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ISSN 2454-3705
श्रतसागर | श्रुतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY)
Sep-2016, Volume : 03, Issue : 4 nnual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR: Hiren Kishorbhai Doshi
BOOK-POST / PRINTED MATTER
८२वें जन्मदिन प्रसंग पर भक्तजनों को आशीर्वाद प्रदान करते हुए
राष्ट्रसंत पू. आ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा.
आचार्य श्री कैलासंसागरसूरि ज्ञानमंदिर
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23Adae8
JHANDIRSAMBARISMANENJARA
RUARMERESHERE
HTTA
कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची भाग-१९ २० एवं २१ का विमोचन करते हुए महानुभाव
भारतीय पुरालिपि मञ्जुषा का विमोचन करते हुए महानुभाव
AKSHARADARSHAN
जैन रामायण भाग-१ से ३ का विमोचन करते हुए महानुभाव
पापणे बांध्यं पाणीयारुं पुस्तक का विमोचन करते हुए महानुभाव
A MPમિતિ
मयणा पुस्तक का विमोचन करते हुए महानुभाव
प्रशमरति पुस्तक का विमोचन
करते हुए महानुभाव
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(आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर
સાગર SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-३, अंक-४, कुल अंक-२८, सितम्बर-२०१६
Year-3, Issue-4, Total Issue-28, September-2016 वार्षिक सदस्यता शुल्क-रु. १५०/-Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Issue per Copy Rs. 15/
आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन निर्देशक * हिरेन किशोरभाई दोशी डॉ. उत्तमसिंह श्री गजेन्द्रभाई पढियार
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १५ सितम्बर, २०१६, वि. सं. २०७२, भाद्रपद-सुद-१४
पद
बन आराध
राधना
महावीर
भी
कीबा
श्तं त विद्या
प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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अनुक्रम
1 संपादकीय
डॉ. उत्तमसिंह 2 गुरु
આ. શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિજી 3 Beyond Doubt
Acharya Padmasagarsuri 6 4 अज्ञातकर्तृक धनपुरमंडन अजितनाथ स्तवन
गणिश्री सुयशचंद्रविजयजी 8 7 नर्मदासुंदरी कथा में अलंकार योजना जोली सांडेसरा 5 કેટલાંક મહત્ત્વનાં ફરમાનપત્રો સંગ્રાહક-મુનિશ્રી ન્યાયવિજયજી 8 समाचार सार
पं.श्री गजेन्द्र पढियार
* प्राप्तिस्थान आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, हॉटल हेरीटेज़ की गली में, पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
*सोजन्य* स्व. श्री पारसमलजी गोलिया व स्व. श्रीमती सुरजकँवर पारसमल गोलिया की पुण्य स्मृति में | हस्ते : चाँदमल गोलिया परिवार की ओर से ।
बीकानेर - मुम्बई KIsAm-mEED
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संपादकीय
डॉ. उत्तमसिंह श्रुतसागर का यह नूतन अंक वाचकों के करकमलों में सादर समर्पित करते हए अपार आनन्द की अनुभूति हो रही है। इस अंक में 'गुरुवाणी' शीर्षक के अन्तर्गत आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. का लेख प्रकाशित किया जा रहा है, जिसके माध्यम से मोह-मायारूपी प्रपञ्च को त्यागकर शुद्ध निश्चयपूर्वक आत्मोपासना करने व अपने अन्तर में विराजमान परमात्मा की प्रार्थना-स्तुति द्वारा शुद्ध धर्म के आविर्भाव रूप में प्रत्यक्ष करने का मार्ग दर्शाया गया है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचनांशों की पुस्तक 'Beyond Doubt' से क्रमबद्ध श्रेणी के तहत संकलित किया गया है। अप्रकाशित कृति प्रकाशन स्तंभ के तहत इस अंक में प.पू. गणिश्री सुयशचंद्रविजयजी म.सा. द्वारा संपादित ‘धनपुरमण्डन अजितनाथ स्तवन' नामक प्राचीन कृति प्रकाशित की जा रही है। प्रायः अद्यपर्यन्त अप्रकाशित यह रचना मारुगुर्जर भाषा में निबद्ध है। अज्ञातकर्तृक यह पद्यबद्ध रचना अत्यन्त सुमधुररसमय व गेय है । पूज्यश्री ने प्राचीन हस्तप्रत के आधार पर इस कृति का सुन्दर संपादन किया है जो वाचकों को अवश्य पसन्द आयेगा।
इसके साथ ही गुजरात वि.वि. की शोधच्छात्रा जोली सांडेसरा का लेख 'नर्मदासुंदरी कथा में अलंकार योजना' प्रकाशित किया जा रहा है। इस लेख के तहत प्राकृत भाषाबद्ध उपर्युक्त ग्रन्थ में प्राप्त अलंकारों व तद्विषयक महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का उदाहरण सहित विशद् विवेचन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही मुनिश्री न्यायविजयजी द्वारा संग्रहीत व ई.सन्१९४३ में श्री जैनधर्म सत्यप्रकाशक समिति, अहमदाबाद से प्रकाशित ग्रन्थ 'श्री जैन सत्यप्रकाश' से 'केटलांक महत्त्वनां फरमानपत्रो' नामक लेख पुनः प्रकाशित किया जा रहा है। इस लेख में प्रकाशित महत्त्वपूर्ण फरमानों द्वारा तत्कालीन गुजरात के इतिहास व जैनधर्म की समृद्धि का पता चलता है। समाचार सार के रूप में प.पू. राष्ट्रसंत आचार्यभगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के ८२वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में आयोजित गुरुगुण-पर्वोत्सव, कैलासश्रुतसागर ग्रंथसूची व संस्था के अन्य ग्रन्थों का विमोचन, पूज्यश्री के ८१ वर्ष पूर्णता पर पुष्पदंत श्री जैनसंघ द्वारा आयोजित विशिष्ट अनुमोदनीय अनुष्ठान, कोबातीर्थ में पर्युषण महापर्व की भव्य आराधना आदि विषयक विविध समाचारों का संकलन किया गया है।
आशा है इस अंक में संकलित सामग्री द्वारा हमारे वाचक लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से अवगत कराने की कृपा करेंगे।
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ગુરુવાણી
આચાર્ય શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિજી पोताना शुद्ध धर्ममां एटला बधा लीन थइ जq जोइए के आत्माना शुद्ध स्वरूप विना अशुद्धता, स्वप्न पण आवे नहि. आत्माना शुद्ध ज्ञान-दर्शन अने चारित्रनो उपयोग धारण करीने आत्मज्ञानी पोतानी पूर्णतानो अनुभव करे छे. आत्मज्ञानी सापेक्ष दृष्टिथी पोतानामां पूर्णता विचारे छे.
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
आ प्रत्यक्ष अनुभवथी जणातुं एवं आत्मानुं पूर्ण स्वरूप छे. आत्मामां स्वद्रव्यादिकनी अस्तिता अने परद्रव्यादिकनी नास्तितानो परिपूर्ण समावेश थाय छे. तेथी अस्ति अने नास्तिनी अपेक्षाए सर्व अस्तिधर्म अने नास्तिधर्मनो
आत्मामां अन्तर्भाव थाय छे. आत्मामां सत्ताए पूर्ण स्वरूपनो तिरोभाव छे. तिरोभावी एवा पूर्ण स्वरूपनो आविर्भाव थाय छे. पूर्ण एवा आत्माना धर्मनो पूर्ण प्रगटभाव थाय छे ते सत्ता अने व्यक्ति अथवा आविर्भाव अने तिरोभावनी अपेक्षाए समजवू. आत्मानी पूर्णतामांथी पूर्णताने बाद करीए तो पण पूर्णता रहे छे. सारांशमां कहेवारों के आत्मानी पूर्णतानो कदी नाश थतो नथी. आत्मानी पूर्णता सदा छतिपर्याय अने सामर्थ्य पर्यायनी अपेक्षाए कायम रहे छे. आत्माना गुणपर्यायोनी पूर्णता खरेखर छतिपर्यायोमांथी सामर्थ्य पर्यायोमां आवे छे. छतिपर्याय करतां सामर्थ्य पर्यायो अनन्तगुण विशेष छे. आत्माना शुद्धोपयोगथी एक सरखा स्थिर धान्यमां रही आत्मानी पूर्णतानो ख्याल करवामां आवे छे तो पश्चात् कोइ जातनी अपूर्णता-असंतोष वासना वगेरे जणातुं नथी एम क्षयोपशमज्ञानध्यान बळे पण निश्चय करी शकाय छे तो केवळज्ञान- तो शु कहेवु ? आत्मानी शुद्ध निश्चयनयदृष्टि प्रगटतां पोतानी शुद्धतानो प्रकाश पोतानी मेळे थाय छे अने पश्चात् पोतानी शुद्धता करवी ए पोताना हाथमा छे अने ते शुद्धोपयोग बळे थाय छे एम परिपूर्ण ख्याल आवे छे. पोतानी शुद्धता थवानी होय तो शुद्ध निश्चयनयनी दृष्टि प्रगटे छे तेनो अनुभवीओ अनुभव करे छे.
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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१६ आत्मज्ञानी विवेकी प्रारंभज्ञानावस्थामां आत्मानी आ प्रमाणे प्रार्थना करे छे. प्रपञ्चसञ्चयक्लिष्टान्, मायारूपात् बिभेमि ते। प्रसीद भगवन्नात्मन् !! शुद्धरूपं प्रकाशय ॥ ३३॥ - अध्यात्मसार ॥
भावार्थ- हे आत्मन् ! प्रपंच संचयथी क्लेशवाळा तारा माया रूपथी हुं बीवू छु. हे भगवन् आत्मन् ! कृपा कर अने पोताना शुद्ध रूपने प्रकाश ! आत्माने आ प्रमाणे प्रार्थना करनार आत्मा ज छे. आत्मज्ञानथी जाग्रत थएल ज्ञानी पोतानी अशुद्धता देखीने अने कर्मनो प्रपंच देखीने पोताना आत्माने प्रार्थना करे छे. पोताना आत्मानी परिणति सुधर्या विना हजारो निमित्त कारणो मळे तो पण पोतानी शुद्धता थइ शकती नथी. माटे आत्मानी शुद्ध परिणति रूप प्रसन्नतानी प्रार्थना पोतानो आत्मा करे छे. पोतानो आत्मा भगवान् छे. आराध्य छे. पोतानी सृष्टिनो कर्त्ता पोतानो आत्मा खरेखरो ईश्वर छे. पोतानामा रहेलुं शुद्धज्ञान एज खरेखलं विष्णुपणुं छे. पोतानी प्रसन्नता पोताना पर थया विना कंइ वळवा- नथी. पोताना खरा रूपना आवेशमां आव्या विना प्रसन्नता प्रगटती नथी. योद्धो धडपर माथु नथी एवो भाव लावीने ज्यारे खरा रूपमां आवे छे त्यारे ते विजय वरमाळने प्राप्त करे छे. पोतानी शुद्धता अने परमात्मता प्रगटाववा अर्थे खरा रूपमा अर्थात् खरा आवेशमां आववानी जरूर छे. पोताना आत्मानी स्तुति करवी ए परमात्मदशा प्रगटाववानुं मंगळ चिन्ह छे. पोतानामां रहेल परमात्मानी प्रार्थना स्तुति करीने तेने शुद्ध धर्मना आविर्भाव रूपे प्रत्यक्ष करवानी जरूर छे. जेम जेम आत्मानी उपर प्रमाणे प्रार्थना करवामां आवे छे तेम तेम आत्मामां जाणे ईश्वरी प्रसन्नता प्रगट थती होय एम अनुभव आवे छे. आत्मानी प्रसन्नताने माटे आत्मा जवाबदार छे. पोतानो आत्मा ईश्वर रूप होइ खरी प्रार्थनानो ते पोतानी मेळे आन्तरिक स्फुरणाथी जवाब आपे छे. दररोज अमुक वखत सुधी पोताना आत्मानी उपर प्रमाणे प्रार्थना करवामां आवे तो अन्तरना देवनी प्रसन्नतानी खुमारीनो अनुभव आव्या विना रहेतो नथी. पोताना आत्माने सर्वस्व स्वधर्मने अर्पण करी शुद्ध निश्चयथी तेनी सेवा करवाथी मायाना रूपथी आत्मा भिन्न थाय छे अने मायानी भैरवता रहित पोताना शुद्धरूपे पोताने दर्शन आपे छे..
