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श्रुतसागर | श्रुतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY)
Sep-2015, Volume : 02, Issue : 4, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/
EDITOR : Hirenbhai Kishorbhai Doshi
श्र
नरसाणा (राज.) समीप एक खेतरमाथी प्राप्त थयेल
श्वेताम्बर जिनप्रतिमा समूह
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संपाश्वर्षमान
नरसाणाथी प्राप्त थयेल प्रतिमाजीना लेखनो फोटो
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श्रुतसागर
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र
वार्षिक सदस्यता शुल्क रू. १५०/
अंक शुल्क - रू. १५/
SHRUTSAGAR (Monthly)
-२, अंक ४, कुल अंक १६, सप्टेम्बर-२०१५ Year-2, Issue-4, Total Issue-16, September-2015
हिरेन किशोरभाई दोशी
एवं
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जैन
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आशीर्वाद
राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
* संपादक
શ્રુતસાગર
ज्ञानमंदिर परिवार
१५ सितम्बर, २०१५, वि. सं. २०७१, भाद्रपद सुदि-२
सा.
fren
अमृत
प्रकाशक
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर- ३८२००७
फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स: (०७९) २३२७६२४९ Website : www.kobatirth.org Email: gyanmandir@kobatirth.o
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१ संपादकीय
२ गुरुवाणी
३ Beyond Doubt
४ बे अप्रकट लघुकृतिओ
५ हैम कृतिओमां हारिभद्रीय उल्लेखो
अने अवतरणो
प्राप्तिस्थान :
अनुक्रम
६ जैनागम सन्दर्भ ग्रन्थ परिचय .
७ केटलाक अप्रगट प्रतिमा लेखो
८ संगणकीय ग्रंथालय प्रणाली में पेटांक की
अवधारणा
हिरेन के. दोशी
आचार्य बुद्धिसागरसूरिजी
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हीरालाल र. कापडीया
रामप्रकाश झा
हिरेन के. दोशी
अरुणकुमार झा
Acharya Padmasagarsuri &
किरीटभाई शाह
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर
परिवार डाईनिंग हॉल की गली में
पालडी, अहमदाबाद- ३८०००७
फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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३
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संपादकीय
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हिरेन के. दोशी
श्रुतसागरना बीजा वर्षनो चोथो अंक तमारा हाथमां छे.
खरा प्रेमीना भाव अने एनी लाक्षणिकताओनुं वर्तमान समयने मार्गदर्शन आपतुं पूज्यपाद आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. द्वारा रचायेलुं एक अल्प प्रसिद्ध सुंदर पद्य आ अंकमा प्रकाशित कर्तुं छे. तो गुरुवाणी हेठळ पूज्य गुरुभगवंतश्रीए सद्वांचन अने सद्गुरुना महिमाने उजागर करतुं एक ट्रंकु लखाण अत्रे प्रकाशित कर्तुं छे. शास्त्रोए जेने तीर्थ स्वरूप जणाव्या छे ऐवा सद्गुरु अने सद्वांचनना स्वरूपनो यथार्थ परिचय प्राप्त थाय छे.
अप्रकाशित कृतिना प्रकाशन रूपे प्रस्तुत अंकमां उपाध्याय राजरत्न गणिवरनी बे अप्रकाशित लघुकृतिओ प्रकाशित करी छे छेल्लां पांच-छ अंकोमां ज्ञानमंदिरमां उपलब्ध उपाध्याय राजरत्नगणिनी केटलीक अप्रकाशित कृतिओ प्रकाशित करेल छे. अप्रकाशित कृतिओनुं प्रगटीकरण धतुं रहे तो श्रीसंघमां स्वाध्यायनी प्रवृत्तिने वेग मळे.
पुनः प्रकाशित लेखोमां आ अंके श्रीयुत् हीरालालभाई कापडीयाजी द्वारा लखायेल जैन सत्यप्रकाश ई. १९५३ना सातमा अंकमा प्रकाशित थयेल " हैम कृतिओमां हारिभद्रीय उल्लेखो अने अवतरणो” लेख प्रस्तुत अंकमां प्रकाशित करेल छे. लेखनो विषय अने लेखना संदर्भों परत्वे वाचकोनुं ध्यान जाय अने आजना समये पण आ प्रकारना शोधविषयनी उपादेयता वधे ए आशयने आ लेख चरितार्थ करशे ए आशा अस्थाने नथी.
वाचकोना स्वाध्याय माटे तेमज खास करीने संपादको संशोधकोने उपयोगी बने ए हेतुसर जैनागम सन्दर्भ परिचय स्वरूपे केटलाक आगम संबंधी संदर्भ साहित्यनो परिचय अपायो छे. ज्ञानमंदिरमां उपलब्ध अने अत्यंत महत्त्वना गणी शकाय एवा आगम कोश साहित्य संदर्भे आ लेखन थयेलुं छे. आ सिवाय पण घणा महत्त्वना कोशो विद्यमान छे ज. खास करीने आ लेखमां एनी उपयोगिता, एनी संसाधन सामग्री विशेनो एक अल्प परिचय प्रस्तुत करेल छे. तो ऐतिहासिक सामग्री रूपे केटलाक अप्रगट लेखो प्रकाशित करेल छे.
ज्ञानमंदिरनी कार्यप्रणाली अने विद्वानोना कार्यनी सहभागितानुं ज्ञापन करतो 'संगणकीय ग्रंथालय प्रणाली में पेटांक की अवधारणा' नामनो लेख प्रकाशित करेल छे.
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गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी
सद्वांचन अने सद्गुरु
तीर्थ यात्राळुओ जो वाचननो गुण धारण करशे तो तीर्थना स्थाने निरूपाधिदशा होवाथी धणुं ज्ञान मेळवी शकशे अने तेओ तीर्थनी यात्रानी खरी साधना करवाने परिपूर्ण लायक पण थई शकशे. जेओए जैन तत्त्वनुं सारी रीते ज्ञान कर्तुं छे. तेवा श्रावको अने श्राविकओने ज खरा जैनो तरीके मानीए छीए, बाकी बीजाओने तो श्रद्धा आदि जे जे गुणो जे जे अंशे रहेला छे, ते ते अपेक्षाए जैनो तरीके मानीए छीए. मनुष्यनी जिंदगी धारण करी नकामी तो न ज गुमाववी जोईए. अध्यात्मज्ञान, योगज्ञान आदि उच्च ज्ञानना पुस्तकोनुं वाचन अवश्य दररोज करवुं जोईए.
सद्गुरु समान आ जगतमां कोइ उपकारी नथी. आ जगतमां श्री सद्गुरु थकी ज तरवानुं छे. जेओए अज्ञानथी मिंचाएली आंखो उघाडीने शिष्योने देखता कर्या एवा श्री सद्गुरु तीर्थ ज छे. तेओ ज्यां ज्यां विहार करतां होय त्यां जई, तेओश्रीनो उपदेश सांभळवो.
तेओ श्री जे जे आज्ञाओ करे ते ते आज्ञाओने मस्तके चढाववी अने ते प्रमाणे वर्तवुं. जैन धर्मना प्रवर्तावनार तो गुरुमहाराज छे. जेणे सम्यक्त्वनुं दान कर्तुं एवा गुरुओनो कोई पण रीते करोडो उपायो करे छते अने कोडी वर्ष गये छते पण बदलो वाळी शकातो नथी. द्रव्य उपकार करनाराओ तो जगतमां घणा मळी शके पण भाव उपकार करनार तो अल्प मळी शके छे.
प्राण पडे तो पण गुरुनी आज्ञा लोपवी नही. गुरु शी वस्तु छे तेनी समजण ज्ञानीओने पडे छे. अज्ञानीओ के जे जगतमां मारापणानी बुद्धिथी स्वार्थी बनी स्वार्थनो ज अभ्यास करे छे, तेओने गुरुनी गुरुतानो ख्याल आवी शकतो नथी. समकित दाता गुरु भक्ति करवामां अत्यंत प्रेम धारण करवो, तेओनो भक्ति अने बहुमानथी धणो विनय करवो अने तेओने त्रण काळ वंदन करवुं.
अज्ञानीओ जे आवे तेने एक सरखा वस्त्रधारी मानी गुरु मान्या करे छे, पण तेओनी अल्प बुद्धि होवाथी तेओ बराबर गुरुनी परीक्षा करी शकता नथी. गुरुओए पण योग्य जाणी तेओने धर्मोपदेश देवो जोईए. तप, जप, दान, क्रियाकांड, तीर्थ विगेरे पण गुरुनी आज्ञा पाळ्या विना सफळ थतां नथी, माटे श्री सद्गुरुनी आज्ञा पाळीने तीर्थयात्रा करवी जोईए.
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ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો
આચાર્ય શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિજી
અમીની આંખ જોવાથી, હૃદય તળપી રહે મળવા સમર્પણ સર્વનું જેમાં, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. સુખે સુખી દુઃખે દુઃખી, વિપત્તિમાં રહે સાથી નથી જ્યાં સ્વાર્થનો છાંટો, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. રોગરગમાં વસે પ્રેમી, હૃદયનો ભેદ નહિ ક્યારે ખડાં રોમો દિઠે થાવે, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. કરે નિષ્કામથી સઘળું, ગણે નહિ માહરૂં કે તાહરું ભલામાં ભાગ લેવાનો, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. દગાબાજી નથી કિંચિત્, નથી પરવા નથી લજ્જા અભેદોપાસના વર્તે, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. જણાવાનું ખરૂ નક્કી, ત્યાજાવાનું બુરૂ બાકી ભજાવાની પ્રભુ ભક્તિ, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. મળે તે સંપીને ખાવું, વપુથી ભેદ નહિ મનમાં વિચારોનો સુધારો જ્યાં, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. ફરે બ્રહ્માંડ જો સઘળું, તથાપિ સ્નેહ નહીં છુટે છુટે જો પ્રાણ શી પરવા, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. નથી ન્હાના નથી મોટા, સદા જ્યાં ઐક્યતા છાજે રીસાવાનું ગયું સ્વપ્નું, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. શરીરો ખાખ જો થાવે, થએલા પ્રેમની વૃદ્ધિ બધું પરમાર્થનું કરવું, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો, છુપાતા દોષના ઢગલા, ગુણોનો થાય ફેલાવો અનુપમ સુખનું ઝરણું, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. વિષય ભિક્ષા ટળે ઈચ્છા, નથી જ્યાં વાસના હોળી સદા સાત્વિકતા પ્રગટે, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો. મળ્યું કે ના મળ્યું તો શું, નથી સન્માનની ઈચ્છા બુધ્યબ્ધિ તન્મયીમૂર્તિ, ખરો એ પ્રેમ પ્રેમીનો.
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||૧||
11211
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:
11511
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!!!
શાળા
119011
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।।૧૩।।
(કર્મયોગ કર્ણિકામાંથી સાભાર)
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Beyond Doubt
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Acharya Padmasagarsuri
It is only when viveka i.e. discrimination is absent in one's life, the passions (vishaya and kashaya) lead the soul to destruction, Atman is bondaged by karma and the thoughts turn evil and wicked. Seth Atmaram tried to reconcile all the parts of the body in vain. Finally, Seth Atmaram consulted a holy saint regarding this problem.
