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________________ नौवां प्रवचन अनुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान For Private Personal Use Only www.Jainelibrary.org
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________________ सूत्र अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ।।२२।। ___ एगप्पा सजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी।।२३।। एगओ विरइं कुञ्जा, एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।।२४।। रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे। जे भिक्खू रूंभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले।।२५।। wwwjainelibrary.org
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________________ हला सूत्र : रत्तीभर भेद नहीं है। तो जो मझे प्रीतिकर है वही दूसरे को अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। प्रीतिकर है। जो दूसरे को प्रीतिकर है वही मुझे प्रीतिकर है। मैं अप्पा मित्तममित्तं च, दप्पट्टिय सप्पट्टिओ।। और दसरा दो अलग-अलग आयाम नहीं एक ही चैतन्य के 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता है। और आत्मा ही सुख-दुख दो रूप हैं; एक ही स्वभाव के दो संघट हैं। कर्ता है। सत्प्रवत्ति में स्थित आत्मा अपना ही मित्र पर महावीर की शिक्षा परम स्वार्थ की है। परार्थ की तो वे बात और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा अपात्तम स्थित आत्मा अपना ही शत्र है। ही नहीं करते। परार्थ की वे बात ही कैसे करेंगे। 'पर' को तो वे महावीर के चिंतन का सारा विश्व आत्मा है। महावीर के उड़ने कहते हैं, खयाल ही छोड़ दो। परार्थ के लिए भी पर का खयाल का सारा आकाश आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त और कुछ भी | रखा तो पर से उलझे रह जाओगे। पर ही तो संसार है। दूसरे पर नहीं है। आत्मा से अन्यथा को कोई भी स्थान महावीर की धारणा | ध्यान रखना ही तो संसार है। दूसरे से अपने ध्यान को मुक्त कर में नहीं है। न संसार का कोई मूल्य है, न परमात्मा का कोई मूल्य लेना समाधि है। अपने पर लौट आए, अपने घर आ गए। है-दूसरे का कोई मूल्य ही नहीं है। मूल्य है तो अपना। अपना ध्यान अपने में ही लीन कर लिया। अपने से पार अब अगर ठीक से कहें और गलत न समझें तो महावीर से बड़ा | कुछ भी न बचा, जिसका कोई मूल्य है। स्वार्थी आदमी कभी हुआ नहीं। लेकिन गलत मत समझ लेना। इसलिए तो महावीर ने परमात्मा को स्वीकार न किया। क्योंकि स्वार्थ का अर्थ होता है : अपना अर्थ, अपना प्रयोजन। स्वार्थ परमात्मा को स्वीकार करने का तो अर्थ ही होता है, दूसरा का अर्थ होता है : अपना हित, अपना कल्याण, अपना मंगल। | महत्वपूर्ण बना ही रहेगा। वस्तुओं से छूटेंगे, दुकान से छूटेंगे तो जो स्वार्थ को पूरा साध लेते हैं उनसे परार्थ अपने आप सध जाता मंदिर महत्वपूर्ण हो जाएगा। धन से छटेंगे तो धर्म महत्वपूर्ण हो है। क्योंकि जो अपने हित में करता है वह दूसरे के अहित में जाएगा। पद से छूटेंगे तो परमात्मा का पद, परमपद, उसकी कभी कुछ कर ही नहीं पाता। क्योंकि जिसने अपने हित को आकांक्षा पैदा हो जाएगी। लेकिन हर हालत में दूसरा महत्वपूर्ण पहचानना शुरू किया, वह धीरे-धीरे जानने लगता है : जो अपने बना रहेगा। और महावीर का गहरा विश्लेषण यह है कि जब हित में है वह दूसरे के हित में भी है; और जो अपने हित में नहीं तक दसरा है तब तक संसार है। है, वह दूसरे के हित में भी नहीं है। इससे विपरीत भी, कि जो | जब तुम अकेले हो—इतने अकेले कि तुम्हें अकेलेपन का पता दूसरे के हित में नहीं है, वह अपने हित में नहीं हो सकता; और भी नहीं चलता; अगर अकेलेपन का पता चलता हो तो दूसरा जो दूसरे के हित में है वही अपने हित में हो सकता है। क्योंकि . अभी मौजूद है। अकेलेपन का पता तभी चलता है जब दूसरे की जैसा ही आत्मा है। मेरे और दूसरे के स्वभाव में याद आती है, जब दूसरे की आकांक्षा जगती है। दूसरे की कमी 1851