(वधु आवता अंके....)
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Beyond Doubt
Acharya Padmasagarsuri In the same village of Seth Mafatlal, lived an old lady named ganga. She suffered from severe stomach pain and went to take the advice of Seth Mafatlal thinking that he must have learned something about medicine from his father. Seth Mafatlal knew that his father gave Triphala powder to all those having any kind of pain and later on gave the apt medicine. The old lady hadonly stomach ache and as per the sethji's advice took the medicine regularly and was cured of the pain. Sethji's meritorious deeds were on the rise and so this was just the beginning of his fame and fortune. Once a potter lost his donkey and went to the Vaidya and asked him for a medicine by which he could locate his lost donkey. To him also seth Mafatlal gave the same Triphala powder and asked him to take the medicine early in the morning for three days. When he took the first dose of the medicine he received the nature's call and went to the outskirts of the city to atend to it. As soon as he reached the outskirts of the city, he saw his donkey and returned home quite pleased and happy.
The old lady and the potter were all praise for the doctor. In no time the whole city came to know about the doctor. The news reached the royal palace. The king was not in good terms with one of his queens, so the queen called the doctor and asked him to find a solution for her problem. The doctor had only one solution to all kinds of problems. He gave the queen also the same powder and asked her to take it continuously for some days and said that the king will come to her love and love her as before. The vaidya went his way and the queen began to take the medicine as advised by the vaidya. The queen suffered from violent purge and became too weak & finally was bedridden. So the ministers advised the king to visit the queen and forgive her. They said in such a condition, even arrowed enemies are to be forgiven but she happens to be your wife. Therefore the king went to console her, so that she might die peacefully. If he did not go and visit her the public would blame the king, and if he went to the queen, his
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श्रुतसागर
reputation among the people would increase.
The king paid heed to the advice of his ministers and went to the sick queen. The queen concluded this to be the effect of the Vaidya's treatment and began to recover from the illness. She was so delighted to see the king after almost two years and tears of joy began to roll down her cheeks. The king was also moved by the sight and asked the queen to forgive him for his ill treatment. Both were on good terms as before and the queen insisted on Mafatlal being made the royal physician and as a result a huge sum of money was paid to him every month from the treasury.
सितम्बर-२०१६
It was then a neighbouring king attacked the city with a contingent of 5000 soldiers and laid a siege around the kingdom. The enemy king had gathered information from his spies that the king had an army of only 3000 soldiers hence he brought with him 5000 soldiers. The enemy king sent a message to the king to accept his sovereignity by the next day otherwise he would wage war against his kingdom. On getting the message the king convened an emergency meeting and consulted his ministers regarding the enemy's ultimatum. Someone suggested the king to take the advice of the Vaidyaraj. Vaidyaraj Mfatlal was summoned, the whole matter was placed before him and the king asked him if he had any solution to the crisis.
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Mafatlal was over confident of his Triphala powder and so he said "If the 3000 Soldiers of our army take the powder three times till morning, after every two hours, then I think, this danger shall be removed." On the other end the Commander-in-chief of the enemy king had posted several soldiers and spies on the outskirts of the city to make note of the latest developments in the king's army. When they counted the soldiers who came out three times during the night to attend to their nature's call they found them to be 9000 in number. Hence they sent an alarming massage to their king that the prior information about the number of soldiers as only 3000 was wrong, as they had counted them as 9000 and it is better that they withdrew and return to their kingdom.
(Countinue...)
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अज्ञातकर्तृक धनपुरामंडन अजितनाथ स्तवन
संपा. गणिश्री सुयशचंद्रविजयजी कृति परिचय : नागद्दहपुर एटले नागपुर, लंबावटी एटले खंभात, जोधाण एटले जोधपुर आमां जे पहेलुं नाम छे ते गामनुं प्राचीन नाम छे ज्यारे बीजु नाम वर्तमानमा प्रचलित गामनुं हमणानु नाम छे. कदाच आवा नामोने शोधी तेनो संग्रह करवामां आवे तो एकाद शब्दकोश जेवू पुस्तक बने. अहीं आपणे तेवा ज एक गामना नाम माटे सौ प्रथम विचारीशु. मूल अहीं जे स्तवन- संपादन करायु छे ते स्तवन जे गामना भगवानने उद्देशी रचायु छे ते गामनी सांप्रत अवस्था अंगे न विचारीए तो संपादन अधुरु गणाशे. माटे सौ प्रथम धनपुरगाम अंगे विचारीशु. ___अहीं काव्यमां धनपुर-धनपुरा-धनपुरन-धन्यपुर एम सामान्य फेरफार साथे गामना नामनो तेमज ते गाममा बिराजमान श्रीअजितनाथ प्रभुना नामनो उल्लेख मळे छे. आ वात परथी एवं फलित थाय के गामना मुख्य (?) जिनालयमां मूळनायक रूपे अजितनाथ प्रभु हशे अथवा ते प्रभुजीनी प्रतिमा प्रभावशाळी होइ काव्यमां तेमनी स्तुति करवामां आवी हशे. अहीं आपणे धनपुरानुं सांप्रत नाम विचारवा सौ प्रथम अजितनाथ प्रभु मूलनायक रूपे होय तेवू तीर्थ के गाम विचार, पडशे. अथवा बीजु धनपुरा नामर्नु अपभ्रंश रूप थइ कोइ गामर्नु नाम मळतु होय तेवू नाम शोधq पडे. दा.त. वर्धमानपुर- अपभ्रंश वढवाण, झालउरनुं अपभ्रंश झालोर तेनी जेम जे आ बन्ने बाबतो पर विचार करता अमारा ध्यानमां तो एवं कोइ गामनुं नाम याद आवतुं नथी जे धन्यपुरने संगत थाय, कदाच वाचकोमां कोईने आ अंगे ख्याल होय तो अमारू ध्यान दोरे.
घणु करी स्तुति-स्तवनादि रचनाओ प्रभुना गुणवैभव- गान करवा माटे थती होय छे. तो थोडी कृतिओमां प्रभु स्तवनानी साथे-साथे ऐतिहासिक बाबतोने जोडी तेमां ऐतिहासिक वैविध्य उमेरातु होय छे. उपरोक्त रचना मुख्य पणे अजितनाथ प्रभुनी स्तुतिरूप रचना छे. परंतु गामना नामनो उल्लेख कृतिनी ऐतिहासिक सामग्री छे.
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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१६ प्रस्तुत प्रथम कृति सात ढाळनी मध्यम रचना छे. कविए अहिं भाषा शब्दनो प्रयोग विविध देशीओना (रागना) अर्थमां को छे. प्रथम ढाळमां कवि वडे प्रभुना जन्मस्थळनी, माता-पिताना नामनी, च्यवन तथा जन्मनी तेमज देवोए करेला ओच्छवनी विगतो आलेखाई छे. ज्यारे बीजी ढाळमां पुत्रजन्मना वधामणा मळता पिताने थयेला आनंदनी, जन्म महोत्सव रूपे कराता नृत्यनाटकोत्सवनी, स्वजनोना प्रीति भोजननी, परिवारजनोने अपायेल पहेरामणीनी तेमज पासा रमता थयेला विजयथी पुत्रना अजित' नाम संकल्पनी वातो गुंथाई छे. स्त्रीजी ढाळमां प्रभुजीनी कुमारावस्थानी, राज्य अवस्थानी, विवाहित जीवननी तेमज दीक्षा पूर्वेना सांवत्सरिक दाननी विचारणा कराइ छे. दीक्षा लेतानी साथे थता मनःपर्यवज्ञाननी, प्रथम पारणा समये थती दिव्य वृष्टिनी, प्रभुजीना छद्मस्थ पर्यायनी तथा केवलज्ञानसमयनी रजूआत चोथी ढाळमां छे. तो पांचमी ढाळमां कविए समवसरणनी ऋद्धिनु, प्रभुना देह सौष्ठवनुं तेमज यक्ष-यक्षिणी परिवारनी विगत गुंथी छे. छट्ठी ढाळमां प्रभुजीना गणधरोनी, चतुर्विध संघनी संख्यांकित माहिती, प्रभुजीना निर्वाणतप-दिवसादिनी तथा सर्वायुनी विगत जोवा मळे छे. छेल्ली ढाळनी शरूआतनी २ गाथाओमा प्रभुजीनी पूजा-अर्चना संबंधि बाबतो छे. त्रीजी गाथामां कवि द्रव्य फळीभत क्यारे बने ते अंगे सरस खलासो आपे छे. त्यार पछीनी चोथी कडीना पूर्वार्धमां प्रभु दर्शनना हेतुनुं वर्णन छे. पछी- चरण खंडित छे. प्रभुजी बोलता नथी तेवा आक्षेपने कविनो जवाब पांचमी गाथामां छे. प्रभुना स्मरण-पूजन-दर्शनथी थता लाभोनी वात छट्ठी-सातमी कडीमां छे. छेल्ली कडी गुरु स्तुतिरूप छे. पद्यांते कविए क्यांय पोतानुं नाम लख्यु नथी पण सोमसुंदरसूरिजीनी परंपराना तेओ साधु हशे तेवु छेल्ली कडी परथी विचारी शकाय. ___ बीजी कृति पण धनपुर-मंडण अजितनाथ प्रभुना स्तवन रूपे रचायेली रचना छे. प्रभुपूजाथी मळता फळनो चितार काव्यमां अद्भुत रीते आलेखायो छे. कृतिना शब्दो घणा सुंदर छे. 'जागने जादवा' काव्यना लयमां आ कृति गाता अनेरो आनंद आवशे. साथे कृति लयबद्ध रीते वांचता अर्थबोध पण सरळ थइ जशे.
त्रीजी रचना पण धनपुर मंडण अजितनाथ प्रभुना स्तवन रूपे रचायेली रचना छे. जय तिहुअण स्तोत्रना रागे आ कृति गाइ शकाशे. कृतिना शब्दो
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September-2016
सरळ छे. कविए पहेली तेमज त्रीजी गाथामां प्रभु दर्शनना फळनी, बीजी तथा चोथी गाथामां प्रभुना विशेषणोनी तथा छेल्ली गाथा स्तवन भणता थता लाभनी तथा श्रीसंघना कल्याणनी वातो गुंथी छे. उपरोक्त त्रणे कृति मारूगुर्जर भाषमां रचायेली लघु रचनाओ छे. अमने ए पण थोडी शंका छे के कदाच पहेली कृतिने बाद करता बाकीनी बंन्ने कृति एकज कर्तानी होवी जोईए जो के तेनुं कोइ चोक्कस प्रमाण अमारी पासे नथी. विद्वानो आ अंगे अमारू ध्यान दोरे.