Why do people have family doctors and family advocates? Without them people would be helpless and uncomfortable. If your business dealings are unfair, you cannot do without the advocate for falsehood is so weak that it always needs the support of the advocate who is also false in his dealings.
Similarly, tempted by delicious food, people spoil their health by eating all kinds of food. They face all kinds of health problems and cannot manage without the family doctor. If you are not sincere in your dealings, you cannot do without the advocate and if your food is not satvik i.e. light and simple, you need the assistance of the doctor. Similarly, if you do not possess a sound mind and character, I advise you to appoint a family Guru and consult him whenever the need arises. He will be your friend, philosopher and guide and be by your side in all your ups and downs of life and he shall always be a great source of inspiration for the pursuit of well-being.
Seth Atmaram took the advice of the Guru and prepared a notice and sent it to the body, the total organisation of all parts of the body. "Within twenty four hours, if all the
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सितम्बर २०१५
7
श्रुतसागर
parts of the body fail to reconcile and unite, I shall be forced to leave this body and make another body my abode of living. I shall be forced to apply for a transfer".
As soon as the notice was received, an emergency meeting of all the parts of the body was called for and it was only then that they all realized their folly. A poet has rightly said: उछल लो कूद लो जब तक है जोर नलियों में ।
याद रखना इस तनकी उड़ेगी खाक गलियों में ॥
It is an universal truth that only in unity, there is strength and true happiness, and therefore, all should mutually cooperate for peaceful existence. All the organs and
systems took a wise decision and sent it to Seth Atmaram. The decision they took was as follows: "From this day, we shall never quarrel or go on strike on account of mutual vanity, and helping and supplementing each other, we shall perform our duties regularly as dictated by you. We promise not to trouble you in any way and we shall always remain united." Seth Atmaram was immensely pleased and satisfied by the wise decision. It is here that the illustration comes to an end.
Your body is the most natural creation and is an epitome of dedication and benevolence. Each part of the body echoes the principle of paropakara i.e. altruism, benevolence, compassion and humility. When a thorn pricks the foot, the hands, and the eyes immediately rush to the rescue of the foot. They do not wait for a formal invitation and the mind also ceases to be cheerful and thinks of ways to cure the pain.
(Countinue...)
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बे अप्रगट लघुकृतिओ
किरीटभाई शाह मध्यकालीन जैन साहित्यने शोभायमान करतुं लघुकृत्यात्मक साहित्य विशाळ संख्यामां उपलब्ध थाय छे. ए उपलब्ध साहित्यमा अप्रकाशित एवी बे लघुकृतिओ अले प्रकाशित करी छे.
क्रमांक एक पर नोंधायेल कृति शंखेश्वर पार्श्वजिन स्तवन वि. सं. १६९५मां ईडर शहेरमां चातुर्मास दरम्यान रचवामां आवेल तेमज अन्य विशालसोमसूरि भास आम बे अप्रकाशित लघु कृतिओ अले प्रकाशित करी छे. विशेष जिज्ञासुए कर्ता संबंधी विशेष परिचय श्रुतसागरना प्रथम वर्षना दशमां अंकथी प्राप्त करी लेवो.
प्रस्तुत बन्ने कृति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरमा हस्तप्रत क्रमांक नं. ४०७३४ अने ४४४८४ पर नोंधायेल छे.
श्री शंखेश्वरपार्थ जिन स्तवन ॥ कोईलो परब(व)त बूंघलु रे लो(ल)-ए देशी ।। ||राग-केदारु॥ सुरतरू मुझ अंगणि फू(फ)लिउरे, तूठउ अमृत जलधार मेरे साहिब। मनह मनोरथ सवि फल्या रे, दीठउ तुझ दीदार मेरे साहिब ॥१॥ श्रीसंखे(श?)रराजीउरे, परउपगारी पास मेरे साहिब। भगतवछ(त्स)ल सहु तुज कहि रे, तिणि हुं करुं अरदासे मेरे साहिब ॥२॥
(आंचली) हरिहर ब्रह्मा कोई जपइरे, कोई देवीको दास मेरे साहिब। राम रहीम कोई नमइरे, मुझ मनि एक श्रीपास मेरे साहिब ॥३॥ युगज समरइ रेवानदी रे, कोकिल वाल्हु वसंत मेरे साहिब। मयूर मेहो मेहो जपइ रे, तिम तुं जिन मुझ चिं(चि)त मेरे साहिब ॥४|| ताहरइ भगतअ छइ घणारे, माहरइ तुं आधार मामे)रे साहिब। जुपोतानु करी लेखवुरे, तु वीनती एक अवधारि(र)() मेरे साहिब ॥५॥
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श्रुतसागर
9
श्रीबल जोवइ छांना रही रे, बोलइ बहु अपवाद मेरे साहिब । मुख मीठा मनि द्रोहीया रे, फोकट करइ विवाद मे (रे) साहिब ||६||
अधिकार पामी आकुला रे, सजन प्रति दिइ दुख मेरे साहिब । मद मछर मूरझया घणुं रे, थंभु तेहनां मुख मेरे साहिब ||७||
निस्वारथ वयर लेखवर रे, भाखड़ आल पंपाल मेरे साहिब । ते दुसमननई ब (वं) दुरे, ए मुझ वीनता (ती) दयाल मेरे साहिब ||८||
सितम्बर २०१५
तुझ परत पाहण तर रे, विष हुइ अमृत सार मेरे साहिब । लोह कनक तुझथी हुए रे, तु एहनुं कसिउ विचार मेरे साहिब ||९||
जेमइ मागिउं तुंहनइ रे, ते तई पूरी आस मेरे साहिब | एहइ काम होस्यइ सही रे, ताहरू मुझ विश्वास मेरे साहिब ॥ १० ॥
मात पिता विण कहनइ रे, कहीइ मननी वात मेरे साहिब । तेणइ सामी समरथ थई रे, दिउ द (दु) समन शिरि (रे) लात मेरे साहिब ॥११॥
एणी वातई आलस करी रे, जु नही थाइ एह काज मेरे साहिब । तु सेवक अवरनई ध्यायस्यइ रे, तेहइ पणड़ पणइ तुम्हनई लाज मेरे साहिब । १२॥
संवत सोल पंचाणूंड रे, इडरि रहिया चुमास मेरे साहिब ।
राजरत्न पाठक वीनवइ रे, प्रभु पूरउ मननी आस मेरे साहिब ॥१३॥
॥ इति श्रीशंखेश्वरपार्श्व जिन स्तव ॥
(२)
श्री विशालसोमसूरि भास
गच्छनायक गुणन (नि)धि गायुं, मनवंछित सवि फल पायुं, एह सूरति की बलि जायुं ॥१॥
संतोष साह कुलिचंद नारंगदे कूखि आनंद।
पाय पूजइ मोटा नरिंद लाला रे ॥३॥
विशालजी गुरु वंदु, मेरु गुरु गज गति चाल ।
शुद्धइ मनि महाव्रत पालई, क्रोधादिक वयरी टालई लाला रे ॥२॥
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श्री विमलसोमसूरि पटधार, एह पालइ पंचाचार । जे सवि जी विकार लाल (।) रे ॥४॥
वाणी रसि मोह्या भूप, उपसम रस जाणे कूप। मनमोहन अभिनव रूप लाल रे ॥५॥
शीलई सु(मु?) नि जंबुकुमार, लबधइं गौतम गणधार । कलियुगमांहि धनुन्ना) अणगार लाल (1) रे ॥६॥
चिरप्रति एह गुरुराय, सोवनवरणी जस काय | वाचक राजरतन गुण गाय लाला रे ॥७॥
इति श्री विशालसोमसूरि भास ॥ छ ॥
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September-2015
ज्ञानमंदिरना प्रकाशनो
आ
श्रुतसेवा अने श्रुतोपासना ए ज्ञानमंदिरनी आरत छे. जे देव अने गुरुना निःस्वार्थ अने उन्नतिकारक मार्गदर्शनथी आ पुण्यकार्य नदीनी जेम निरंतर थया करे छे.... कार्योंथी विचारक वर्ग, संशोधक वर्ग अने श्रद्धाळु वर्गने आनंद अने अहोभाव थाय ए सहज छे. श्री संघना चोगमने वधुने वधु प्रकाशित करवा माटे ज्ञानमंदिर तरफथी साहित्योपासनाना नक्कर परिणाम स्वरूपे नवा प्रकाशनो प्रकाशित थया छे.
कैलास
'श्रुतसागर ग्रंथसूची भाग - 18
हस्तप्रतोना सूचिकरणमा जे ग्रंथो थकी एक नवीन परिपाटी श्रीसंघ अने विद्वद्समाजना करकमलोमा समर्पित थई छे. एवी कैलासश्रुतसागर ग्रंथसूचीनो अढारमो भाग प्रकाशित थई गयेल छे.
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धम्मं शरणं पवज्जामि भाग 1-4 (गुजराती)
जीवनना भीतरी रहस्योने उजागर करता ग्रंथोनी श्रेणिमां धर्मबिन्दु ग्रंथनुं स्थान आगवुं छे. ए ग्रंथ उपर आचार्यदेव भद्रगुप्तसूरिजी म. सा. नुं प्रवचन स्वरूप विवेचन प्राप्त थाय ए आनंदनी मोटी बीना छे. कुल चार भागोमा धर्मबिन्दु ग्रंथना मर्मने 'आलोकित करती ग्रंथ एटले धम्मं शरणं पवज्जामि...
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हैम कृतिओमां हारिभद्रीय उल्लेखो अने अवतरणो
हीरालाल र. कापडिया 'कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्रसूरिनी पूर्वे जे समर्थ जैन ग्रंथकारो थया छे तेमां हरिभद्रसूरिनुं स्थान जेवू तेवु नथी. आ हरिभद्रसूरिए विपुल अने विविध साहित्यनुं सर्जन कर्यु छे अने केटलीक बाबतो परत्वे तो एमणे नवो चीलो स्पष्टपणे जणाई आवे एवो पाड्यो छे आने लईने एमना पछी थयेला गवेषको अने मुनिवरोए एमनी पुष्कळ प्रशंसा करी छे अने एमनी कृतिओनो यथेष्ट लाभ उठाव्यो छे. एमां न्यायचार्य' यशोविजय गणितुं नाम तो सुप्रसिद्ध छे. एमने लघु हरिभद्र' कहेवामां आवे छे.
गुजरातने ज्ञाननी विविध शाळाना अभ्यास माटे पगभर बनाववानी तीव्र अभिलाषा सेवनार अने एने सक्रिय बनावनार हेमचन्द्रसरिए केवळ जैनोनाज कामनी कतिओ न रचतां जात-जातनी सार्वजनीन कृतिओ पण रची छे. आने लईने एमनी कृतिओमां हरिभद्रसूरिनो नामनिर्देश एमनी कृतिनो उल्लेख तेमज ए कृतिओमाथी अवतरणो मळी आवे एवी सहेजे आशा रखाय, परंतु समय अने साधन अनुसार आ बाबत अंगेजे तपास हुं करी शक्यो छु ते तो आशाने जाणे ऊगती ज करमावी देती होय एम लागे छे. आथी करीने विशेषज्ञो आ संबंधमा पोतानां मंतव्यो सप्रमाण रजू करे एवा इरादाथी हुं आ लेख लखवा प्रवृत्त थयो छु. ___ अत्यार सुधीमां तो मने एके हैम कृतिमा हरिभद्रसूरिनुं नाम जोवा जाणवा मळ्यु नथी. अलबत्त, मैं प्रत्येक कृतिना पाने-पानां तपास्यां नथी. हरिभद्रसूरिए व्याकरण, कोश, छंद अने अलंकारने अंगे कोई कृति रची होय एम जणातुं नथी. हेमचन्द्रसूरिए तो आ चारे विषयोनुं मननीय निरूपण कर्यु छे. एमणे काव्यानुशासननी अलंकार चूडामणि अने विवेकविवरण सहित रचना करी छे.
