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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR September-2016 ता रूववई नारी आसन्नं जा न होइ एयाए। सहइ गहनाहजुण्हा सूरपहा जा न अल्लियइ ।।४८२।। (जब तक इसके पास (और कोई स्त्री) न हो तब तक ही अन्य स्त्री सुंदर लगेगी जैसे कि जब तक सूर्य की प्रभा का प्रवेश नहीं होता तभी तक चन्द्र की प्रभा शोभित होती है।) इस गाथा में अर्थांतरन्यास अलंकार है। अर्थांतरन्यास की व्याख्या निम्नवत् है सामानयं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते। यत्तु सोर्थान्तरन्यासः साधर्म्यणेतरेण वा ॥१०. १६४।। सामान्य का विशेष के द्वारा अथवा विशेष का सामान्य के द्वारा जो समर्थन किया जाता है, वह अर्थांतरन्यास अलंकार कहलाता है। पहली गाथा में सुखी और दुःखी उपमेय है तथा रूपवान और कुरूप उपमान है। दूसरी गाथा में नर्मदा के बारे में बात है, यह विशेष है, चंद्रमा की ज्योत्सना सूर्य की प्रभा तक शोभित होती है, यह सामान्य कथन है। इसलिए यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार घटित होता है। इय निम्माणे रम्मे पूयाबलिवित्थरे महत्थम्मि। हरि सुद्धसि य सरीरो मिलिओ लोओ तओ बहुओ ॥७५।। (इस सुंदर बहुमूल्य पूजा बलि की रचना के अवसर पर अपार हर्ष से रोमांचित शरीर वाला एक बड़ा जनसमुदाय इकट्ठा हुआ।) उपर्युक्त गाथा में अतिशयोक्ति अलंकार है। अतिशयोक्ति अलंकार की व्याख्या निम्नवत् है निगीर्याध्यवसानन्तु प्रकृतस्य परेण यत् । प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम् ॥१०. १५२॥ उपमान के द्वारा भीतर निगल लिये गये उपमेय का जो अद्यवसान होता है, वह अतिशयोक्ति होती है। जैसे उपर्युक्त गाथा में जनसमुदाय के लिए हर्ष से रोमांचित शरीर ये अतिशयोक्ति बतलायी है। For Private and Personal Use Only
SR No.525314
Book TitleShrutsagar 2016 09 Volume 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiren K Doshi
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2016
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size6 MB
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