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संपादन माटे प्रस्तुत कृतिनी नकल आपवा माटे नित्य-मणि-जीवनज्ञानमंदिर(चाणस्मा)ना ट्रस्टी ओनो तथा चाणस्मावाळा महेशभाईनो खूब खूब आभार. अज्ञातकर्तृक
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धनपुरामंडन अजितनाथ स्तवनत्रय
॥ अर्हं नमः ॥
धनपुरमंडन अजिअनाह, जय जय जय सोहगसिरिसणाह । धन धनपुरसामी तइं करी, तुम्ह भेटिलई तपसइ करी ॥१॥ धन धन ते धनपुरलोअ सामी, जे प्रणमई तुम पय सीस नामि । पहिलइ भवि भूपति गुणनिधान, बीजइ भवि अपराजितविमान ॥२॥ अजोध्या नयरी धरमधामा, तिहि राउ अछइ जितशत्रु मात (नामा) । पटराणी तस विजयाभिधान, सवि धरम करम करइ सावधान || ३ || तस कूखसरोवरि रायहंस, त्रीजइ भवि बीजउ जिणवयंस । वइसाह तेरसि सुदि जिणवयार, राणी तइ चऊद सुपन उदार ॥४॥
सारि-पासि रमइं रामति सभावि, राणी नवि हारइ जिण प्रभावि । माह सुदि आठिम सामि जन्म, सुर जम्म महोत्सव करई रम्म ॥५॥ प्रथम भाषा ॥
हिव व(न)रवर घरि हरिषभरे, अढलिक दीजइ दान तु२ ।
राउ भवणि वद्धामणां ए, जाणे इंद्रविमान तु२ ॥६॥
गोमिहरा तिहिं मेल्हीइं ए, मागतु कणय कबाहि तु२ I अजूआलउं आणंद सुहसव, कहि तिहूअण माहि तु२ ॥७॥
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सितम्बर-२०१६ पगि पगि नव नव नाटकू ए, तलिआ तोरण सार तु२ । धरि धरि गूडी ऊभवइ ए, ओच्छव जय जय कार तु२ ॥८॥ सजन वरग आरोगीइ ए, भोजनि कूर कपूर तु२ । पट्टओला पहिरावीइ ए, दानअ वारीपूर तु२ ॥९॥ परमेसर महिमा लगइ ए, राणी जीतु राउं तु२ । तिण कारणि ए अजिअजिण, सवि लक्खण कर पाउ तु२॥१०॥द्वितीय भाषा॥ जीणवर विलसइ कुमरपदि तु२ भमारूली, पूरव लाख अढार तु२। झाझा त्रिपन लाख वली तु भमारूली, राज करइ जगि सार तु२ ॥११॥ भोगहली कर्म भोगवई तु भमारूली, सुख संपत्ति संतान तु। सुरवर नरवर पयसेव करइ तु भमारूली, जिनमनि नहि अभिमान तु ॥१२॥ हिव संवच्छर दान दिइं तु भासरूली, सचराचरि जयदा साद तु। जे जिम मागइ तेहि तिम तु भमारूली, जिणवर करइ वार) प्रसाद तु ॥ १३॥ ए कई दिन बिहु घडीअ माहि तु ममारूली, जिन दिइं कनकनुं दान तु । एक कोडि आठ लाख वली तु भमारूली, इंम संवच्छर मान तु ॥१४॥तृतीय भाषा॥ माह मासि दिप्त(सित) नित नउमि दिन सलूणी रे, व्रत लीधउं जिणराइं सलू0२ तु । ततखिणी चउथउं ज्ञान भयउ सलूणी रे, सुरपति प्रणमइं पाइ सलू0 तु॥१५।। परमाअनि करई पारणूं सलूणी रे, बंभद् करई सुरराउ२ तु । कंचण सारध बार कोडि सलूणी रे, वुट्ठी करई सुरराउ२ तु ॥१६॥ बार वरिस छदमस्थकाल सलूणी रे, तप तपइ मन सुप्रसन्न२ तु । पोस अजुआली तेरसि सलूणी रे, केवलज्ञान ऊपन्न(उ)॥१७।। चतुर्थ भाषा ॥ हिव चउविह सुरवर मिलीअ नरेसुअडा, समोसरण विचार। एक जीभ किम वरनवुअ नरेसुअडा, रिद्धि न भालई पार ॥१८॥ चउसठि इंद्र लोटी गणे ए नरेसुअडा, जिणपयकमलि नमंति। नवग्रह सेवा नितु करइ ए नरेसुअडा, देव दानव सेवंति ॥१९॥ देव दानव देवी तणी ए नरेसुअडा, कोडा कोडि असंख। जिन-महिमा अतिसय तणी ए नरेसुअडा, कवण सुजाणइं संख ॥२०॥
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___September-2016 च्यारिसइं साढ(र्ध) धनुष तनू ए नरेसुअडा, गज लंछन हेम वानि(न?) । महजख अजिता ओलगइ ए नरेसुअडा, जक्ख जक्खिणि बहु मानि(न?) ॥२१॥
॥ पंचम भाषा॥ जिनवरि गणहर थापीआ ए माल्हंतडे, पंचाणू परिमाण । मा0 सुणि सुंदरे पंचा0२ ।
ग लख सइं हथि दीक्खीआ ए माल्हंतडे, मुणिवर गुणह निहाण सुणि सुंदरे ॥२२॥ त्रिणि लाखनइ सहस त्रीस माल्हंतडे, साहुणी गुणह भंडार सुणि सुंदरे। सहस अठाणूं लाख दुन्न माल्हंतडे, श्रावक समकित-सार सुणि सुंदरे ॥२३॥ पंच लाख पंचितालीस सहस माल्हंतडे,...सावीअ विद्ध सुणि सुंदरे। देवि दानवि चालीई ए माल्हंतडे, ए सवि दृढ समकित सुणि सुंदरे ॥२४॥ समेतसिहरि मुणि सहससिउं ए माल्हंतडे, अणसण मासखमाणु सुनि सुंदरे। पूरव बहुतरि लाख आउ माल्हंतडे, चैत्र सुदि पंचमि निरवाणु सुणि सुंदरे ॥२५॥
॥ भाषा-६॥ धनपुरू ए तिहूअणनाहिं, माहि नयर सोहग लहइ ए, अइआ माहि नयर सोहग लहइ ए। जहिं प्रभु ए करइ निवास, आस पूरइ सेवक तणी ए, अईआ आस पूरइ सेवक तणी ए ॥२६॥ चंदन ए घन घनसार, फारक फूल पूजा करी ए अईआ फारक... ढोईइए फल पकवान, ध्यानि करी जिण इम थुणइ ए अईआ ध्यानि।।२७।। धन धनए तेहजि हत्थ, जे जिणवर पूजा करइ ए अईआ जे... फलवंत ए तेहजि अत्थ, जे जिणपूजई उवगरइ ए अईआ जे...॥२८॥ मूरती ए पेखवि नाह, हिअडलइ हरिखिहं (गह) गह्यां ए अईआ हिअडलइं
.....................॥२९॥ कवि कहइं जिनवर एइ, बोलई चीलई कां नहिअ अइआ बोलइ... दसई ए सवि हुपकारि, परमेसर एह जि सहीअ अईआ परमेसर ॥३०॥ वंकटू परकट सामी नामि विकट संकट रांक टलई ए अईआ विकट.... कलिजुगी ए एकलवीर, कीरतिपूरति झलहलई ए अईआ कीरति ॥३१॥
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सितम्बर-२०१६ वंदइ ए जिणनाह पूजइ ए जे जिणनाह, ताह घरि पूज(र)इं संपदू ए अईआ ताह.... वंदइ ए जे जिणनाह, तेह धरि नव नव उच्छवू ए अईआ तेह धरि ॥३२॥ गणधरू ए तपगच्छराउ, श्रीसोमसुंदर सुहगुरु ए अईआ श्रीसोम... जे जंपइं (ए) एह गुरु नाम, तिह घरि सिद्धि हुई सइंवरू ए अईआ सिद्धि..॥३३॥
॥ सप्तमी भाषा॥ ॥ इति श्रीधनपुरामंडन श्री अजितनाथ स्तवनं।
॥स्तवन-२॥
मज्झ मण तुज्झ जिण दंसणे अलजयउं, अजिअ जिण वंदणे मज्झ हिउं गहगहिउँ। हिअडला-कुंपल मेल्हि तुं बापडा, नासि करि जाउ तुम्हे दूरि हिंव पापडा ॥१॥ अररि मह अंगणे सुरतरो मुरीओ, अररि सोवन कलस अमीअ रसि पूरीओ। चीणी साकर दूध माहे भिली, आज मज्झ आठ ए सिद्धि सइंवर मिली ॥२॥ जिम जण-मणहरो साकर सेलडी, तिम प्रभो मूरति मोहणवेलडी। घेवर सेव लाड़ भली लापसी, भोजनि नयन मन आवइ ए उल्हसी ॥३॥ खीर जिम हुइ गुली खांड घी सिउं मिली, तिम तुम्ह दंसणे पुजई ए मनरूली। आज मज्झ उपरे अमीअ घण वूठओ, कामघट काम पूरइ मज्झ तूठओ ॥४॥ भोगपुरंदरो लील अलवेसरो, नयणि मइं दिट्ठ जउ जगत्र परमेसरो।
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September-2016 कमलि जिम रमलि निरमलि करइ भमरओ, अम्ह मण तुम्ह गुण सामि तिम समरओ ॥५॥
॥ इति श्रीधनपुरमंडन श्रीअजितजिन वीनती समाप्ता॥ छ।
॥ स्तवन-३॥ जिणि दीठई सवि रिद्धि वृद्धि सुख वसई निवासइं, जिणि दीठई सवि रोग सोग भय भावठि नासइं। जिणि दीठई सवि पामीइ मणवंछीअ आस, जयउ जिणेसर अजितसामि धनपुर कीअ वास ॥१॥ तुं जगठाकर माय बाप प्रभु तुं जगबंधव, पीड्यांपीहर गुणनिधान तुं महिमा वास । जयउ जिणेसर अजितसामि धनपर कीअ वास ॥२॥ आज जनम फल पामिओ धन दिन मझ आज, आज वरिस मझ घडिअ आज लेखइ जिन राज। तुम्ह दीठइ मज्झ सफल आज धन धन ए मास, जयउ जिणेसर अजितसामि धनपुर कीअवास ॥३।। तुं भवभ्रमणनिवारि सामि तु करूणासायर, तुं समरथ तुं धणीअ आज तुं गुणरयणा(य)र । भावठि भंजण करि पसाउ मज्झ पूरि हो आस, जयउ जिणेसर अजितसामि धनपुर कीअवास ॥४॥ प्रह ऊठेवि जे भणइं भावि नर नारी तुम्ह गुण, तिह घरि रंगि रमलि करई सुरतरु प्रभु अनुदिण। जां सायर रवि चंद ताम पतपउ निसि दीस, जयवंता सिरिअजितनाथ पूरू संघ जगीस ॥५॥
॥ इति श्रीधनुरामंडण अजितजिन विनति समाप्ता॥ छ।
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नर्मदासुंदरी कथा में अलंकार योजना
जोली सांडेसरा जैसा कि हम जानते हैं, प्राकृत साहित्य भारत के लोक-जीवन का प्रतिनिधित्व करता है। लोगों की छोटी से छोटी भावनाएँ, कठिनइयाँ, रहनसहन, विचार इत्यादि का सुंदर निरूपण प्राकृत साहित्य में दृष्टिगोचर होता है। यह इतना जीवंत होता है, कि उच्च वर्गीय साहित्य अर्थात् संस्कृत साहित्य में ऐसे वर्णन हमें देखने को नहीं मिलते। __ इसी भावना से प्रेरित होकर दूसरी सदी ईसा पूर्व में महाकवि हाल ने प्रकृत भाषा की गाथाओं का संकलन किया, तो लोक-जीवन में प्रचलित विचार
और भावनाओं के आदान-प्रदान के लिए प्रबल माध्यम थीं। यही कारण है कि संस्कृत के अलंकारशास्त्र के आचार्यों ने भी प्राकृत काव्यों को ही अपने काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया। भरत मुनि ने तो नाटकों में, स्त्री-पात्रों, दास-दासी इत्यादि के लिए इन प्राकृत भाषाओं की सिफारिश की।