आ काव्यानुशासन (अ.८, सू. ८) मा जातजातनी कथा समजाववानो प्रसंग उपस्थित थतां अलंकार चूडामणि, (पृ. ४६५) मा एमणे नीचे मुजब उल्लेख कर्यो छे -
“समस्तफलान्तेतिवृत्तवर्णना समरादित्यादिवत् सकलकथा" विवेकविवरण (पृ. ४६५*)मां आने अंगे नीचे पंक्ति छे - “सकलकंथेति चरितमित्यर्थः”
आम आ बने स्थळोमाथी एके स्थळमां समरादित्यना चरित्रथी शु समजq तेनो हेमचंद्रसूरिए निर्देश कर्यो नथी, परंतु विद्वानोनु मानवु छे के आ चरित्र ते *श्रीमहावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित काव्यानुशासन भाग-प्रथम
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September-2015
हरिभद्रसूरिकृत समराइच्चचरिय ज छे, केमके एनाथी कोई विशेष प्राचीन चरित्र चन्द्रसूरिने मळ होय एम लागतुं नथी.
विशेषमां हरिभद्रसूरिनी पछी अने हेमचन्द्रसूरिनी पूर्वे थयेला कोईए समरादित्यचरित्र रचुं होय एम जणातुं नथी आ उपरांत धनपाले तेमज उद्योतनसूरिए जे समराईच्चचरियनी प्रशंसा करी छे. ते हारिभद्रीय ज छे. आवी परिस्थितिमां हुं अत्यारे तो ए मत धरावुं छु के आ उल्लेख हारिभद्रीय कृतिने ज लक्ष्यमा राखीने हेमचन्द्रसूरिए कर्यो छे.
हेमचन्द्रसूरिए न्यायने अंगे प्रमाणमीमांसा रची छे अने एने स्वोपज्ञवृत्तिथी विभूषित करी छे. आ एमनी रचना पूरे पूरी हजी सुधी तो मळी आवी नथी एटले अनेकांतवादना महानिबंधरूप अनेकांतजयपताका स्वोपज्ञवृत्तिपूर्वक हरिभद्रसूरिए रचीछे तेनो उपयोग हेमचन्द्रसूरिए आगळ जतां कर्यो छे के केम ते जाणवुं बाकी रहे छे.
प्रमाणमीमांसा (अं. १, आ. २, सू, १२) नी स्वोपज्ञवृत्ति (पृ. ४३) मां “यदाहुः” एवा उल्लेखपूर्वक निम्नलिखित बे पद्यो अपायां छे -
"गम्भीरगर्जितारम्भनिर्भिन्नगिरिगह्वराः । त्वङ्गत्तडिल्लतासङ्गपिशङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः ।
आ बने पद्यो हेमचन्द्रसूरिथी पूर्वकालीन जयन्त भट्टनी न्यायमंजरी (पृ. १२९) मां नजरे पडे छे. बने पद्योने अंगे भेगो “यदाहुः” जेवो उल्लेख छे ए जोतां तो ए बने पद्यो एकज कृतिनां होवानुं अनुमनाय. आवी परिस्थितिमां हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चयनो वीसमो श्लोक जे रोलम्बथी शरू थाय छे ते अत्र उद्धृत करायानुं केम मनाय.
वळी,केटलाक आधुनिक विद्वानो तो षड्दर्शनसमुच्चयमांनी आ वीसमो श्लोक हरिभद्रसूरिए न्यायमंजरीमांथी लीधानुं माने छे तेनुं केम ? आ संबंधमां में थोडीक हरिभद्र चर्चा अनेकांतजयपताका (खंड- २ ) ना मारा अंग्रेजी उपोद्घात (पृ. ४२ ) मां करी छे.
हरिभद्रसूरिनी पूर्वे कोईए प्रमाणमीमांसा नामनी कृति रची छे एम अनेकांतजयपताका (खंड-२, पृ. ६८) उपरथी जणाय छे. शुं आ हारिभद्रीय उल्लेख हेमचन्द्रसूरिने पोतानी कृतिनुं नाम प्रमाणमीमांसा राखवामां प्रेरक बन्युं हशे ?
हेमचन्द्रसूरिए योगशास्त्र रच्युं छे एटलुं ज नहि पण एना उपर स्वोपज्ञ विवरण
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सितम्बर २०१५
श्रुतसागर
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पण रच्युं छे. आ विवरणमां अनेक अवतरणो एमणे आप्यां छे एथी आना महत्त्वमां वृद्धि थाय छे. आ विवरण सहित मूळनुं संपादन करनारे अवंतरणोनां मूळ स्थळोनो निर्देश कर्यो नथी एटलुं ज नहि पण आ अवतरणोनी अकारादि क्रमे सूची पण आपी नथी. आ तेमज अन्य केटलीक बाबतो विचारतां एम जणाय छे के आ विवरणनुं समीक्षात्मक पद्धतिए संस्करण थवुं घटे. तेम थाय तो आमां क्यां क्यां हरिभद्रसूरिनी कृतिओनो प्रभाव पड्यो छे ते सहेजे ख्यालमां आवे अत्यारे तो आ संबंधर्मा हुं छूटा छवाया विचारो ज रजू करूं छु -
योगशास्त्र (प्र. १) मां श्लो. ४७- ५६मां पत्र ५० अ. आमां गृहिधर्म तरीके न्यायसंपन्न वैभव इत्यादिनो उल्लेख छे. ए हारिभद्रीय धर्मबिन्दुनुं स्मरण करावे छे. उपर्युक्त विवरण (पत्र ५३ आ ) मां धननी व्यवस्था केम करवी ए बाबतनां अवतरणो पंचसुत्तगनी हारिभद्रीय व्याख्या (पत्र ११ अ)मां पण अवतरणरूपे जोवाय छे.
प्र. २, श्लो. १६ ना विवरण (पत्र ६५ आ) मां जे आठ प्रभावकोना अंगे अवतरण छे ए सम्यक्त्व - सप्ततिना नामे ओळखावाती अने केटलाकना मते हारिभद्रीय कृति गणाती अने सम्यक्त्व-सप्तति तरीके निर्देशाती दंसणसत्तरिनुं बलीसमुं पद्य छे.
लोकविरुद्ध त्यागना स्पष्टीकरणरूपे प्र. ३ना स्वोपज्ञ विवरण (पत्र २३३ आ) मां सव्वस्स चेव निंदाथी शरू थतां जे लण अवतरणो छे त्रणे हारिभद्गीय पंचासग (पं. २) नी गाथा ८-१० रूप जोवाय छे. आ गाथाओ हरिभद्रसूरिनी पूर्वे रचायेली कोई कृतिमां वांच्यानुं मने पुरतुं नथी. जो ए अन्य पत्र न ज होय तो हेमचन्द्रसूरिए पंचासगमांथी उद्धृत करेल छे एम मनाय.
ललितविस्तरा ए आगमोद्धारकना कथन मुजब चैत्यवंदनसूलनी सौथी प्रथम वृत्तिरूप छे. आ विषय योगशास्त्र (प्र. ३) ना विवरणमां पण छे एटले आ बनेनो सांगोपांग अभ्यास तुलनात्मक दृष्टिए करतां अनेक बाबतो जाणवा जेवी मळी आवे एम सहेजे मनाय. आथी जेमणे आ जातनो अभ्यास कर्यो होय तेओ हेमचन्द्रसूरि आ संबंधमां हरिभद्रसूरिना केटले अंश ऋणी छे ते सप्रमाण सूचववा कृपा करे एम इच्छु छु.
हारिभद्रीय अष्टक प्रकरणनुं एक पद्य एना टीकाकार जिनेश्वरसूरिना मते महाभारतमांनुं छे आ पद्य योगशास्त्रमां जोवाय छे तो शुं हेमचन्द्रसूरिए आ पद्य अष्टकप्रकरणमांथी उद्धृत कर्तुं छे के महाभारतमांथी के अन्य कोई कृतिमांथी ए परबारुं लीधुं छे?
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जैनागम सन्दर्भग्रन्थ परिचय
रामप्रकाश झा आगम साहित्य भारतीय साहित्य का प्राण होने के साथ-साथ आर्य संस्कृति का एक मूल्यवान् कोष भी है. विश्व के समस्त सम्प्रदायों के अपने-अपने आगम हैं. इनमें जैनागम साहित्य अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है. जैनागमों में वीतराग की वाणी है. वीतरागता का अर्थ है रागरहित आत्मदशा.
सरागदशा राग-द्वेष से युक्त आत्मदशा है. जहाँ द्वेष हो वहाँ राग होता ही है, परन्तु जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष नहीं भी होता है. यह अग्नि और धूम की तरह होता है. इसीलिए अंग आगम को वीतराग वाणी कहा जाता है, वीतद्वेष वाणी नहीं. ___ आगम साहित्य ऐसा साहित्य है, जिस पर युगों-युगों से मानव की अंटल श्रद्धा रही है. अतएव जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों ने आगम को सर्वोपरि माना है. आज मात्र भारतीय ही नहीं, बल्कि विदेशी विद्वान भी आगम-साहित्य का अध्ययन-संशोधन करते हैं. आगम के मूल शब्दों को समझने और विभिन्न भाषाओं में उनका अर्थघटन करने में, शब्दों की व्युत्पत्ति करने में तुलनात्मक भाषाशास्त्र के अध्येताओं को बड़ी कठिनाई होती है.
इस कठिनाई को दूर करने के लिए जैन वाङ्मय में कई सन्दर्भग्रन्थ कोषादि हैं, जिनकी सहायता से वेसारी कठिनाईयाँ दूर हो सकती हैं. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में संग्रहित कुछ विशिष्ट सन्दर्भग्रन्थों का परिचय विद्वानों के उपयोग हेतु यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है.
पुस्तक नाम : आगम विषयदर्शन प्रकाशक : आगम श्रुत प्रकाशन-अहमदावाद,
प्रकाशन वर्ष ः वि.२०५६, पृष्ठ : ३८३ परिचय - मुनिश्री दीपरत्नसागरजी के द्वारा सम्पादित व आगम श्रुतप्रकाशन, अहमदाबाद से वि. २०५६ में प्रकाशित इस ग्रन्थ में मूल ४५ आगमों का यथाक्रम विषयनिर्देश किया गया है. आगमों का संशोधन, सम्पादनादि करनेवाले विद्वानों तथा शोधार्थियों के लिए यह कोश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व उपयोगी है.
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार वर्तमान में आगमों की संख्या पैंतालीस .
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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१५ निर्धारित की गई है. इन पैंतालीस आगमों को मुख्य रूप से छः भागों में विभाजित किया गया है- ११ अंग, १२ उपांग, १० पयन्ना, ०६ छेदसूल, ०४ मूल, ०२ चूलिका इस ग्रन्थ में मूल आगम के साथ-साथ उनके अनुवाद तथा उनकी टीकादि में वर्णित विषयों का भी निर्देश किया गया है.
