रगडु न्यान, उदय हुइ अधिको सदा ए॥४६॥ मौन एकादशि तप निज मन रसि, वशि करी करो जिन ध्यान। त्रिकरण सुद्धिइं उत्तम बुद्धिइं जिम दिइ शिववधू मान।
जिससे परमानंद की प्राप्ति होती है ऐसे ढाईद्वीप के १० क्षेत्र के जिनेश्वरों के जाप मौन पूर्वक करने चाहिए। मनुष्य जन्म एवं उत्तमकुल प्राप्त करके तप सह, मन को वश में रखकर, जिनेश्वरों के ध्यान के साथ, त्रिकरण शुद्धि, उत्तम बुद्धि से, उल्लास व समकित शुद्धि युक्त मौन एकादशी की आराधना अहोरात्रि पौषध के साथ ११ वर्ष तक करनी चाहिए। आराधना के बाद उद्यापन भी करना चाहिए। इस तप के प्रभाव से यश, ऋद्धि, सुख संपदा, प्रगट ज्ञान व शिववधू की प्राप्ति होती है।
कृति में रचना वर्ष का विवरण अनुपलब्ध है। प्रत का लेखन वि.सं. १६८० होने से रचना उससे पूर्व होनी स्वाभाविक है। कर्ता की विद्यमानता के बारे में अंतिम वर्ष वि.सं. १६८५ के प्रमाण मिलते हैं । एक संभावना यह भी है कि जो लेखन वर्ष है, वही उसका रचना वर्ष भी हो। कर्ता परिचय:
इस कृति के कर्ता तपागच्छीय श्रीकल्याणकुशलजी के शिष्य गणि दयाकुशल
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December-2018 है। इनके दादागुरु का नाम मेहमुनि एवं परदादागुरु हीरसूरीश्वरजी महाराज है। इस कर्ता की अन्य कृतियों में- ६३ शलाकापुरुष रास, तीर्थमाला, विजयसेनसूरि रास, श्रीविजयसिंहसूरीश्वर-पदमहोत्सव रास जैसी बड़ी महत्वपूर्ण कृतियों के साथसाथ अन्य लगभग ११ कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इसमे 'विजयसेनसूरि रास' वि.सं. १६४९ में (अकबर की मृत्यु से १२ वर्ष पूर्व रचा गया होने से) इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है। कर्ता का 'तीर्थमाला स्तवन' जिसका रचना वर्ष वि.सं. १६७८ है, इसका संपादन वि.सं. २०६९ में 'रास पद्माकर भाग-२' में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा द्वारा किया गया है। कर्ता की पर्व कृतियों में 'पंचमीतिथि स्तवन' का भी समावेश होता है। कर्ता की अद्यपर्यन्त प्रायः अप्रकाशित कृतियाँ ४ हैं यथा
१. शनुजयमंडन श्रीआदिजिन स्तवन (गाथा १५) २. नेमराजिमती गीत (गाथा ६) ३. पंचमीतिथि स्तवन (गाथा २१) ४. शांतिजिन स्तवन (गाथा ३२)
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में इन चारों कृतियों में से आदिजिन स्तवन की 3 प्रतें व अन्य सभी की एक-एक प्रत उपलब्ध है।
(दयाकुशल नाम से कई विद्वान हुए हैं। उनमें गुरुनाम व गच्छनाम से रहित दयाकुशल भी प्राप्त होते हैं, परन्तु उनके कल्याणकुशल के शिष्य होने का कोई प्रमाण न मिलने के कारण ऐसे दयाकुशल की ६ कृतियों का यहाँ समावेश नहीं किया गया है।)
कर्ता का समय वि.सं. १६४९ से वि.सं. १६८५ के आसपास का माना जाता है। (वि.सं. १६८५ का वर्षोल्लेख 'श्रीविजयसिंहसूरीश्वर-पदमहोत्सव रास' से प्राप्त होता है) प्रत परिचय:
प्रस्तुत कृति का संपादन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की एक मात्र हस्तप्रत क्रमांक- २९७८१ के आधार पर किया गया है। प्रत के अक्षर बड़े, सुंदर व सुवाच्य हैं । प्रत का लेखन स्थल श्रीद्वीपबंदर उल्लिखीत है। आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में प्राप्त सूचनाओं के आधार पर 'श्रीद्वीप' एवं 'द्वीप' का उल्लेख चार हस्तप्रतों में (लेखन स्थल के रूप में) पाया गया हैं। हस्तप्रतों
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दिसम्बर-२०१८ में प्राप्त श्रीद्वीप, द्वीप एवं द्वीपबंदर जैसे नाम दीव बंदर के ही पर्यायवाची होना संभव है।