प्राकृत साहित्य ईसा पूर्व छठी शताब्दी से सत्तरहवीं शताब्दी तक दीर्घ कालखंड में फैला हुआ है। इसमें एक से एक उच्च कोटि के साहित्य अस्तित्व में आये। विमलसूरी, संघदास गणी, उद्योतनसूरी, आनंदवर्धन इत्यादि कवियों ने इस भाषा में काव्यरचना की। इन्हीं में से एक कवि हैं महेन्द्रसूरि । जिनकी नर्मदा सुंदरी कथा अति प्रचलित है। वैसे तो इस ग्रंथ में काव्यशास्त्र के अनेक गुण और तत्त्व भरे हुए हैं, परंतु हमने केवल इसमें प्राप्त अलंकारों की चर्चा को प्रस्तुत लेख का विषय बनाया है।
नम्मयासुंदरी कहा के रचयिता महेन्द्रसूरी हैं और रचना काल वि.सं. ११८७ हैं। यह गद्य-पद्यमय है, किन्तु पद्यों की प्रधानता है। इसमें १११७ पद्य हैं और कुल ग्रंथ का परिमाण १७५० श्लोक है। इसमें महासती नर्मदा सुंदरी के सतीत्व का निरूपण किया गया है।
1. शोधच्छात्रा, प्राकृत-पालि विभाग, भाषा भवन, गुजरात युनिवर्सिटी अहमदाबाद।
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September-2016 नायिका नर्मदासुंदरी का विवाह महेश्वरदत्त के साथ हुआ। महेश्वरदत्त नर्मदासुंदरी को साथ लेकर धन कमाने के लिए भवनद्वीप गया। मार्ग में अपनी पत्नी के चरित पर आशंका हो जाने के कारण उसने उसे सोते हुए वहीं छोड दिया।
नर्मदासुंदरी जब जागी तो अपने को अकेला पाकर विलाप करने लगी। कुछ समय पश्चात् उसे उसका चाचा वीरदास मिला और वह नर्मदासुंदरी को बर्बरकुल ले गया। यहाँ वेश्याओं का एक मोहल्ला था, जिसमें ७०० वेश्याओं की स्वामिनी हरिणी नामक वेश्या रहती थी। सभी वेश्याएँ धनार्जन कर उसे देती थीं और वह अपनी आमदनी का चतुर्थांश राजा को कर के रूप में देती थी। ___ हरिणी को जब पता चला की जंबूद्वीप का वीरदास नामक व्यापारी आया है, तो उसने अपनी दासी को भेजकर वीरदास को आमंत्रित किया। वीरदास ने ८०० द्रम्म दासी के द्वारा भिजवा दिये पर वह स्वयं नहीं गया। हरिणी को यह बात बुरी लगी।
दासियों की दृष्टि नर्मदासुंदरी पर पड़ी और वे युक्ति से उसे भगाकर अपनी स्वामिनी के पास ले गईं। वीरदास ने नर्मदासुंदरी की बहुत तलाश की पर वह उसे न पा सका। इधर हरिणी नर्मदासुंदरी को वेश्या बनने के लिए मजबूर करने लगी। कामुक पुरुषों द्वारा उसका शील भंग कराने की चेष्टा की गयी, पर वह अपने व्रत पर अटल रही।
करिणी नामक एक दूसरी वेश्या को नर्मदासुंदरी पर दया आयी और उसे अपने यहाँ रसोई बनाने के कार्य के लिए नियुक्त कर दिया। हरिणी की मृत्यु के अनन्तर वेश्याओं ने मिलकर नर्मदासुंदरी को प्रधान गणिका के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। बर्बर के राजा को जब नर्मदासुंदरी के अनुपम सौंदर्य का पता चला तो उसने उसे पकड़वाने के लिए अपने दण्ड अधिकारियों को भेजा। ___वह स्नान और वस्त्राभूषण से अलंकृत होकर शिबिका में बैठकर राजा के यहाँ जाने के लिए रवाना हुई। मार्ग में एक बावडी में पानी के लिए उतरी। वह जान-बूझकर एक गड्ढे में गिर पड़ी, उसने अपने शरीर पर कीचड़ लपेट ली और पागलों का अभिनय करने लगी। राजा ने भूत-बाधा समझकर उपचार किया,
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सितम्बर-२०१६ पर उसे कोई लाभ न हुआ। नर्मदासुंदरी हाथ में खप्पर लेकर पागलों के समान भिक्षाटन करने लगी। अंतमें उसे जिनदेव नामक श्रावक मिला । नर्मदासुंदरी ने अपनी समस्त आपबीती उससे कही। धर्मबंधु जिनदेव ने उसे वीरदास के पास पहुँचा दिया। नर्मदासुंदरी को संसार से बहुत विरक्ति हुई और उसने सुहस्तिसूरि के चरणों में बैठकर श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली। ___ मम्मटाचार्य ने काव्य प्रकाश ग्रंथ में अलंकार का लक्षण बताते हुए कहा कि-अलंकरोति इति अलंकारः। यह अलंकार शब्द की व्यत्पत्ति है। इसके अनुसार काव्य शरीर को विभूषित करनेवाले अर्थ या तत्त्व का नाम अलंकार है। जिस प्रकार कनक-कुण्डल आदि आभूषण शरीर को विभूषित करते हैं, इसलिए अलंकार कहलाते हैं, उसी प्रकार काव्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि काव्य के शरीरभूत शब्द और अर्थ को अलंकृत करते हैं, इसलिए अलंकार कहलाते हैं।
अलंकार अलंकार्य (काव्य शरीर) का केवल उत्कर्षाधायक तत्त्व होता है, स्वरूपाधायक या जीवनाधायक तत्त्व नहीं । जो स्त्री या पुरुष अलंकार विहीन हैं, वे भी मनुष्य हैं। पर जो अलंकार युक्त हैं, वे अधिक उत्कृष्ट समझे जाते हैं। इसी प्रकार काव्य में अलंकारों की स्थिति अपरिहार्य नहीं है। वे यदि हैं, तो काव्य के उत्कर्षाधायक होंगे, यदि नहीं तो भी काव्य की कोई हानि नहीं है।
इसलिए अलंकारों को काव्य का अस्थिर धर्म माना गया है। यही गुण तथा अलंकारों का भेदक तत्त्व है। गुण काव्य के स्थिर धर्म हैं। काव्य में गुणों की स्थिति अपरिहार्य है, परंतु अलंकार स्थिर या अपरिहार्य धर्म नहीं हैं, केवल उत्कर्षाधायक हैं। उनके बिना भी काव्य में काम चल सकता है। इसलिए काव्य के लक्षण में मम्मट ने- 'अनलंकृती पुनः क्वापि' कहा है।
प्रायः सभी आचार्यों ने शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर माना है। अलंकार शरीर के शोभाधायक होते हैं। इसलिए काव्य में शब्द और अर्थ के उत्कर्षाधायक तत्त्व का ही नाम अलंकार है, अर्थात् अलंकार का आधार शब्द
और अर्थ है। इसी आधार पर शब्दालंकार, अर्थालंकार और उन दोनों के मिश्रण से बने हुए उभयालंकार इन तीन प्रकार के अलंकारों की कल्पना की
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September-2016 गई है।
शब्दालंकार तथा अर्थालंकार का भेद शब्द के परिवर्तनसहत्त्व या परिवर्तनासहत्त्व के ऊपर निर्भर है। जहाँ शब्द का परिवर्तन करके उसका पर्यायवाची शब्द रख देने पर अलंकार नहीं रहता, वहाँ यह समझना चाहिए कि उस अलंकार की स्थिति विशेष रूप से उस शब्द के कारण ही थी। इसलिए उसे शब्दालंकार कहा जाता है।
जहाँ शब्द का परिवर्तन करके उसका पर्यायवाची शब्द रख देने पर भी उस अलंकार की सत्ता बनी रहती है, वहाँ अलंकार शब्द के आश्रित नहीं, अपितु अर्थ के आश्रित होता है, इसलिए उसको अर्थालंकार कहा जाता है। इस प्रकार जो अलंकार शब्द परिवृत्ति को सहन नहीं करता वह शब्दालंकार और जो शब्द परिवृत्ति को सहन करता है वह अर्थालंकार होता है। यह शब्दालंकार तथा अर्थालंकार में भेद है। ___ शब्दालंकार और अर्थालंकार की संख्या के विषय में मतभेद है। मम्मट ने ६१ अर्थालंकार माने हैं। शब्दालंकार की संख्या में वामन आदि ने केवल अनुप्रास और यमक की ही गणना की है। परंतु मम्मट ने उनके साथ वक्रोक्ति, श्लेष, चित्र और पुनरुक्तवदाभास को भी शब्दालंकार माना है। इस प्रकार मम्मट की मान्यता में शब्दालंकार की संख्या ६ हो जाती है।
‘नम्मयासुंदरी कहा' में अन्य तत्त्वों के अलावा काव्य तत्त्व भी खूब भरे हैं। ध्वनि, लक्षणा, अलंकार, रस आदि अत्यधिक मात्रा में हैं। प्रस्तुत शोधलेख में नम्मयासुंदरी कहा में प्रयुक्त अलंकारों की चर्चा की जा रही है।
शब्दालंकर- निम्नलिखित गाथाओं में वर्णानुप्रास अलंकार के उदाहरण द्रष्टव्य हैं
इय निम्माणे रम्मे पूयाबलिवित्थरे महत्थम्मि। हरिसुद्धसिय सरीरो मिलिओ लोओ तओ बहुओ॥७५।।
(इस सुंदर बहुमूल्य पूजा बलि की रचना के अवसर पर अपार हर्ष से रोमांचित शरीर वाला एक बड़ा जनसमुदाय इकट्ठा हुआ।)
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सितम्बर-२०१६ आवासिओ य सव्वो कडय जणो हरिस निब्भरो तत्थ। सहदेव समा ऐसा भू भाए सग्ग रमणीए ॥१५९।।
(वहाँ स्वर्ग समान रमणीय उस नदी के भू भाग पर सहदेव की आज्ञा से हर्ष विभोर लोगों ने पड़ाव डाला।)
परिवड्ढिय लायन्ना इट्ठा पइणो सपरियणस्सा वि। ससुरस्स सासुयाए सा जाया तो विसेसेण ॥१४९।।
(उसका लावण्य बढ़ने लगा और वह अपने परिजनों एवं पति तथा सासससुर की अधिक प्रिय बन गयी।)
ये तीनों गाथाएँ वर्णानुप्रास का उदाहरण हैं। वर्णानुप्रास में वर्णों की समानता होती है। स्वरों का भेद होने पर भी केवल व्यंजनों की समानता ही यहाँ वर्गों की समानता से अभिप्रेत है।
वर्णसाम्यमनुप्रासः । का.प्र. ९.१०३.