उपयोगिता - इस ग्रन्थ के उपयोग से आगमों में वर्णित विषयों को ढूंढने में व उनका क्रम जानने में सरलता रहती है. इसमें तीन प्रकार के पृष्ठांक दिए गए हैं. मलागम में ४५ आगमों के मूल पाठ के विषय हैं, अनुवाद में गुजराती अनुवाद के पाठ के विषय हैं तथा सटीक में मूल के अतिरिक्त नियुक्ति, चूर्णि, वृत्ति व भाष्य के पाठ के विषय हैं.
मूलागम का क्रमांक देखने के लिए आगमसुत्ताणि-मूल का पाठ देखा जा सकता है. अनुवाद का क्रमांक देखने के लिए आगमदीप के अनुवादवाला प्रकाशन देखना चाहिए तथा सटीक का क्रमांक देखने के लिए आगमसुत्ताणि-सटीक का प्रकाशन देखना चाहिए.
जिस भाग के पाठ हों, उस भाग के पृष्ठ पर वह विषय देखा जा सकता है. आगम सम्पादन, संशोधन व ग्रन्थ-सूचीकरण के कार्य में यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है.
बृहद् विषयानुक्रम का नाम 'आगम विषय दर्शन' रखा गया है. यहाँ पृष्ठांक नहीं दिया गया है, मात्र मूलांक ही दिया गया है. क्योंकि मूलांक तीनों प्रकाशनों में एक समान ही हैं.
उदाहरण के लिए पृ. सं. ८० पर सबसे नीचे विषय है - गृहस्थ और तीर्थीक का सावद्य जीवन व श्रमण का निरवद्य जीवन' यह विषय सूत्रकृतांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययन-१, पुण्डरीक अध्ययन में मूलांक-६४६ पर है.
इस प्रकार आगम श्रुतप्रकाशन से प्रकाशित सूत्रकृतांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन, पुण्डरीक अध्ययन में मूलांक-६४६ पर यह विषय प्राप्त हो सकता
परिशिष्टादि- प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भिक पृष्ठों पर इस ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका, उनका वर्गीकरण व ४५ आगमों का संक्षिप्त विषयानुक्रम दिया गया है तथा अन्त के पृष्ठों पर आगम श्रुत प्रकाशन, अहमदाबाद से प्रकाशित व मुनि श्री दीपरत्नसागरजी
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म. सा. के द्वारा सम्पादित ग्रन्थों की सूची दी गई है. इस ग्रन्थ में कोई उल्लेखनीय परिशिष्ट नहीं दिया गया है.
पुस्तक नाम: भिक्षु आगम विषय कोश, भाग - १ -२,
प्रकाशक : जैन विश्व भारती-लाडनूं
प्रकाशन वर्ष : ई. १९९६, पृष्ठ : ४३+७५७
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परिचय – मुनि दुलहराज व सत्यरंजन बनर्जी के सहयोग से आचार्य महाप्रज्ञ के द्वारा सम्पादित तथा जैन विश्वभारती लाडनूं से ई. १९९६ में प्रकाशित प्रथम भाग में पाँच आगम- आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी और अनुयोगद्वार से १७५ विषयों का तथा ई. २००५ में प्रकाशित द्वितीय भाग में दशवैकालिक, आचारचूला, निशीथ, दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प व व्यवहारसूत्र के कुछ नए विषय तथा कुछ ऐसे विषय, जो प्रथम भाग में न आ सके, ऐसे १२४ विषयों का चयन किया गया है.
जिनमें मुख्य रूप से तत्त्वदर्शन, कर्मसिद्धान्त, चिकित्साशास्त्र, आचारसंहिता, प्रायश्चितसंहिता, जीवविज्ञान, मनोविज्ञान, इतिहास आदि अनेक दृष्टियों का समावेश है, जो जिज्ञासुओं के लिए बहुत ही मूल्यवान है. अनेक ग्रन्थों की सामग्री का एक साथ संकलन किए जाने के कारण कोशकार का श्रम शोधकर्त्ता के श्रम को स्वल्प बना देता है. यह जैन साहित्य का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व उपयोगी कोशग्रन्थ है.
प्रस्तुत कोश आगमों में आनेवाले विषयों का परिचयात्मक व सन्दर्भात्मक विषयकोश है. इसमें शब्दकोश की भांति प्रत्येक शब्द का अर्थ नहीं दिया गया है, बल्कि महत्त्वपूर्ण व उपयोगी विषयों का संकलन व उनका विस्तृत विवेचन किया गया है.
इस कोश में सर्वप्रथम गृहीत विषय का शब्दार्थ बतलाकर उसमें विवेचित विन्दुओं की सूची दी गई है. इससे पाठक को प्रथम दृष्टि में ही विषयसंबद्ध महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की सूचना मिल जाती है. जैसे अभिनिबोधिक ज्ञान मूल विषय है, इसमें उसका निर्वचन, परिभाषा, पर्याय, भेद-प्रभेद आदि बिन्दुओं का विवेचन किया गया है. जो विषय अधिक विस्तृत हैं, उनके भेदों को स्वतन्त्र विषय के रूप में ग्रहण किया गया है. प्रस्तुत कोश में निम्नलिखित पाँच आगमों तथा उनके व्याख्याग्रन्थों का समवतार किया गया है -
आवश्यकसूत्र - आवश्यकसूत्र की निर्युक्ति, चूर्णि, हारिभद्रीया वृत्ति तथा
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मलयगिरिया वृत्ति का समावेश किया गया है।
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विशेषावश्यकसूत्र - विशेषावश्यक भाष्य तथा उसकी मलधारिया वृत्ति, कहींकहीं कोट्याचार्य की वृत्ति का आधार लिया गया है.
दशवैकालिकसूत्र - दशवैकालिक की निर्युक्ति, भाष्य, अगस्त्य चूर्णि जिनदास चूर्णि तथा हारिभद्रया वृत्ति का समन्वय किया गया है.
उत्तराध्ययनसूत्र - उत्तराध्ययन की निर्युक्ति, चूर्णि, शान्त्याचार्य की बृहद्वृत्ति व नेमिचन्द्र की सुखबोधा वृत्ति को समवेत किया गया है.
नन्दीसूल - नंदीसूल की चूर्णि, हारिभद्रीया वृत्ति और मलयगिरिया वृत्ति, कहींकहीं श्रीचन्द्रसूरिकृत टिप्पणक का भी उपयोग किया गया है.
अनुयोगद्वारसूल - अनुयोगद्वार की चूर्णि, हारिभद्रीया वृत्ति व मलधारिया वृत्ति. इसके अतिरिक्त ओघनिर्युक्ति व पिंडनिर्युक्ति का भी उपयोग किया गया है.
प्रस्तुत कोश के प्रथम भाग में पृष्ठ सं. १ से ४३ तक भूमिका, प्रस्तावना, सम्पादकीय, सन्दर्भग्रन्थ सूची तथा विषयसूची दी गई है, उसके बाद पृष्ठ सं. १ से ७२४ तक आगमों तथा उनके व्याख्याग्रन्थों- निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि व वृत्ति में प्रयुक्त कथाओं, दृष्टान्तों तथा घटनाओं की विषयानुसार जानकारी दी गई है.
इसी प्रकार दूसरे भाग में पृष्ठ सं. १ से ४३ तक भूमिका, प्रस्तावना, सम्पादकीय, सन्दर्भग्रन्थ सूची तथा विषयसूची दी गई है, उसके बाद पृष्ठ सं. १ से ६५८ तक छेदसूत्रों तथा उनके व्याख्याग्रन्थों में चर्चित विषयों की जानकारी दी गई है.
उपयोगिता - यह ग्रन्थ विद्वानों तथा शोधकर्त्ताओं के कार्य में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा. वाचकों को इस ग्रन्थ के माध्यम से आगमों में वर्णित कथाओं, दृष्टान्तों तथा घटनाओं का सन्दर्भसहित परिचय प्राप्त होता है, साथ ही कौन से ग्रन्थ के किस स्थान में उनका प्रयोग किया गया है, इसकी भी जानकारी प्राप्त होगी. अध्ययन, संशोधन, सम्पादन आदि क्षेत्रों में यह कोशग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है.
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उदाहरण के लिए प्रथम भाग के पृ. १२९ में दाहिनी ओर एक शब्द है'आशातना' - उसके आगे उसका अर्थ दिया गया है- अवमानना, अर्थात् ज्ञान आदि गुणों का नाश करनेवाली क्रिया. उसके नीचे आशातना की परिभाषा, इसके प्रकार तथा आशातना की फलश्रुति दी गई है. उसके सामने उसके सन्दर्भस्थल का (ओ.नि.-५२६, ५२७, ५२९, ५३०) संकेत दिया गया है.
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परिशिष्टादि - प्रथम भाग में पृष्ठ सं. ७२७ से ७४० तक परिशिष्ट - १ में नंदी, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक इन पाँच आगमों तथा उनके व्याख्याग्रन्थों- निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि व वृत्ति में प्रयुक्त कथाओं, दृष्टान्तों व घटनाओं के संकेत संग्रहित किए गए हैं तथा परिशिष्ट - २ में पृष्ठ ७४१ ७४४ में २४ तीर्थंकरों से सम्बन्धित विविध घटनाओं के सन्दर्भ दिए गए हैं, पृष्ठ - ७४५ - ७४७ तक विभिन्न कथाओं के सन्दर्भ दिए गए हैं.
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पृष्ठ ७४८ में प्रथम परिशिष्ट में प्रयुक्त सन्दर्भग्रन्थों के संक्षिप्त रूपों का विवरण दिया गया है तथा पृष्ठ ७४९-७५७ में आवश्यकसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, नन्दी और अनुयोगद्वारसूत्र के व्याख्याग्ग्रन्थों में विश्लेषित दार्शनिक व तात्त्विक चर्चास्थलों के ससंदर्भ संकेत दिए गए हैं.
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इसी प्रकार दूसरे भाग में पृष्ठ सं. ६६१ से ६७४ तक परिशिष्ट- १ में पाँच आगमों, आचारचूला, और चार छेदसूत्र तथा उनके व्याख्याग्रन्थों में प्रयुक्त कथाओं, दृष्टान्तों व उपमाओं का विषयगत विभाजन तथा उनके संकेत व सन्दर्भ दिए गए हैं. पृष्ठ सं. ६७५ से ६७८ तक परिशिष्ट - २ में विशेष शब्दों के विमर्श तथा पृष्ठ सं. ६७९ से ६८३ तक परिशिष्ट-३ में द्वन्द्व सामासिक युगल शब्दों के विमर्श दिए गए हैं.
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इसप्रकार यह कोशग्रन्थ जैनागम से सम्बन्धित विषयों का अध्ययन - संशोधन करनेवाले विद्वानों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है.
