Book Title: Shraman Pratikraman Sutravrutti
Author(s): Purvacharya, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाई जैन पुस्तकोद्धार - ग्रन्थाङ्कः २. श्रीपूर्वाचार्यप्रणीता श्रीश्रम णप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः । प्रसिद्ध कर्ता नगीन भाई - घेला भाई - जव्हेरी - एककार्यवाहकः । मुम्बय्यां कोट सासुनबिल्डिगस्थाने इ. सू. इत्येतेषां ' गुजराती ' मुद्रणालये मुद्रापितम् मुम्बय्याम् । प्रति ५०० वीर सवत् २४३७, विक्रम संवत् १९६७, इस्वी १९११. मूल्यम् १॥ आणकः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personel Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 PREFACE JAIN literature, comprising as it does almost all the branches that are characteristic of ancient Indian literature, holds no insignificent a niche in the gallery of that literature. It is considerable even as it is at present and was more so in former times. This is not the proper place to enumerate the great writers and their works that constitute the glory of that literature. The fact that the Jain writers had flourished in great abundance in times gone by, is evident from the vast stock of literature that has survived this day, though it is yet in an unexplored state. Their eminence in subject matter as well as language is manifest to those who are conversant with it. Along with Indian literature at large, Jain literature too has been a participator in the unhappy fate it met with at the hands partly of alien bigotry, and partly of mutual religious jealosy and from the peculiarities of the cliniate. There was a time when there was no other alternative to secure the very existence of such literature but that of burying it in subterraneon archives. The very method employed for the safety of the works became later on instrumental in further diminishing the stock, and that at a time when there was not the least chance of its being further enriched. Those upon whom had fallen the task of being the hereditary custodians of such collections, had inherited the traditions of their forefathers viz those of not suffering any part of such collection to see the rays of the Sun, lest they might be deprived of them, and the works most dear to them be destroyed by the assailants. It is very strange indeed that these traditions are alive even at this day when there is peace all round, and when the time is most propitious for the developement of literature. Fire even has contributed its quota to the destruction of the records. Add to these the all round degeneration among the followers of the faith, when far from the prospects of further expansion, the faith was in imminent danger of being extinet. It was during this time that more attention was paid to the performance of external rites and ceremonies, and practically nothing was done in the direction of N For Private & Personel Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pre Y face education and literature and the sturring up of the inner spirit of faith. It is only very recently that a practical revival of a salutary character is visible. Owing to circmstances above mentioned, the literary results of the arduous labour and the great learning of the Acharayas and the Sadhus of the faith, could not be made accessible. It may perhaps not be out of place here to give in short the history of this Fund that has led to the publication of the series. The late Sheth Devchand Lalbhai, in whose memory this fund has been inaugurated, left by his . will a sum of Rs. 45,000, along with other sums to be spent in various other matters, to be devoted to some benevolent purpose. This amount was further enhanced by a sum of Rs. 25,000 set apart by Mr. Gulabchand Devchand to be spent in some good purpose in the memory of the said Sheth Devchand Lalbhai. It was on the advice of Puniasa Shree Anand Sagar that these sums, which take the original funds in Trust, were amalgamated, and the present Trust was inaugurated. At present the funds of this Trust amount to about Rs. 100,000, the original being further enhanced by the property of Bai Vichkore, the deceased daughter of the said Sheth Devchand Lalbhai, which was directed to be made over to this Trust by her. Tne object of this Trust is to devote the interest of the funds for the preservation and the developement of the Jain Swetamber religious literature." The Trustees are now in a position to bring out the present volume as the second of the series to be published from time to time by this Trust. The name of the author has not been found and hence to more details of the work are at our disposal. In conclusion we take this opportunity of expressing our deep obligations to Shree Keshar Vijaya Gani for reading the proof sheets of the work. APRIL 1911.) NAGINBHOY GHELABHOY JAVERI. JAVERI BAZAR, A Trustee, for himself and Co-trustees. BOMBAY. For Private & Personel Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठी देवचन्द लालभाई जव्हेरी. जन्म १९०९ वैक्रमाब्दे कार्तिक शुक्लैकादश्यां सूर्यपुरे निर्याणम् १९६२ वैक्रामाब्दे पौषकृष्णतृतीयायाम् मुंबय्याम् The Late Seth Devchand Lalbhai Javeri. Born 1853 A. D. Surat. Died 1906 A. D. Bombay. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personel Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. श्रीवीतरागाय नमः “ यतिप्रतिक्रमणसूत्रम् ” इत्याकारिकामभिधां यथार्थयत्ययं ग्रन्थः । मोक्षमार्गप्रवृत्तो वधादिविरतो यतिस्तेन स्वभूमिकोचितयमनियमाद्याचारात्, ज्ञानदर्शनचारित्राद्वा, भगवतो वीतरागस्यानुशासनाद्वा, ज्ञात्वाऽज्ञात्वा वा यद्विरुद्धमतिक्रान्तं तदतिक्रमणम्ः ततः परावृत्य पुनः स्वोचिताचारावस्थानं तत् प्रतिक्रमणम्ः तदर्थप्रतिपादको ग्रन्थो यतिप्रतिक्रमणम्ः अर्थादयमतिक्रमणं प्रदर्श्य तस्माद्योग्यमूमिकायां प्रतिक्रमणरूपमर्थ प्रतिपादयति. उक्त ग्रन्थ सूत्रकारवृत्तिकारयोराचार्ययोर्नामनी समयश्चन केनापि प्रकारेण ज्ञातुं शक्यते, सूत्रान्ते वृत्त्यन्ते च तदद्भावात्; तथापीद्मवसीयते यत्परिगणितं प्रतिक्रमणं चतुर्थावश्यकत्वेन, अपिच आद्यन्ततीर्थङ्करसाधुमात्रैरेव प्रत्यहं प्रातः सायं च नियमेनानुष्ठेयावश्यक क्रियेत्युपदेशमद्यापि तीर्थकरीयं पालयन्ति साधवः, एतेन श्रीवीतरागस्य भगवतो महावीरस्वामिनः समकालीनत्वमस्य निर्विवादम्; तेन सूत्रनिर्मातारोप्याचार्यचरणाश्चिरन्तना एव; तथापि तत्समये अस्यामेवापरस्यां वा वाण्यां, एतावत्स्वेव वर्णेषु, शब्देषु, वाक्येषु वा, रचना, लेखना, किमासीद् ! अत्र विद्वांस एव प्रमाणम्. साधुसाध्वीभिरङ्गीकृतव्रतेषु अह्नि रात्रौ वा कोप्यतिचारः समुत्पन्नश्चेत्तं संस्मार्य तस्मात्परावर्तितव्यमित्येवोदेशो ऽस्य ग्रन्थस्य पूर्व स्पष्टरीत्या प्रदर्शित एव. ग्रन्थोऽयं सम्मुद्राप्य प्राकाश्यं प्रापित इत्येतत्कार्य सूरतपुराभिजनः श्रेष्ठी - देवचन्द्र- लालभाई Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्ता ॥३॥ जव्हेरी, एतदाख्यस्य " जैनपुस्तकोडारकोशात् " जातम् उक्तश्रेोष्ठिवर्येण स्वदेहावसानावसरे शुभमार्गव्ययार्थं यथाशक्ति ॐ निष्कासितं वसु, तेन कार्यनिर्वाहकै : (ट्रस्टी) संस्थापितः पुस्तकोद्धारकोशः ( फण्ड ) बहवः सन्ति जैनशास्त्रीयग्रन्था इति नास्ति मुखतः कथनप्रयोजनम्; किन्तु दुर्बलकालयोगादिमे नष्टप्रायतामनुभवन्त आसते; तस्मादेव संस्कृतप्राकृतविद्यालाभविषये न्यूनता समुपलब्धा; तत एवाक्षरचणानां विद्याचणानामप्यभावप्रायता समजनि; अत एव कालाननुकूलत्वेन धार्मिकशिक्षणाभावोऽपि संहृत इति वक्तुं सुकरम्; अपिच तद्ग्रन्थरक्षणकार्य येष्वापतितं तन्मध्यात्कैश्चित् सर्वभावेन गुप्ता एव कृतास्ते, तेनानेके ग्रन्था नामावशेषतां प्राप्ता इति, संशो धनप्रकाशने अप्यतिदुश्श कतामापतिते ग्रन्थानाम्; परन्त्विदमतीव समीचीनं यदेतद्धर्मज्ञानकोश (फण्ड) स्थापनम् ; एतस्मात्प्रत्येक जैनग्रन्थोद्धारो भविष्यतीति सम्भाव्यते, अत्रस्थधनपरिमाणमेकलक्षं राजतीसुद्राः प्रायस्सञ्जाता इत्यनुमीयते तत्कलया भविष्यति पुस्तकसम्मुद्रणादिकार्यमिति मन्ये, यथाशक्ति कृतेऽपि प्रयत्ने ग्रन्थकाराभिधानलब्ध्यभावेन “ इति श्रीपूर्वाचार्यप्रणीता यतिप्रतिक्रमणवृत्तिः " इति ग्रन्थान्ते लेखनमापतितं निरुपायवशादेव. एतत्पुस्तकशोधनविषये मदृष्टिदोषवशादज्ञानतो मुद्रणदोषाद्वा सीसकाक्षरयोजकदोषाद्वा यानि स्खलितानि तानि निर्मत्सरैः पक्षपातरहितैः सङ्ख्यावद्भिः शोधनीयानीति विनयेन प्रार्थयते. मि. माघ शु. १ भौमे वीर, २४३७. Jain Education पं० केशरविजयगणिः प्रान्तिज - ( गुर्जर देशे . ) वना, 11711 jainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ प्रतिक्रमणवृत्तिः श्रीवीतरागाय नमः॥ अथ प्रतिक्रमणमिति कः शब्दार्थ इत्युच्यते प्रतिशब्दः प्रतीपाद्यर्थे ततः शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेष्वेव प्रतीपं प्रतिकूलं क्रमणं निवर्त्तनं प्रतिक्रमणमिति । तच्च प्रतिक्रमणं यावज्जीवमित्वरं च तत्र यावज्जीवं व्रतादिलक्षणमित्वरं दैवसिकादि। तद्यथा “पडिकमणं देवसियं राइयमित्तरियमावकाहयं च। पक्खियचाउम्मासिय संवच्छर उत्तम ठेय।।" उत्तमार्थे भक्तपत्याख्याने दैवसिकेनैवशोधिते सत्यात्मनि पाक्षिकादि किमर्थमुच्यते “जह गेहं पइदिवसपि सोहियं तहवि पक्ख संधिसु।सोहिज्जइसविसेसं एवं इहइंपि नायव्व।" प्रतिक्रमणविषयस्तु “ पडिसिद्धाणं करणे किच्चाणमकरणे य पडिकमणं । अस्सद्दहणे य तहा विवरीयपरूवणाएय॥" सांप्रतं प्रतिक्रमणसूत्रं । पञ्चपरमेष्ठि नमस्कारपूर्वकमुच्चारणीयं तच्चेदं “ करेमि भन्ते सामाइयमित्यादि जाववोसिरामि " अस्य व्याख्यां करोमि भयस्यान्तो यस्मात्तस्य संबोधनं भयान्त गुरोभन्ते इत्यामन्त्रणात् गुरुं विना सामायिकं न भवत्येव सामायिकं समस्यारक्तद्विष्टस्य भावस्यायनमायो गमनं समायः। स एव स्वार्थिकेकणि सामायिकं सर्व सपापं योगंव्यापारंप्रत्याख्यामि निराकुर्वे यावज्जीवनं भिदादित्वादडियावज्जीवा तया यावदस्मिन् जन्मनि प्राणधारणमित्यर्थः त्रिविध मनोवाक्कायव्यापारं त्रिविधेन करणे तृतीया मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वतमप्यन्यं नानुजानामि नानुमन्ये तस्य सावद्ययोगस्य कृतस्य भयान्त प्रतिक्रमामि निवर्ते निन्दामि जुगुप्से आत्मसाक्षिकं गहें गुरुसाक्षिकं आत्मानं कृतसावधव्यापार व्युत्सृजामि त्यजामीति ननूच्चारणमपि पुनरस्य किमर्थ क्रियते । उच्यते। समभावस्थेनैव प्रतिक्रमितव्यमिति ज्ञापनार्थ । अथवा “ यद्वद्विषघातार्थ मन्त्रपदैन पुनरुक्तदोषोऽस्ति । तद्वद्रागविषघ्नं पुनरुक्तमदुष्टमर्थपदं” रागविषघ्नं चेदं यतस्ततश्च मङ्गलपूर्वकं प्रतिक्रमितव्यमतः सूत्रकार एव in Education International For Private & Personel Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्र० वृत्ति. गडीपसत्याग लागमयं तु । दसणनाणात४॥" यतएव लोग गल्लामि तानाह .. तदभिधित्सुराह " चत्तारिमङ्गलमिति" मां भवात् गालयतीति मङ्गलं चत्वारः के एते चत्वार इत्याह " अरहन्ता मङ्गलमित्यादि " अशोकाद्यष्टमहापातिहार्यरूपां पूजामर्हतीत्यर्हतस्ते मङ्गलं सितंबद्धं कर्म ध्मातं दग्धं येषां ते सिद्धास्ते च निर्वाणसाधकान् योगान् साधयन्तीति । साधवस्ते च साधुग्रहणादाचार्योपाध्याया गृहीताः केवलिभिः सर्वज्ञैः प्रज्ञप्तः प्ररूपितः २ सचासौ धर्मश्च श्रुतचारित्रलक्षणः स च मङ्गल मिति कुतः पुनरर्हदादीनां मङ्गलता लोकोत्तमत्वात्तथाचाह " चत्तारि लोगुत्तमा" चत्वारो लोकेषूत्तमाः प्रधानाः के एते इत्याह " अ-IN नरहन्ता लोगुत्तमा इत्यादि " गतार्थ कथमुत्तमत्वमेषामुच्यते “अरहन्ता ताव तहिं उत्तम हुंन्ती उ भावलोगस्स। कम्हा जं सव्वासिं कम्मप्पगडीपसत्थाणं ॥१॥ लोगुत्तमत्ति सिद्धा तउत्तमा होन्त खेत्तलोगस्स । ते लोकमत्थयत्या जं भणियं होइ नियमेण ॥ लोगुत्तमत्ति साहू पडुच्च ते भावलोगमेयं तु। दंसणनाणचरित्ताणि तिन्नि य जिणइंदभणियाई॥३॥ धम्मो सुयचरणो दुहावि लोगुत्तमोत्ति नायव्यो। खउवसमिउवसमियं खइयं च पडुच्च लोगं तु॥४॥"यत एव लोगुत्तमा अत एव शरण्या अथवा कथं लोगुत्तमा तेषां शरण्यत्वात्तदाह " चत्तारि सरणं पवजामि" चतुरः संसारभयत्राणाय शरणं प्रपद्ये आश्रयं गच्छामि तानाह " अरहन्तेत्यादि " गतार्थ कृतमङ्गलोपचारः प्रतिक्रमणसूत्रमाह " इच्छामि पडिक्कमिउं इत्यादि " यावत् “ तस्स मिच्छामि दुक्कडन्ति" इच्छामीत्यादिपदानि च वक्तव्यतानि पदार्थस्त्विच्छामि प्रतिक्रमितुं कस्य यो मया दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिमाणो वा दैवसिकोऽतिचरणमतिचारोऽतिक्रम इत्यर्थः कृतो निर्तितस्तस्येति योगोऽनेन क्रियाकालमाह मिच्छामिदुक्कडमनेन निष्ठाकालमिति भावना स पुनरतिचार उपाधिभेदेनानेकधा भवत्यत आह कायेन निवृत्तः कायिकः कायकृत इत्यर्थः एवं वाचिको मनसा निवृत्तो मानसः स एव मानसिकोवाकृतो मनःकृतश्चेत्यर्थः उद्गतः सूत्रादुत्सूत्रः सूत्रेऽनुक्त इत्यर्थः मार्गः क्षायोपशमिको भाव उर्व मार्गादुन्मार्गःक्षायोपशमिकभावत्यागेनौदयिकभावसंक्रम इत्यर्थः कल्प आचारश्चरणव्यापारोन कल्पो ॥१॥ Jain Education a l For Private & Personel Use Only Lelljainelibrary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतो असा मादृष्टो ध्यातो दुतिं आचरीकरणीयः हेतु २ मझवशात्र कल्पोऽतद्रूप इत्यर्थः करणीयः सामान्येन कर्त्तव्यो न करणीयोऽकरणीयः हेतु २ मद्भावश्चात्र यत एवोत्सूत्रोऽत एवोन्मार्ग इत्यादि उक्तस्तावत् कायिको वाचिकश्च अधुना मानसमाह दुष्टोध्यातो दुातं आर्त्तरौद्रलक्षण एकाग्रचित्ततया तथा दुष्टो विचिन्तितो दुनिचिन्तितो अशुभ एव चल चित्ततया यत एवेत्थंभूतो अत एवासौ न श्रमणप्रायोग्यः तपस्यनुचित इत्यर्थः यत एवाश्रमणप्रायोग्यो अत एवानाचार आचरणी hdय आचारो नाचारोऽनाचारः साधूनामनाचरणीयो यत एवानाचरणीयोऽत एवानेष्टव्यो मनागपि मनसापि न प्रार्थनीय इत्यर्थः। किं विषयोऽयमतिचार इत्याह"णाणे दंसणे चरित्ते"ज्ञानदर्शनचारित्रविषये अधुना भेदेन व्याचष्टे "सुएत्ति" श्रुतविषये श्रुतग्रहणं मत्यादिज्ञानोपलक्षणंतत्र विपरीतप्ररूपणा अकालस्वाध्यायादिरतिचारः “सामाइएत्ति" सामायिकविषये सामायिकग्रहणात्सम्यक्त्वचारित्रसामायिकयोहणं तत्राघेऽतिचारः शङ्कादिश्चारित्रसामायिकातिचारं तु भेदेनाह"तिण्हं गुत्तीणमित्यादि"तिमृणां गुप्तीनां तत्र प्रवीचाराप्रवीचाररूपा गुप्तयः चतुर्णा कषायाणां क्रोधमानमायालोभानां, पश्चानां महाव्रतानां प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानां, षण्णां जीवनिकायानां पृथ्वीकायिकादीनां, सप्तानां पिण्डैषणानाम संसृष्टादीनां ताश्चेमाः "संसठमसंसठा उद्धड तह चेव अप्पलेवा य । उग्गहिया पम्गहिया उज्झियधम्माय सत्तमिया" तत्रासंसष्टहस्तमात्राभ्यां गृह्णतोऽसंसृष्टा ॥१॥ संसृष्टाभ्यां संसृष्टा ॥ २॥ गाथायां सुखमुखोच्चारणार्थ संसृष्टा प्रथममुक्ता उद्धृता नाम स्थाल्यादौ स्वयोगेन भोजनजातमुध्धृतं ततः संसृष्टेन हस्तमात्रादिना गृह्णतो भवति ॥ ३ ॥ अल्पलेपं वल्लचनकादि गृह्णतो अल्पलेपा ॥ ४ ॥ अवगृहीता नाम भोजनकाले शरावादिघूपहृतमेव भोजनजातं गृह्णतः ॥५॥ प्रगृहीता नाम भोजनकाले भोक्ता करादिप्रगृहीतं गृह्णतः॥६॥ उझितधा नाम यत्परित्यागार्ह भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो नैव काङ्क्षति तदद्धत्यक्तं वा गृह्णत इति॥७॥सप्तानां पानैषणानां ता अपि| चैवंभूता एव नवरं चतुर्थ्यामाचामाम्लादिनिर्लेप विज्ञेयमिति । अष्टानां प्रवचनमातृणां ताश्च तिस्रो गुप्तयः पञ्च समितयः तत्र प्रवीचारामवी For Private & Personel Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्र० ॥ २ ॥ चाररूपा गुप्तयः प्रवीचारो व्यापार उच्यते समितयः प्रवीचाररूपा एव तथाचोक्तं “ समिओणियमा गुत्तो समियत्तणंमि भइयव्वो । कुसलवइमुईरन्तो जं वइगुत्तो य समिओ- “नवानां ब्रह्मचर्यगुप्तीनां वसतिकथादीनामासां च स्वरूपमुपरि वक्ष्यामो दशविधे दशप्रकारे श्रमणधम्र्मे क्षान्त्यादिके एषोपि वक्ष्यमाणोऽस्मिन् गुप्त्यादिषु च ये श्रमणानामिमे श्रामणास्तेषां सम्यक्प्रतिसेवन श्रद्धानप्ररूपणालक्षणानां यत्किंचित्खण्डितं देशतो भग्नं यद्विराधितं सुतरां भग्नं न पुनरेकान्ततोऽभावमापादितं तस्य दैवसिकातिचारस्येत्येतावता क्रियाका| लमाह तस्यैव मिच्छामि दुक्कडं इत्यनेन तु निष्ठाकालमाह मिथ्येति प्रतिक्रामामीति दुष्कृतमेतद्कर्त्तव्यमित्यर्थः एतच्चातिचारसूत्रं सामायिकसूत्रानन्तरमतिचारस्मरणार्थमुच्चरितमिह प्रतिक्रमणाय पुरतस्तु पुनरतिचारशुद्धिविमलीकरणार्थमुच्चारयिष्यत इति न पुनरुक्तं । एवमोघाति| चारस्य समासेन प्रतिक्रमणमुक्तं सांप्रतमस्यैव विभागेनोच्यते तत्रापि गमनागमनातिचारमधिकृत्याह “ इच्छामि पडिक्कमिडं इरियावहियाए इत्यादि यावत् तस्समिच्छामि दुक्कडं " अस्य व्याख्या इच्छामि प्रतिक्रमितुमैर्यापथिकायां विराधनायां योतिचार इति गम्यते तस्येति गम्यः । अनेन क्रियाकालमाह । मिच्छामि दुक्कडत्ति अनेन तु निष्ठाकालमिति । तत्रेरणमीर्यागमनमित्यर्थः तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथस्तत्र भवा ऐर्यापथिका तस्यां किंविशिष्टायामित्यत आह विराध्यन्ते दुःखं प्राप्यन्ते प्राणिनो यस्यां सा विराधना तस्यां विषयमुपदर्शयन्नाह गमनं चागमनं चेत्येकवद्भावस्तस्मिन्नत्रापि यः कथं जातोतिचार इत्यत आह । प्राणिनो द्वीन्द्रियादयस्त्रसास्तेषामाक्रमणं पादादिना प्राण्याक्रमणं तस्मिन तथा बीजाक्रमणे अनेन बीजानां जीवत्वमाह हरिताक्रमणे अनेन तु सकलवनस्पतेरेव तथा अवस्यायोत्तिङ्गपनकदकमृत्तिकामर्कटसन्तानसङ्क्रमणे सति अत्रावस्यायो जलविशेष इह चावस्यायग्रहणमतिशयतः शेषजलसंभोगपरिहरणार्थमित्येवमन्यत्रापि भावनीयं उत्तिङ्गा गर्दभाकृतयो जीवाः पनक उल्लिः दकमृत्तिका चिरकल्लं अथवा दगग्रहणादप्कायो मृत्तिकाग्रहणात्पृथिवीकायः मर्कटसन्तानः कोलिकाजालमुच्यते तेषां स वृत्ति० ॥ २ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नासर्वत्र कार्या। इत्थं गमनागमनातस्यत्येतावता स्वक्रियाकालमाह मिच्छामिकामनामिताः स्वस्थानात्परस्थानं नीताः । क्रमेण किंबहुना भेदाख्यानेन सर्वथा ये मया विराधिता जीवाः दुःखे स्थापिताः एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः, द्वीन्द्रियाः कुम्यादयः,त्रीन्द्रियाः पि-10 पीलिकादयः, चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयः,पञ्चेन्द्रिया मूषिकादयः, अभिहता अभिमुख्येन हताश्चरणेन घट्टिता उत्क्षिप्य क्षिप्ता वा, वर्तिताः पुञ्जीकृताः धूल्या वास्थागताः,श्लेषिताः पिष्टा भूम्यादिषु वा, लगिताः सङ्घट्टिताः अन्योन्यं गात्रैरेकत्र लगिताः सङ्घट्टिता, मनाक स्पृष्टाः परितापिताः समन्ततःपीडिताः,लामिताः समुद्धातं नीता ग्लानिमापादिता इत्यर्थः अवद्राविता उत्रासिताःस्थानात् स्थानं सङ्क्रामिताः स्वस्थानात्परस्थानं नीताः, जीविताव्यपरोपिता मारिता इत्यर्थः एवं यो जातोतिचारःतस्येत्येतावता स्वक्रियाकालमाह मिच्छामि दुक्कडमनेन निष्ठाकालमाह। मिथ्या दुष्कृतं पूवेवदेव तस्येत्यादिका योजना सर्वत्र कार्या। इत्थं गमनागमनातिचारपतिक्रमणमुक्तमधुना त्वग्वर्त्तनस्थानातिचारप्रतिपादनायाह-"इच्छामि पडिक्क| मिउँ पगामसेज्जाए इत्यादि यावत्तस्स मिच्छामि दुक्कडंति"अस्य व्याख्या इच्छामि प्रतिक्रमितुं पूर्ववत् प्रकामशय्यया शयनं शय्या प्रकामंचातुर्यामं शय्या तया शेरतेऽस्यामिति वा शय्या संस्तारकादिलक्षणा प्रकामा उत्कया शय्या संस्तारोत्तरपट्टकातिरिक्ता प्रावरणमधिकृत्य कल्पत्रयातिरिक्ता वा तया हेतुभूतया च स्वाध्यायाधकरणतश्चेहातिचारः प्रतिदिवसं प्रकामशय्यैव निकामशय्योच्यते तया च उद्वर्तनं सुप्तस्य प्रथमतया द्वितीयपार्थेन परावर्त्तनं तदेवोद्वर्तना तया, पुनरन्यपार्चेन वर्त्तनं परिवर्त्तना तया, च अत्राप्यप्रमृज्य कुर्वतोऽतिचारः आकुञ्चना गात्रसङ्कोचना तया, प्रसारणा अङ्गानां विक्षेपस्तया, अत्रच कुर्कुटीदृष्टान्तेनाकाशे पादप्रसारणाकुश्चने प्रमृज्य कार्ये तदकरणेतिचारः षट्पदिकानां यूकानामावधिना सङ्घटना स्पर्शना तया, तथा कूजितं कासितं तस्मिन् मुखवस्त्रिकां करं वा मुखे अनाधाय कुर्वतोऽतिचारः विषमा धर्मावतीत्यादि शय्यादोषोच्चारणं कर्करायितं तस्मिन् य आर्तध्यानजोऽतिचारः तथा क्षुते जूंभिते चाविधिना आमर्षणमाम!अमृज्य करेण स्पर्शनं तस्मिन सरजस्कामर्षे सह पृथिव्यादिरजसा यद्वस्तु स्पृष्टं तत्संस्पर्शे सतीत्यर्थः एवं जाग्रतोतिचारसंभवमधिकृत्योक्तमधुना सुप्तस्योच्यते " आउल-IN Join Education in For Private & Personel Use Only A jainelibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिक्र. वृत्ति दौ मुप्यते इति मिथ्या दुष्कृतमिति पूर्ववत भोजनपरिभोग एव विपर्याय एव मनसोध्युपपातो मनाला भवा स्त्रीवैपर्यासिको तर माउलाएत्ति " आऊलाकुलया ख्यादि परिभोगविवाहयुद्धादि संस्पर्शननानाप्रकारया स्वमप्रत्ययया स्वप्ननिमित्तया विराधनया योतिचार प्राइति गम्यते सा पुनर्मूलगुणोत्तरगुणविषया भवत्यतो भेदेन दर्शयन्नाह स्त्रीविपर्यासोऽब्रह्मासेवनं तस्मिन् भवा स्त्रीवैपर्यासिकी तया स्त्रीदर्श नानुरागतस्तदवलोकनं दृष्टिविपर्यासः तस्मिन् भवा दृष्टिवैपर्यासिकी तया एवं मनसोध्युपपातो मनोविपर्यासस्तस्मिन् भवा मनोवैपर्यासिकी। |तया एवं पानभोजनवैपर्यासिक्या रात्रौ पानभोजनपरिभोग एव विपर्यासः अनया हेतुभूतया य इत्यतिचारमाह मयेत्यात्मनिर्देशे दैवसिकोऽति चारः कृतस्तस्य मिथ्या दुष्कृतमिति पूर्ववत् । आह दिवाशयनस्य निषिद्धत्वात्कथं तदतिचारः सत्यमिदमेव वचनं ज्ञापयत्यपवादतोऽध्वरवेदा-| दौ सुप्यते इति एवं त्वग्वर्त्तनस्थानातिचारप्रतिक्रमणमभिधायेदानीं गोचरातिचारप्रतिक्रमणप्रतिपादनायाह-" पडिकमामि गोयरचरियाए इत्यादि यावत्तस्स मिच्छामि दुक्कडं "अस्य च व्याख्या प्रतिक्रामामि गोचरचर्यायां योतिचार इति गम्यते तस्येति योगः गोश्चरणं गोचरः २ इव चर्या गोचरचर्या तस्यां क विषये भिक्षार्थ चर्या भिक्षाचर्या तस्यां तथाहि लाभालाभनिरपेक्षः खल्वदीनचित्तो मुनिरुत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विष्टानिष्टेषु वस्तुषु रागद्वेषावगच्छन् भिक्षामटतीति कथं पुनस्तस्यामतिचार इत्याह । उद्घाटमदत्तार्गलमीषतस्थगितं वा यत्कपाटं तस्योद्घाटनं| सुतरां प्रेरणं तदेवोद्घाटकपाटोद्घाटना तया इह चाप्रमार्जितादिभ्योतिचारस्तथा श्ववत्सदारकसंघट्टनयति प्रकटार्थ तथा मण्डीमाभृतिकया बलिप्राभृतिकया स्थापनामाभृतकयेति तत्र मह्यां ढक्कनिकायां भाजनान्तरे वा ग्रकूरं कृत्वा यां प्राभृतिका भिक्षां ददाति सा प्रवर्त्तना दोषतो न कल्पते चतुर्दिशं बलिं वह्नौ वा क्षिप्त्वा ददाति यत्सा बलिपाभृतिका न कल्पते।भिक्षाचरार्थं स्थापिता स्थापना प्राभृतिका तया च तथा आधाकर्मादिदोषाणामन्य- तमेन शङ्कितेयोऽतिचारः सहसाकारेण वा झगिति कल्पनीये गृहीत इति अत्र चापरित्यजतोऽविधिनापिपरित्यजतो योऽतिचारः अनेन प्रकारणानेषमाहेतुभूतया तथा प्राणिनो रसजादयो भोजने दध्योदनादौ विराध्यन्ते यस्यां प्राभृतिकायां सा प्राणिभोजना तया एवं बीजभोजनया ॥३॥ Jain Educational For Private & Personel Use Only Tww.jainelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरितभोजनया तेषां च सङ्घटनादिदातग्रामकगतं ज्ञेयमिति । तथा पश्चादानानन्तरं कर्म जलोज्झनादि यस्यां पुरःकर्म यस्यामादाविति अदृष्टाहृतया अदृष्टोत्क्षेपनिक्षेपमानीय या दत्ता तयेत्यर्थः तत्र च सत्त्वसङ्घटनादिनातिचारः उदकसंसृष्टाहृतया उदकसंबद्धानीतया एवं रजःसंसृष्टाहतया परिशातनमुज्झनलक्षणं तस्मिन् भवा पारिशातनिकी तया परिष्ठापनं प्रदानभाजनगतद्रव्यान्तरोज्झनलक्षणं तस्मिन् निर्वृत्ता पारिष्ठापनिकी तया “ उहासणभिरकाएत्ति " विशिष्टद्रव्ययाचनं समयपरिभाषया उहासणत्ति भन्नइ तत्पधाना भिक्षा तयार कियदत्र भणिष्यामो भेदानामेवंप्रकाराणां बहुत्वात्ते च सर्वेपि यस्मादुद्गमोत्पादनैषणास्ववतरन्त्यत आह-“ जं उग्गमेणमित्यादि "|| यत्किंचिदशनादि उद्गमेनाधाकादिना उत्पादनया धान्यादिलक्षणया एषणयाशंकितादिलक्षणया अपरिशुद्ध अयुक्तियुक्तं प्रतिगृहीतं । परिभुक्तं वा यन्न परिष्ठापितं कथञ्चित्पतिगृहीतमपि यदपुनः करणादिना नोज्झितं एवमनेन प्रकारेण यो जातोऽतिचारस्तस्य मिथ्यादुष्कृतं पूर्ववत् एवं गोचरातिचारप्रतिक्रमणमभिधाय स्वाध्यायायतिचारप्रतिक्रमणप्रतिपादनायाह “पडिकमामि चाउकालं सज्झायस्सेत्यादि यावत्तस्स मिच्छामि दुक्कडं " अस्य व्याख्या प्रतिक्रामामि पूर्ववत् कस्य चतुष्कालं दिवसरजनिप्रथमचरमपहरेष्वित्यर्थः स्वाध्यायस्य सूत्रपौरुषीलक्षणस्याकरणतया अनासेवनया योऽतिचारः कृतस्तस्येति योगः तथोभयकालं प्रथमपश्चिमपौरुषीलक्षणं भाण्डोपकरणस्य पात्रवस्त्रादेप्रत्युपेक्षणयानिरीक्षणया दुःप्रत्युपेक्षणया दुर्निरीक्षणलक्षणया तथा अप्रमार्जनया दुःप्रमार्जनया तथातिक्रमे व्यतिक्रमे अतिचारेऽनाचारे यो मया दैवसिकोऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्या दुष्कृतामिति एतत्माग्वत् नवरमतिक्रमादीनां स्वरूपमिदं यथा आधाकर्मनिमन्त्रणे कृते सति तत्पतिश्रवणे प्रथमः तदर्थ गच्छतो द्वितीयः तत्र गृहीते तृतीयः भोजनार्थ कवलग्रहणे सति चतुर्थः। साम्पतमेकविधादिभेदेन प्रतिक्रमण प्रतिपादनायाह "प-IN डिकमामि एगविहे असञ्जमेत्यादि " प्रतिक्रामामि पूर्ववत् एकविधे एकप्रकारे असंयमे अविरतिलक्षणे योऽतिचारः कृत इति गम्यते तस्य Jain Education For Private & Personel Use Only jainelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्र० मिथ्यादुःकृतामिति वक्ष्यमाणेन संबंधः एवमन्यत्रापि योजना कार्येति प्रतिक्रामामि द्वाभ्यां बन्धनाभ्यां हेतुभूताभ्यां योऽतिचार इति बध्यते अ-1 विधेन कर्मणा येन हेतुभूतेन तद्वन्धनं तद्दर्शयति रागोऽभिष्वङ्गलक्षणो देषोऽअप्रीतिलक्षणो बन्धनत्वं चानयोः प्रतीतं यथोक्तं । " स्नेहाभ्यक्तशरीरेत्यादि " प्रतिक्रमामीतिक्रियापदं हेत्वादिना तृतीया चोत्तरत्र सर्वत्र स्वयं व्याख्येया तुल्यार्थत्वादधिकः शब्दार्थस्तु। व्याख्यास्यते दण्डयते चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डास्तैः दुःप्रयुक्तमनोवाकायस्त्रिभिरिति गोपनं गुप्ती रक्षा मनसो गुगाप्तिर्वाचां गुप्तिः कायस्य गुप्तिस्ताभिः प्रवीचाराप्रवीचाररूपाभिस्तासांच करणतातिचारं प्रतिषिद्धकरणकृत्याकरणाश्रद्धानविपरीतप्ररूपणादिना प्रकारेण शल्यते अनेनेति शल्यं माया निःकृतिः सैव शल्यं यो यदातिचारमासाद्य मायया नालोचयत्यन्यथा चाभिनिवेदयत्यभ्याख्यानं वा यच्छति तदा सैव शल्यमशुभकर्मबन्धनेनात्मशल्यत्वात्तेन निदानं दिव्यमानुषद्धिदर्शनश्रवणाभ्यां तदभिलषितानुष्ठानं तदेव शल्यमधिकरणानुमोदनेनात्मशल्यत्वात्तेन मिथ्या विपरीतं दर्शनं दृष्टिर्मिथ्यादर्शनं तदेव शल्यं तत्प्रत्ययकादानेनात्मशल्यत्वात्तेन चेति त्रिभिः शल्यैः गुरो - वो गौरवं अभिमानलोभाभ्यामात्मनोऽशुभभावो गुरुत्वं तत्र नरेन्द्रपूज्याचार्यादीनामृया तथेष्ट रसैः सातेन सुखेन च प्राप्त्यभिमानाप्राप्तिसंपार्थनद्वारेणेति रूद्धिरससातगौरवैत्रिभिः। विराधनं खण्डनं तदेव विराधना ज्ञानस्य विराधना प्रत्यनीकादिलक्षणा तया उक्तं च “णाणपडणीयणिण्हवअच्चासायणतयन्तरायं च। कुणमाणस्सइयारो नाणविसंवाइजोगं च" तत्र प्रत्यनीकता निन्दा १ निन्हवो गुळदिव्यपलापः । २ अत्याशातना " काया वयाय ते चियते चेव पमाय अप्पमाया य। मोक्खाहिगारियाणं जोइसजोणीहि किं कजं " काया वया य ते चियेत्यादिका ।३। तदन्तरायमस्वाध्यायकादिभिः।४। विसंवादयोगोऽकालस्वाध्यायादिनति।।दर्शनं सम्यग्दर्शनं तस्य विराधना तया एषापि पञ्चधा पूर्ववद्भावनीया । चारित्रं सच्चरणं तस्य विराधना व्रतादिखण्डनलक्षणा तया ॥ कष्यते प्राणी विविधदुःखैरस्मिन्निति कषः संसारस्तस्यायो । माणस्सइयारो नाणविसंवाइजोगवशनस्य विराधना मत्यनीकादिलायन च प्राप्त्यभिमानामाप्तिसमान गतना “ काया वयाय ते Jain Education H na For Private & Personel Use Only Maharjainelibrary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |लाभो येभ्यस्ते कषायाश्चत्वारः क्रोधादयस्तत्र क्रोधोमीतिलक्षणो १ । मानस्तब्धता २। माया कौटिल्यं ३ । लोभो मूर्छालक्षणः। ४ ।। ते च प्रत्येकमनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदतश्चतुर्विधा यद्यपि तथापि सामान्यत इह चत्वारोभिहितास्तैस्तत्र चानुदीर्णानां उदयनिरोधस्योदीर्णानां उदयविफलीकरणस्याकरणतोऽतिचार इति । संज्ञानं संज्ञा सा चतुर्दा तत्राहारसंज्ञाहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयोदयप्रभवः खल्वात्मपरिणाम इत्यर्थः सा पुनश्चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते तद्यथा न्यूनकोष्ठतया १ शुदिनीयोदयात् २ मत्या ३ सततमाहारचिन्तनाच ४ तथा भयसंज्ञा मोहोदयजो जीवपरिणामः इयमपि हीनसत्व तया १ भयमोहनीयोदयतो २ मत्या ३ तदर्थोपयागाच ४ प्रभवति तथा । मैथुनसंज्ञा मैथुनाभिलाषो वेदमोहोदयजो जीवपरिणाम एव इयमपि उपचितमांसशोणिततया १ वेदमोहनीयोदयतः २ मत्या ३] तदर्थोपयोगेन च ४ । समुत्पद्यते तथा । परिग्रहसंज्ञा परिग्रहाभिलाषः तीव्रलोभोदयज आत्मपरिणामः इयमपि चतुर्दा अल्पवित्ततया १ लोभोदयेन २ मत्या ३ तदर्थोपयोगेन च समुत्पद्यते तथा । विरुद्धा विनष्टा वा कथा विकथा स्वीकथादिका चतुर्दा तत्र स्त्रीणां कथा स्त्रीकथा तया १ सा चतुर्विधा जातिकथा १ कुलकथा २ रूपकथा ३ नेपथ्यकथा ४ तत्र जातिकथा ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमां प्रशंसति दृष्टि वा । एवं कुलकथाद्याः। भक्तमोदनादि तस्य भक्तकथा तया २ सापि चतुर्की द्रव्यकथादिका तत्र घृतादिद्रव्यकथा १ व्यञ्जनभेदकथा २ छागतित्तिराद्यारंभकथा ३ रूपकशतादिमूल्यपाकरसवतीकथा ४ । देशो जनपदस्तस्य कथा देशकथा तया २ इयमपि छन्दादिभेदादिना चतुर्विधैव च्छन्दो १ विधि २ विकल्पो ३ नेपथ्यं ४ चेति । तत्र च्छन्दः कचिद्देशे किश्चिन्मातुलदुहित्यादि गम्यागम्यं वा । विधिर्भोजनविवाहादिविधानक्रमभेदो देशभेदात् । विकल्पाः कूपवप्रसारण्यादिना शस्यनिष्यत्तिहदेवकुलादिविकल्पो वा । नेपथ्यं । स्त्रीणां पुरुषाणां वा स्वाभाविक्यादिका नेपथ्यरचना कापि कचिद्देश इति । राज्ञां कथा राजकथा तया । इयमपि निर्गमादिभे Jain Education in a For Private Personel Use Only Hjainelibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्र० दात् चतुर्द्धानिर्गमो १ अतिगमनं २ बलं ३ कोशकोष्ठागारादि चेति ४ । तत्र निर्गमः एवं विभूत्या राजा पुरानिर्गत इत्यादि । अतिगमनमेवं प्रविष्ट इत्यादि २। बलन्मतावतोऽश्वहस्त्यादयो राज्ञः ३ । कोश एतावत्यः कोट्यः कोव्यागाराश्चैतावन्त इत्यादि ॥ ४ तथा ध्यातिानं स्थिराध्यवसानं मनएकाग्रावलंबन इत्यर्थः कालतोन्तमुहर्त्तमात्रं तच्चतुर्विधमा रौद्रं धर्म्य शुक्लमिति । तत्र कृतं दुःखं । तत्र भवमा क्लिष्टमित्यर्थः । हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतो रुद्रः तस्येदं रौद्रं धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणः तस्मादनपेतं धर्म्य । शोधयत्यष्टप्रकार कर्मामलं शुचं वा क्लमयतीति शुक्ल “कामाणुरञ्जियं अट्ट रोदं हिंसाणुरञ्जियं । धम्माणुरंजियं धम्म सुक्कञ्झाणं निरञ्जणं" तत्र आत चतुर्विधमेकं तावदमनोज्ञशब्दादिविषयसंप्रयोगे सति तद्वियोगैकतानो मनोनिरोधः तदसंप्रयोगस्मरणं चेति ॥१॥ द्वितीयमसद्वेदनीय तत्पतीकारानुकूलमनसा तथैव वियोगचिन्तनादिरूपं ॥२॥ तृतीयं मनोज्ञविषयसंप्रयोगे तदविप्रयोगैकतानचित्तता ॥ ३ ॥ चतुर्थं तु |चक्रवादिसमृद्धिदर्शनान् ममाप्यमुष्य तपसः फलमेवंविधमन्यजन्मान स्यादिति चित्तनिरोधः ॥४॥ चतुर्दा रौद्रमपि तत्राद्यं गलकूट|पाशयन्त्रादिपाणिवधोपायचिन्तनैकतानचित्तनिरोधः ॥१॥ द्वितीयं कूटसाक्षिकत्वादिपरवचनोपायैरनृतानुबन्धि ॥ २॥ तृतीयं परद्रव्या-16 ||पहारोपायैस्तेयानुबन्धि ॥ ३ ॥ चतुर्थं धनधान्यादिविषयसंरक्षणैकतानं मनोहर्निशामिति ॥ ४॥ धर्म्यमपि चतुर्विधं तत्र प्रथममाज्ञाविचयाख्यं सर्वज्ञवचनमाज्ञा तदर्थनिर्णयनरूपं ॥ १ ॥ द्वितीयमपायविचयाख्यं दुष्टमनोवाकाययोगादेर्जन्तोरपायबहुलताचिन्तनरूपम् ॥२॥ तृतीयं विषाकविचयाख्यं अशुभशुभकर्मविपाकानुचिन्तनरूपं ॥३॥ चतुर्थ संस्थानविचयाख्यं जीवपुद्गलक्षेत्रसंस्थानविचिन्तनरूपमिति॥४॥ शुक्लमपि चतुर्विधं तद्यथा प्रथमं पृथक्त्ववितर्क सविचारं पृथक्त्वेन भेदेन विस्तीर्णभावेन मनोवितर्कः श्रुतं यस्मिन् तत्तथा सह विचारेण वर्तत इति सविचारं विचारोऽर्थ व्यञ्जनयोगसंक्रमणलक्षणोऽर्थो द्रव्यं व्यञ्जनं शब्दो योगो मनःप्रभृतिरेतद्भेदेन सविचारमायञ्जन in Educatan Intemanona For Private & Personel Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनादर्थ सङ्क्रामयतीति विभाषा ॥१॥ द्वितीयमेकत्ववितर्कमाविचारं एकत्वेनाभेदेन वितर्को व्यञ्जनरूपो वा यस्य तत्तथाइदं पूर्वगतश्रुतानुसारेणैव भवति अविचारमसङ्क्रमं कुर्वतोऽर्थव्यञ्जनयोगान्तरत इति। उत्पादस्थितिभङ्गान्यतमैकपर्याये निर्वातगृहप्रदीपवत् सुनिः प्रकंपचित्तं केवलज्ञानोत्पादकं ध्यानमिति ॥२॥ तृतीयं सूक्ष्मक्रियमनिवर्ति सूक्ष्मा तन्वी उच्छास निःश्वासादिलक्षणा कायक्रिया यस्य तत्तथा निवर्तितुं| शीलमस्येति निवर्ति प्रवर्द्धमानशुभतरपरिणामान निवर्त्यनिवर्ति तच मोक्षगमनप्रत्यासन्नसमये केवलिनो मनोवाग्योगद्वये निरुद्धे सत्यर्द्धनिरुद्धकाययोगस्य भवति३ । चतुर्थ व्युपरतक्रियमनिवर्ति व्युपरता व्यवच्छिन्ना योगाभावात् क्रिया यत्र तत्तथा अनिवर्त्ति अप्रतिपाति तच्च शैलेशवत निःप्रकंपस्य शैलेशावस्थायां भवतीति । अत्र चध्यानचतुष्टयेष्यश्रद्धानादिनातिचारसंभव इति॥प्रतिक्रमामिपंचभिः क्रियाभिः क्रिया व्या-- पारलक्षणा, तत्र प्रथमा कायेन निर्वृत्ता कायिकी तया सा पुनस्त्रिधा मिथ्यादृष्टेरविरतसम्यग्दृष्टश्चाद्या अविरतकायिकी नाम ॥१॥ प्रमत्तसंयतस्यपुनारद्रियविषया दुःप्रणिहितकायिकी नाम ॥२॥ अप्रमत्तस्य संयतस्य प्रायः सावद्ययोगोपरतस्योपरतकायिकीनाम ॥३॥ गता कायिकी| अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणं तेन निर्वृत्ता आधिकरणकी, सा चक्रमहपशुवेधादिप्रवर्तिनी खड्गादिनिवर्तिनी चेति २ द्विधाधिकरणिकी । प्रदेषो मत्सरस्तेन निवृत्ता प्रा।षिकी तया सापि जीवाजीवविषया द्विधा जीवे अजीवे च द्वेष कुर्वतो अजीवे च। पाषाणादौ स्वलितस्येति । गतातृतीया । परितापनं ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निवृता परितापनिकी तया सापि द्विधा स्वदेहपरदेहविषयतया स्वदेहे परदेहे वा परितापनं कुर्वतः । अथवा स्वहस्तेन परहस्तेन वा परस्य कुर्वत इति । गता चतुर्थी । प्राणातिपातः प्रतीतः। तद्विषया प्राणातिपातक्रिया तया सापि द्विधा स्वपरविषयतया तत्राद्या निर्वेदतः स्वर्गाद्यर्थ वा गिरिपतनादिना स्वप्राणातिपातं कुर्वतो | द्वितीया क्रोधमानमायालोभमोहवशात्परप्राणातिपातमिति ।। काम्यंत इति कामाः शब्दादयस्त एवात्मस्वरूपबंधहेतुत्वात् गुणास्तथाहि । का अप्रमत्तस्य संयतस्य प्रायः सा चक्रमहपशुवधादिप्रवर्तिनी खान कुर्वतो अजीवे च Jain Education He a l For Private & Personel Use Only अ w.jainelibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्र० शब्दाद्यासक्तः कर्मणा बध्यत इति भावना तैः पञ्चभिः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शःप्रतिषिद्धकरणादिनातिचार इति । पञ्चभिर्महावतैः प्राणाति- वृत्ति पातविरमणादिभिः प्रतीतैः प्रतिषिद्धकरणादिनातिचारसंभव इति । तथा पञ्चभिः सामतिभिः समेकीभावेनेतिः समितिः शोभनकाग्रपरिणामस्य चेष्टेत्यर्थः । ईर्यायां विषये समितिः ईर्यासमिति म रथशकटयानवाहनाक्रान्तेषु मार्गेषु सूर्यरश्मिप्रतापितेषु प्रासुकविविक्ते युगमादृष्टिना यतिना गमनागमनं कर्त्तव्यमिति ॥१॥ भाषणं भाषा तद्विषया समितिः भाषासमितिस्तया भाषासमिति म हितमितासन्दिग्धभाषणम् ॥२॥ एषणा गवेषणादिभेदा शङ्कितादिलक्षणा वा तस्यां समितिस्तया एषणासमितिर्नाम गोचरगतेन मुनिना सम्यगुपयुक्तेन नवकोटीपरिशुद्धं ग्राह्यमिति ॥३॥आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमितिर्भाण्डमात्रे आदाननिक्षेपविषया प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनपूर्विका सुन्दरचेटेत्यर्थः तया॥४॥उच्चारप्रश्रवणखेलसिलाणजल्लानां परि सर्वैः प्रकारैः स्थापनं परिस्थापनं अपुनर्ग्रहणतया न्यासः तत्र भवा पारिस्थापनिकी सा चासो समितिश्च प्रत्युपेक्षणादिपूर्वा सुन्दरचेष्टेत्यर्थः तया ॥५॥ तथा उच्चारं पुरीषं, प्रश्रवणं मूत्रं, खेलः श्लेष्मा, सिङ्घाणं नासिकोद्भवः |श्लेष्मा, जल्लो मल्लः । प्रतिक्रमामिषद्धिजीवनिकायैः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसलक्षणैः प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेणयोऽतिचारः कृत इति ।। तथा षङ्गिलेश्याभिः कृष्णलेश्यादिकाभिस्तत्र “कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयुज्याते " कृष्णादिद्रव्याणि तु सकलप्रकृतिनिष्यन्दभूतानि आसां स्वरूपं चौरोदाहरणाज्ज्ञेयं तदिदं “ चोरा गामवहत्त्यं विणिग्गया एगु बेइ घाएह । वज पेच्छह तं सव्वं चउप्पयं दुप्पयंवावि ॥११॥ बीउ माणुसपुरिसे य तइयतो साउहे चउत्थोउ । पञ्चमओजुज्झन्ते छटो पुण तत्थिमं भणइ M॥२॥ एकं ता हरह धणं बीयं मारेह मा कुणह एवं एएछसुलेसासुं छप्पुरिसा हुन्ति आहरणं ॥ ३ ॥ जम्बूखादकदृष्टान्ताद्वा समयमप्रासिद्धाज्ज्ञेयम् । एतासु चाद्यास्तिस्रोप्रशस्ताः उत्तरास्तु प्रशस्ताः तत्राद्यासु वर्त्तनया अन्त्यासु चावर्त्तनयाऽतिचार इति तथा सप्तभिर्भयस्थान-IG Jain Education N hal For Private & Personel Use Only jainelibrary.org का Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तत्र भयं मोहनीयप्रकृतिसमुत्य आत्मपरिणामस्तस्य स्थानान्याश्रया इहलोकादीनि तद्यथा “ इहपरलोगायाणं अकम्ह आजीव मरणमासिलोए" तत्रेहलोकभयं समानजातीयान्मनुष्यादेः सकाशाद्भयं । परलोकभयं तु परस्मात्तिर्यगादेः२। आदीयत इत्यादानंधनं तदर्थं चौरादिभ्यो यद्भयं तदादानभयम् ३ । अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षमेव गृहादिस्थितस्य राज्यादौ वा तदकस्माद्भयम् ४ । आजीविकाभयं तु निर्द्धनः कथं दुर्भिक्षादावात्मानं धारयिष्यामीति ५ । मरणाद्भयं प्रतीतमेव ६ । अश्लाघाभयमयशोभयमित्यर्थः । तथा अष्टभिर्मदस्थानस्तत्र मदो मानस्तस्य स्थानानि तद्यथा “जाई कुलबलरूवे तव इस्सरिए सुए लाभे" | तथा नवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभिस्ताश्चेमाः ब्रह्मचारिणा गुप्त्यनुपालनपरेण । न स्त्रीपशुपंडकसंसक्ता वसतिरासेवनीया? । न स्त्रीणामेकाकिनां कथा कथनीया २ । न स्त्रीणां निषद्या सेवनीया उत्थितानां तदासने नोपवेष्टव्यमित्यर्थः३ । न स्त्रीणामिन्द्रियाण्यालोकनीयानि ४। न स्त्रीणां कुड्यांतरितानां मोहनसंसक्तानां कणितध्वनिराकर्णयितव्यः ५ । न पूर्वक्रीडितानुस्मरणं कर्त्तव्यं ६ । न प्रणीतं भोक्तव्यं स्निग्धमित्यर्थः ७। नातिमात्राहारोपभोगः कर्त्तव्यः ८ । न विभूषा कार्या ९ इति नव । उक्तं च " वसहिकहनिसिजिन्दियकुडिन्तरपुव्वकीलियपणीए। अइमायाहारविभूसणा य नव वंभगुत्तीओ" ॥ दशविधे श्रमणधर्मे श्राम्यतीति श्रमणो यतिस्तपस्वी तस्य धर्मः क्षान्त्यादिलक्षणस्तस्मिन् योऽतिचारः इति भावना, दशविधत्वं च धर्मस्य " खन्ती य मद्दवजव मुत्ती तव सञ्जमे य बोधव्चे । सचं सोयं आकिञ्चणं च बंभं च जइधम्मो" तत्र शान्तिः क्रोधविवेकः १ । मृदोर्भावो मार्दवं मानत्यागः २ । ऋजोर्भावः आर्जवं मायात्यागः ३ । मोचनं मुक्तिर्लोभपरित्यागः ४ । तपोऽनशनादि द्वादशधा५। संयमश्चाश्रवनिरोधलक्षणः ६। सत्यं प्रतीतं ७ । शौचं संयम प्रति निरुपलेपता ८ । आकिञ्चन्यं कनकादिरहितता ९ । ब्रह्म च ब्रह्मचर्य च १०। एष यतिधर्मः। एकादशभिरुपासकप्रतिमाभिरिति । उपासकाः श्रावकास्तेषां प्रतिमाः दर्शनादिगुणयुक्ताः कार्या इत्यर्थः । ताश्चैताः “दसणवयसामाइयपोसहपडिमाअबंभसचित्ते । आरंभपेसउदिट्ठवज्जए For Private & Personel Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्र० ॥७॥ समणभूए य" तत्र यस्यां श्रावको निःशङ्कादिसम्यग्दर्शनी मासं यावत् स्यात्तत्सा प्रथमा । १। व्रतधारी द्वितीया । २ । कृतसामा- गृत्ति यिकस्तृतीया । ३ । अष्टमीचतुर्दश्यादिषु चतुर्विधपौषधकर्ता चतुर्थी । ४ । पौषधकाले एकरात्रिक्यादिप्रतिमाप्रतिपत्ता अस्नानः प्रासुकभोजी दिवा ब्रह्मचारी रात्रौ कृतपरिमाणः कृतपौषधस्तु रात्रावपि ब्रह्मचार्येवेति एषा पञ्चमी । ५ । सदा ब्रह्मचारीति षष्ठी । ६ । सचिताहारवर्जकः सप्तमी । ७। आरंभः स्वयंकरणवर्जकोऽष्टमी । ८ । प्रेष्यैरप्यारम्भवर्जको नवमी । ९ । उद्दिष्टकृताहारवर्जकः क्षुरमुण्डितः शिखी वा निधानीकृतार्थजातनिदर्शकश्चेति दशमी । १० । क्षुरमुण्डो लुश्चितो वा रजोहरणपतद्ग्रहधारी श्रमणभूतो निर्ममत्वः स्वज्ञातिषु विहरतीति एकादशमी। ११ । अत्र च प्रथमा प्रतिमा मासं यावत् द्वितीया द्वौ मासौ तृतीया मासत्रयमेवं यावदेकादशी एकादश मासान्यावत् । तथा यत् यत् पूर्वस्यां भणितं तत्तदुत्तरस्यां सर्व भणनीयमेतासु वितथप्रज्ञापनाश्रद्धानादिना अतिचार इति ॥ तथा द्वादशभिर्भिक्षुप्रतिमाभिः तत्रोद्गमोत्पादनैषणादिशुद्धभिक्षाशिनो भिक्षवः साधवस्तेषां प्रतिमाःप्रतिज्ञाः भिक्षुप्रतिमास्ताश्चेमाः मासाद्याः सप्तान्ताः सप्त तथा प्रथमा सप्तरात्रिकी द्वितीया सप्तरात्रिकी तृतीया सप्तरात्रिकी अहोरात्रिकी एकरात्रिकी चेति भिक्षुपतिमा द्वादशकमेताश्च"पडिवज्जइ संपुन्नो सड्डयणी धिइजुओ महासत्तो । पडिमाओ जिणमयंमि सम्मं गुरुणा अणुन्नाओ॥१॥गच्छंमि य निम्माओ जा पुव्वा दस भवे असंपुन्ना।नवमस्स तइयवत्थु होइ जहन्नो सुयाभिगमो॥२॥ वोसहचत्तदेहो उबसग्गसहो जहेब जिणकप्पी । एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवडं तस्स ॥३॥ गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवज्जे मासियं महापडिमं । दत्तेगभोयणस्स पाणस्सवि एव जा मासं ॥४॥ पच्छा गच्छमतीती एव दुमासी तिमासि जा सत्त । नवरं दत्तीवुट्ठी जा सत्त उ सत्तमासीए ॥५॥ एत्तो य अट्ठमीया हवइ कहं पढमसत्तराईदी । तीइ चउत्थचउत्थेण अपाणएणं अह विसेसो॥६॥ तथाचाग-1 मः " पढमसत्तराइन्दियाणं भिक्खुपडिमं पाडवन्नस्स अणगारस्स कप्पइ से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वेत्यादि" "उत्ता Jain Education na For Private & Personel Use Only jainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनायास करणं क्रिया पाए वापारियपानाइ ठाणं॥४ dणगपासल्ली नेसज्जी वावि ठाणठाइत्ता । सहउवसग्गे घोरे दिव्वाई तत्थ अविकंपो ॥१॥ दोच्चावि एरिस चिय बहिया गामाइयाण नवरं तु । उन्कुडलगण्डसाई दण्डायइउव्वा ठाइत्ता ॥२॥ तच्चाए वी एवं नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही। वीरासणमह ठाणं ठाएज्ज व अंबखुज्जो हु॥३॥ एमेव अहोराई छटुं भत्तं अपाणगं नवरं । गामनगराण बहिया वग्यारियपाणि निइइ ठाणं॥ ४ ॥ एमेव एगराई अहमभत्तेण ठाणबाहिरओ। ईसीपब्भारगए अणिमिसनयणगदिट्टीए ॥५॥ साहड्ड दोवि पाए वाघारियपाणि ठायए ठाणं । वग्धारिलंबियभुयो सेस दसासुं जहा भाणयं ॥६॥” त्रयोदशभिः क्रियास्थानैरिति करणं क्रिया कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टेत्यर्थस्तस्याः स्थानानि भेदा अर्थायानायेत्यादयस्तैस्तानि चेमानि अर्थाय क्रिया १ । अनर्थाय क्रिया २ । हिंसायै क्रिया ३ । अकस्मात्क्रिया ४ । दृष्टिविपर्यासक्रिया ५। मृषाक्रिया ६॥ |अदत्तादानक्रिया ७। अध्यात्मक्रिया ८ । मानक्रिया ९। मित्रक्रिया १० । मायाक्रिया ११ । लोभक्रिया १२। ईयर्यापथक्रिया १३ ॥ आसां च भावार्थः “ तसथावरभूयहिओ जो दण्डं निसिरई उ कज्जमि । आयपरस्स व अट्ठा अट्टादण्ड तयं विन्ति । १। जो पुण सरडाईयं थावरकायं च वणलयादीयं । मारेत्तु छिदिउण व छड्डे एसो अणटाए। २। अहिमाइवेरियस्स य हिंसीसू हिंसती व हिसिहिति। जो दण्डं आरभति हिंसादण्डो भवइ एसो ।३। अन्नहाए निसिरइ कण्डाती अन्नमाहणे जो उ। जो वण (वव) यन्तो सस्सं छिन्दिज्जा सालिमाइयं। ४। एस अकम्हादण्डो दिविविवज्जासतो इमो होइ । जो मित्तममित्तंती काउंघाएज अहवावि।५।गामादी घातिंसु व अतेणतेणत्तिवाविघाएज्जा। दिढिविवज्जासेसो किरियट्टाणं तु पञ्चमयं । ६। अत्तहणायगादीण वावि अट्टाए जो मुसं वयति। सो मोसापञ्चइओ दण्डो छटो हवइ एसो। १ । भएमेव आयणाइगअट्ठा जो गिहई अदिन्नं तु । एसो अदिन्नवत्ती अज्झत्थीओ इमो होइ । २ । नवि कोइ किञ्चि भणई तहवि हु हियएण दुम्मणो किंपि । तस्सज्झत्थी सीस (य) ति चउरो ठाणा इमे तस्स । ९ । कोहो माणो माया लोभो अज्झस्थिकिरिय एवेसो। जो पुण जाइ For Private & Personel Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म प्र. दे प्रतिक्र०मयादी अट्ठविधेणं तु माणेणं । १० । मत्तो हीलेइ परं खिंसति परिभवति माणवत्तेसो । मातिपिइणाइगादीण जो पुण अप्पवि अवराहे l वृत्तिः ११॥ तिव्वं दण्डं कुणई डहणंकणवेधतालणाईयं । तं मित्तदोसवत्तिं किरियाठाणं भवे दसम।१२।एकारसमं माया अन्नं हिययम्मि अन्न वायाए। ॥८॥ अन्नं आयरती या सकम्मुणा मूढसामत्थो । १३ । मायावत्ती एसा एत्तो पुण लोभवत्तिया इणमो । सावजारंभपरिग्गहेसु सत्तो महंतेसु । १४ । अञ्चत्यं काएमुं गिद्धो अप्पाणयं च रक्खन्तो । अन्नसिं सत्ताणं वहबन्धणमारणे कुणइ । १५। एसेह लोभवत्ती इरियावहियं अओ पवक्खामि । इह खलु अणगारस्स समितीगुत्तीसुगुत्तस्स । १६ । सययं तु अप्पमत्तस्स भगवओ जाव चख्खुपम्हंपि । णिव्वत्तइ जा सुहुमा इरियावहिया किरिय एसा । १७ । एतद्विशेषव्याख्यानं पुनरागमादवसेयमिति ॥ चतुर्दशभिर्भूतग्रामैरिति भूतानि जीवास्तेषां ग्रामाः समूहास्तैस्ते चैवं चतुर्दशेति एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः सूक्ष्मा बादराश्च पञ्चेन्द्रियाः संज्ञिनोऽसंज्ञि नो द्वित्रिचतुरिन्द्रियैः सार्दै सर्वेपि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदका इति यत उक्तं " एगिन्दियसुहुमियरा सन्नियरपणिधादिया सवीतिचऊ । पज्जत्तापज्जत्ताभएणं चउद्दस्सग्गामा " ॥ अथवा “ मिच्छदिट्टी सासायणे" इत्यादिना गुणस्थानद्वारेण चतुर्दश भवन्ति ॥ स्थापना । पञ्चदशभिः परमाधार्मिकैरिति । परमाश्च ते संक्लिष्टपरिणामत्वादधार्मिकाश्च ते चैते “ अंबे१अंबरिसी २ चेव सामएक्सयला(बले)वि य४। रुद्दो ५ रुद्दाय(दोवरुद्द) ६काले य७ महाकाले त्ति आवरे ॥ ८।१ । असिपत्ते ९धणू १० कुंभे११ वालुय१२ वेयरणीति य १३। खरस्सरे १४ महाघोसे १५ एवं पन्नरसाहिया । २।" एते च क्रियानुसारिनामान इति ॥ षोडशभिर्गाथाषोडशैः सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धाध्ययनैरित्यर्थः ।। अ.स । उ AAAAEEk मि स | सा अवि Jain Education ! For Private & Personel Use Only jainelibrary.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानि चामूनि “समओ १ वियालीयं २ उवसग्गपरिन्न ३ । थीपरिन्ना य ४ निरयविहत्ती ५ । वीरत्यओ य ६ । कुलाण परिभासा ७॥१॥ वीरिए ८ धम्म ९ समाही १० मग्गा ११ समोसरण १२ महतहं १३ गन्थो १४ । जमइयं १५ तह गाहा १६ सोलसमं होइ। अज्झयणं ॥२॥" सप्तदशविधे असंयमे तत्र संयमनं संयमोऽसंयमः पृथिव्यादिविषयः, सप्तदशधात्वं चास्य तद्विपक्षस्य सप्तदशभेदसंख्यत्वात्तद्यथा “ पुढविदगअगणिमारुयवणस्सइबितिचउपणिदिअजीवे । पेहोपेहपमज्जणपरिठवणमणोवईकाए " तत्र पृथिवीकायसंयम इत्यादि यावत्पञ्चेन्द्रियसंयम इति नव भेदाः अजीवेषु संयमस्तु “जह पोत्थदूसपणए तणपणए चंमपणए य" इत्याद्यागमाज्ज्ञेयः।। प्रेक्षासंयमस्तु स्थानादि यत्र कुरुते तत्र प्रेक्ष्य कुरुते । उपेक्षासंयमस्तु व्यापाराव्यापारविषयतया द्विधा, व्यापारे सदनुष्ठानेषु सीदतामुपेक्षा न कुरुते प्रेरयतीत्यर्थः, अव्यापारे गृहिणां सीदतामप्युपेक्षां कुरुते । तथा प्रमार्जनासंयमः पथि पादयोर्वसत्यादेश्च विधिना प्रमार्जनं । अविशुद्धभक्तोपकरणादेविधिना परित्यागः परिष्ठापनासंयमः । अकुशलानां मनोवाक्कायानां निरोधतश्च तत्संयम इति सप्तदशधा । अष्टादश-N विधे अब्रह्मणि तद्यथा "ओरालियं च दिव्वं मणोवईकायकरणजोगेहिं । अणुमोयणकारावणकरणेणटारसमबंभं " तत्रौदारिकं तिर्यकमनुष्याणामब्रह्मचर्य त्रिविधं त्रिविधेनेति. नवधा, दिव्यं च भवनवास्यादीनां नवधेत्येकत्राष्टादश भेदाः ॥ " एगूणवीसाए नायज्झयणेहिं" प्राकृतशैल्या च्छान्दसत्वाच एकोनविंशतिभिाताध्ययनैरिति वेदितव्यं । पाठान्तरं वा " एगूणवीसाहिं नायज्झयणहिन्ति" एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं । ज्ञाताध्ययनानि ज्ञाताधर्म्मकथान्तर्वतीनि तद्यथा "उखित्तनाए १ । सङ्काडे २ । अण्डे ३ । कुम्मे य ४ । सेलए ५ । तुंबे य ६ ।। रोहिणी ७ । मल्ली ८ । मायन्दी ९ । चन्दिमा इय १०॥१॥ दावद्दवे ११ । उदगनाए १२ । मण्डके १३ । तेतलीति य १४ ॥ नन्दिहले १५ । अवरकका १६ । आइन्नो १७ । सुंसु १८ । पुण्डरीए १९॥२॥" विंशतिभिरसमाधिस्थानस्तत्र समाधानं समाधिश्चे Jain Education For Private & Personel Use Only S hrjainelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्र० ॥९॥ तसः स्वास्थ्यं मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थो न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानान्याश्रया दवदवचारीत्यादिकानि तद्यथा “ द्रुतद्रुतचारी १ । अप्र|मार्जितेऽवस्थानादिकर्ता २ । दुष्प्रमार्जिते च ३ । अतिरिक्तशय्यासेवी ४ । अतिरिक्तासनादिसेवी ५ । रत्नाधिकपरिभवकारी ६ । स्थवि - रोपघाती ७ । भूतोपघाती ८ । तत्क्षणसंज्वलनकोपी ९ । सुदीर्घकोपी १० । पराङ्मुखावर्णवादी ११ । अभीक्ष्णं चौरस्त्वमित्याद्यवभाषी | १२ | अधिकरणकरः १३ | अकालस्वाध्यायकारी १४ । सरजस्कपाणिपादः १५ । शब्दकरः १६ । कलहकर : १७ । झंझाकरो | झंझा गणभेदादिकं १८ | सूरप्रमाणभोजी १९ । अनेषणासमित ।। २० । एवंविधः परेषामात्मनश्चासमाधिं चित्तास्वास्थ्यलक्षणमुत्पादयतीत्यसमाधिस्थानानि । एकविंशतिभिः शबलैः शवलं चित्रलं शबलचारित्रनिमित्तत्वात् करकर्म्मादयः क्रियाविशेषाः शवला भण्यन्ते तथाचोक्तं " अवराहंमि पयणुए जेण उ मूलं न वच्चई साहू । सबलित्ति तं चरितं तम्हा सबलेत्ति णं विन्ति । १ । तानि च शवलस्थानानि हस्तकर्म्मादीनि ॥ " तंजह उ हत्थकम्मं कुव्वंते १ मेहुणं च सेवते २ । राई च भुंजमाणे ३ आहाकम्मं च भुञ्जन्ते ४ ॥ १ ॥ तत्तो य रायपिण्डं ५ कीयं ६ पामिच्च ७ मभिहर्ड ८ छेज्जं ९ । भुञ्जते सबले उ पञ्चक्खियभिक्ख भुजइ य ।। १० ।। २ ॥ छम्मासन्भन्तरओ गणा गणं सङ्कर्म करेंते य ११ । मासन्भन्तर तिन्नि य दगलेवाओ करेमाणे || ३ || मासब्भन्तरऊ वा माइट्ठाणाइ तिन्नि कुणमाणे १२ | पाणाइवायउहिं कुव्वन्ते १३ । मुसं वयन्ते य । १४ । ४ ।। गिण्हन्ते य अदिन्नं आउट्टि १५ तहा अणन्तरहियाए । पुढवीए ठाणसेज्जं णिसीहियं वावि चेएइ १६ || ५ || एवं ससिणिद्धाए ससरक्खाचित्तमन्तसिललेलुं । कोलावासपइट्टा कोलघुणा तेसि आवासो १७ || ६ || सण्डसपाणसबीए जाव उ सन्ताणए भवे तहियं । ठाणाइ चेयमाणे सबले १८ आउडिआए उ ।। ७ ।। आउट्टिमूलकन्दे पुष्फे यफले य वीयहरिए य । भुञ्जते सबले ऊ १९ तहेव संवच्छरस्सन्ते ॥ ८ ॥ दस दगलेवे कुव्वं तह माइट्ठाण दस य वरिस्संते २० । वृत्ति० ॥ ९ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education आउट्टिय सीउदगे वग्घारियहत्थमत्ते ||९|| दब्बीए भायणेण य दिज्जन्तं भत्तपाण घेत्तूर्णं । भुञ्जइ सबलो एसो इगवीसो होइ नायव्वो ॥ १० ॥ अत्र हस्तकर्म्म स्वयं कुर्व्वन् परेण वा कारयन् सवलो, मैथुनं च दिव्यादित्रिविधमतिक्रमव्यतिक्रमातिचारेषु सालंबनं सेवमानः सवलोsनाचारोऽनालंबनो विराधक एव । अतिक्रमादयस्तु तदध्यवसायतदर्थप्रवृत्तितद्ग्रहणतत्परिभोगस्वरूपाः । रात्रिभोजनं तु दिया गिव्हर दिया भुज्जर इत्यादिभङ्गेषु ४ अइकमाइ ४ भुञ्जते सवले, आलंबणे पुण जयणाए सन्निहिमाईसु य पडिसेवए चेव । एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं । “ असई पञ्चक्खियत्ति" असकृत्प्रत्याख्याय भुञ्जानः सबलो, गणात् गणसङ्क्रमे सबलोन्यत्र ज्ञानाद्यर्थात् । दगलेपो नाभिप्रमाणोदकोत्तरणं यत उक्तं “ जङ्घद्धा सङ्घट्टो नाभी लेवो परेण लेवुवार " इत्यादि “ माइहाणाई " पच्छायणाईणि “ आउट्टित्ति " उपेत्य “ ससणिद्धा " सोदका सरजस्का शिला लेष्टु च “ कोलावासत्ति " घुणक्षतं, सहाण्डकैः प्राणिभिश्च यत्तत्तथा “ सीउदगवाधारिए " गलन्तेणन्ति भणियं हो । परिस्पष्टार्थं । व्यासार्थस्तु दशादिग्रन्थान्तरादवसेय इति ।। द्वाविंशतिभिः परीषहैरिति सम्यग्दर्शनादिमार्गाच्यवनार्थ कर्मनिर्जरार्थं च परि | समन्तादापतन्तः सोढव्याः परीषहाः क्षुधादयो यथा क्षुत् ? पिपासा २ शीत ३ उष्ण ४ दंशमसक ५ अचेलत्व ६ अरति ७ स्त्री ८ चर्या ९ निषेधिका | ( स्वाध्यायभूमिरित्यर्थः ) १० शय्या ११ आक्रोश १२ वध १३ याञ्चा १४ अलाभ १५ रोग १६ तृणस्पर्श १७ मल १८ सत्कार | १९ प्रज्ञा २० अज्ञान २१ सम्यक्त्वं २२ एते च तदा जिता भवन्ति यदि क्षुदादिवेदनात्तपि नार्त्तध्यानं करोति नाप्यनेषणीयादिग्रहणं चेत्येवं सर्वेषु द्रष्टव्यमिति ।। त्रयोविंशतिभिः सूत्रकृताध्ययनैस्तानि पुनरमूनि “पुण्डरिय ? किरियठाणं २ आहारपरिन्न ३ पञ्चक्खाणकिरिया य ४ | अणगार ५ अद ६ नालंद ७ सोलसाई च तेवीसं २३” चतुर्विंशतिभिर्देवैस्ते चामी “भवणवणजोइवेमाणिया दसअद्वपञ्चगविहा । इह चउवीसं देवा केई पुण विन्ति अरहन्ता " ॥ पञ्चविंशतिभिर्भावनाभिः प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणमहाव्रतसंरक्षणाय भाव्यन्त इति भावनास्ताश्चेमा ः w.jainelibrary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिक्र० वृत्ति ईर्यासमितता १ अवलोक्यभोक्तृता २ पात्राद्यादाननिक्षेपसमितता ३ संयमे अदुष्टमनःप्रवर्तकता ४ एवमदुष्टवाचोपि ५, विपर्यये प्राणि हिंसकः, प्रथमव्रतभावनाः पञ्च ।। हास्यत्यागः १ पर्यालोच्यभाषिता २ क्रोधत्यागः ३ लोभत्यागः ४ भयत्यागः ५, अन्यथाऽनृतमपि ब्रू॥१०॥ यादिति द्वितीयव्रतभावनाः॥प्रभुमधिकृत्य स्वयमेवावग्रहयाञ्चायां प्रवर्तते १ तृणाद्यनुज्ञापनायामाकर्ण्य प्रतिग्रहप्रदातृवचनं प्रवत २ अवग्रह स्पष्टमर्यादयानुज्ञाप्य भजेत् ३ अनुज्ञाप्य गुरुमन्यं वा भुञ्जीत पानभोजनम् ४ याचित्वा साधम्मिकाणामवग्रहं स्थानादि कुर्यादिति ५ । सर्वमान्यथाकरणे चादत्तं गृह्णीयात, तृतीयव्रतभावनाः । आहारगुप्तः स्यान्नातिमात्रं स्निग्धं वा भुञ्जीत १ विभूषां न कुर्यात् २ स्त्रियं तदिद्रियाणि | च नावलोकयेत् ३ न ख्यादिसंयुक्तां वसति सेवेत४स्त्रीणां कथां न कथयेत् ५ एकाकी सर्वत्रान्यथा ब्रह्मवतविराधकः स्याचतुर्थवतभावनाः॥ शब्दरूपगंधरसस्पर्शाख्यान् पञ्च विषयान् ( मनोज्ञान् प्रद्वेषं) मनोज्ञामनोज्ञान्प्रति रागद्वेषौ मुनिन कुर्यादन्यथा पञ्चमव्रतविराधकः स्यादिति पञ्चमव्रतभावनाः । एवमेकत्र पञ्चविंशतिः ॥ षड्विंशतिभिर्दशाकल्पव्यवहाराणामुद्देशनकालैस्ते चामी “ दस उद्देसणकाला दसाण। कप्पस्स हुन्ति छच्चेव । दस चेव य ववहारस्स हुन्ति सव्वेवि छव्वीसं" । सप्तविंशतिविधेऽनगारचारित्रे ते चामी भेदाः व्रतषदं ६ पञ्चेन्द्रियजयः ११ भावशुद्धिः १२ प्रत्युपेक्षादिकरणशुद्धिः १३ क्षमा १४ लोभनिग्रहः १५ अकुशलमनोवाकायनिरोधः १८ षट्कायरक्षा N२४ संयमयोगयुक्तता २५ शीतादिवेदनातिसहना २६ मारणान्तिकोपसर्गसहनं २७ एतेऽनगारगुणा यत उक्तं " वयछक्क ६ मिंदियाणं निग्गहो ११ भाव १२ करणसच्चं च १३ । खमया १४ विरागयावि य १५ मणमाईणं निरोहो य १८ ॥१॥ कायाण छक्क २४ जोगमि जुत्तया २५ वेयणाहियासणया २६ । तह मारंत्तियअहियासणया २७ एएऽणगारगुणा ॥२॥" अष्टाविंशतिविधे आचारप्रकल्पे आचार एवाचारप्रकल्पस्तस्य भेदाश्चैते यथा सत्थपरिन्ना १ लोगविजओ २ सीओसणिज ३ संमत्तं ४ । आविंति ५ धुव ६ विमोहो ७ उवहाण ॥१०॥ Jain Education Hernationa For Private & Personel Use Only N w.jainelibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावण २४ विमुतानाशनः पापश्रुतप्रसह पाच तिविहं पुणेककं । १ | विषय । उत्पातं रुधिरष्टवषय ६ । व्यञ्जनं मपाद नाया पाकीचा अङ्ग सरर्वत्रणलवस्वतांगानि दिव्यं व्यताराद्वषय अङ्गमंगविषयं त्रिगुणाधनुर्विशतिर्भवस्तान भदा मोहनीयभेदादिविषय छन रेखादिविषयं ८। पुनदिन शिद्भिर्मोहनीयस्थानैश्वत्थी प्राण अन्तोनायं गले सुयं ८ महपरिन्ना ९ ॥१॥ पिण्डेसण १० सिज्जिरिया ११ भासज्जाए य १२ वत्थपाएसा १३ । उग्गह १४ पडिमा १५ सत्तिक्कसत्तयं२३ भावण २४ विमुत्ती २५ ॥२॥ उवघाय २६ मणुग्घायं २७ आरुहणा २८ तिविहमो निसीहं तु २९ । इह अठावीसविहो आयारपकप्पनामोयं । ३ । एकोनविंशद्भिः पापश्रुतप्रसङ्गैः पापोपादानानि पापश्रुतानि तेषां प्रसङ्गात्तथासेवनारूपास्ते चामी “ अट्ठनिमित्तगाइ दिव्यु-न पायन्तरिक्खभोमं च । अङ्गं सरवंजणलक्खणं च तिविहं पुणेकेकं । १ । सुत्तं वित्ती तह वत्तियं च पावसुयअउणतीसविहं । गन्धव्वनदृवत्थु आउं धणुवेयसंजुत्तं । २। अष्टनिमित्तांगानि दिव्यं व्यन्तराट्टहासादिविषयं १ । उत्पातं रुधिरवृष्टयादिविषयं २ अन्तरिक्षं ग्रहभेदादिविषयं ३ भौमं भूमिविकारदर्शनादेवास्य इदं भविष्यतीत्यादिविषयं ४ अङ्गमंगविषयं ५ स्वरं स्वरविषयं ६ । व्यञ्जनं मषादि तद्विपयं ७ लक्षणं लाञ्छनं रेखादिविषयं ८ पुनर्दिव्याघेकै त्रिविधं सूत्रं वृत्तिर्वार्तिकं चेत्येवमष्टौ त्रिगुणाश्चतुर्विंशतिर्भेदास्तथा गन्धर्व नाट्यं वास्तु आयुर्विद्या वैद्यकं धनुर्वेदश्चेत्येकोनत्रिंशत् ।। त्रिंशद्भिर्मोहनीयस्थानैश्चतुर्थीप्रकृतिर्मोहनीयं तस्य स्थानानि निमित्तानि भेदा मोहनीयस्थानानि तानि च “ वारिमझे वगाहेत्ता तसे पाणे विहिंसती १ छाएउ मुहं हत्थेण अन्तोनायं गलेरवं २॥