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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 24 September-2016 वह नगरी पवन से उड़ती हुई ध्वजा रूपी करों से नित्य नृत्य करती हुई लगती थी।) मुणिसावाओ भीया पडिया कह इत्थ दारुणे वसणे। कूयमिवाओ(?) तत्था खित्ता रूद्दे समुद्दम्मि ॥३८९॥ (मुनि के श्राप से डरी हुई मैं यहाँ कैसे दारुण दुःख में आ पड़ी। मानो कुएँ से निकालकर भयंकर समुद्र में डाल दी गयी।) उपर्युक्त गाथाएँ उत्प्रेक्षा अलंकार का उदाहरण हैं। उत्प्रेक्षालंकार की व्याख्या निम्नवत हैसम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् ।।१०.१३६।। अर्थात् प्रकृत-वर्ण्य उपमेय की सम-उपमान के साथ सम्भावना उत्प्रेक्षा कहलाती है। सत्ताईसवीं गाथा में क्रिया पद के साथ 'व्व' है, इसलिए उत्प्रेक्षालंकार घटित होता है। ३८९ गाथा में अध्याहार से वाचक शब्द की अनुवृत्ति हो जाती है, अतः यहाँ उत्प्रेक्षालंकार है। इस प्रकार हमने देखा की नर्मदासुंदरी कथा में अनेकानेक अलंकार जगह जगह भरे पड़े है जिनसे न केवल नर्मदासुंदरी की शोभा बढ़ती है, बल्कि पाठक को भी पढ़ने का आनंद आता है। संदर्भ ग्रंथ : १. काव्य प्रकाश व्याख्याकार, आचार्य विश्वेश्वर प्रकाशक-ज्ञान मण्डल लिमिटेड, वाराणसी १९६० २. नम्मयासुंदरी कहा, सम्पादक- डॉ. के. आर. चन्द्र, प्रकाशक- प्राकृत जैन विद्या विकास फंड, ७७-३७४ सरस्वती नगर, आजाद सोसायटी अहमदाबाद- १९८९ ३. नम्मयासुंदरी कहा, का समीक्षात्मक अध्ययन, शोधप्रबंध- राजश्री रावल, अहमदाबाद- २००९ For Private and Personal Use Only
SR No.525314
Book TitleShrutsagar 2016 09 Volume 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiren K Doshi
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2016
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size6 MB
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