पुस्तक नाम : जैन आगमोमां आवतां प्राकृत
विशेषनामोनो परिचयात्मक कोश, भाग- १/२ प्रकाशक : १०८ जैन तीर्थदर्शन भवन ट्रस्ट - पालीताणा
प्रकाशन वर्ष : ई. २००८, पृष्ठ : १२ +८+४६४
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परिचय - डॉ. नगीन शाह तथा डॉ. रमणीक शाह के द्वारा सम्पादित व श्री १०८ जैनतीर्थ भवन ट्रस्ट, पालीताणा से ई. सन २००८ में प्रकाशित "जैन आगमोमां आवतां प्राकृत विशेषनामोनो परिचयात्मक कोश” एल. डी. इन्डोलोजी, अहमदाबाद सेई. सन् १९७० - १९७२ में दो भागों में प्रकाशित व डॉ. मोहनलाल मेहता व डॉ. के. ऋषभचंद्र के द्वारा सम्पादित Prakrit proper names का डॉ. नगीन जे. शाह के द्वारा किया गया गुजराती अनुवाद है. जैन आगमों का सम्पादन व संशोधन करनेवाले विद्वानों हेतु यह एक महत्त्वपूर्ण व उपयोगी ग्रन्थ है.
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उपयोगिता - यह ग्रन्थ विद्वानों तथा शोधकर्त्ताओं के कार्य में बहुत बड़ी सहायता प्रदान करता है. इस कोश के अंतर्गत निर्युक्ति, भाष्य व चूर्णि सहित जैन आगमों में आनेवाले प्राकृत भाषा के विशेष नामों का परिचय दिया गया है.
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४५ आगमग्रन्थों तथा उनकी निर्युक्ति, भाष्य चूर्णि आदि में आनेवाले संज्ञावाचक नाम अर्थात् व्यक्तिविशेष, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, गणधर, ऋषि, उपासक, उपासिका, श्रमण, श्रमणी, राजा, रानी, सेठ, सेठानी, देव-देवी, यक्ष आदि, उद्यान, सरोवर, नगर, ग्राम, सन्निवेश, नदी, समुद्र आदि एवं भौगोलिक स्थलों के नाम, गण, गच्छ, कुल, गोत्र, जाति इत्यादि के नामों का अकारादिक्रम से उल्लेख तथा उनका सन्दर्भसहित संक्षिप्त परिचय दिया गया है.
'अ' से 'न' तक के अक्षरों से प्रारम्भ होनेवाले शब्दों का समावेश प्रथम भाग में तथा 'प' से 'ह' तक के अक्षरों से प्रारम्भ होनेवाले शब्दों का समावेश द्वितीय भाग में किया गया है, इस कोशग्ग्रन्थ के दोनों भागों में जैन श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों से कुल ८००० शब्द संग्रहित किए गए हैं.
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परिशिष्टादि प्रथम भाग के प्रारम्भ में प्रकाशकीय वाले पृष्ठों पर संकेतसूची तथा सन्दर्भग्रन्थसूची दी गई है. जिससे ग्रन्थ में प्रयुक्त संक्षिप्त शब्दों तथा सन्दर्भग्रन्थों में के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है. यहाँ प्रारम्भ में Bold type में अकारादिक्रम से विशेष नाम दिए गए हैं. उसके आगे कोष्ठक में उसके संस्कृत रूप दिए गए हैं. उसके बाद उसका परिचय दिया गया है.
उस परिचय के अंदर यदि बीच में कोई शब्द Bold Type में दिए गए हों तो इसका यह अर्थ है कि उस शब्द का परिचय आगे स्वतंत्र रूप से उसके योग्य अकारादिक्रम पर अवश्य मिलेगा. प्रत्येक विशेषनाम के परिचय समाप्त होते ही तुरन्त उसके नीचे छोटे टाईप में मूल स्रोतों के सन्दर्भस्थानों का निर्देश दिया गया है. पुस्तक नाम : जैन आगम वाद्य कोश
प्रकाशक : जैन विश्व भारती-लाडनूं प्रकाशन वर्ष : ई. २००४, पृष्ठ : १०+५४
परिचय - आचार्य महाप्रज्ञ, मुनि वीरेन्द्रकुमार व मुनि जयकुमार के द्वारा सम्पादित तथा जैन विश्वभारती लाडनूं से ई. 2004 में प्रकाशित यह ग्रन्थ जैन साहित्य का एक अत्यन्त उपयोगी कोशग्रन्थ है. यह एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें आगमों
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में प्रयुक्त वाद्यवाचक शब्दों का सचित्र परिचय दिया गया है.
आगमों में वाद्यों के नाम यत्र-तत्र विपुल मात्रा में मिलते हैं. जिनमें से अनेक की पहचान दुरूह है. इस कोश में आगमसाहित्य में प्रयुक्त अधिकांश वाद्यवाचक शब्दों की पहचान का कार्य किया गया है. भारतीय प्राचीन वाद्ययन्त्रों के विषय में जानकारी प्राप्त करने वालों के लिए यह एक उपयोगी ग्रन्थ सिद्ध होगा.
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राजप्रश्नीय, निशीथसूत्र, भगवतीसूल, प्रश्नव्याकरण, आचारचूला आदि आगमों में भगवान महावीर के दर्शन हेतु देवागमन, श्रोत्रेन्द्रिय संयम, सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों आदि के प्रसंगों पर वाद्यवाचक शब्दों की लम्बी नामावली प्राप्त होती है. संरचना एवं वादन क्रिया के आधार पर जैनागमों में पाए जानेवाले वाद्ययंत्रों को चार भागों में विभाजित किया गया है- तत, वितत, घन और सुषिर.
जो वाद्य तन्त्रयुक्त होते हैं, उन्हें तत कहा जाता है, जो चर्मावनद्ध होते हैं, उन्हें वितत वाद्य कहा जाता है, परस्पर टकराकर अथवा घर्षण के द्वारा जिन वाद्यों को बजाया जाता है, उन्हें घन वाद्य कहा जाता है, तथा फूंक मारकर अथवा हवा के द्वारा जो वाद्य बजाए जाते हैं, उन्हें सुषिर वाद्य कहा जाता है. तत और सुषिर स्वर वाद्य हैं तथा वितत और घन लय वाद्य हैं. प्रस्तुत कोश में राजप्रश्रीयसूत्र को आदर्श मानकर जैनागमों में प्रयुक्त कुल १०८ वाद्ययंत्रों के ऊपर विवेचन किया गया है.
प्रस्तुत कोश में पृ. १ से ४४ तक आगमों में प्रयुक्त विभिन्न वाद्यवाचक शब्दों का अकारादिक्रम से विस्तार से परिचय दिया गया है. सर्वप्रथम वाद्यवाचक मूल शब्दों को अकारादिक्रम से यथावत् अकारादिक्रम से बोल्ड टाईप में दिया गया है. उसके आगे कोष्ठक में संस्कृत छाया दी गई है. जो देशी शब्द हैं, उन्हें ज्यों का त्यों कोष्ठक में दे दिया गया है.
यदि किसी शब्द का पाठान्तर है, तो उसके आगे (पा.) लिखकर पाठान्तर को सूचित किया गया है. कोष्ठक के आगे प्रमाण स्थल का निर्देश है. मूल प्राकृत शब्द के नीचे हिन्दी के पर्याय तथा क्वचित् अन्यान्य भाषाओं के पर्याय भी दिए गए हैं. एक ही शब्द के अनेक वाद्य प्राप्त होने पर उन सभी वाद्यों का अलग-अलग वर्णन किया गया है.
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कोश में उल्लिखित विवरण अनेक ग्रन्थों से चयनित होने के कारण उनमें भाषा की एकरूपता नहीं है, परन्तु विषय की पूरी-पूरी जानकारी प्राप्त हो सके, इसके लिए
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सितम्बर-२०१५ भाषा का परिमार्जन भी किया गया है. जैनागमों, व्याख्याग्रन्थों तथा संगीतग्रन्थों में प्राप्त वर्णनों में परस्पर संवादिता न होने पर विमर्श भी प्रस्तुत किया गया है.
उपयोगिता - यह ग्रन्थ विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के कार्य में बहुत बड़ा सहायक सिद्ध होता है. इस ग्रन्थ से विविध प्रचलित व अप्रचलित वाद्ययन्त्रों को समझने का
अवसर तो मिलेगा ही, साथ ही अध्ययन व शोध के क्षेत्र में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान सिद्ध हो सकता है. इसकी विशिष्टता इसलिए और भी बढ़ जाती है, क्योंकि यह इस तरह का पहला संग्रह है और यह सुन्दर चित्रों के साथ प्रकाशित किया गया है.
उदाहरण के लिए पृष्ठ १४ पर बांई ओर एक शब्द है- 'झल्लर'- उसके आगे कोष्ठक में उसकी संस्कृत छाया लिखा है-(झल्लरी), उसके आगे उसके प्रमाणस्थल का निर्देश है- 'राज०,७७; ठाणं०,७/४२; दसा० १०/१७; निसि० १७/७३६. उसके नीचे उसके अन्य पर्यायवाची नाम दिए गए हैं - झालर, झालरि, जयघंटा. उसका रंगीन चिल, उसके आकार का परिचय व उसका विवरण क्रमशः इस तरह दिया गया है. चक्राकार थाली, जो पीतल, जस्ते और तांबे के मिश्रण से बनाई जाती है.
उसके नीचे उसका विवरण दिया गया है- 'आधुनिक युग में यह वाद्य प्रायः हिन्दु मन्दिरों में आरती के समय प्रयोग में लाया जाता है, जिसे जयघंटा कहा जाता है. संगीत रत्नाकर -६/११९०,११९१ के अनुसार जयघंटा कांसे का होता था, जो समतल, चिकना तथा गोल होता था. मोटाई आधी अंगुल के बराबर होती थी. उसके वृत्त के किनारे पर दो छिद्र होते थे, जिसमें डोरी डालकर लटकाने योग्य बना लिया जाता था. इसे बांए हाथ से पकड़कर दांए हाथ में कोई कठोर वस्तु लेकर बजाया जाता था.
इसे लौकिक भाषा में झालरि अथवा झालर भी कहते थे. इसीका बृहद् रूप महाघंटा भी होता था, जो कांसे अथवा अष्टधातु से निर्मित किया जाता था. उसके नीचे विमर्श दिया गया है- 'संगीतसार, संगीत रत्नाकर और जैन टीकाकारों ने झल्लरि को चर्मावनद्ध वाद्य के अन्तर्गत लिया है. बहुत सम्भव है कि प्राचीनकाल में झल्लरि अनवद्ध एवं घनवाद्य दोनों रूपों में विकसित हो. इसलिए इसका घनवाद्य और अनवद्ध वाद्य के रूप में वर्णन किया गया है. सबसे नीचे स्पष्टता के लिए इसप्रकार लिखा है(विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य- संगीतसार, संगीत पारिजात.)
परिशिष्टादि - इस पुस्तक के अन्त में तीन परिशिष्ट दिए गए हैं. पृ.४७ पर
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September-2015 परिशिष्ट-१ में अकारादिक्रम से प्राकृत शब्द एवं उनके हिन्दी अर्थ दिए गए हैं, पृ.५० पर परिशिष्ट-२ में वाद्ययंत्र के चार प्रकारों की वर्गीकृत सूची दी गई है तथा पृ. ५२ पर परिशिष्ट-३ में सन्दर्भग्रन्थसूची दी गई है. प्रारम्भ में सम्पादकीय के बाद पृ. १० पर संकेताक्षरों के अर्थ दिए गए हैं.