ऊपर की प्रथम गाथा में निम्मणे, रम्मे, वित्थरे आदि शब्दों के अंत में 'ए' स्वर का प्रास और सरीरो, मिलिओ, लोओ, तओ, बहुओ आदि शब्दों में 'ओ' स्वर का प्रास है।
दूसरी गाथा में भी 'ओ' स्वर का प्रास होने के कारण वर्णानुप्रास अलंकार है। तीसरी गाथा में लायन्ना, इट्ठा, सपरियणस्सा, जाया आदि शब्दों के अंत में 'आ' स्वर का प्रास होने के कारण वर्णानुप्रास अलंकार बनता है।
निसिपडिबिंबियतारा नीलायण वज्जियं च दिवसम्मि। गयणंगणं व रेहइ समंतओ खाइया जस्स ॥२२।।
(उसके चारों ओर रात को जिस में तारों का प्रतिबिंब पड़ता था, तथा दिन में जो नील से वर्जित आकाश की तरह शोभती थी ऐसी खाई थी।)
कयधम्मजण पसाया पासाया गयणमणुगया जत्थ। रेहति सुरघरा इव अच्छरसारिच्छ पुत्तलिया ॥२३॥
(यहाँ धार्मिक लोगों को प्रसन्न करने वाले प्रासाद (महल) आकाश को छूते थे, जो अप्सराओं जैसी पुतलियों के कारण देव-मंदिर की तरह शोभित
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September-2016 हो रहे थे।)
एसा य विसालच्छी लच्छी व सुदुल्लहा अहन्नाणं । जम्हा न चेव लब्भइ कुलेण रूवेण विहवेण ॥४५॥
(यह विशाल नयना अधन्य (भाग्यहीन) के लिए लक्ष्मी के समान बहत दुर्लभ है, इसी कारण कुल, रूप और वैभव से भी प्राप्त नहीं की जा सकती।)
उपर्युक्त गाथाओं में उपमा अलंकार है। उपमा अलंकार की व्याख्या काव्य प्रकाश के १०वें उल्सास के सूत्र १२४ में बताई गई है-साधर्म्यमुपमा भेदे।
आर्थात् दो भिन्न पदार्थ में किसी एक गुण की समानता जहाँ दिखाई जाये वहाँ उपमा अलंकार होता है। इसमें जिसकी समानता दिखाई जाती है वह उपमेय कहलाता है और जिसके साथ समानता दिखाई जाती है वह उपमान कहलाता है।
उपमान सबको विदित होता है। उपमान और उपमेय का ही साधर्म्य होता है, कार्य-कारण आदि का नहीं। जिसमें उपमान, उपमेय, साधारण धर्म और शब्द वाचक इन चारों का ग्रहण होता है।
दो सदृश पदार्थों में प्रायः अधिक गुण वाला पदार्थ उपमान और न्यून गुण वाला पदार्थ उपमेय होता है। इस दृष्टि से इस गाथा में आकाश उपमान और खाई उपमेय है।
दूसरी गाथा में प्रासाद की उपमा देव-मंदिर से दी गई है। इसमें प्रासाद उपमेय और देव-मंदिर उपमान है।
तीसरी गाथा में नगरी की तुलना लक्ष्मी से की गई है। इसमें लक्ष्मी उपमान और विशाल नयना उपमेय है। इन तीनों गाथाओं में उपमा अलंकार अभिधा शक्ति से बोध्य है।
तेसिं पि दुवे पुत्ता कमेण जाया गुणेहिं संजुत्ता। कुलनहयल-ससि-रविणो सहदेवो वीरदासो य ॥३३॥
(कुलरूपी आकाश के चंद्र और सूर्य के समान उसके गुणों से युक्त क्रमशः दो पुत्र हुए जिनका नाम सहदेव एवं वीरदास था।)
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सितम्बर-२०१६ उपर्युक्त गाथा रूपक अलंकार का उदाहरण है। रूपक अलंकार की व्याख्या निम्नवत है
तद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः । १०.१३८.
अर्थात् जिसमें सादृश्यातिशय के कारण उपमान और उपमेय का अभेद प्रकट हो, वह रूपक अलंकार होता है।
इस उदाहरण में 'कुल' उपमेय और चंद्र' उपमान है और इनमें का भेद मिट गया है, इसलिए यह रूपक अलंकार है।
विन्नाय निच्छयं तो अणुणेत्ता नम्मयं महुरवयणं । भणइ महेसरदत्तो- तं काहं जंपियं तुज्झ ॥३२४।।
(नर्मदा का निश्चय जानकर महेश्वरदत्त नर्मदासुंदरी से मधुर वचन बोलासुंदरी मैं वही करूँगा जो तुझे प्रिय हो।)
इस गाथा में महुरवयणं- दो तरह से घटित किया जा सकता है। एक कर्मधारय समास लगाकर और दूसरा बहुव्रीहि समास लगाकर। कर्मधारय समास लगायें तो अर्थ होगा- महेश्वरदत्त ने नर्मदासुंदरी से मधुर वचन बोला
और बहुव्रीहि समास लगायें तो अर्थ होगा- महेश्वरदत्त ने मधुर वचन बोलने वाली नर्मदासुंदरी से कहा।
इस प्रकार दो अर्थ होने के कारण श्लेष अलंकार है। यह श्लेष अलंकार प्राकृत भाषा की लाक्षणिकता के कारण घटित हो पाया।
उपर्युक्त गाथा में श्लेषालंकार है। श्लेष अलंकार की व्याख्या निम्नवत् हैश्लेषः स वाक्ये कस्मिन् यत्रानेकार्थता भवेत् । १०.१४४. जहाँ एक वाक्य में अनेक अर्थ प्रकट होते हों वहाँ श्लेष अलंकार होता है। सुहिए कीरइ रूवं दुहियमरूवं ति एत्थ जुत्तमिणं । लोहिए पक्कन्नं रज्झइ न हु तह खप्परे छगणं ॥६९१।।
(सुखी को रूपवान और दुःखी को कुरूप बनाया जाता है, यहाँ यही योग्य है। लोहे के पात्र में मिष्टान्न पकाया जाता है, न कि खप्पर में। खप्पर में तो गोबर रखा जाता है।)
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September-2016 ता रूववई नारी आसन्नं जा न होइ एयाए। सहइ गहनाहजुण्हा सूरपहा जा न अल्लियइ ।।४८२।।
(जब तक इसके पास (और कोई स्त्री) न हो तब तक ही अन्य स्त्री सुंदर लगेगी जैसे कि जब तक सूर्य की प्रभा का प्रवेश नहीं होता तभी तक चन्द्र की प्रभा शोभित होती है।) इस गाथा में अर्थांतरन्यास अलंकार है। अर्थांतरन्यास की व्याख्या निम्नवत् है
सामानयं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते। यत्तु सोर्थान्तरन्यासः साधर्म्यणेतरेण वा ॥१०. १६४।।
सामान्य का विशेष के द्वारा अथवा विशेष का सामान्य के द्वारा जो समर्थन किया जाता है, वह अर्थांतरन्यास अलंकार कहलाता है। पहली गाथा में सुखी
और दुःखी उपमेय है तथा रूपवान और कुरूप उपमान है। दूसरी गाथा में नर्मदा के बारे में बात है, यह विशेष है, चंद्रमा की ज्योत्सना सूर्य की प्रभा तक शोभित होती है, यह सामान्य कथन है। इसलिए यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार घटित होता है।
इय निम्माणे रम्मे पूयाबलिवित्थरे महत्थम्मि। हरि सुद्धसि य सरीरो मिलिओ लोओ तओ बहुओ ॥७५।।
(इस सुंदर बहुमूल्य पूजा बलि की रचना के अवसर पर अपार हर्ष से रोमांचित शरीर वाला एक बड़ा जनसमुदाय इकट्ठा हुआ।)
उपर्युक्त गाथा में अतिशयोक्ति अलंकार है। अतिशयोक्ति अलंकार की व्याख्या निम्नवत् है
निगीर्याध्यवसानन्तु प्रकृतस्य परेण यत् । प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम् ॥१०. १५२॥
उपमान के द्वारा भीतर निगल लिये गये उपमेय का जो अद्यवसान होता है, वह अतिशयोक्ति होती है। जैसे उपर्युक्त गाथा में जनसमुदाय के लिए हर्ष से रोमांचित शरीर ये अतिशयोक्ति बतलायी है।
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जत्तो जत्तो वच्चइ दंसणतण्हालुया नयरतरुणा ।
तत्तो घोलिरमालइलयं व फुल्लंधुया जंति ॥३६॥
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(दोलायमान विकसित मालती लता की ओर जिस प्रकार भौरे जाते हैं, उसी प्रकार ऋषिदत्ता जहाँ जाती थी, उसके पीछे उसको देखने की इच्छा से नगर का तरुणवर्ग भी चल पड़ता था ।)
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जं जसु घडियं तं तसु छज्जइ उट्टह पाइ कि नेउरु बज्झइ ।
सुट्टु वि भक्खइ भुल्लउ न कुणइ कइय वि चम्मयरत्तणु गिहिवइ ॥५९२॥
हंसी पंजरछूढा सरइ जहा अविरयं कमलसंडं ।
तह नम्मया वि सुमरइ निरंतरं जणणिजणयाणं ॥ ५८२॥
(कहा गया है कि जो वस्तु जिसके लिये बनाई गई है, वही उसे शोभा देती है। ऊँट के पैर में क्या झाँझर बाँधे जाते हैं?)
