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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर सितम्बर-२०१६ आवासिओ य सव्वो कडय जणो हरिस निब्भरो तत्थ। सहदेव समा ऐसा भू भाए सग्ग रमणीए ॥१५९।। (वहाँ स्वर्ग समान रमणीय उस नदी के भू भाग पर सहदेव की आज्ञा से हर्ष विभोर लोगों ने पड़ाव डाला।) परिवड्ढिय लायन्ना इट्ठा पइणो सपरियणस्सा वि। ससुरस्स सासुयाए सा जाया तो विसेसेण ॥१४९।। (उसका लावण्य बढ़ने लगा और वह अपने परिजनों एवं पति तथा सासससुर की अधिक प्रिय बन गयी।) ये तीनों गाथाएँ वर्णानुप्रास का उदाहरण हैं। वर्णानुप्रास में वर्णों की समानता होती है। स्वरों का भेद होने पर भी केवल व्यंजनों की समानता ही यहाँ वर्गों की समानता से अभिप्रेत है। वर्णसाम्यमनुप्रासः । का.प्र. ९.१०३. ऊपर की प्रथम गाथा में निम्मणे, रम्मे, वित्थरे आदि शब्दों के अंत में 'ए' स्वर का प्रास और सरीरो, मिलिओ, लोओ, तओ, बहुओ आदि शब्दों में 'ओ' स्वर का प्रास है। दूसरी गाथा में भी 'ओ' स्वर का प्रास होने के कारण वर्णानुप्रास अलंकार है। तीसरी गाथा में लायन्ना, इट्ठा, सपरियणस्सा, जाया आदि शब्दों के अंत में 'आ' स्वर का प्रास होने के कारण वर्णानुप्रास अलंकार बनता है। निसिपडिबिंबियतारा नीलायण वज्जियं च दिवसम्मि। गयणंगणं व रेहइ समंतओ खाइया जस्स ॥२२।। (उसके चारों ओर रात को जिस में तारों का प्रतिबिंब पड़ता था, तथा दिन में जो नील से वर्जित आकाश की तरह शोभती थी ऐसी खाई थी।) कयधम्मजण पसाया पासाया गयणमणुगया जत्थ। रेहति सुरघरा इव अच्छरसारिच्छ पुत्तलिया ॥२३॥ (यहाँ धार्मिक लोगों को प्रसन्न करने वाले प्रासाद (महल) आकाश को छूते थे, जो अप्सराओं जैसी पुतलियों के कारण देव-मंदिर की तरह शोभित For Private and Personal Use Only
SR No.525314
Book TitleShrutsagar 2016 09 Volume 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiren K Doshi
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2016
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size6 MB
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