पुस्तक नाम : जैन आगम वनस्पति कोश
प्रकाशक : जैन विश्व भारती-लाडनूं,
प्रकाशन वर्ष ः ई. १९९६, पृष्ठ : १४+२+३४७ परिचय - आचार्य महाप्रज्ञ व मुनि श्रीचन्द्रकमल के द्वारा सम्पादित तथा जैन विश्वभारती लाडनूं से ई. १९९६ में प्रकाशित यह ग्रन्थ जैन साहित्य का एक अत्यन्त उपयोगी कोशग्रन्थ है. यह एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें आगमों में प्रयुक्त वनस्पतिवाचक शब्दों का सचित्र परिचय दिया गया है.
आगमों में वनस्पतियों के नाम यत्र-तत्र विपुल मात्रा में मिलते हैं. जिनमें से अनेक की पहचान दुरूह है. इस कोश में आगमसाहित्य में प्रयुक्त अधिकांश वनस्पतिवाचक शब्दों का परिचय प्राप्त कर लिया गया है, परन्तु कुछेक शब्द अभी भी अज्ञात हैं. इस कार्य में मुनि श्रीचन्द्रजी ने बहुत ही अच्छा कार्य किया है. भारतीय जीवजन्तु वनस्पति के विषय में जानकारी प्राप्त करने वालों के लिए यह एक उपयोगी ग्रन्थ सिद्ध होगा.
स्थानांगसूल, उपासकदशा, भगवतीसूत्र, औपपातिक, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापणासूत्र, जीवाभिगम, सूर्यप्रज्ञप्ति, आवश्यक, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, दशवैकालिक व उत्तराध्ययनसूत्र आदि आगम साहित्य में वनस्पतियों के नाम यत्र-तत्र पाए जाते हैं. कुल मिलाकर लगभग ४६६ शब्दों के ऊपर श्रीचन्द्रकमलजी ने विवेचना कर “जैन आगम वनस्पति कोश" के रूप में संयोजन करने का प्रयास किया है.
प्रस्तुत कोश में पृ. १ से ३३१ तक आगमों में प्रयुक्त विभिन्न वनस्पतिवाचक शब्दों का अकारादिक्रम से विस्तृत परिचय दिया गया है. सर्वप्रथम वनस्पति जगत के मूल शब्द जिस रूप में आगमों में उल्लिखित हैं, उन्हें यथावत् प्राकृत भाषा में दिया
गया है.
उसके आगे कोष्ठक में तत्सम संस्कृत रूप दिया गया है. कोष्ठक के आगे संस्कृत भाषा का अर्थ दिया गया है. संस्कृत रूप के प्राचीन ग्रन्थों में मिलनेवाले पर्यायवाची .
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सितम्बर-२०१५ नाम एवं अन्य भाषाओं के नाम भी दिए गए हैं. वनस्पत्ति का उत्पत्ति स्थान तथा उसके क्षेत्रों का भी उल्लेख किया गया है. प्रत्येक वनस्पति का आकार-प्रकार व लक्षणों का वर्णन करते हुए रंगीन एवं सादे चित्र भी दिए गए हैं, जो इस ग्रन्थ को उपयोगी बनाने में अधिक सिद्ध होते हैं.
उपयोगिता - यह ग्रन्थ विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के कार्य में बहुत बड़ा सहायक सिद्ध होता है. इस ग्रन्थ से वनस्पति जगत को समझने की सुविधा तो मिलेगी ही, साथ ही चिकित्सा के क्षेत्र में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान सिद्ध हो सकता है. इसकी विशिष्टता इसलिए और भी बढ़ जाती है, क्योंकि यह इस तरह का पहला संग्रह है और यह सुन्दर चित्रों के साथ प्रकाशित किया गया है.
जैसे- पृ. १०१ पर दाहिनी ओर से एक शब्द है- 'गोधूम'- उसके आगे कोष्ठक में उसकी संस्कृत छाया लिखा है-(गोधूम), उसके आगे उसका हिन्दी नाम दिया गया है- गेहूँ, फिर उसके प्रमाणस्थल का निर्देश है- 'भ०, ६/१२६; २१/६, प०, १/४५/१. उसके नीचे उसका श्वेतश्याम चित्र दिया गया है और उसके नीचे गोधूम के पद्यमय संस्कृत पर्यायवाची नाम दिए गए हैं
गोधूमो यवकश्चैव हुडुम्बो म्लेच्छभोजनम्।
गिरिजः सत्यनामा च रसिकश्च प्रकीर्तितः॥ उसके नीचे इस श्लोक का सन्दर्भस्थल दिया गया है- 'धन्व०-नि०-६/८५, पृ.२६०. उसके नीचे उसका अर्थ दिया गया है- गोधूम, यवक, हुडुम्ब, म्लेच्छभोज, गिरिज व रसिक, ये गोधम के पर्याय हैं. उसके नीचे अन्य भाषाओं में इसके नाम दिए गए हैं- 'हिं० - गेहूँ, बं० - गम, म० - गहूं, गु० - घेऊ, घउ, क० - गोधी, ते०गोदुमेलु, फा० - गंदुम, ता० - गोदूमै, अ० - हिंता, अं० - Wheat (व्हीट) ले० - Triticum Satvum Lam, (ट्राईटिकम सटाईवम) Fam Gramineae (मिनी).
उसके नीचे गेहूँ के उत्पत्तिस्थान दिए गए हैं.- ‘अनेक प्रान्तों में इसकी खेती की जाती है. संसारभर में अन्न के लिए इसकी उपज की जाती है. यह मैसूर मद्रास में कम होता है. उत्तर भारत में यह अधिक होता है. उसके नीचे विवरण दिया गया है- 'इसके पौधे जव के समान होते हैं. यद्यपि इसकी ३-४ जातियाँ होती हैं, तथापि उपर्युक्त जाति ही अधिक बोई जाती है. इसके अनेक प्रकार होते हैं.
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September-2015 इनमें भी शूकयुक्त या विहीन भेद पाए जाते हैं. कड़ा, मुलायम, श्वेत या लाल आदि दाने के भेद होते हैं. खाने के लिए बड़ा दानेवाला तथा स्टार्च के लिए मुलायम गेहूँ काम में लाया जाता है. महागोधूम, मधूली और दीर्घगोधूम, इन भेदों से यह तीन प्रकार का होता है. महागोधूम, यह भारत के पश्चिमी देशों, पंजाब आदि से आता है.
मधूली – यह बड़ा गेहूँ की अपेक्षा कुछ छोटा होता है तथा मध्यदेश आगरा, मथुरा आदि में उत्पन्न होता है. दीर्घगोधूम- यह शूक (टुंड) रहित होता है तथा इसे कहीं-कहीं नंदीमुख भी कहते हैं. इसके आगे उसका प्रमाणस्थल- (भाव-नि० - धान्यवर्ग०- पृ. ६४१-६४२.) भी दिया गया है.
पुस्तक नाम ः जैनआगम प्राणी कोश
प्रकाशक : जैन विश्व भारती-लाडनूं
प्रकाशन वर्ष : ई.१९९९, पृष्ठ : १०+१+१२० परिचय - आचार्य महाप्रज्ञ व मुनि वीरेन्द्रकुमार के द्वारा सम्पादित तथा जैन विश्वभारती लाडनूं से प्रकाशित यह ग्रन्थ जैन साहित्य का एक अत्यन्त उपयोगी कोशग्रन्थ है. यह एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें आगमों में उल्लिखित द्वीन्द्रीय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी प्राणियों का सचित्र परिचय दिया गया है. आगमों में प्राणियों के नाम यत्र-तत्र विपुल मात्रा में मिलते हैं. परन्तु उनकी पहचान करना बहुत कठिन कार्य है. मुनि वीरेन्द्रकुमार ने इस दिशा में बहुत ही अच्छा कार्य किया है. इस कार्य के लिए लगभग ४० जैन-जैनेतर ग्रन्थों का अध्ययन किया गया. ___ 'भारतीय जीवजन्तु के विषय में जानकारी प्राप्त करने वालों के लिए यह एक उपयोगी ग्रन्थ सिद्ध होगा. भगवतीसूल, प्रज्ञापणासूल, जीवाभिगम, प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययनसूत्र आदि आगम साहित्य में जीव-अजीव का विस्तृत वर्णन है. इस कोश में मूल आगमिक प्राणी नामों के साथ-साथ उनके सन्दर्भ एवं हिन्दी अंग्रेजी तथा जहाँ सम्भव हुआ, वहाँ तकनीकी नाम भी दिए गए हैं.
जीवों के अन्य पर्यायवाची नाम भी बतलाने का प्रयास किया गया है. प्रत्येक जीव का आकार-प्रकार, लक्षण, वर्णन आदि बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिससे उस जीव की पहचान करने में सरलता होती है. इस कार्य को और अधिक उपयोगी बनाने हेतु जीवों के चित्र भी प्रस्तुत किए गए हैं.
उपयोगिता- यह ग्रन्थ विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के कार्य में बहुत बड़ा सहायक
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सितम्बर-२०१५ सिद्ध होता है. छोटे से छोटे तथा बड़े से बड़े, पालतू जानवरों के साथ-साथ जंगली जानवरों तथा जलचर से लेकर थलचर, नभचर; हर प्रकार के जीव के विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने हेतु अत्यन्त उपयोगी है. इसकी विशिष्टता इसलिए और भी बढ़ जाती है, क्योंकि यह इस तरह का पहला संग्रह है और यह सुन्दर चित्रों के साथ प्रकाशित किया गया है.
यहाँ कीट-पतंगों से लेकर जलचर व जंगली जानवरों के कुल ५७० नामों को अकारादिक्रम से संयोजित किया गया है. इसमें मूल शब्द प्राकृत भाषा के हैं, जो Bold type में हैं. उसके सामने कोष्ठक में संस्कृत छाया दी गई है. जो देशी शब्द हैं, उनके मूल शब्द को ही कोष्ठक में दिया गया है. कोष्ठक के सामने उसके प्रमाणस्थलों का निर्देश है. मूल प्राकृत शब्द के नीचे अंग्रेजी में प्रचलित संज्ञा है. अंग्रेजी शब्दों के सामने हिन्दी के पर्याय तथा क्वचित् अन्य भाषा के पर्याय भी दिए गए हैं.
जैसे- पृ ४५ पर दाहिनी ओर से तीसरा शब्द है- 'छीरल'- उसके आगे उसकी संस्कृत छाया लिखा है-[क्षीरल], उसके आगे उसके प्रमाणस्थल का निर्देश हैप्रश्नव्या. १/८. प्राकृत शब्द के नीचे उसका अंग्रेजी में नाम दिया गया है- SnakeSkink. उसके आगे उसके हिन्दी पर्याय दिये गए हैं - नागर बामणी, सांप की बामणी, बामणी, क्षीरल (उत्तर प्रदेश).
उसके बाद उसका आकार दिया गया है- छिपकली से काफी पतली एवं लम्बी. उसके पश्चात् उसका लक्षण दिया गया है - इसका शरीर कुछ चपटा तथा पैर पूर्ण विकसित होते हैं. थूथन से मलद्वार की लम्बाई ८५ M.M. तक हो सकती है. पूँछ की लम्बाई मुख्य शरीर से कुछ अधिक होती है. निचली पलकों पर आरपार देखने के लिए पारदर्शक खिड़की होती है. प्रौढ का रंग भूरा तथा शरीर के प्रत्येक चकते के आधारवाले भाग में एक काला धब्बा होता है. बच्चों की पूंछ का रंग लाल होता है, जैसे-जैसे अवस्था बढ़ती है, वैसे-वैसे लाल रंग फीका पड़ने लगता है.