(जैसे पिंजर में बन्द की हुई हंसनी लगातार कमलवन को याद करती है वैसे नर्मदासुंदरी भी निरंतर अपने माता-पिता को याद करने लगी ।)
उपर्युक्त गाथा में वाक्योपमालंकार है । वाक्योपमालंकार की व्याख्या निम्नवत है।– जिसमें पूरे एक वाक्य की उपमा दूसरे वाक्य से ही दी जाती है, वह वाक्योपमालंकार है ।
पहली छत्तीसवीं गाथा में मालती लता के पास भँवर का जाना- ऋषिदत्ता के पीछे तरुण वर्ग के जाना की उपमा दी है। इसमें ऋषिदत्ता और तरुणवर्ग उपमेय है, तथा मालती लता और भँवर उपमान है। साधारण धर्म- दोलायमान होना और चल पड़ना है। वाचक शब्द - व है। तीसरी गाथा में वाचक शब्दजहाँ तहाँ, साधारण धर्म-पंजरछुहा हंसनी और नर्मदासुंदरी दोनों के लिए है । नर्मदासुंदरी वेश्या के कब्जे में है इसलिए उनके लिए भी साधारण धर्म बनता है। उपमान-हंसनी और उपमेय- नर्मदासुंदरी है।
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दट्ठूण अन्नसमं निययसिरिं हरिसमञ्जमत्तं व ।
नन्नच्चइ व्व निच्चं पवणुद्धुयधयवडकरेहिं ॥२७॥
(और भी- अपनी अनन्य लक्ष्मी को देखर हर्ष के मद से उन्मत्त बनी हुई
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September-2016 वह नगरी पवन से उड़ती हुई ध्वजा रूपी करों से नित्य नृत्य करती हुई लगती थी।)
मुणिसावाओ भीया पडिया कह इत्थ दारुणे वसणे। कूयमिवाओ(?) तत्था खित्ता रूद्दे समुद्दम्मि ॥३८९॥
(मुनि के श्राप से डरी हुई मैं यहाँ कैसे दारुण दुःख में आ पड़ी। मानो कुएँ से निकालकर भयंकर समुद्र में डाल दी गयी।)
उपर्युक्त गाथाएँ उत्प्रेक्षा अलंकार का उदाहरण हैं। उत्प्रेक्षालंकार की व्याख्या निम्नवत हैसम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् ।।१०.१३६।।
अर्थात् प्रकृत-वर्ण्य उपमेय की सम-उपमान के साथ सम्भावना उत्प्रेक्षा कहलाती है। सत्ताईसवीं गाथा में क्रिया पद के साथ 'व्व' है, इसलिए उत्प्रेक्षालंकार घटित होता है। ३८९ गाथा में अध्याहार से वाचक शब्द की अनुवृत्ति हो जाती है, अतः यहाँ उत्प्रेक्षालंकार है।
इस प्रकार हमने देखा की नर्मदासुंदरी कथा में अनेकानेक अलंकार जगह जगह भरे पड़े है जिनसे न केवल नर्मदासुंदरी की शोभा बढ़ती है, बल्कि पाठक को भी पढ़ने का आनंद आता है।
संदर्भ ग्रंथ : १. काव्य प्रकाश व्याख्याकार, आचार्य विश्वेश्वर प्रकाशक-ज्ञान मण्डल
लिमिटेड, वाराणसी १९६० २. नम्मयासुंदरी कहा, सम्पादक- डॉ. के. आर. चन्द्र, प्रकाशक- प्राकृत
जैन विद्या विकास फंड, ७७-३७४ सरस्वती नगर, आजाद सोसायटी
अहमदाबाद- १९८९ ३. नम्मयासुंदरी कहा, का समीक्षात्मक अध्ययन, शोधप्रबंध- राजश्री रावल,
अहमदाबाद- २००९
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કેટલાંક મહત્ત્વનાં ફરમાનપત્રો
સંગ્રાહક-મુનિશ્રી ન્યાયવિજ્યજી મોગલકુલતિલક સમ્રા અકબરે જગદ્ગુરુ શ્રી હીરવિજયસૂરીશ્વજી અને તેમના શિષ્ય પરિવારને આપેલાં ફરમાનો કૃપારસકોષ’ અને ‘સૂરીશ્વર અને સમ્રા વગેરે ગ્રંથોમાં પ્રકાશિત થયેલાં છે. તેમજ જહાંગીર, શાહજહાં અને ઔરંઝેબ વગેરેનાં ફરમાનો “સૂરીશ્વરને સમ્રા “શત્રુંજય પ્રકાશ' શત્રુજ્ય મેમોરેન્ડમ, રખોપાના જરૂરી પત્રો વગેરેમાં પ્રકાશિત થયાં છે. હું અહીં કેટલાંક મહત્ત્વનાં ફરમાનોનો પરિચય અને અનુવાદ આપવા ધારું છું.
આ ફરમાન ભાવનગરમાં ભરાયેલી ગુજરાત સાહિત્ય પરિષદના ઈ.સ. ૧૯૨૪ના અધિવેશનના રીપોર્ટમાં પ્રકાશિત થયાં છે. ફારસી ભાષાના સમર્થ અભ્યાસી અને ગુજરાતના સાક્ષરરત્ન શ્રીયુત કૃષ્ણલાલ મોહનલાલ ઝવેરીએ એ ફરમાન સંપાદિત કર્યા છે. શ્રી ફોર્બ્સ ગુજરાતી સભાના સંગ્રહમાં કેલીક જૂની સનદો અને જૂનાં બાદશાહી ફરમાનો છે. તે તેમણે ગુજરાતના ઇતિહાસને ઉપયોગી ધારી તેમાં સંપાદિત કર્યા છે.
આ ફરમાનો ગુજરાતના ઇતિહાસમાં જેમ ઉપયોગી છે, તેમજ જૈનધર્મના પ્રભાવ ઉપર પણ સુંદર પ્રકાશ પાડનારાં છે. મુસ્લીમ સમયમાં અને તેમાંયે મુગલાઈ જમાનામાં જૈનધર્મમાં પ્રાભાવિક આચાર્યો અને પ્રાભાવિક શ્રાવકો કેવા હતા તેનો ખ્યાલ આ ફરમાનો આપે છે. હું પહેલા સંક્ષેપમાં તે ફરમાનોનો પરિચય આપીશ અને પછી મૂળ ફરમાનોનો અનુવાદ આપીશ, જેથી વાચકો તેને બરાબર સમજી શકે.
પહેલું ફરમાન જનરલ ગોડાર્ડનું છે. એક વિજયી સેનાપતિ પોતાના વિજયપ્રવેશ વખતે પ્રજાને જે આશ્વાસન અને શાંતિ આપે છે તે આ ફરમાનમાં છે. દરેકે વિજયી સેનાપતિ આવાં જ જાહેરનામાં બહાર પાડે છે. અંગ્રેજોએ અમદાવાદમાં પ્રવેશ કરતાં આ ફરમાન બહાર પાડ્યું હતું. અમદાવાદની જનતાને આ ફરમાન જાણાવે છે કે “અમદાવાની રૈયતે શાંતિથી રહેવું અને પોતાનું નિયમિત કામકાજ કરવું. તેમને તેમના કામમાં કોઈ ખલેલ નહિ પહોંચાડે”. હીજરી સં. ૧૧૯૪માં આ ફરમાન બહાર પડ્યું છે, તા. ૫ મહિનો સફર. આ ફરમાનમાં સંવત મુસલમાની આપ્યો છે. અને મહોરમાં શાહઆલમનું નામ છે, જે વાચકો ફરમાનથી જોઈ શકશે.
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September-2016
આ સિવાયનાં ફરમાનો મોગલ સમ્રાટ્ જહાંગીર અને શાહજહાંનાં છે. આ ફરમાનોમાં મોગલ બાદશાહોનાં પોતાની બિનમુસ્લીમ જનતા પ્રત્યેનાનાં સદ્ભાવ, તેમના ધર્મને માન આપવાની લાગણી અને તેમના પ્રત્યેની પક્ષપાતરહિત મોનવૃત્તિ જણાઈ આવે છે. આ બાદશાહોને પોતાના ધર્મ પ્રત્યે પ્રેમ અને આદર હોય તે સ્વાભાવિક છે, પણ અન્ય ધર્મવાળી પ્રજાનું મન ન દુઃખાય એનો પણ તેઓ પૂરો ખ્યાલ રાખતા હતા. આ નીતિ બાદશાહ અકબરથી વધુ પ્રસિદ્ધિ પામી
હતી.
જીવહિંસાની મનાઇ, શિકારનો પ્રતિબંધ અને જૈનમંદિરો, ધર્મશાળાઓ અને ધર્મસ્થાનોના ઉપયોગમાં પરધર્મીઓની ડખલોનો અટકાવ; એ આ ફરમાનોની મુખ્ય મતલબ છે.
બીજું ફરમાન અમદાવાદના નગરશેઠ શાંતિદાસને આપેલું છે. તેમાં પાલીતાણા મજકુર શેઠને ઇનામમાં આપ્યાનો ઉલ્લેખ છે. તેમજ ત્યાં આવનાર યાત્રિકોને કોઈએ સતાવવા નહીં, કે હરકત કરવી નહીં તેની તાકીદ છે. આ ફરમાન શાહજહાંનના સમયનું છે. તેને ગાદીએ બેઠાને ત્રણ વરસ થયાં છે અને તા. ૨૯ મોહરમ ઉલહરામ મહિનો છે. સનદ ઉપર બાદશાહ શાહજહાંની મહોર ને સિક્કો
છે.
ત્રીજું ફરમાન તે વખતના જૈન સંઘમાં ઉઠેલા એક વંટોળ ઉપર અચ્છો પ્રકાશ પાડે છે. જૈન સંઘમાં પ્રાયઃ દરેક બે કે ત્રણ સૈકા પછી કોઈ ને કોઇ નવો મતવાડો ઊભો થયા જ કરે છે અને તેનો પ્રત્યાઘાત આખા સમાજમાં ઊભો થાય છે. અને એક વાર તો વંટોળની જેમ તેની અસર મૂકતો જાય છે. આવો જ એક વંટોળ લોંકાશાહે લોંકામત ચલાવ્યા પછી ઊઠ્યો હતો. અને જેમ અત્યારે કાનજીસ્વામીના નૂતન પંથથી જે વંટોળ ઊઠ્યો છે તેવું જ વાતાવરણ તે વખતે પ્રગટેલું જણાય છે.
આ ફરમાન એમ સૂચવે છે કે લોંકાશાહના નવીન મતવાદીઓએ બાદશાહના દરબારમાં અરજ પેશ કરી છે કે અમદાવાદના શેઠ શાંતિદાસ અને સૂરદાસ વગેરે મહાજનોએ અમારી સાથે ખાનપાન, રોટી અને બેટી વ્યવહાર બંધ કર્યો છે તે પુનઃ ચાલુ થાય. પરન્તુ આ અરજનો જવાબ આપતાં ફરમાનમાં ફરમાવામાં આવ્યું છે કે ખાન-પાન-રોટી-બેટીનો વ્યવહાર એ દરેકની મરજી ઉપર આધાર રાખે છે, તેમાં કોઈનું દબાણ ચાલી શકે નહિ. પણ એટલી સૂચના છે કે કોઈએ કોઈને અડચણ ન કરવી, કોઈએ કોઈને હેરાન ન કરવા, આ અરજી તે વખતના ગુજરાતના સુબા મહમદ દારા શકુહ (શિકોહ) ને થયેલી છે.
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ચોથું ફરમાન- આ ફરમાનમાં તો તે વખતના મુગલ સમ્રાટોની હિન્દુ જાતિ પ્રત્યે, હિન્દુ ધર્મ પ્રત્યેની નિષ્પક્ષપાત નીતિનું આછું દર્શન બહુ જ સુંદર રીતે થાય છે.
પ્રસંગ એવો છે કે સમ્રાટ્ શાહજહાં દિલ્હીના તખ્ત ઉપર ગાદીનશીન થયો છે. ન્યાય અને નીતિથી ભારતવર્ષનું પાલન કરે છે.
આ વખતે ઔરંગઝેબને ગુજરાતની સૂબાગીરી સોંપાયેલી છે. એના ઝનૂની અને ધર્માંધ સ્વભાવ મુજબ સૂબાગીરીના તોરમાં શેઠ શાંતિદાસે બંધાવેલા એક ભવ્ય જૈનમંદિર ઉપર તેની ધર્માંધતાની ક્રૂર દૃષ્ટિ પડી છે અને ત્યાં થોડી મેહેરાબ (કમાનો) બનાવી તેને મસીદ બનાવી છે. બાદશાહ પાસે આ સંબંધી ફરિયાદ જતાં બાદશાહે મેહેરાબવાળા ભાગ અને જૈન મંદિર વચ્ચે દીવાલ ચણાવી લેવરાવીને જૈન મંદિરમાં પૂર્વવત્ દર્શન પૂજન હક્ક-વ્યવસ્થા શાંતિદાસ શેઠની મરજી મુજબ થાય તેવો હુમક આપ્યો છે, તેમજ કેટલાક ફકીરોએ ત્યાં ધામા નાખ્યા હશે અને મંદિરમાં જતા આવતા ભક્તોને અડચણ કરતા હશે, બાદશાહે તેમને માટે ત્યાંથી ઊઠી જવાનો હુકમ કાઢી મંદિરને અને ભક્તજનોને શાંતિ આપી છે. વળી તે વખતે ‘બાવરી’ જાતના કેટલાક માણસો જૈન મંદિરની ઇમારતનો મસાલો ઉપાડી લૂંટી ગયા છે તે પાછો અપાવવા અને તેમ ન બને તો રાજ્યના ખર્ચે તે મસાલોતેની કિંમત અપાવવાનું સૂચવ્યું છે. પોતાના પુત્રનીયે પરવા કર્યા સિવાય બાદશાહ શાહજાહાંએ કરેલો. આ હુકમ તેની નિષ્પક્ષ વૃત્તિનો અચૂક પુરાવો છે એમાં તો સંદેહ નથી જ. આ ફરમાન ૧૦૮૧ હીજરી સંવતનું છે. ફરમાન ઉપર મહોર સમ્રાટ્ના પુત્ર મહંમદ દારા શકુહની છે.