१॥ सीसावेढेण वेढित्ता संकिलेसेण मारती । ३ सीसंमि जे य आहेतुं दुहमारेण हिंसई ४ ॥२॥ बहुजणस्स नेयारं ५ दीवं ताणं च पाणिणं ६ । साहारणे गिलाणंमि पहू किचं न कुछई ।। ७।३ । साहुं अकम्मधम्माओ जे भंसन्ति अवट्टियं ८ । नेयाउयस्स मग्गस्स अवगारंमि वहती ॥ ४ ॥ जिणाणणंतणाणीणं अवनं जो पभासती ९। आयरियउवज्झाए खिसई मन्दबुद्धिए १०॥ ५ ॥ तेसिमेव य नाणीणं सम्मं न परितप्पई ११ । पुणो पुणोहिगरणं उप्पाए १२ तित्थभेयए १३ । ६ । झाणं आहम्मिए जोए पउंजई पुणो पुणो १४ ॥ Nकामे वमित्ता पत्थेई इहन्नभविए इ वा १५ ॥७॥ अभिक्खमबहुस्सुए जे भासंति बहुस्सुए । तहा य अतवस्सी उ जे तवस्सित्तहं वए १६ in Education For Private & Personel Use Only Tamjainelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन वृत्ति प्रतिक्र० ॥८॥ जायतेएण बहुजणं अन्तोधूमेण हिंसती १७ । अकिञ्चमप्पणा काउं कयमेएण भासइ १८ ॥९॥ नियदुवहिप्पणिहीए पलि- उञ्चे १९ साइजोगजुत्ते य । बेइ सव्वं मुसं वयसि २० अज्झीणं ( झंझ ) ए सया २१ ॥१०॥ अद्धाणमि पवेसित्ता धणं हरइ पाणिणं "" ॥११॥ २२ । वीसंभेत्ता उवाएणं दारे तस्सेव लुब्भति । २३ ॥ ११॥ अभिक्खमकुमारे य कुमारेहति भासती २४ । एवमवंभयारीवि बंभयारित्तहं वए २५ ॥ १२॥ जेण विस्सरियं नीए वित्ते तस्सेव लुब्भती २६ । तप्पभाटिए वावि अंतरायं करेइ से २७॥१३ ॥ सेणावई पसत्यारं भत्तारं वा विहिंसती । रहस्स वावि निगमस्स नायगं सेटिमेव वा । २८।१४। अप्पस्समाणो पासामि अहं देवेत्ति वा वए । अवन्नेणं च देवाणं महामोहं पकुव्वती ३०॥ १५ ॥" एतानि कुर्वाणोऽतिसंक्लिष्टचित्तत्वान्मोहनीयं कर्म बध्नाति ॥ " एगतीसाइ सिद्धाइ गुणेहिति " एकत्रिंशद्भिः सिद्धादिगुणैरादौ गुणा आदिगुणाः सिद्धस्यादिगुणाः युगपद्भाविनो न क्रमभाविन इत्यर्थस्ते चामी संस्थाINनवर्णगन्धरसस्पर्शवेदानां यथाक्रमं पञ्चपञ्चद्विपञ्चाष्टत्रिभेदानामभावोऽशरीरत्वसङ्गवर्जितत्वाजन्मित्वैः सहकत्रिंशत्सिद्धादिगुणा इति । अथवा ज्ञानावरणादिकर्मप्रकृतीनां यथाक्रमं पञ्चनवद्विद्विचतुद्विंद्विपञ्चभेदानां क्षयादेकत्रिंशत्सिद्धगुणा इति ॥ द्वात्रिंशद्भिोगसंग्रहैस्तत्र युज्यन्त इति योगा मनोवाक्कायव्यापाराः प्रशस्ता गृह्यन्ते तेषां शिष्याचार्यगतानामालोचननिरपलापादिना प्रकारेण सङ्ग्रहणानि योग-. सङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते, तेचामी शिष्येणाचार्याय सम्यगालोचना दातव्या १ आचार्योंपि दत्तायामालोचनायां निरपलापः स्यान्नान्यस्मै कथयेत् २ आपत्सु दृढधर्माता ३ ऐहिकादिफलानपेक्षोपधानकारिता । द्विविधशिक्षासेविता ५ निष्पतिकर्मशरीरता ६ तपसि परजनाज्ञापिता ७ अलोभता ८ परीषहादिजय ९ आर्जवं १० संयमव्रतविषये शुचिता ११ सम्यक्त्वशुद्धिः १२ चेतःसमाधिः १३ आचारोपगतता १४ विनयपरता १५ धृतिप्रधानता १६ ११॥ For Private & Personel Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगपरता १७ निर्मायता १८ सुविधिकारिता १९ संवरकारिता २० आत्मदोषापसंहारकारिता २१ सर्वकामविरक्तत्वभावना २२ मूलगुणविषयपत्याख्यानकारिता २३ उत्तरगुणविषयप्रत्याख्यानकारिता २४ द्रव्यभावविषयो व्युत्सर्गः २५ अप्रमत्तता २६ क्षणे क्षणे सामा-| चार्यनुष्ठानकारिता २७ध्यानसंवृतता २८ मारणान्तिकवेदनोदयेप्यक्षोभिता २९ सङ्गानां ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च ३० प्रायश्चित्तकारिता ३१ आराधना च मरणान्ते ३२ कर्त्तव्या कर्त्तव्यं चेति सर्वत्र योजनीयमिति द्वात्रिंशद्योगसङ्ग्रहः॥ त्रयस्त्रिंशद्भिराशातनाभिस्तत्रायः सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातनास्ताश्चैताः शिक्षको निष्कारणं रत्नाधिकपुरतोऽतिनिकटगन्ता आशातनां कुरुते विनयभङ्गादिदोषात् । १ पृष्ठतोऽप्यासन्नगन्ता २ एवमेव तत्र निश्वासक्षुतकासकणपातादयो दोषाः ३ एवं पुरतः स्थाता ४ पार्श्वतः स्थाता ५ पृष्ठतः स्थाता ६ तथा पुरतो निषीदन् ७ पार्श्वतो निपीदन् ८ पृष्ठतो निषीदन ९ तथा बहिविचारभूमौ गतो गुरोः पूर्वमाचमन् १० पूर्वमालोचयन् ११ व्याहरतो गुरोर्जाग्रदप्यप्रतिश्रोता १२ गुरोः संलाप्यं किञ्चित् सर्वमेव (कश्चित् स्वयमेव ) संलंपन् १३ अशनादि गृहीत्वागतः प्रथमं शिक्षकस्यालोचयन् १४ प्रतिगृहाताशनादिः प्रथमं शिक्षकस्योपदर्शयन् १५ अशनादि प्रथमं शिक्षक निमन्त्रयिता । १६ । गुरुमनापृच्छयाशनादिना परसंविभागकर्ता १७ भोजनं कुर्वन् बृहत्कवलैः सपत्रशाकस्निग्धमनोज्ञाद्यभ्यवह" १८ गुरुणा व्याहृतेप्यप्रतिश्रोता प्रतिश्रवणं पूर्व रात्रावृक्तमिदं तु दिवस इति विशेषः १९ बृहच्छब्देन खरनिष्ठरवक्ता २० गुरुणा व्याहृतो यत्रस्थः शृणोति तत्रस्थ एवोल्लापदाता २१ आहूतः सन्किमिति वक्ता यतो मस्तकेन वन्द इति तत्र वाच्यं २२ त्वमित्येकवचनवक्ता २३ प्रेरणायां गुरुणा क्रियमाणायां ग्लानस्य किं न करोपीत्यभिहितस्त्वं किं न करोपीत्यथवा अलसस्त्वमित्युक्तस्त्वमेव चालस इति वक्ता २४ गुरोद्धर्मकथां कथयतो असुमना अपहतमनःसङ्कल्प इत्यर्थः २५ गुरोः कथां कथयतो न स्मरास त्वमिति वक्ता २६ तथा भिक्षावेला Jain Education a l For Private & Personel Use Only jainelibrary.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा प्रतिक्र० वृत्ति ॥१२॥ वर्त्तत इत्यादि भणित्वा धर्मकथायां पर्षद्रेत्ता २७ अनुत्थितायामेव गुरुधर्मकथापर्षदि द्वितीयतृतीयवारं अहं कथां कथयामीति तिष्ठ त्वं तावदिति वक्ता, स्वयं कथयिता २८ तथैतस्य सूत्रस्यायमप्यर्थ इति गुरुकथितार्थविकल्पयिता २९ गुरुशय्यासंस्तारकादेः पादेन संघट्टयिता ३० गुरुशय्यासंस्तारके स्थाननिषदनशयनादिकर्ता ३१ उच्चासने स्थाननिषदनशयनकर्ता ३२ समानासने चैतत्कर्ता ३३ एतात्रयस्त्रिंशदाशातनाः । अथवा सूत्रोक्ता एव त्रयस्त्रिंशदाशातनास्तद्यथा अर्हतामाशातनयेत्यादि यावन्न स्वाध्यायितमिति । तत्संग्रहश्चायं “ अरहन्ताणं १ सिद्धा २ यरिय ३ उवज्झाय ४ साहु ५ साहुणिणंद। सावयव ।७ साविय । ८ देवा ९ देवी १० इहलोय ११ परलोए १२ ॥ १॥ केवलिपणीयधम्मे १३ । सदेवमणुयासुरे य लोगम्मि १४ । तह सव्वपाणभूयजीवसत्ताण १५ काल १६ सुए १७॥२॥ सुयदेवयाइ १८ तत्तो वायणायरियस्स १९ अउणुवीसइमी वाविद्धाई चोदस्स तेत्तीसासायणा सोत्ता ॥ ३ ॥" तत्र न. सन्त्यर्हन्तो जानन्तो वा किमिति भुञ्जते भोगानित्यादिजल्पन्नऽर्हतामाशातनां कुरुते । तथा न सन्ति सिद्धा इत्यादि जल्पंस्तथाचार्यो लघुरकुलीनो दुर्मेधा अल्पलब्धिक इत्यादि । एवमुपाध्यायेऽपि वदन् । तथा साधुसाध्वीविषयेप्यसमयज्ञः किञ्चिदपवदन् श्रावकश्राविकाविषये तु ज्ञातजैनधर्मा अपि न विरतिं प्रतिपन्नाः कथमेते धन्या उच्यन्ते इति वदन् । देवदेवीविषये त्वविरता एते कामप्रसक्ताः सामध्ये सत्यपि तीर्थोन्नत्यकर्त्तार इत्यादि । इहलोकपरलोकयोस्तु वितथप्ररूपणया आशातना । केवलिप्रज्ञप्तधर्मस्य तु प्राकृतभाषासंबद्धमित्यादिवचनात्मिकया वितथपरूपणया। सदेवमनुजादिलोकस्य सर्वप्राणिभूतजीवसत्त्वानामाशातनयेति तत्र प्राणिनो द्वीन्द्रियादयो व्यक्तीच्छासनिश्वा- साः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भूतानि पृथिव्यादयो जीवन्तीति जीवा आयुःकर्माणो भवयुक्ताःसर्व एवेत्यर्थः, सत्त्वाः सांसारिकसं-IN सारातीतभेदा एकाथिका वा ध्वनयो नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपात्ता इति आशातना तु वितथप्ररूपणादिना एव तथाधष्ठमात्रो द्वीन्द्रि-17 ॥१२॥ Jain Education a l For Private & Personel Use Only Mw.jainelibrary.org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education याद्यात्मेति, पृथिव्यादयस्त्वजीवा एव स्पन्दनादिचैतन्यकार्यानुपलब्धेः, जीवाः क्षणिका इति, सत्त्वाः संसारिणोऽङ्गुष्ठपर्वमात्रा एव वा, संसारातीता न सन्त्येवाऽपितु प्रध्यातदीपकल्पो मोक्ष इत्यादि केषाञ्चिन्मतानि । कालस्याशातना नास्त्येव काल इति कालपरिणतिर्वा विश्वमित्यादिका । श्रुताशातना तु " को आउरस्स कालो मइलंबरधोवणे य को कालो । जइ मोक्खहेड नाणं को कालो तस्सकालो वा " इत्यादिका । प्राक् तावद्धर्मद्वारेण श्रुताशातनोक्ता इह तु स्वतन्त्रश्रुतविषयेति न पुनरुक्तता । श्रुतदेवताशातना तु श्रुतदेवता न विद्य ते अकिञ्चित्करीत्यादिका, वाचनाचार्याशातना तु निर्दुःखसुखाः प्रभूतान् वारान् वन्दनं दापयन्तीत्यादिका । तथा “ जं वाइद्धमित्यादि " एतानि चतुर्द्दश सूत्राणि श्रुतक्रियाकालगोचरत्वान्न पौनरुक्त्यभाञ्जीति । तथा दोषदुष्टं श्रुतं यदधीतं तद्यथा व्याविद्धं विपर्यस्तर| त्नमालावदनेन प्रकारेण या आशातना तथा हेतुभूतया योऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमितिक्रिया एवमन्यत्रापि योज्या । व्यत्याम्रेडितं कोलिकपायसवत् । हीनाक्षरमक्षरन्यूनं । अत्यक्षरमधिकाक्षरं । पदहीनं पदेनोनं । विनयहीनमकृतोचितविनयं । घोषहीनमुदात्तादिघोषरहितं । योगहीनं सम्यगकृतयोगोपचारं । सुष्ठु दत्तं गुरुणा । दुष्ठु प्रतीच्छितं कलुषान्तरात्मनेति । अकाले कृतः स्वाध्यायो यो यस्योद्देशादेरकाल इति । काले न कृतः स्वाध्यायो यो यस्यात्मीयोध्ययनकाल उक्त इति । अस्वाध्यायिके स्वाध्यायितमिति । तत्राध्ययनमध्यायः शोभनोध्यायः स्वाध्यायः स एव स्वाध्यायिकं न स्वाध्यायिकमस्वाध्यायिकं तत्कारणमपि च रुधिरादि कारणे कार्योपचारात् अस्वाध्यायिकमुच्यते तच्चास्वाध्यायिकनियुक्तिव्याख्यानतोवसेयमिति । तथा स्वाध्यायिकेऽस्वाध्यायिकविपर्ययलक्षणे न स्वाध्यायितं इत्थमाशातनया योऽतिचारः | कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमिति । एवमेकादिभिस्त्रयस्त्रिंशत्पर्यन्तैः स्थानैरतिचारप्रतिक्रमणं सूत्रे भणितं । तथान्यदपि विज्ञेयं यत उक्तं “तेचीसाए उवरिं चोत्तीस बुद्धवयणअइसेसा । पणतीसं वयणअइसय छत्तीसं उत्तरज्झयणे || १ || एवं “ जह समवाए जा सयभिस ainelibrary.org Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति. प्रतिक्र० रिक्खं होइ सयतारं" इत्यादि । एवमतिचारविशुद्धिं कृत्वा नमस्कारमाह अथवा प्राक्तनाशुभसेवनायाः प्रतिक्रान्तोऽपुनःकरणाय प्रतिक्रमन्नमस्कारपूर्वकमाह “ नमो चउवीसाए तित्थयराणमित्यादि " नमश्चतुर्विंशतितीर्थकरेभ्यः । ऋषभादिमहावीरपर्यवसानेभ्यः । इत्यं ॥