परिशिष्टादि - इस पुस्तक के अन्त में तीन परिशिष्ट दिए गए हैं. पृ.१०० पर प्रथम परिशिष्ट में अकारादिक्रम से प्राकृत शब्दों के हिन्दी व अंग्रेजी अर्थ दिए गए हैं. पृ.११४ पर द्वितीय परिशिष्ट में द्वीन्द्रिय जीवों के अकारादिक्रम से नाम दिए गए हैं तथा पृ. ११८ पर सन्दर्भग्रन्थों की सूची दी गई है.
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केटलांक अप्रगट प्रतिमा लेखो
हिरेन के. दोशी
ऐतिहासिक संसाधनमा प्रतिमालेखो महत्त्वनी कडी समान छे. प्रतिमा लेखोनी साचवणीथी एक परंपरा अने इतिहासनुं जतन करी शकाय छे. प्रतिमालेखोमांथी विविध प्रकारनी विगतो तारवी शकाय छे. अत्रे प्रस्तुत प्रतिमा लेखो तीर्थयात्रा दरम्यान उतारवामां आवेला छे. क्रमांक नं. एकथी पांच उपर नोंधायेला प्रतिमा लेखो राजस्थानना भीनमाल नजीकना नरसाणा गामना खेतरमांथी प्राप्त थया छे.
प्रस्तुत अंकना मुख्य आवरण उपर आ पांचेय प्रतिमाजीओ जोई शकाय छे. आ पांचेय प्रतिमाजीओनी विगतो पू. आचार्यदेव श्री अरुणोदयसागरसूरीजी म. सा. नी सहायथी प्राप्त थई छे. तो क्रमांक छ अने सात उपर नोंधायेल प्रतिमाजी नाडलाई तीर्थना अने आठ अने नव नंबर उपर नोंधायेल प्रतिमाजी ओशियाजी तीर्थना जिनालयमां बिराजमान छे. प्रस्तुत लेखो उतारवा माटे ते ते तीर्थना संचालक श्रीनो खूब - खूब आभार...
१. संभवनाथ भगवान, पाषाणमय
सं. १५१२ वर्षे माघ वदि ९ शुक्रे श्रीब्रह्माणगच्छे श्रीशीलगुणसूरि प. श्रीव (ज) ज्जगसूरिपट्टे श्रीपजूनसूरीश्वरेण आत्म (मा) र्थे श्रीसंभवनाथ जीवि. बिम्बं कारितं ॥ २. नमिनाथ भगवान, पाषाणमय
॥ सं. १५१२ वर्षे माघ वदि ९ सु (शु) क्रे श्रीश्रीमालज्ञातीय महं........ भार्या कालू... दे पुत्र काना .... भा. कुतिगदे आत्मश्रेयोर्थं जीवितसामि श्रीन.. [म] नाथबिम्बं कारितं प्र. विषा [व] ल गच्छे [भ] श्रीअभयचंद्रसूरिभिः ॥
३. महावीरस्वामी भगवान (?), पाषाणमय
॥ सं. १५१२ वर्षे माघ वदि ९ शुक्रे श्रीब्रह्माणगच्छे श्रीश्रीमालज्ञातीय श्रे. कलस भार्या कपूरदे सुत देपा... गोवरा - देवरा - वणसीपूर्वज विं.... सांगा-धरणाखेतसी - ........... . थीदा-वेला... .मीभ्यां मिलित्वा जीवितस्वाम.. ...बिम्बं का. प्र. श्रीजजगसूरिपट्टे श्रीपजूनसूरिभि प्र... [तिष्ठितं ]
४. चंद्रप्रभस्वामी भगवान, पाषाणमय
॥ सं. १५१२ वर्षे माघ वदि ९ सु (शु) क्रे श्रीश्रीमालज्ञातीय ठ...... भार्या वांकुं....... आत्मश्रेयोर्थं श्रीचंद्रप्रभस्वामि बिम्बं कारितं
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५. सुमतिनाथ भगवान, पाषाणमय
॥६०॥ सं. १५१३(२) वर्षे माघ वदि ९ सु (शु) क्रे श्रीश्रीमालज्ञा तीय.................. भार्या नाडी सुत राउलदेन भार्या... ..भार्या कमी.. आत्मश्रेयोर्थं श्रीसुमतिनाथ बिम्बं कारितं प्रतिष्ठितं पूर्णिमापक्षीय [ चां] द्र [गच्छीय ] श्रीमुनितिलकसूरिणा पट्टे श्री... [राज] तिलकसूरिभिः ॥ श्रीरस्तु ॥
६. आदिनाथ भगवान, पंचधातुमय
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संवत १२७७ वैशाख सुदि ४ बुधे दादु सुत कुंवरेण भार्या सहितेन आत्मश्रेयोर्थं रिषभनाथ प्रतिमा कारिता ॥
सितम्बर २०१५
७. मुनिसुव्रतस्वामी भगवान, पंचधातुमय
संवत् १५८७ वर्षे पोष सुदि १३ रवौ श्रीवीसलनगरवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय व्यं. खीमसी भार्या मरघू सुत कुंराकेन भार्या हांसी सु. मेघराजयुतेन स्वश्रेयसे श्रीमुनिसुव्रतबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीबृहत्तपापक्षे गच्छाधिराज भ. श्रीधनरत्नसूरि भ. श्रीसौभाग्यसागरसूरियुतैः ॥ श्रीरस्तु ॥
भ. = भट्टारक
व्य. = व्यवहारी
का. =
कारितं
भा. = भार्या
८. कुंथुनाथ भगवान, पंचधातुमय
१५५२ वर्ष वैशाख वदि ३ शनौ कउडशाखायां श्रीश्रीवंशे व्य. केलल भार्या राजलदे पुत्र रत्नरा [ज] भार्या श्रीया... यादे पुत्र हर्षा मोकलः पितुः पूर्वजपुण्यार्थं श्री अंचलगच्छेश श्रीसिद्धांतसागरसूरीणामुपदेशेन श्रीकुंथुनाथबिंबं कारितं श्रीसंघेन प्रतिष्ठितं माहडका ग्रामे ॥
९. सुमतिनाथ भगवान, पंचधातुमय
सं. १५०६ वर्षे मा. सु. ८ दिने श्रीउपकेशग. श्रीककुदाचा. सं. तातहड गो. सा. कीड भा. कस्मीरी पु. जेठू भा. जच्चू पु. मूला-समदाभ्यां मातृ श्रे. श्रीसुमतिनाथ बि. का. प्रति श्रीकक्कसूरिभिः
संकेतसूचि
सं. = संवत्
सु. = सुत
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प्र. =
प्रतिष्ठितं
जीवि. = जीवितस्वामी (?)
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संगणकीय ग्रंथालय प्रणाली में पेटांक की अवधारणा
अरुणकुमार झा
. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में तकनीकी सहयोग से हस्तप्रत, पुस्तक, मैगजिन, आदि में स्थित सूक्ष्मातिसूक्ष्म जानकारी संग्रह की जाती है. इसी श्रृंखला में पेटांक माहिती भी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है. यह शोधार्थियों के शोधकार्य में लक्ष्य तक पहुँचने के लिये मील का पत्थर साबित होता है. अध्येताओं व संशोधकों हेतु यह सुविधा उनके अध्ययन- संशोधन के कार्य को गति देता है तथा उनके श्रम व समय की बचत कराता है.
सामान्यतया अन्य ग्रन्थालयों में ग्रन्थ के आवरण एवं शीर्षक पृष्ठ पर लिखित ग्रन्थ परिचय के आधार पर ही सूचीकरण किया जाता है. ग्रन्थ में स्थित कृतियों के परिचय को अलग से सूचीकरण में शामिल नहीं किया जाता है. जबकि ज्ञानमंदिर, कोबा में ग्रन्थस्थ सभी कृतियों का परिचय पेटांक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है.
जब एक ही ग्रंथ में एकाधिक स्वतंत्र स्तवन आदि अथवा टीका, अनुवाद आदि पुत्र-कृतियाँ क्रमशः विभिन्न पृष्ठों पर हों तो उन्हें पेटा कृति के रूप में जाना जाता है. प्रत्येक स्वतन्त्र या मिश्रित कृतिसमूह के लिये एक स्वतंत्र पेटा अंक दिया जाता है.
इस पेटा अंक पर से इस अवधारणा का नाम ही "पेटांक" के रूप में रूढ हो गया है. स्वतन्त्र कृति जैसे प्रथम भक्तामर स्तोल, उसके बाद कल्याणमंदिर स्तोत्र, फिर कोई अन्य कृति लिखी हो, इस तरह क्रमबद्ध लिखी गई कृति को स्वतन्त्र कृति कहते हैं.
मिश्रित कृतिसमूह यानि मूल भक्तामर स्तोत्र तथा उसके बाद कल्याणमंदिर स्तोत्र लिखा गया है, परन्तु कल्याणमंदिर स्तोत्र के साथ-साथ अर्थ भी लिखा गया होता है तो वह कल्याणमंदिर स्तोत्र मूल और अर्थ का मिश्रित कृति कहा जाएगा. उसका नाम दिया जाएगा 'कल्याणमंदिर स्तोत्र सह अर्थ इसका अर्थ यह है कि कल्याणमंदिर के प्रत्येक श्लोक के साथ अर्थ भी हैं.
इस तरह ग्रंथ में मूल के साथ एकाधिक पुत्र-पौत्रादि कृतियाँ हों तो ऐसे मिश्रित कृतिसमूह को एक ही पेटांक के रूप में दर्शाया जाता है. क्योंकि ये एक ही परिवार के
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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१५ सदस्य होते हैं. मिश्रित कृति की समाप्ति के पश्चात् अगले पृष्ठों पर यदि कोई स्वतन्त्र कृति होती है (चाहे वह पूर्वोक्त मिश्रित कृति का सदस्य ही क्यों न हो) तो उसे स्वतन्त्र पेटांक के रूप में पुनः सूचीबद्ध किया जाता है.
यथा-कल्याणमंदिर स्तोत्र सह बालावबोध की समाप्ति के पश्चात् कल्याणमंदिर स्तोत्र का बालावबोध (मात्र पुत्रकृति) अलग से लिखा गया हो तो उस बालावबोध को स्वतन्त्र पेटांक के रूप में पुनः प्रदर्शित किया जाएगा. साथ ही उसका नाम, पत्रांक, पूर्णता, आदि का भी अलग से उल्लेख किया जाता है. उपर्युक्त कृतियों को हम इसप्रकार पेटांक के रूप में देख सकते हैं
पेटांक नाम १ - भक्तामर स्तोत्र सह अर्थ पृ. १८-२५ कृति नाम - भक्तामर स्तोत्र
__भक्तामर स्तोत्र-(मा.गु.)अर्थ पेटांक नाम २ - भक्तामर स्तोत्र का बालावबोध पृ. २६-२७ कृति नाम - भक्तामरस्तोल-(मा.गु.)बालावबोध
इस अवधारणा से किया गया सूचीकरण वाचकों एवं संशोधकों के लिये बहुत उपयोगी सिद्ध होता है.