प्रत का लेखन समय वि.सं. १६८० चैत्र कृष्ण पक्ष १३ सोमवार है। प्रत की स्थिति श्रेष्ठ है। प्रत के अन्तर्गत विशिष्ट पाठों को लाल रंग से highlight किया गया है। अंक व दंड को लाल स्याही से लिखा गया है व पत्रांक स्थानों में सादा रेखा चित्र बने हुए हैं। पन्नों के बीच अक्षरमय वापीयुक्त फुल्लिकाएँ बनाई हुई हैं। प्रत के प्रत्येक पन्ने की ऊपरी पंक्तियों में की गई कलात्मक मात्राएँ प्रत की शोभा में चार चाँद लगा देती हैं।
प्रत लेखन काल के बाद कर्ता का विद्यमान काल कम से कम ५ वर्ष का होने के प्रमाण मिलते हैं। यह प्रत रचना के निकटतम समय में लिखित होने से आदर्श प्रत के रूप में मानी जा सकती है। प्रत में प्रतिलेखक का उल्लेख अनुपलब्ध है, परन्तु प्रत के प्रारंभ में मंगल के रूप में प्रतिलेखक द्वारा कर्ता के गुरु को नमस्कार किया गया है यथा- 'पंडित श्री कल्याणकुशल गणि सद्गुरुचरणकमलेभ्यो नमः' इससे यह संभवित है कि यह प्रत कर्ता ने स्वयं लिखवाया हो या उनके शिष्य ने लिखा हो । अंत में प्रतिलेखक द्वारा कुछ गूढ शब्द जैसे लिखे गए हैं यथा- “णंबिनग्रीक्षझाहुघठकिख्य। सपिठ सनि शुक छेत” | इसमें क्या कहना चाहते हैं, वह सुज्ञजन संशोधन करके स्पष्ट करने का कष्ट करें।
गणि दयाकुशल कृत मौनएकादशी १५० जिनकल्याणक स्तवन GO॥ पंडित श्री कल्याणकुशल गणि सद्गुरुचरणकमलेभ्यो नमः॥
॥चेतन चेतन प्राणीआ ए ढाल ॥ शारद पय प्रणमी करी, सहि गुरु सुपसाइ। मौन एकादशी व्रत भणुं, जेहथी सुख थाई भवि भावि आराधीइ, कल्याणक दिन एह। अढीद्वीपमां डोढसो, जिन जपीइ तेह
॥भO॥आंकणी॥ हुआ संप्रति जे हुसिइं, भरत ऐरवत मांहिं । त्रिण्णि कल्याणक एणइ दिनिइं, कहुं मनि उच्छाहिं
भवि० ॥२॥
॥१॥
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December-2018
भवि० ॥३॥
भवि0 ॥४॥
भवि0 ॥५॥
भवि० ॥६॥
भवि० ॥७॥
भवि० ॥८॥
SHRUTSAGAR सर्वज्ञाय पहिलइ पदिई, बीजइ अह(ह)ते नाम । नमो नाथाय त्रीजइ कहुं, चउथइ सर्वज्ञ ठाम नाथाय वली पंचमइ, जाप अनुक्रम एह। प्रथम जंबूद्वीप भरतना, अतीत जिन कहुं तेह श्रीय महाजस जिन जपो, श्रीय सर्वानुभूति । त्रिहुं पदे जाप एहनो, पंचमइ श्रीधर थुत्ति वरतमान जिन भरतना, श्रीनमि जिनराज । श्रीमल्लि पदि त्रिहुं जपो, अर शिवसुख काज अनागत जिन भरतना, स्वयंप्रभ देव। वार त्रिण्णि देवश्रुत जपो, उदय जिन करुं सेव धातकीखंडमां भरत जे, पूरव दिशि जाणि। अतीत चउवीसी जे हुआ, जिन तेह वखाणि अकलंक पछइ शुभंकरु, त्रिण्णि पदि अभिधान । श्री जिन सप्त पछइ भणुं, चउवीसी वरतमान श्री ब्रह्मेद्र जिन सहु जपो, त्रिण्णि पदि गुणनाथ। गांगिक पछइ अनागत, जिन शिवसुख साथ श्रीसंप्रति जिन प्रणमीइ, मुनिनाथ वार त्रिण्णि। विशिष्ट हवइं पुष्करारधि(धि)इं, पूरव भरत ते धन्य अतीत चउवीसी वंदीइ, श्रीअ समृद्दि रंग। वार त्रिण्णि व्यक्त सही जपो, कलाशत जिन चंग वरतमान आराधीइ, अरण्यवास जिनंद। योग जपो पद त्रिण्णिसुं, अयोग जिन सुखकंद हवइं अनागत जिन थुगुं, श्रीअ परम जिनराज। श्रीअ शुद्धाति त्रिहुं पदिइं, निष्केश सुख काज
॥रुअडो राज हंस रे, ए ढाल॥ धातकीखंडिइं पश्चिम भरत वखाणीइ रे, अतीत चउवीसी जेह। सरवार्थ जिन पछइ हरिभद्र त्रिहुं पदिइं रे, मगधाधिपस्युं नेह
भवि० ॥९॥
भवि0 ॥१०॥
भवि० ॥११॥
भवि० ॥१२॥
भवि० ॥१३॥
भवि० ॥१४॥
॥१५॥
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॥२०॥
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१८ श्रीजिनवंदीइ रे, जिम लहीइ कोडि कल्याण । परमपद पामइं ते भाविइं भविजना रे, जे पालई जिन आण श्रीजि0 ॥१६॥ श्री प्रयच्छ जिन वरतमान चउवीसीई रे, वार त्रिण्णि अक्षोभ । मलयसिंह पछइ अनागत जिन थुगुं रे, श्री दिनरुक दिइ थोभ श्रीजि0 ॥१७॥ त्रिण्णि पदिइं श्रीजिन धनद जापिइं जपो रे, श्रीपौष नमुं पाय। पुष्करद्वीपिइं पश्चिम भरतिइं जिन धुंणुं रे, अतीत चउवीसी भाय श्रीजि0 ॥१८॥
॥ मंगल कमला कंद, ए ढाल ॥ श्रीप्रलंब प्रभु हुं भणुं ए, चारित्रनिधि पदि त्रिहुं थुगुं ए। प्रशमराजित जिन नाम ए, वरतमान चउवी ठाम ए