પાંચમું પરમાન શેઠ શાંતિદાસની મોગલ સમ્રાટ્ના દરબારમાં કેટલી લાગવગ, કેટલું ચલણ હશે તે સૂચવે છે.
શેઠના બાગબગીચા, હવેલીઓ, દુકાનો-પેઢીઓના રક્ષણ માટે આ ફરમાન છે. તેમને, તેમનાં ફરજંદોને કે નોકરોને અડચણ ન પડે; તેમનાં બાગબગીચા, હવેલીઓમાં કોઈ અફસરોના ધામા ન નંખાય, તેમજ તેમની મિલકત જપ્ત ન થાય, અને તેમના નોકરોને ભાડું વગેરે ઉઘરાવતાં કોઈ ડખલગીરી ન કરે તે સંબંધી સખત આજ્ઞા છે.
આ ફરમાન હીજરી સં. ૧૦૪૫નું છે. લેખના ઉપર ભાગમાં મહોર સિક્કો સમ્રાટ શાહજહાંનો છે અને બીજો સીક્કો દારા શકુહનો છે.
છઠ્ઠું ફરમાન આખા જૈન સંઘને લગતું છે. મોગલ સમ્રાટોના દરબારમાં જૈનોનું કેટલું માન હતું તેનું આ ફરમાન આપણને પૂરેપૂરું ભાન કરાવે છે. જૈનો
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September-2016 સદાય ન્યાયપ્રિય, ધર્મપ્રિય, અને શાંતિપ્રિય રહ્યા છે. તેમણે અન્યાય અને અનીતિ સામે પથ્યપ્રકોપ પ્રગટાવ્યો છે. સમાજની-પ્રજાની નેતાગીરી કરી છે અને પ્રજાના હિતમાં પોતાનું હિત માની રાજા અને પ્રજા વચ્ચે પુલરૂપ બની દેશભક્તિ અને પ્રજાહિતના કાર્યો કરી પોતાનાં ધર્મસ્થાનોની પણ ખૂબ ખૂબ રક્ષા કરી છે.
આ ફરમાનમાં શેઠ હરખા પરમાનંદજીએ સમ્રા જહાંગીરના દરબારમાં અરજી કરી, તે વખતનાં મહાન્ યુગલ જૈનાચાર્યો શ્રી વિજયસેનસૂરિ, શ્રી વિજયદેવસૂરિ અને ખુશફહમ (સારી બુદ્ધિવાળા. ખુશફહમનું બિરુદ બાદશાહ જહાંગીરે સિદ્ધિચંદ્રને આપ્યું છે તેમજ સમ્રાટ અકબરે મંદિવિજયને આપ્યાનું પ્રસિદ્ધ છે. આ મંદિવિજયજી કદાચ તે જ હોય, ખુશફહમ સારી બુદ્ધિવાળા. શ્રી વિજયસેનસૂરિજી જગગુરૂ શ્રી હીરવિજયસૂરીશ્વરજીના મુખ્ય પધર છે. તેઓ પણ સમ્રાટ અકબરની વિનંતિથી લાહોર અકબરને મળ્યા હતા. શ્રી વિજયદેવસૂરિ, શ્રી વિજયસેનસૂરિજીના પટ્ટધર છે. અને સમ્રાટ જહાંગીર તેમને માંડવગઢમાં મળ્યો હતો.) નંદિવિજય તેમનાં ધર્મસ્થાનો ઉપાશ્રયો અને મંદિરોની રક્ષાની માંગણી કરી છે. ધર્મસ્થાનોમાં કોઈ ઊતરે નહીં, આશાતના કરે નહીં અને ધર્મકાર્યમાં દખલ કરે નહીં તેમજ સિદ્ધગિરિ-શત્રુજ્ય તીર્થ ઉપર જતાં યાત્રાળુઓનો કર માફ કરાવ્યો છે. અને આ ફરમાનમાં જણાવ્યા મુજબના દિવસોમાં અહિંસા-અમારી પળાવી છે.
મોગલ સમ્રાટ અકબરના દરબારમાં જઈ જગદ્ગુરૂ શ્રી હીરવિજયસૂરિજીએ જૈન શાસનની જે પ્રભાવના કરી, જૈનધર્મનો જે પ્રચાર કર્યો અને જૈન સાધુઓનાં ત્યાગ-તપ-સંયમનો જે પ્રભાવ બેસાડ્યો અને અહિંસા ધર્મની જે ઉદ્ઘોષણા કરાવી; તે માર્ગ તેમના શિષ્ય-પ્રશિષ્યોમાં શ્રાવકોમાં અને અન્ય ગચ્છીય આચાર્યો દ્વારા પણ ચાલુ રહ્યો હતો, જેનાં ફળ આપણે આવાં ફરમાનો દ્વારા જાણી. શકીએ છીએ. આ છયે ફરમાનોનો સાક્ષર શ્રી કૃષ્ણલાલ મોહનલાલ ઝવેરીએ કરેલો અનુવાદ, જૈન જનતા માટે ઉપયોગી સમજીને, ગૂજરાતી સાહિત્ય પરિષદના ઇ.સ. ૧૯૨૪ના અહેવાલમાંથી સાભાર લઇ અહીં આપું છું.
કેટલાક અપ્રસિદ્ધ જૂના લેખો સંપાદક-શ્રીયુત રા. રા. શ્રી કૃષ્ણલાલ મોહનલાલ ઝવેરી
૧. (પહેલું ફરમાન) શ્રી ફોર્બ્સ ગુજરાતી સભાના સંગ્રહમાં કેટલીક જૂની ફારસી સનદો અને
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सितम्बर-२०१६ કેટલાંક જૂનાં બાદશાહી ફરમાનો છે એ સનદો તથા ફરમાનોની સંખ્યા હોટી નથી. પરંતુ જે છે તે કેટલેક ભાગે ગુજરાતના ઇતિહાસને ઉપયોગી છે એ સંગ્રહમાંથી એક ફારસી લેખનું ભાષાંતર થોડા વખત પર “ગુજરાતીના દીવાળીના અંકમાં “પેશ્વા સાથેનો એક કરાર” એ મથાળા હેઠળ પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવ્યું હતું. ગુજરાતની અર્વાચીન સ્થિતિને લગતો એ કરાર હતો. એ સ્થિતિ જોડે સંબંધ રાખતો એક બીજો લેખ એ સંગ્રહમાંથી મળી આવ્યો છે. જે વખતે જનરલ ગોડાર્ડ (General Goddard)ના હાથમાં અમદાવાદ આવ્યું તે વખતે એણે એક જાહેરનામું પ્રસિદ્ધ કરાવેલું. તે જાહેરનામાની ખરી નકલ ગોડાર્ડની સહી સાથેની એ સંગ્રહમાંથી મળી આવી છે. દરેક વિજયી સેનાપતિ એવી રીતનાં જાહેરનામાં કે ઢંઢેરા પોતાના તાબામાં આવેલી રૈયતના સાન્તવન અર્થે બહાર પાડતા, અને હજી પણ પાડે છે. છેલ્લી મ્હોટી લડાઈ વખતે જર્મનો પણ એવાં જાહેરનામાં ઠેર ઠેર બહાર પાડતા હતા. આ જાહેરનામું ટકું પણ મુદ્દાસર છે.
શાબ આલમ બાદશાહ ગાઝી અમીર ઉદ્દોલા જનરલ ગોડાર્ડ બહાદુર ફતેહજંગ ફીદવી સને ૧૧૯૪ અસલ મુજબ નકલઃ
નથુ (નાનુ) શંકર સુબા વગેરે અમદાવાદની રિયાત, એ શહેરના વતનીઓ તથા ત્યાં રહેનારા અને વસનારા સઘળાને માલુમ થાય
એમ થાઓ કે હવે સૌ લોકોએ ખાતર જમા રાખી પોતાના મકાનમાં રહેવું. અને કોઈ પણ રીતનો અંદેશો કે ડર પોતાની હંમેશની રહેણી કરણી સંબંધે ન રાખતાં રોજના કામકાજમાં મશગૂલ રહ્યા જવું, કારણ કોઈ પણ માણસ તેમને કોઈ રીતની અડચણ કે અટકાવ કરશે નહિ. આ બાબત તેમણે ખાતરી રાખવી, અને આમાં લખ્યા મુજબ હેમણે વર્તવું. લખું તારીખ ૫ મહીનો સફર હી. સ. ૧૧૯૪ તે ગીદીએ બેઠાનો સને ૩૫
(અંગ્રેજીમાં સહી) Thomas Goddard
જાહાંગીર અને શાહજહાંન બાદશાહના વખતમાં અમદાવાદનો જૈન વેપારી, ઝવેરી શાંતિદાસ (કે સતિદાસ) બહુ વગવાલો માણસ થઈ ગયો હોય એમ જણાય છે. એ બાદશાહોના તરફથી એને ઘણાં ફરમાનો મળ્યાં હોય એમ લાગે છે, અને તે સર્વે જૈનધર્મના સિદ્ધાંતોને અનુસરી ચાલનારાઓને દરેક રીતે અડચણમાંથી
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મુક્તિ રાખવાને માટે એણે કાઢાવ્યાં છે જીવહિંસાની મના, શિકારનો પ્રતિબંધ, જૈન દહેરાસર તથા ધર્મશાળાઓ વિગેરેના ઉપયોગમાં પરધર્મીઓ તરફથી થતી અડચણોનો અટકાવ, એ આ ફરમાનોની મુખ્ય મતલબ છે. પોતાની હિંદુ રૈયતને હેનો ધર્મ, ત્યેની મરજી મુજબ અબાધિત રીતે પાળવા દેવા માટે હેમાં દરેક રીતે કાળજી દર્શાવવામાં આવી છે.
શેત્રુંજાની આસપાસ જાનવરોની કતલ કે ત્હનો શિકાર ન થાય તથા ત્યાં માછલાં મારવાં કે પકડવાં નહિ, એવો કોઇ ફરમાનથી હુકમ થયો છે, તો કોઈ બીજા ફરમાનથી હિંદુઓની ધર્મની જગા પાસે કોઇ એક મુસલમાન ફકીર ગેરકાયદે દરગાહ બનાવી બેઠો હતો ત્યેને એકદમ ખસી જવાની આજ્ઞા થઈ છે. આ ફરમાનોની ભાષા ફારસી છે ને મજકુરમાં અપક્ષપાતપણું લીટીએ લીટીએ તરી આવે છે. ધર્મ સંબંધી છૂટ હેમાં વાક્યે વાક્યે દેખાઈ આવે છે. એ ફરમાનોમાંથી થોડાંક નમૂનારૂપે આપ્યાં છે.