हस्तप्रत, पुस्तक, मैगजिन आदि में किसी भी पृष्ठ पर स्थित छोटी-बड़ी कृतियों की सूचना बड़ी आसानी से मिल जाती है. जो अन्यथा मिलनी असंभव सी है. पेटांक की अवधारणा के आधार पर दी गई सूक्ष्म एवं सटीक माहिती प्रदान करना ज्ञानमंदिर की विशेषता है. सूचीकरण की दुनिया में यह एक अनूठा व अत्यंत उपयोगी कदम है.
पेटाकृतियाँ निम्नलिखित स्वरूपों में पायी जाती हैं. स्तवन, स्तोत्र, रास, सज्झाय, चरित्र, पूजा, देववंदन आदि का संग्रह.
किसी प्रधान कृति या कृतिसमूह वाली प्रत या पुस्तक के प्रारंभ अथवा अंत में एकाधिक मूलमान, मात्र पुत्रकृति अथवा मिश्रित कृतिसमूह.
मुख्य कृति से भिन्न स्वतंत्र रूप से दिए गए फुटकर सुभाषित श्लोक, औषधादि विषयक सामग्री, तंत्र-मंत्र आदि भी पाए जाते हैं. इन्हें भी पेटांक के रूप में ही दर्शाया जाता है.
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September-2015 मुद्रित ग्रन्थों की भूमिका, प्रस्तावना एवं परिशिष्टादि में भी कभी-कभी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ पायी जाती हैं. इसीतरह कभी-कभी हस्तप्रत में स्थानाभाव एवं अन्य कारणों से प्रतिलेखक हासिये में भी एकाध लघु परन्तु महत्त्वपूर्ण कृतियाँ लिख देते थे. पेटांक पद्धति के माध्यम से इन्हें भी योग्य क्रम देकर टिप्पणी के द्वारा स्पष्टीकरण कर दिया जाता है, हमारे लिये एक श्लोक का भी उतना ही महत्त्व है जितना एक बड़ी एवं प्रस्थापित कृति का.
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पेटांक नाम सामान्यतया प्रकाशन में दिये कृति के शीर्षक एवं हस्तप्रत में प्रतिलेखक द्वारा दिये गए कृति के आरम्भ अथवा अंत के नाम को पेटांक नाम के रूप में प्रदर्शित किया जाता है.
का,
यह कृति के मुख्यनाम के अनुरूप ही होता है, परन्तु कभी-कभी मूल कृतिनाम के समानार्थी अथवा लोकप्रचलित नाम होते हैं. यदि मूल कृति पुत्र, पौत्रादि के साथ हो तो सह तथा यदि मूल कृति से रहित मात्र पुत्र-पौत्रादि कृति हो तो के, की आदि सम्बन्धसूचक शब्दों के साथ पेटांक नाम दर्शाया जाता है.
पेटांक नाम निर्धारण में हुंडी की उपयोगिता - हस्तप्रतों में कुछ प्रतिलेखक कृति का नाम प्रत के हासिये में बायीं ओर ऊपरी भाग में लिख देते हैं, जिसे हुंडी कहा जाता है. यह कभी संपूर्ण तो कभी सांकेतिक रूप से लिखा हुआ मिलता है, तो कभी छोटी-छोटी कृतियों के नाम विभिन्न पत्रों पर लिखा हुआ मिलता है, कभी सामूहिक नाम एक ही पत्र पर लिखा हुआ मिलता है. इससे पेटांक नाम एवं कृति नाम के निर्धारण में सहायता मिलती है.
पेटांक की पूर्णता - ग्रंथ में उपलब्ध कृति की पूर्णता के आधार पर पेटांक की पूर्णता मानी जाती है. सामान्यतया यदि कृति अपूर्ण है तो पेटांक अपूर्ण तथा कृति संपूर्ण है तो पेटांक संपूर्ण होता है.
लेकिन यदि पत्र में स्थान खाली होने पर भी प्रतिलेखक ने किसी कारण से कृति को अपूर्ण लिखकर छोड़ दिया हो तो वहाँ कृति अपूर्ण कही जाएगी, लेकिन पेटांक संपूर्ण माना जाएगा. स्पष्ट शब्दों में कहें तो कृति की अपूर्णता का कारण यदि मात्र पन की अनुपलब्धता हो तो ही पेटांक को अपूर्ण माना जाता है.
अपूर्णता का उल्लेख- उपलब्ध प्रत में कृति का कितना अंश है, उसका स्पष्ट 'रूप से उल्लेख किया जाता है. जैसे यदि किसी कृति का प्रारम्भिक भाग नहीं हो तो
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सितम्बर २०१५
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कहाँ तक नहीं है, मध्य का भाग नहीं है तो कहाँ से कहाँ तक नहीं है या अंत के भाग नहीं हैं तो कहाँ से नहीं हैं, इसका उल्लेख किया जाता है. जिससे वाचक को कृति की पूर्णता अपूर्णता का सही-सही विवरण पता चलता है.
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प्रतिलेखन पुष्पिका- सामान्यतः हस्तप्रतों के अंत में पाई जाने वाली प्रतिलेखन पुष्पिका कई बार कुछ पेटांकों के अंत में भी मिलती है. सामान्यतया प्रतिलेखन पुष्पिका प्रत के अंत में लिखी होती है, परन्तु कई प्रतों में कृतिलेखन के पश्चात् कृति की अपनी स्वतंत्र पुष्पिका भी मिलती है.
यह प्रत्येक कृति के बाद हो सकती है या बीच की किन्हीं एक-दो कृतियों में भी हो सकती है. पुष्पिका अंतर्गत उस कृति का प्रतिलेखक, लेखन स्थल, संवत, मास, पक्षादि विविध माहितियाँ अपनी-अपनी जगह पर योग्य रूप से प्राप्त होती है. इससे यह पता चलता है कि प्रस्तुत प्रत अथवा कृति किसने, कब, कहाँ लिखी है.
:
प्रतिलेखन पुष्पिका से कभी-कभी महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक जानकारी मिल जाती है, जिससे हस्तप्रत का महत्त्व काफी बढ जाता है. जैसे - कर्त्ता द्वारा लिखित प्रत, रचना के समीपवर्ती काल में लिखित प्रत, प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा लिखित प्रत इत्यादि. कभी कभी तो ऐसा भी मिलता है कि एक ही प्रत के अलग-अलग पेटांक २००-३०० वर्षों के अंतराल में विभिन्न स्थल एवं विभिन्न प्रतिलेखकों के द्वारा लिखे जाते थे.
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हस्तप्रत में पत्रांक लेखन सामान्यतया हस्तप्रतों में पत्र के एक ही ओर पत्रांक लिखने की परंपरा है. वह पत्र के अगले भाग में न होकर दूसरी तरफ पत्र की दाहिनी ओर नीचे की तरफ होते हैं. कई प्रतों में बाईं ओर ऊपर की तरफ भी पलांक दिए गए होते हैं.
पत्र के जिस ओर पत्रांक नहीं होते हैं उसे प्रारंभिक भाग माना जाता है. अतः उधर से ही पाठ पढने का प्रारंभ करने की परंपरा है. परन्तु कुछ प्रतिलेखक पत्र के प्रारंभिक भाग में ही पत्रांक लिख देते हैं. ऐसा क्वचित् ही पाया जाता है. आधुनिक प्रतों में पत्र के दोनों ओर पत्रांक भी देखे गए हैं. इसे स्पष्ट करने के लिये निम्नलिखितरूप से पेटांक में पृष्ठांक लिखने की परंपरा है.
१अ - १०आ - प्रथम पत्र की अगली तरफ से प्रारंभ होकर दसवें पत्र की दूसरी तरफ कृति का समापन हुआ हो.
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September-2015 १०आ-१५अ- दसवें पत्र की दूसरी ओर से प्रारंभ होकर पंद्रहवें पत्र की अगली तरफ कृति का समापन हुआ हो.
इस प्रकार पेटांक के पृष्ठांक दिये होने से वाचक अपेक्षित कृति तक शीघ्रता एवं आसानी से पहुँच सकता है.
पेटांक रिमार्क- पेटांक के अन्दर यदि कृति से सम्बन्धित चित्र अथवा यन्त्र दिए गए हों, गाथाओं के परिमाण में अनियमितता हो, या कभी प्रतिलेखक एक ही कृति को दुबारा भी लिख देते है, तो इसकी सूचना इस कॉलम से प्राप्त हो सकती है. इससे शोधार्थियों के लिये किसी प्रकार का श्रम अथवा संदेह नहीं रह जाता है.
पेटांक की उपयोगिता- वाचकों के लिये पेटांक की यह पद्धति बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई है. इस पद्धति के द्वारा आप अपनी इच्छित कृति तक शीघ्रातिशीघ्र एवं सुगमतापूर्वक पहुँच सकते हैं.
इच्छित कृति किन-किन हस्तप्रतों में लिखी गई है, किन-किन पुस्तकों में प्रकाशित हुई है एवं कौन-कौन से मैगजिन के किन अंको में प्रकाशित हुई है, यह पृष्ठ संख्या सहित वाचकों को पल भर में बता दिया जाता है.
अन्यथा सैकड़ों स्तवनों के बीच से एक स्तवन को ढूँढना या किसी बड़ी कृति वाली पुस्तक की प्रस्तावना या परिशिष्ट आदि के बीच किसी गुमनाम कोने में स्थित कृति को ढूंढना प्रायः असंभव होता है.
इस प्रकार आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर द्वारा विकसित पेटांक पद्धत्ति वाचकों, संशोधकों आदि के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध हो रही है. आधुनिक पुस्तकालय की सूचीकरण पद्धतियों में पेटांक की यह अवधारणा न होने के कारण पुस्तकों में स्थित महत्वपूर्ण कृतियों को ढूँढना दुष्कर हो जाता है.
कई बार जब शोधार्थी अन्य ग्रन्थालय से ठोकरें खाकर हताश एवं निराश हालत में यहाँ आते हैं तब किसी ग्रन्थ में निहित पेटांकों तथा उनसे जुड़ी हुई उन कृतियों के विषय में जब उन्हें पता चलता है, तो उनके चेहरे पर प्रसन्नता और अहोभाव दृष्टिगोचर होता है. यही ज्ञानमन्दिर की अनुपम उपलब्धि है.
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२०१५१२८० गावा
नरसाणाथी प्राप्त थयेल प्रतिमाजीना लेखनो फोटो
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir GUJ MUL 00578. SHRUTSAGAR (MONTHLY). POSTAL AT. GANDHINAGAR. ON 15TH OF EVERY MONTH. PRICE : RS. 15/- DATE OF PUBLICATION SEp. 2015 नरसाणाथी प्राप्त थयेल प्रतिमाजीना लेखनो फोटो प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204,205,252, फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org PRINTED, PUBLISHED AND OWNED BY : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, PRINTED AT : NAVPRABHAT PRINTING PRESS. 9-PUNAJI INDUSTRIAL ESTATE, DHOBHIGHAT, DUDHESHWAR, AHMEDABAD-380004 PUBLISHED FROM : SHRI MAHAVIR UN ARADHANA KENDRA, NEW KOBA, TA. & DIST. GANDHINAGAR. PIN : 382007. GUJARAT EDITOR : HIRENBHAI KISHORBHAI DOSH! For Private and Personal Use Only