॥१९॥ श्रीस्वामि जिनराजीउ ए, विपरीत त्रिहुं पदि गाजीउ ए। श्रीअ प्रसाद जिन हुं थुगुं ए, अनागत चउवीसी ते भणुं ए श्रीअ अघटित जिनभाण ए, भ्रमणेन्द्र ज त्रिण्णि ठाण ए। श्रीअ ऋषभचंद्र सुखकंद ए, जे आपइ परिमाणंद ए
॥२१॥ वली जंबूद्वीपिइं जिन कहुं ए, ऐरवतक्षेत्रइं जिम सुख लहुं ए। अतीत चउवीसी जे कहीए, श्रीदयांत जिनजी सही ए त्रिणि पदि अभिनंदन नमुंए, रत्नेश जिन चरणे रमुंए। वरतमान चउवीसी संभारीइ ए, श्रीश्यामकोष्ट जिन सुख दीइ ए मरुदेवी त्रिण्णि वार ए, अतिपार्श्व दिइ भवपार ए। अनागत चउवीसी संभारीइ ए, श्रीनंदिषेण जुहारीइ ए व्रतधर जिनवर त्रिहुं पदिई ए, निरवाण जिन सुखसंपदिइं ए। धातकीखंड पूरवदिशिइं ए, ऐरवति अती चउवीसीइं ए
॥नयर द्वारावती जाणीइ, ए ढाल ॥ तिहां तणा जिन सही \j, सौंदर्य जिनेश। त्रिविक्रम पदि त्रिहुं जपो, नारसिंह पभणेश ए उत्तम एकादशी, मागशिर सुदि जेह। जनम दीक्षानइ नाण तिहां, आराधो तेह
ए उत्तम० ॥२७॥
॥२२॥
॥२३॥
॥२४॥
॥२५॥
॥२६॥
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December-2018
ए उत्तम० ॥२८॥
ए उत्तम0 ॥२९॥
ए उत्तम० ॥३०॥
ए उत्तम० ॥३१॥
ए उत्तम0 ॥३२॥
ए उत्तम० ॥३३॥
SHRUTSAGAR वरतमान चउवीसीइं, खेमंत जिनंद। संतोषित प्रभु त्रिहुं पदिइं, काम जिन सुखकंद अनागत चउवीसीइं, मुनिनाथ मयाल । चंद्रदाह ते त्रिहुं पदिइं, दिलादित्य दयाल पुष्करवरद्वीपह तणुं, ऐरवत जे खेत्त। पूरवदिशि जे जिन हुआ, पभणुं पुण्य हेत अतीत चउवीसी सांभलो, अष्टाहिक आनंद । वणिक् वार त्रिण्णि वंदीइ, श्रीऊदय जिनचंद वरतमान जिन पूजीइ, जिनजी तमोकंद। सायकाख्य त्रिण्णि पद धणी, खेमंत जिनचंद अनागत आराधीइ, निरवाणी जिनराय। त्रिहुं पदे रविराज जे, पूजो प्रथम जिन पाय धातकीखंड पश्चिम दिशिइं, क्षेत्र ऐरवत नाम । तिहां तणा जे जपइ, सीझइ तस काम अतीत चउवीसी जिन भला, श्रीपुरुरवास । श्रीअवबोध जिन त्रिहुं पदे, विक्रमेंद्र उल्हास वरतमान जिन हित करु, सुशांति थुणेसि । त्रिहुं पदिइं हर प्रणमीइ, नंदिकेशि वंदेसि
अनागत अरिहंत जे, श्रीअ महामृगेंद्र । त्रिहुं पदिइं अशोचित थुणो, वंदो श्री द्रमेंद्र
॥ अतिशय सहजना च्यार, ए ढाल ॥ पुष्करद्वीपि मज्झारि, पश्चिम ऐरवत सार। अतीत चउवीसीअ कहीइ, अश्ववृंदथी सुख लहीइ कुटलिक जिन त्रिण्णि वार, वर्द्धमान जिन सुखकार । चउवीसी वरतमान, श्रीनंदिकेश प्रधान त्रिण्णि पदिई धरमचंद्र, विवेक नमतां आनंद। अनागत जिनभाण, मानो कुलापक आण
एउत्तम०॥३४॥
ए उत्तम0 ॥३५॥
ए उत्तम० ॥३६॥
ए उत्तम० ॥३७॥
॥३८॥
॥३९॥
॥४०॥
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॥४१॥
॥४२॥
॥४३॥
दिसम्बर-२०१८ विसोम त्रिण्णि पदि कहीइ, आरणथी सुख लहीइ। डोढसो जिनवर नाम, जपतां शिवसुख ठाम
॥राग धन्यासी। अढाइद्वीप मझारि, ए ढाल ॥ भाविइं भविअण जेह, ए व्रत मनसुद्धिइं धरइ ए। निश्चइं सुख लहइ तेह, छेहलइ सिद्धिवधू वरइ ए अढाइद्वीपि मझारि, दश क्षेत्रे जिन ए थुगुं ए। जिम लहो परिमाणंद, मौनधर गुणणुं गणो ए पोसह करो अहोरत्त, वरस एकादशि लगि सही ए। पछइ ऊझवणुं भावि, करीइ विधि एणी परि कहीइ ए
॥४४॥ लही मानव भव सार, उत्तमकुल पामी करी ए। सुद्ध धरम समकित्त, आराधो उल्हट धरीइ ए ए तपथी बहुमान रिद्धि वृद्धि सुख संपदा ए। पामइ प्रगडुं न्यान, उदय हुइ अधिको सदा ए
॥ कलश॥ मौन एकादशि तप निज मन रसि, वशि करी करो जिन ध्यान । त्रिकरण सुद्धिइं उत्तम बुद्धिई, जिम दिइ शिववधू मान । कल्याणकुशल पंडित गुणमंडित, तपगछि शोह चढावइ । दयाकुशल कहइ पुण्य पसाइं, मनवंछित सुख पावइ
॥४७॥
॥४५॥
॥४६॥
इति श्रीमौनएकादशी दिने डोढसो जिन कल्याणक स्तोत्रं संपूर्णमिति श्रेयः॥ संवत् १६८० वर्षे चैत्र वदि १३ सोमे। श्रीद्वीप मध्ये लिखितं॥ णंबिनग्रीक्षझाहुघठकिख्य। सपिठ सनि शुक छेत ॥ परोपकाराय॥