१३॥ नमस्कृत्य प्रस्तुतस्य गुणव्यावर्णनायाह " इणमेव निग्गन्थमित्यादि " इदमेवेति सामयिकादि प्रत्याख्यानपर्यन्तं द्वादशाङ्गं वा गणिपिटकं निर्ग्रन्था बाह्याभ्यन्तरग्रन्यान्निर्गताः निर्ग्रन्थाः साधवो निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थं प्रावचनमिति प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवादयो यस्मिKस्तत्प्रावचनं । तत्किमत आह सद्भयो हितं सत्यं सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा सद्भूतं वा सत्यं नयदर्शनमपि स्वविषये सत्यं भवत्ये वेत्यत आह “ अणुत्तरन्ति " नास्योत्तरं यथावस्थितसमस्तवस्तुप्रतिपादकत्वादुत्तमं इत्यर्थः । अन्यदप्येवं भविष्यतीत्यत आह " केवलियं" केवलमद्वितीयं नापरमित्थंभूतमित्यर्थः । तथा प्रतिपूर्णमपवर्गप्रापकैर्गुणैर्धतमित्यर्थः “नेयाउयन्ति" नयनशीलं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः तदप्यसंशुद्धं भविष्यतीत्यत आह " संसुद्धन्ति " सामस्त्येन शुद्धं संशुद्ध एकान्ताकलङ्कमित्यर्थः । एवंभूतमपि कथंचित्तत्स्वा| भाव्यान्नालं भवनिवन्धनिकर्त्तनाय भविष्यतीत्यत आह " सल्लगत्तणंति" कुन्ततीति कर्त्तनं शल्यानि मायादीनि तेषां कर्त्तनं शल्यकर्त्तनं ।। परमतानिषेधार्थ त्वाह " सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गंति" सेधनं सिद्धिहितार्थमाप्तिस्तस्या मार्गः सिद्धिमार्गस्तं मोचनं मुक्तिरहितार्थकर्मविच्युतिस्तस्या मार्गो मुक्तिमार्गस्तं केवलज्ञानादिहितार्थप्राप्तिद्वारेणाहितकर्मविच्युतिद्वारेण च मोक्षसाधनमिति भावना। अनेन च केवलज्ञानादिविकलाः सकर्मकाश्च मुक्ता इति दुर्नयनिरासमाह। विप्रतिप्रत्तिनिरासार्थमेवाह "निजाणमग्गं निव्वाणमग्गति" यान्ति तदिति यानं निरुपम यानं निर्याणं मोक्षपदं तस्य मार्गो निर्याणमार्गस्तम् अनेनानियतसिद्धिक्षेत्रप्रतिपादनापरदुर्नयनिरासमाहानितिनिळणं सकलकर्मक्षयजमात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः तस्य मार्ग इति निर्वाणमार्गस्तम् अनेन च निःसुखदुःखा मुक्तात्मान इति प्रतिपादनपरदुर्नयनिरासमाहानिगमयन्नाह "अवितहमविसंधिं सव्वदुक्खप Jain Education clonal For Private & Personel Use Only ainelibrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education हीणमग्गंति"अवितथं सत्यम् अविसन्धि अव्यवच्छिन्नं सर्वदा अवरविदेहादिषु भावात् सर्वदुःखमहीणमार्ग सर्वदुःखप्रक्षीणो मोक्षस्तत्कारणमित्यर्थः। सांप्रतं परार्थकरणद्वारेणास्य चिन्तामणित्वमुपदर्शयन्नाह “एत्थं ठिया जीवा सिज्झन्तीति" अत्र नैर्ग्रन्थप्रवचने स्थिता जीवाः सिध्यन्तीत्याणिमादि अतिशयफलं प्राप्नुवन्ति “बुज्झन्तीति " बुध्यन्ते केवलिनो भवन्ति “मुच्चन्तित्ति” मुच्यन्ते भवोपग्राहिकर्म्मणा “परिनिव्वुडन्तित्ति” परिः समन्ताभिर्व्वान्ति किमुक्तं भवति “सव्वदुक्खाणमन्तं करेन्ति" सर्वदुःखान। शारीरमानसभेदानामन्तं विनाशं कुर्व्वन्ति इत्थमभिधायाधुनात्र चिन्तामणिकल्पे कर्म्ममलप्रक्षालनसमर्थसलिलौघं श्रद्धानमाविष्कुर्व्वन्नाह" तं धम्मं सदहामित्ति" य एष निर्ग्रन्थमावचनलक्षणो धर्म्म उक्तस्तं धर्म्म श्रदध्महे | सामान्येनाप्येवं स्यादिति “पत्तियामीत्त" प्रतिपद्यामहे प्रीतिकरणद्वारेण “रोएमित्ति” रोचयामि अभिलाषातिरेकेणासेवनाभिमुखतया तथा प्रीती रुचिश्व भिन्ने एव यतः कचिदध्यादौ प्रीतिसद्भावेपि न सर्वदा रुचिः “फासेमित्ति” स्पृशामि आसेवनाद्वारेणेति “अणुपालोमीत्त” अनुपालयामि पौनःपुन्यकरणेन " तं धम्मं सद्दहन्तो इत्यादि ” तं धर्म्म श्रदधानः प्रतिपद्यमानो रोचयन् स्पृशन् अनुपालयन् “तस्स धम्मस्स अन्भुट्टि ओमि आराहणाएत्ति” तस्य धर्म्मस्य प्रागुक्तस्याभ्युत्थितोऽस्मि आराधनायामाराधनविषये विरतोऽस्मि विराधनायां एतदेव भेदेनाह--असंयमं प्राणातिपातादिरूपं परिजानामीति ज्ञपरिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्यामीत्यर्थः । तथा संयमं प्रागुक्तस्वरूपमुपसंपद्यामहे प्रतिपद्यामह इत्यर्थः तथा अब्रह्म वस्त्यनियमलक्षणं तद्विपरीतं ब्रह्म शेषं पूर्ववत् । प्रधानासंयमाङ्गत्वाच्चाब्रह्मणो निदानपरिहारार्थमनअन्तरमिदमाह । असंयमाङ्गत्वादेवाह । अकल्पो ऽकृत्यमाख्यायते कल्पस्तु कृत्यमिति । इदानीं द्वितीयं बन्धकारणमाश्रित्याह । “ अन्नाणमि - त्यादि " अज्ञानं सम्यग्ज्ञानादन्यत् । ज्ञानं तु भगवद्वचनं । अज्ञानभेदपारहरणायैवाह “ अकिरियं परियाणामीत्यादि " अक्रिया नास्ति - कवादः क्रिया सम्यग्वादः । तृतीयं बन्धकारणमाश्रित्याह “ मिच्छत्तामित्यादि " मिथ्यात्वं पूवोक्तं सम्यक्त्वमपि । एतदङ्गत्वादेवाह अबो ional jainelibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्र० ॥१४॥ Jain Education धिर्मिथ्यात्वकार्य बोधिस्तु सम्यक्त्वस्येति इदानीं सामान्येनाह “ अमग्गमित्यादि " अमार्गो मिथ्यात्वादिः मार्गस्तु सम्यग्दर्शनादिरिति "सञ्जमबंभे कप्पे णाणे किरिए य सम्मबोहीसुं । मग्गेसु विवक्खेसुं परिन्न उवसंपया कमसो "इदानीं छद्मस्थत्वादशेषदोषशुद्ध्यर्थमाह “जं संभरामि” यत्किंचित्स्मरामि यच्च छद्मस्थत्वादनाभोगान्नेति तथा यत्प्रतिक्रामामि सूक्ष्ममविदितम् अभोगाद्विदितं यच्च न प्रतिक्रमामि अनेन प्रकारेण यः कश्चिदतिचारः “ तस्स सव्वस्त देवासियस्स अइयारस्स पडिकमामित्ति " कण्ठ्यं इत्थं प्रतिक्रम्य पुनरप्यकुशलप्रवृत्तिपरिहारायात्मानमालोचयन्नाह “ समणोहमित्यादि " श्रमणोऽहं तत्रापि न चरकादिः किं तर्हि संयतः सामस्त्येन यत इदानीं विरतो निवृत्तोऽतीतस्यैष्यस्य च निन्दनसंवरद्वारेणात एवाह - प्रतिहतमिदानमिकरणतया प्रत्याख्यातमतीतनिन्दया एष्यमकरणतया पापकर्म्म येनेति प्रधानोऽयं दोष इति कृत्वा तच्छून्यतामात्मनो भेदेन प्रतिपादयन्नाह - अनिदानो निदानरहितः सकलगुणमूलभूतगुणयुक्ततां दर्शयन्नाह - दृष्टिसंपन्नः सम्यग्दर्शनयुक्त इत्यर्थः। द्रव्यवन्दनपरिहारायाह मायामृषाविवको मायागर्भमृषावादपरिहारीत्युक्तं भवति । एवंभूतः सन् किं “अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु" इत्याह-अर्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु जम्बूद्वीपधातकीखण्डपुष्करार्द्धेषु पञ्चदशसु कर्म्मभूमिषु पञ्चभरतपञ्चैरवतपञ्चविदेहाभिधानासु यावन्तः केचन साधवो रजो हरणगोच्छकप्रतिग्रहधारिणः पञ्चमहाव्रतधारिणः पञ्च महाव्रतानि प्रतीतान्येव तदेकाङ्गविकलमत्येकबुद्धादिसङ्ग्रहायाह-अष्टादशशलाङ्गसहस्रधारिणस्तथाहि केचिद्भगवन्तो रजोहरणादिधारिणो न भवन्त्यपि तानि चाष्टादशशीलाङ्गसहस्राण्येवं "जोए करणे संना इन्दियभोमाइ समणधम्मे य। सीलिंगसहसाणं अट्ठारसगस्स निष्पत्ती " स्थापनात्वियमियं तु भावना । मणेणं न करेइ आहारसन्नाविप्पजढो सोइन्दियसंवुडो खन्ति| संपन्नो पुढविकायसंरक्खओ। एवं आउकाय संरक्खओ इत्यादि द्रष्टव्यमिति । तथा अक्षताचारचारित्रिणः अक्षताचार एव चारित्रिणः तान् सर्वान् गच्छतन्निर्गतभेदान् शिरसोत्तमाङ्गेन मनसान्तःकरणेन मस्तकेन वन्द इति वाचा इत्थमाभिवन्द्य साधून पुनरौघतः सकलसत्त्वक्षामणमैत्रीप्रद वृत्ति ० ॥१४॥ jainelibrary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनायाह “खामेमि सव्व गाहा" निगदसिदैव नवरं सच्चे जीवा खमन्तु मित्ति । मा एतेषामप्यक्षान्तिप्रत्ययः कर्मबन्धो भवत्विति करुगयेदमाह, समाप्तौ स्वरूपप्रदर्शनपुरस्सरं मङ्गलमाह " एवमहमालोइएत्यादि " निगदसिद्धं एतेषां चालोचनानिन्दागर्दापतिक्रमणानां फलं क्रमेण शल्योद्धरणादि यत उक्तं उत्तराध्ययनेषु “आलोयणाए णं भन्ते जीवे किं जणेइ ? आलोयणाए णं मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अणन्तसंसारबन्धणाणं उद्धरणं करेइ, उज्जुभावं च णं जणेइ, उज्जुभावपडिवन्ने णं जीवे अमाई इत्थिवेयं नपुंसवेयं च न बन्धइ पुत्वबद्धं च निजरइ" तथा " निन्दणयाए णं भन्ते जीवे किं जणेइ ? निन्दणयाए णं पच्छायावं जणेइ, पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणसेटिं पडिवज्जइ,करणगुणसेहिं पडिवन्ने य अणगारे मोहणिज्जं कम्मं उवधाएइ” तथा “गरहणयाए णं जीवे किं जणेइ त्ति ? गरह-| णयाए णं अपुरकारं जणेइ, अपुरकारेणं जीवे अप्पसत्येहिन्तो जोगेहिं नियत्तइ पसत्येहि य पवत्तई, पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अणन्तघाइपज्जवे खवेइ ” तथा “ पडिक्कमणेणं भन्ते जीवे किं जणेइ ? पडिक्कमणेणं वयच्छिदाई पिहेइ पिहियवयच्छिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरित्ते असु पवयणमायासु उवउत्ते (किं) अप्पमत्ते सुप्पणिहिए विहरईत्यादि" एवं देवसिकं प्रतिक्रमणमुक्तं, रात्रिकमप्येवंभूतमेव नवरं यत्र देवसिकातिचारोऽभिहितस्तत्र रात्रिकातिचारो वक्तव्यः । आह यद्येवं इच्छामि पडिक्कमिडं गोयरचरियाए इत्यादिकं सूत्रमनर्थकं| रात्रावस्यासंभवादिति ? उच्यते स्वमादौ तत्संभवादित्यदोषः साधुरेवेत्यर्थः ॥ ॥ इति समाप्ता पूर्वाचार्यकृता श्रमणप्रतिक्रमणवृत्तिः ।। Jain Education in For Private & Personel Use Only ainelibrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रमणप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिःसमाप्ता। ཚེ་ཕྱོགས་ཨོ་ཊི་བ་ཚུལ་ལ་ཕྱོགས》《ཀུ་བ་བ་བ་རབ་སྒྱུ་ For Private & Personel Use Only