અ (બીજું ફરમાન)
સોંરઠ સરકાર હાલમાં કામ કરતા તથા ભવિષ્યમાં થનાર અમલદારો જેઓ સુલ્તાનની મહેરબાનીની આશા રાખે છે, તથા તે મહેરબાનીને યોગ્ય ગણાવા માગે છે હેમને માલુમ થાય કે ગૂદ્દે ઉલ્ અકરાન (એક ખેતાબ છે) શાંતિદાસ ઝવેરીએ, સ્વર્ગ સમાન અમારી દરબારમાં એક અરજદાર તરીકે, અરજ કરી જણાવ્યું કે સદરહુ સરકારના તાબાના પરગણામાં મોજે પાલીતાણા નામે એક ગામ આવેલું છે હેમાં હિંદુઓની પૂજાનું એક સ્થાન જેને શેત્રુંજો કહે છે તે આવેલું છે અને ત્યાં આસપાસના માણસોની તીર્થ માટે જાત્રા કરવા આવ-જાવ થયા કરે છે તેથી ઉંચા દરજ્જા અને ઉમદા પીવાલા (બાદશાહ)નો હુકમ કાઢવા તથા પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે કે પાનખર ઋતુની શરૂઆતથી (પીચીઈલ મહીનાથી) મજકૂર મોજો (ગામ) ઉપર જણાવેલા ગૂદ્દે ઉ અકરાનને હમે મહેરબાનીની રાહે ઈનામમાં આપીએ છીએ અને તેથી સૌની ફરજ છે કે, એ ઈનામ હેમણે કબૂલ રાખી કોઈ પણ રીતે તેને હરકત કરવી નહીં. અને આસપાસના માણસો ત્યાં નિશ્ચિંત પણે તીર્થ કરવા આવે જાય, હેમને આ હુકમની રૂએ કોઈ પણ રીતે હરકત હલ્લો કરવો નહિ. લખ્યું તા. ૨૯ મોહોરમ ઉલ્ હરામ મહીનો. ગાદીએ બેસવાનું વર્ષ ત્રીજું.
આ સનંદના ઉપરના ભાગમાં શાહજહાન બાદશાહનાં મહોર ને સિક્કો છે, અને કોઈ અલીતકીખાન મારફત એ મોકલવામાં આવી છે એવું લખ્યું છે.
(વધુ આવતા અંકે....)
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परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी का ८२वाँ भव्य जन्मोत्सव एवं कैलासश्रुतसागर भाग-१९, २० व २१ केसाथ
अन्य पुस्तकों का विमोचन
श्री पुष्पदंत श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, सेटेलाइट, अहमदाबाद के तत्त्वावधान में परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब का ८२वाँ जन्ममहोत्सव के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम के अन्तर्गत गुजरात विश्वविद्यालय के सभा भवन में भव्य गुरुपर्वोत्सव दिनांक ११ सितम्बर, २०१६ भाद्रपद शुक्ल ९ (द्वि.) को हर्षोल्लास पूर्वक मनाया गया.
इस मंगलमय अवसर पर पूज्य आचार्यश्री का आशीर्वाद व उनका अभिवादन करने हेतु उनके अनेक शिष्य-प्रशिष्यगण तथा श्रमणीवृंद उपस्थित थे व विशेषरूप से पधारे शेठश्री आणंदजी कल्याणजी पेढी के प्रमुख माननीय शेठ श्री संवेगभाई लालभाई, साहित्य क्षेत्र के पद्मश्री अवोर्ड से विभूषित डॉ. कुमारपाल देसाई, श्री अंकित त्रिवेदी, अनेक जैन संघों के प्रमुख कार्यकर्ता, व्यापार क्षेत्र से श्री वसंतभाई अदाणी आदि, राजनीतिक क्षेत्र से स्थानीय विधायक श्री राकेशभाई के साथ अनेक राजनेता, 'तारक महेता का उल्टा चश्मा' की टीम से श्री भव्य गांधी (टपु) आदि देशभर से पधारे गुरुभक्तों की उपस्थिति से जन्मोत्सव की भव्यता बढ़ी.
__ श्री पुष्पदंत जैन संघ के ट्रस्टी श्री कल्पेशभाई वी. शाह ने उपस्थित जनसमूह का स्वागत करते हुए कहा कि मैंने पूज्य राष्ट्रसन्त को पिछले ५० दिनों में जितना जाना है उसमें यह कह सकता हूँ कि पूज्यश्री करुणा, वात्सल्य, त्याग-तप की प्रतिमूर्ति हैं. इनका गुणगाण करने में शब्द सामर्थ्यवान नहीं हैं. आचार्य श्री विनयसागरसूरिजी म. सा, आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरिजी म. सा, आचार्य श्री हेमचंद्रसागरसूरिजी म. सा, आचार्य श्री अजयसागरसूरिजी म. सा, पंन्यास प्रवर श्री अरविन्दसागरजी म. सा.,गणिवर्य श्री प्रशांतसागरजी म. सा., आदि ने अपने प्रवचनों में जन्मोत्सव एवं पूज्यश्री के जीवन कवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला. पूज्य आचार्यश्रीजी ने कहा कि संसार के परिभ्रमण से छुटकारा प्राप्ति हेतु परमात्मा श्री महावीर के बताए उपदेशों का पालन करना होगा, तभी हम अपना मानवजीवन सफल कर सकते हैं. पूज्य महात्माओं की पवित्र वाणी से संपूर्ण वातावरण धर्ममय बना हुआ रहा.
भव्य गुरुपर्वोत्सव का शुभारंभ मंगलदीप प्रागट्य से हुआ. बालक बालिकाओं ने अभिवादन नृत्य प्रस्तुत कर पूज्यश्रीजी के प्रति अपनी भावनाएँ प्रकट कीं तो प्रसिद्ध गायक नरेन्द्र वाणीगोता ने भक्तिपूर्ण गीतों द्वारा संपूर्ण वातावरण को भक्तिमय बना दिया. उपस्थित अनेक महानुभवों ने भी पूज्यश्रीजी के प्रति अपनी मंगल भावनाएँ प्रकट की. प्रवचन श्रृंखला के मध्य उपस्थित महानुभवों का अभिनन्दन किया गया. पूज्यश्रीजी के जन्मोत्सव के पावन अवसर पर अनेक श्रीसंघों एवं श्रीमानों द्वारा श्रुत संपदा के संरक्षण के क्षेत्र में अग्रणी आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर एवं SMJAK कोबा के विकास एवं संचालन हेतु विशाल सहयोगराशि की उद्घोषणा की गई.
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SHRUTSAGAR
September-2016 इस पावन अवसर पर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा के माननीय ट्रस्टी श्री हेमन्तभाई सी. राणा को कोबा ट्रस्ट की ओर से चाँदी के प्लेट पर कोबा तीर्थ को उनके द्वारा मूलमें से खडा करने हेतु किये गए अतुलनीय योग दान हेतु जैनसेवारत्न (पुरष्कार) के रूप में अभिनंदन पत्र अर्पित किया गया तथा संस्था के प्रति उनकी समर्पितता एवं कार्यों का गुणगाण किया गया.
भव्य गुरुपर्वोत्सव के अंत में सभी पधारे हुए महानुभावों के लिए श्रीसंघ द्वारा साधर्मिकभक्ति की सुन्दर व्यवस्था की गई थी. सभी कार्यक्रम बड़े ही उत्साहपूर्वक संपूर्ण धार्मिक वातावरण में सम्पन्न हुआ.
प्रस्तुत प्रसंग पर निम्न ग्रंथों का किया गया विमोचन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा द्वारा प्रकाशित-कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची का भाग १९, २० एवं २१, जैन रामायण भाग १ से ३, मयणा, प्रशमरति, पापणे बांध्यु पाणियारु व भारतीय पुरालिपि मञ्जूषा आदि ग्रंथों का विमोचन संपन्न हुआ. भारतीय पुरालिपि मञ्जषा में ब्राह्मी, शारदा, ग्रंथ, प्राचीन नागरी आदि चार लिपियों का उद्भव और विकास, वर्णमाला, लेखन परम्परा तथा हस्तप्रत पठन-पाठन संपादन विद्या आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर शोधपूर्ण विवेचन प्रस्तुत किया गया है। पूज्यश्री के ८१ वर्ष पूर्णता पर पुष्पदंत श्री जैन संघ द्वारा किये गये विशिष्ट
अनुमोदनीय अनुष्ठान ८१ जिनालयों में अंगरचना, ८१ प्रभु की सेवा करने वाले पुजारिओं का बहुमान, ८१ साधुसाध्वी भगवंतों के सेवकों का तथा उपाश्रय में सेवा करने वाले सेवकों का बहुमान, ८१ पाठशाला के शिक्षकों व बालकों का सम्मान, ८१आयंबिलशाला के तपस्वियों की भक्ति, ८१ ज्ञानभंडार के स्वयं-सेवकों का बहुमान, ८१ जैन रिक्साचालकों का बहुमान, ८१ जैन परिवारों के गृह-सेवकों का बहुमान, ८१ हजार सामायिक की शुद्ध आराधना, ८१ हजार आयंबिल तप की आराधना, ८१-८१ दिव्यांगों अपंगों को ट्राईसाईकल, व्हीलचेर, बैसाखी आदि दिया गया.
कोबातीर्थ में पर्यषण महापर्व की भव्य आराधना प. पू. राष्ट्रसंत आ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के सदुपदेश से निर्मित श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा में पर्युषणपर्व दौरान विविध संघों से व ग्राम-नगरों से अच्छी संख्या में भाविक पधारे. ६४ प्रहरी पौषध, छट्ट, अट्ठम, अट्ठाई आदि तपश्चर्या व पूजा प्रतिक्रमणादि आराधना अभूतपूर्व हुई. भगवान महावीर स्वामी की भव्यातिभव्य अंगरचना के दर्शन हेतु दूर-दूर से भक्तों की भीड लगी. अष्टमंगल, १४ स्वप्न आदि की बोलीयाँ आदि में भाविकों ने मन लगाकर द्रव्य व्यय किया. जापमग्न पू. आ. श्री अमृतसागरसूरि म. सा. व पू. मुनि श्री कैलासपद्मसागरजी म.सा. की निश्रा में समयबद्ध श्री कल्पसूत्र-बारसासूत्र के व्याख्यान व प्रतिक्रमणादि से आराधक धन्य हुए.
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HARE
R
-RREFERE
राष्ट्रसंत आचार्यश्री मसागरसूरीश्वरजी म.सा.
के ८२वें जन्मदिन प्रसंग पर दीप प्रागट्य करते हुए महानुभाव
प्रसंग पर उपस्थित श्रमणवृंद
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1000000000899000000000000000000000000000000
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प्रसंग पर उपस्थित श्रमणिवृंद
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to post at Gift City So, and on 20th date! of every month under Postal Regd. No. G-GNR-338 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2018. THITITIATITI राष्ट्रसंत पू. आ. श्री के जन्मदिन प्रसंग की भवोदधितारक नौका BOOK-POST/PRINTED MATTER प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर गांधीनगर 382007 / फोन नं. (079) 23276204, 205, 252, फेक्स (009) 23276249 / Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org Printedia D V HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Print NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate, Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and heat SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI For Private and Personal Use Only