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December-2018
SHRUTSAGAR सोळमा शतकनी गुजराती भाषा
मधुसूदन चिमनलाल मोदी (गतांकथी आगळ...) इजिस्नि [Notes. P. १४ $ १४९]
ईणि प्रकारि तेह उत्तम नरनि विषइ। उत्तमपणू तेह उपरि प्रसाद पामुं ॥ ये अमरहिं निर्मलपणूं लाभमंत पंथा मार्ग सीखवि कहिएक-रहिन्मस्कार ॥ एह भुवनमाहिं। ये इहलोकीआ अनि परलोकीआ रहिं। एह कारण तु सतावनर्मि वरसि ॥ प्रगट बुद्धिये किल सत्य निर्मलतरि पाछलि सरीरिं वडपण हुइ॥
श्री. नरसिंहराव दीवेटिया (Gujarati Language and Literature Vol. II P. 51) आ ग्रन्थना फकरामांनी नोंध लेतां कहे छे “The language of these extracts is obviously of a period before or after 1500 V. S. श्री. दिवेटियाना अवतरणमां स्वरयुग्म अउनो ओ थयानो दाखलो छे. (भलउने स्थाने भलो) आ हाथप्रतनी लखाया साल मालुम नथी पण भाषा पंदरमा सैकानी होइ लखाण सोळमाना अंतभागनुं स्वरयुग्म अउ=पामुं, निर्मलपणूं; स्वरयुग्म अइ-प्रकारि, नरनि, अह्नरहिं, सीखवि (/ सीख व. का. ३ ए. ) हजु व. का. ३. ए. हजु स्वरयुग्म अइनो ए मांथी नथी। ____ आज काळनां लखाणमां सोमदेवनी उपदेशमालानी कथाओ, योगशास्त्रनी कथाओनो समास करी शकाय। आ लखाणोनी हाथप्रत पण जो ते काळनी एटले पंदरमा सैकाना अंतनी होय तो क्रियापदना रूपमा अइनो इ अने नामनां विभक्ति रूपमां अइनो इ तेमज ए देखा दे छे । अउनो उ तो छ ज पण ओ य ठीक प्रमाणमां देखा दे छ । (दा.त. प्राचीन गुर्जर गद्य संदर्भ. पा. ७४ गजसुकुमालकथा). पृथ्वीचन्द्र चरित्र सं. १४७८मां तो भाषानूं जूनुं स्वरूप जळवाइ रहेलुं छे।
इजिस्निमांनो सोळमानो अंतनो अने सत्तरमा सैकाना शरूआतनो भाग P. 14 Notes $ 177 थी मने लागे छे; कारण के रहिनो प्रयोग अदृश्य थाय छे अने तेनी जगा नि के ने (=जूनुं नइं) ले छे । स्वरयुग्म अइना ए अने इना सहप्रयोग दीठामां आवे छे । दा. त.
इजिस्त्रि [Page. १९ Notes $ १८०] जे तेवारि पुण्य करि प्रकटताइ ते साथे मली राज्यपणुं छे निश्चि अंते तेनि
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श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१८ विषि ते कालने विषे राज्य संपूर्ण होइ ॥ जे वारे सवलो टोलु बेहेस्ती रूबाआंननु अंन नाश पामतु थकु रुडि परकारि आवशे निश्चि आत्मनी फरिथि देहे धरसे ॥ तिहेने विप्रसिद्धि जे तमो तिणीए महाज्ञानी प्ररोहि कितां अंकोर रोपेउ निश्चि दिननि प्रकति संपूर्ण हशि अत्थे ति कालनि विषि ॥ __ऊपरना भागमां लखाणमां स्वरयुग्म अइनो ए अने इनो सहप्रयोग अने अउनो ओ अने उनो सहप्रयोग मालुम पडे छे। आना टेकामां लेखपद्धति (गा. ओ. सी. नं. १९ पा. ७१-७२.)मांना क दस्तावेजनी भाषा टांकु छु । आ दस्तेवेज लखायो: संवत् १६१८ वरषे ज्येष्ठ वदि ६ रवउ देह नटपद्रस्तानमाहा=सं. १६१८ जेठ वद छठ अने रविवार; नडिआदमां आ दस्तावेज सत्तरमा सैकानी शरूआतनो छे एटले इजिस्निना उपला फकराने मळती तेनी भाषा होय तो नवाइ नथी।
तलावि पाणी सहीआरे नही। तथा ऊघराणी जनी पूजमनी छि तो जिम आवि तिम अरधे अरधि लि। बिजू भोम दो. जनावाली राणा वणा एमना पासे छे। बीजे पासे पडोस दवे नाग जोगीदासना पासे छे । बीजू भोम नवा गाम माहेली तलीआनी छे ते काही भरमपोरे आपी। बाकी छे ते अजमाल छे । उघराणी तथा भोम मजम छे। बाकी कोई ए वरा केहीने कसू सरसमंध नही। ए वहेचण दो०३ विसीने समजावा जोईने भाग जोए मलकत आवी ते मलकत तेहनी। ए लखू फेरवे ते तेहेना बापनो जणो नही। आज सूधी कोईने केईसू कसो अलाखो नही। तलाव पाणी सहीआरो नही। ए लखू परमाण।
ऊपरना अवतरणमां देखाई आवशे के स्वरयुग्म अइ इ अने ए वपराया छे। अउ ऊ अने ओ थएला जणाय छे। जूना अनुषंगी शब्दो (Post-positions) नो पूरेपूरो अभाव छ । आथी सिद्ध थाय छे के आ भाषा ईजिस्निना ऊपरना बीजा अवतरणनी भाषा साथे समान छ। ऊपरना दस्तावेज पहेलांना दस्तावेज अनुक्रमे शाके १४६५=सं. १५९९ अने सं. १५८३ना छे; जेमां सं. १६१८ना दस्तावेजनी विशिष्टताओ देखाती नथी। आ दस्तावेजनां अवतरण अत्रे प्रस्तुत छे एटले आपुंछु:
ग्रहणकपत्रम् । (लेखपद्धति गा. ओ. सि.) सं.१५९९:
ए घर पडई आखडई राजकि दैवकि लागई ते तथा नलियाखोटि घणी छोडवतां सर्व वरती आपई। संचरामणी वसनाहारनी। जां लगइ टंका आठ सहनि चिडोत्तर आपइ तिहारइं छुटइ । तां लगइ भाइ ३ पदमा रंगा उदयकरण वसइ वासइ।++++ मोदी नारायमदास तापीदासे घरग्रहणे ++ रङ्गा कह्नइ मूक्यां।
स्वरयुग्म अइ=अई, अइ क्रियापदमां; विभक्तिप्रत्ययोमा त्रीजी अने सातमीमां ए, इ, अइस्वरयुग्म अउ ऊंउ; ओ नथी। जूना अनूषंगी शब्दो अदृश्य छे । जोडणीनी वैकल्पिकतानुं एक ज दृष्टांत आपुं; नाराइणदास; नारायणदास नाराणदास-कदाच
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SHRUTSAGAR
December-2018 छल्लामांथी य ऊडी गयो होय।
भूमिविक्रयपत्रम् (ले. प. पा. ६९ गा. ओ. सी) सं. १५८३
सो. लहूइ, लाडणइ, शंधइ, काशीइ उत्पन्नकार्यवशतु आपणी भूमि साह सामलना पाडा मध्ये हूती ते भूमि राज्यटका ८०४ आंक आठसई चिरोत्तर माटइ वेचाती परी० आसा रवा जादव लाखा सारणनई आपी सही। ++++ ए भूमिनई कीधई को दावु करई तेहनई लहूआ लाडण शंघा काशी प्रीछवई।। _स्वरयुग्म अइ=अई अइ; इ थयानो दाखलो नथी। अउ उ अऊ ओनो दाखलो नथी। तु (तउ मांथी); माटइ (=जूनो प्रत्यय निमित्तइ) कीधइ (=ने माटे) आ त्रण अनुषंगीओमांथी तउ एकलो जुनो छे अने बीजा अनुषंगी शब्दो अत्यार तरफनी भाषाना घडतर तरफ गमन बतावे छे।। __ऊपरना लेखनी साथे सं. १५८३नो बीजो लेख ऊमेरवाथी हुँ जे लेखन प्रकारनी वैकल्पिकता पर भार मूकवा मागु छु ते वधारे बळ पकडशे। गू. व. सोसायटीनी हाथप्रत भगवद्गीता-गुजराती भाषांतर साथे संवत् १५८३ वर्षे अषाढ वदि ८ गुरे लखितं वृद्धनागर ज्ञातीय मेघजीसुत आसघर तथा मांडणजी स्वयं पठनार्थे शुभं भवतु (हा. प्र. पत्र. १८०)
हाथप्रत. पत्र. १९ अंतवंत इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद् युद्ध्यस्व भारत ॥
जन्ममरणशून्य ये आत्मा अप्रमेय किहितां कोणि कल्यु न जाइ। एहवु सत्यस्वरूप सदाए नित्य । आनंदवंत आत्मा तु तेहना ये देह ते सदाए कुडा। सदाए नाशरूप । सदा अंतवंत लोकमाहि देहनु नाश द्विविध छि। एक तां बाली राष कीधु । पुठि नाश पाम्यु कहीए। लोक कहि । जीवनि मृत्यु छि। बि प्रकारनु नाशि। वली... अर्जुनना मननुं बिनु संदेह टालि छि। कीहुसंदेह । अर्जुन एम जांणे छिये भिष्मादिक मि मारवा छि। हुं एहनुं हंता वधनु कर्ता । अर्जुन एतां ताहारी बुद्धि कुडी ते शा मटि।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी, निवासः शरणं सुहृत् । प्रलयः प्रभवः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥
गति कहेतां कर्मनां फल ये स्वर्गादिक ते अहं । भर्ता पोषणनो कर्ता ते अहं । प्रभुः स्वामी ते अहं । लोक शुभाशुभ कर्म करे तेहनी साक्षी ते अहं। समस्तप्राणीमात्रने नीवास ते अहं । शरणागतना दुःखनो हर्ता ते अहं । सुहृद कहेतां जीव मंदभाग्यनो उपगार वांछू नही। अनि उपगारनी कोडि करुं। विश्वने उत्पत्ति ते अहं । सरवने प्रलय करूं ते अहं । माहारा उदरने विषे संवरी सर्वने राषु । पछे आपापणा कर्मबीज
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दिसम्बर-२०१८ आपुं। अर्जुन माहारो मोटम्य वली सांभले ॥ (हाथप्रत पा. ९५) ।
स्वरयुग्म अउ ओ अने उ अइ=ए अने इ; भाषा अर्वाचीनता तरफ ढळे छ। पारसी लखाणना हवे पछीना अवतरण साथे सरखावतां शैलीनी अने जोडणीनी एकता मालुम पडे छे । आ लखाण ते काळना उच्चारनु अनुबिंब छे; परंपरागत प्ररूढ लेखन प्रकारनु अनुबिंब नथी।
आ बधायनी साथे सं. १६१३नो श्री भोगीलाल सांडेसराए नोंघेलो (गुजराती. ता. १७-१२-३३. पा. १८२४) अहिं टांकु छु:
संवत. १६१३ वरते सावण सु. १ सोमे श्री दोवान शक झालावाडि पातशा श्री अहिरिमिरवजिराजे ताइत हजरत सलेमानषा श्री अतमेतपान अहीदिमर श्री हजेबर मलेक अमल हवालि मुस्तफ फल मलक अगध.मं. श्री रंगवला परगणे वढवाण श xx णि रा. श्री आसलल्ली सागण पुषठ श्री अबवल हलीम अबदल हसान कसबि मजकुरमा पसाइता कोटिआ वा. तलाविआनो वजे आवि ते तलावीआ तलावे कोटे खरचि ए वात लोपिते दल हीदआणे गाइ तरकाणि सूअर ए परठ हजुर देसाइ भूला व वघजी व. जशा भानजी एको विध लोपे तेने गधाड गालि।
स्वरयुग्म अइ= इ, ए दा. त. आणे, लोपे, तेने, आवि, लोपि, कसबि ई० स्वरयुग्म अउ ओ दा. त. तलाविआनो, एको ई० आ लेख वढवाणनो छे। सं. १६१८नो नडिआदनो दस्तावेज टांकेलो छे तेने मळती ज आ भाषा छ ।
सं. १६२१ नो बीजो लेख भाइश्री सांडेसराए आप्यो छे ते नीचे आपुं छे:
संवत् १६२१ वर्षे वैशाख सदि १२ गुरु वडली मधे भटारक श्री वजइदान सूरिनूं नरवाण हवं तथा पदिकमल पूजा करि तथा नरवाण अवि तेहनि श्री वजइदानसूर वादानी आखडी मुकाअछि।
आ लेखमां अइ=इ दा. त. करि, आवि; छि; तेहनि ई, वादानी;=ए मधे; अउ ऊं दा. त. हवू-इनो अ अने अनो इ थवो दा. त. बजइदान; पदिकमल; नखाण=निर्वाण आ लेखनो सारामां सारो प्रयोग कर्मणिनो दाखलो छे: मुकाअ मूकाय; जूना अनुषंगी शब्दोनो उपयोग नथी।
सं. १६५०नो अमरेलीनो लेख (पुराततत्व. पु. प. अं. २ पा. १२१)
संवत १६५०नो वरषे भादरवा सद १३ दिने श्री दीवानखान श्री नवरंगखन हवाले प्रगणे अमरेली मीर श्री मिहमद हुसेन आहिशन नवापुरना महाजन समत जोग जत तमनि विठ माप छ हीदवाण गय लुकणे सुहर भागे तेने गधेडे गाल ॥
आ लेखमां स्वरयुग्म अइ=ए; जोके विठ तमनि इत्यादि रूपो पण साथे साथे छ। छ ए कदाच छे होय; कारण के सं. १६१८ना लेखमां छेनो प्रयोग घणो ज छे।
संवत. १७०८ नो दस्तावेज लेखपद्धति पा. ७३ मां छे तेमां अर्वाचीनता जोईए तेटली छे; सं. १७१५ अइइ छे पण साथे साथे = ए पण छे; अने अउ ओ पण
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SHRUTSAGAR
December-2018 छे (पा. ७६. सदर); तेज प्रमाणे सं. १७२४ ना दस्तावेजनी पण विशिष्टताओ छ। (सदर. पान. ७४.) इजिस्नि MFL. हाथप्रत जेने हुं सत्तरमां सैकाना मध्य भागनीकदाच जरा पहेलांनी पण-गणुं छु, तेमांथी नीचे एक फकरो टांकु छु:
इजिनि । पा.२७. Notes; पेरा २५३:
एम ए ने मारां मनीश मरी छे। एवं प्रकार कुरु जे पृथ्विने विषेथी तेने सर्वने परलोकने करु। ए श्रेष्ठनु द्रुज नाशने करि छ। ए दुष्ट ज्ञानि छे ते प्रतिपक्ष सृष्टि स्वामि करे छे । तुल्यता नाशनो करनारो। आर्हमन छे । मारानि आकर्षण करु छु। पुण्यनि उत्तमनि प्रगट पामि करोमि ॥ ।
आ अवतरणां अइ=इ अने ए रूढ छ; अउ ओ अने उ पण रूढ छ ।
सत्तरमा सैकानां गद्य लखाणो में भंडारोमां भरपूर प्रमाणमां जोयां छे। प्रसिद्ध थएलां लखाणोमां सत्तरमां सैकाना मध्य भागनां 'कादंबरीनुं गद्यकथानक' (पुरातत्त्व पु. प. अ. ४. पा.२५६) अकबर समकालीन भानुचंद्र विरचित, तेज कालनी 'वेतालपचीसी' (गद्य) सं. जगजीवन दयाळजी मोदी तेमज पं. लब्धिसागर गणीना 'चार बोल' (पुराततत्व पु. ३. अं. ४. पा. २८१-पा. २९८) वाचके जोवां । केटलाक ग्रंथोमां जूना लेखन प्रकारनुं बल व्यापेलं जोवामां आवशे; पण साथे साथे वाचकने जूना अनुषंगी शब्दोनो अभाव, अइनो इ अने खास करीने ए तरफ वलण, अउन मोटे भागे ओ तरफनं वलण इत्यादि विशिष्ट लक्षणो पण देखाशे। खास करीने कादंबरी कथानक जोडणीने अंगे जोवा जेवू छे । सत्तरमा सैकानां लखाणनुं विचेचन आ निबंध माटे अप्रस्तुत छे, एटले तेनी चर्चा अहिं करवी ए ठीक नथी।
(क्रमशः)
- श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादनकार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उसका उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे.
निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर)
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दिसम्बर-२०१८
पुस्तक समीक्षा
रामप्रकाश झा
पुस्तक नाम संपादक संशोधक
प्रकाशक
अर्हन्नामसहस्रकम् मुनि धर्मरत्नविजयजी मुनि धर्मरत्नविजयजी मानवकल्याण संस्थान, अहमदाबाद विक्रम २०७३ २५०/संस्कृत एवं गुजराती
प्रकाशन वर्ष
मूल्य
भाषा
परमात्मा के नामस्मरण में अद्भुत शक्ति होती है, जिसके द्वारा जीवों का आध्यात्मिक विकास सरलतापूर्वक हो सकता है। जब भी परमात्मा के नामों का स्मरण किया जाता है, तब उस नाम में स्थित गुण आँखों के समक्ष तैर जाते हैं। अपने दोषों का स्मरण करते हुए उन गुणों को प्राप्त करने की अभिलाषा तीव्र बन जाती है
और इसके कारण जीव उस परमात्मा की शरणागति स्वीकार करता है। नाम स्मरण में यदि मन, वचन और काया एकाग्र हो जाए तो ध्यानयोग की अवस्था प्राप्त होती है। यह अवस्था प्राप्त होते ही आत्मविषयक भ्रान्तियों का निराकरण हो जाता है और श्रद्धा दृढ बनती है। उसके बाद पौद्गलिक भावों में राग-द्वेष के परिणाम मन्द पड़ जाते हैं। इस प्रकार जीव को राग-द्वेषरहित अवस्था प्राप्त होती है। ।
परमात्मा के नामस्मरण को ध्यान में रखकर अनेक कृतियों की रचना की गई हैं, जिनमें प्रभु के १०८ अथवा १००८ नामों की महिमा का वर्णन किया गया है। इन कृतियों की विशेषता यह है कि परमात्मा के मात्र नाम न होकर उनकी विशिष्ट महिमा को दर्शानेवाले विशेषणों के द्वारा स्तवना की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में १००८ नामों वाली कृतियों का संग्रहकर उन्हें प्रकाशित किया गया है। इनमें से कुछ कृतियाँ तो प्रकाशित हैं परन्तु कुछ अप्रकाशित भी हैं। उन कृतियों को यथासम्भव संशुद्ध कर प्रकाशित किया गया है। इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम उपाध्याय देवविजयजी गणि द्वारा रचित स्वोपज्ञ
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SHRUTSAGAR
December-2018 टीकायुक्त अर्हन्नामसहस्रकम् प्रकाशित किया गया है, उसके बाद कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित अर्हन्नामसहस्रसमुच्चय, श्री विनयविजयजी द्वारा रचित जिनसहस्रनाम स्तोत्र, उपाध्याय श्री यशोविजयजी द्वारा रचित सिद्धसहस्रनामकोश, आचार्य श्री कल्याणसागरसूरिजी द्वारा रचित श्री पार्श्वनाथ सहस्रनाम स्तोत्र, अज्ञातकर्तृक श्री पार्श्वनाथ सहस्रनाम स्तोत्र, दिगम्बर आचार्य श्री जिनसेनाचार्य द्वारा रचित जिनसहस्रनाम स्तोत्र, पंडित आशाधर द्वारा रचित जिनसहस्रनाम स्तवन, श्री जीवहर्षगणि द्वारा रचित जिनसहस्रनाम स्तोत्र, पंडित बनारसीदास द्वारा रचित भाषासहस्रनाम आदि नौ कृतियाँ प्रकाशित की गई हैं। इसके अतिरिक्त वर्धमान शक्रस्तव, लघुजिनसहस्रनाम, सिद्धसहस्रनाम स्तोत्र आदि प्रकाशित किए गए हैं। कहीं-कहीं संस्कृत स्तोत्रों के गुजराती में अनुवाद भी दिए गए हैं। जिससे वाचकवर्ग को उन स्तोत्रों के अर्थ का भी पता चल सके।
प्रस्तुत ग्रंथ एक अति उपयोगी ग्रन्थ है, क्योंकि इसमें परमात्मा के विविध नामों का उल्लेख, उनका महत्त्व तथा नामस्मरण के प्रभावों का वर्णन किया गया है। परमात्मा का आलंबन लेकर जितने जीव सिद्धगति को प्राप्त करते हैं, उससे कई गुणा अधिक जीव परमात्मा के नामस्मरण और प्रतिमा का आलंबन लेकर परमपद को प्राप्त करते हैं। नामस्मरण से एक अद्भुत लाभ यह प्राप्त होता है कि परमात्मा सदेह विद्यमान हों या न हों, किसी भी क्षेत्र में हों अथवा किसी भी परिस्थिति में हों, उनका नामस्मरण और उनकी प्रतिमा का आलंबन जीवों का उद्धार करने में समर्थ होता है। यही कारण है कि जितना माहात्म्य भावनिक्षेप में विराजमान परमात्मा का है, उससे अधिक माहात्म्य नाम और स्थापना निक्षेप में विराजमान परमात्मा का है। परमात्मा के नामों का स्मरण करना, उनकी स्तवना करनी, स्तुति करनी, पूजन करना, वंदन करना, बारम्बार उन नामों का ध्यान करना ये सभी नामस्मरण के ही प्रकार हैं।
पूज्य मुनि श्री धर्मरत्नविजयजी ने इस ग्रन्थ का संशोधन व सम्पादन कर लोकोपयोगी बनाने का जो अनुग्रह किया है, वह सराहनीय एवं स्तुत्य कार्य है।
भविष्य में भी जिनशासन की उन्नति एवं प्रभुभक्तिमार्ग में उपयोगी ग्रन्थों के प्रकाशन में इनका अनुपम योगदान प्राप्त होता रहेगा, ऐसी प्रार्थना करता हूँ।
पूज्य मुनिश्रीजी के इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन।
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श्रुतसागर
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दिसम्बर-२०१८
समाचार सार
प.पू. राष्ट्रसंत आचार्य भ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. का
चातुर्मास परिवर्तन श्री बावन जिनालय जैनसंघ, भायंदर में चातुर्मासार्थ विराजमान राष्ट्रसन्त पूज्य आचार्य भगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. आदिठाणा का चातुर्मास परिवर्तन दि. २३-११-२०१८ शुक्रवार के दिन हुआ, जिसका सम्पूर्ण लाभ परम गुरुभक्त मातुश्री कान्ताबेन रसिकलाल शाह परिवार (बीजापुरवाले) को मिला।
प्रातःकाल ७.०० बजे बावन जिनालय जैनसंघ से भव्य शोभायात्रा निकली। मार्ग पर जगह-जगह बनी रंगोली, मार्ग के दोनों ओर मंगलकलशधारी बहनें तथा शासनध्वज लहराजे हुए बालक शोभायात्रा के मुख्य आकर्षण थे।
शोभायात्रा के दौरान लाभार्थी परिवार के द्वारा सोने तथा चांदी के सिक्कों का लक्की ड्रॉ रखा गया था। सम्पूर्ण मार्ग को आसोपालव तथा उच्चकोटि के सुगन्धित पुष्पों के द्वारा सजाया गया था। इस चातुर्मास परिवर्तन में भी चातुर्मास प्रवेश जैसा भव्य माहौल का निर्माण हुआ था।
___ लाभार्थी परिवार के द्वारा पूज्यश्री का चांदी के अक्षत से वधामना किया गया। उसके बाद लाभार्थी परिवार ने पूज्यश्री तथा श्रमण-श्रमणीवृंद का गुरुपूजन कर कामली वहोराया । पूज्यश्री ने सभीको वासक्षेप देकर अन्तर्मन से आशीर्वाद प्रदान किया।
प.पू. राष्ट्रसंत आ. श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. का ६४वाँ दीक्षावर्ष प्रवेश
राष्ट्रसंत प.पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के ६४वें दीक्षावर्ष में प्रवेश प्रसंग को भायंदर मुंबई राजस्थान हॉल में बड़े ही धूमधाम से मनाया गया. इसका लाभ संघपुर निवासी मातुश्री विमलाबेन महासुखलाल शाह परिवार द्वारा लिया गया. प्रस्तुत प्रसंग पर इस परिवार की ओर से ६४ जीवों को अभयदान देने का संकल्प लिया गया. कोबा तीर्थ में प.पू. आचार्यश्री अमृतसागरसूरि म. सा. की दीक्षा के ५० वर्ष पर
‘पद्मसुवर्ण अमृतोत्सव' श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा के प्रांगण में राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के द्वितीय क्रम के शिष्यरत्न जापमग्न आचार्य श्रीअमृतसागरसूरीश्वरजी म.सा. की दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण होने पर दिनांक २९/११/२०१८ से दिनांक ०७/१२/२०१८ तक नवाह्निका ‘पद्मसुवर्ण अमृतोत्सव' का आयोजन किया गया। इस अवसर पर महावीरालय में श्रीगौतमस्वामी पूजन, कुंभ स्थापना, पंचकल्याणक पूजा, श्रीऋषिमंडल महापूजन, श्रीसिद्धचक्र महापूजन, पाटला पूजन, ९९ प्रकारी पूजा, श्रीशांतिस्नात्र महापूजन, अष्टापद महापूजा तथा सत्तरभेदी पूजा का आयोजन किया गया। इस अवसर पर परिसर को सुन्दर रूप से सजाया गया ।
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प.पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के मुंबई
भायंदर चातुर्मास परिवर्तन प्रसंग की झलकियाँ,
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कल्याणकारीचा
सागर
श्रीकोबा तीर्थ मध्ये पा स्वर्ण अमृतोत्सब प्रसंग
आयोजित पूजन का एक दृश्य.
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