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________________ HEATERRA जन सूत्र भाग मालूम होती है तो अकेलेपन का पता चला है। अगर दूसरा धर्म का फर्क है। यहीं तो मार्क्स और महावीर का फर्क है। दूसरा बिलकुल ही खो गया है, तुम्हें दूसरे की याद भी नहीं आती तो महत्वपूर्ण है, तो समाज। मैं अकेला भर महत्वपूर्ण हूं, तो अकेलेपन का पता कैसे चलेगा? अकेलापन तब परम हो जाता | व्यक्ति। इससे तुम यह मत समझ लेना कि महावीर समाज है, पूर्ण हो जाता है। उसको महावीर ने 'कैवल्य' कहा है। वह विरोधी हैं। महावीर समाज से मुक्त हैं, विरोधी नहीं। और तुम अकेलेपन की परिपूर्णता है। इससे यह भी मत समझ लेना कि मार्क्स समाज का पक्षपाती है। तुम इतने अकेले हो कि अकेलेपन का भी पता नहीं चलता। समाज में है, लेकिन समाज का पक्षपाती नहीं है। यह जरा पता चलाने को तो दूसरे की थोड़ी-सी मौजूदगी चाहिए-छाया जटिल है। विरोधाभास मालूम होगा। सही, स्मृति सही। अपने घर की तुम्हें दीवाल बनानी होती है, तो इसे फिर से मैं दोहरा दूं। महावीर अपने स्वार्थ को इतनी पड़ोसी चाहिए। पड़ोसी के बिना कहां तुम सीमा-रेखा गहनता से साधते हैं कि उनके स्वार्थ में सबका स्वार्थ सध ही खींचोगे? पड़ोसी न भी प्रवेश कर सके तुम्हारी भूमि में तो भी जाता है; उसको अलग से साधने कि जरूरत नहीं रह जाती। पड़ोसी के बिना तुम अपनी भूमि किस भूमि को कहोगे? तो जहां | जहां महावीर विचरण करते हैं, वहां भी सुख की किरणें छिटकने तक अकेलेपन का पता चले वहां तक अकेलापन शुद्ध नहीं लगती हैं। जहां वे मौजूद होते हैं, वहां भी आनंद की लहरें हुआ-दूसरा मौजूद है; किसी अंधेरे कोने में खड़ा है; दूर सही बिखरने लगती हैं। पर मौजूद है। उसकी भनक पड़ेगी, उसकी छाया होगी; | जो आनंदित है, वह आनंद की लहरें अपने चारों तरफ पैदा प्रतिध्वनि होगी। करता है। जो दुखी है, वह दुख की लहरें पैदा करता है। तुम इसे समझना। आत्मवान तुम तभी हो सकोगे, जब दूसरे की दुखी हो, तो तुम लाख चाहो कि दूसरे को सुख दे , दोगे कहां छाया की भी जरूरत तुम्हारी परिभाषा के लिए न रह जाए। तभी से? लाओगे कहां से? अपने लिए न जुटा पाए, दूसरे को कहां तुम आत्मा हो जब तुम दूसरे से मुक्त हो। दोगे? दूसरे को तो देने की संभावना तभी है, जब इतना हो अगर तुम्हें अपनी आत्मा की अनुभूति के लिए भी दूसरे का तुम्हारे पास कि तुम्हारी समझ में न आता हो कि क्या करें; जब हारा लेना पड़ता है तो वह अनुभूति भी निर्भर हो गई, वह इतना हो तुम्हारे पास, बाढ़ की तरह कि कूल-किनारों को तोड़कर अनुभूति भी सांसारिक हो गई। बहा जाता हो; तुम इतने भरे हो आनंद से कि न लुटाओगे तो इसलिए आत्मा की गहनतम स्थिति में 'मैं' का भी पता न करोगे क्या? बादल जब भर जाता है जल से, तो बरसता है। चलेगा, क्योंकि 'मैं' के लिए तो 'तू' का होना जरूरी है। 'तू' फूल जब भर जाता है गंध से, तो गंध को लुटाता है। दीया जब के बिना 'मैं' का क्या अर्थ? कैसे कहोगे 'मैं?' जब भी रोशनी से जगमगाता है, भरा होता है, तो रोशनी लुटाता है। कहोगे 'मैं', 'तू' आ जाएगा; 'तू' पीछे के दरवाजे से प्रवेश करोगे क्या? कर जाएगा। जो व्यक्ति आनंद को उपलब्ध हुआ, वह एक आनंदित समाज इसलिए आत्मा का अर्थ अहंकार मत समझना, अस्मिता मत का आधार बनता है-लेकिन चेष्टा से नहीं-अनायास। समझना। आत्मा तो तभी परिपूर्ण होती है जब 'मैं' का भी भाव सहज ही। विलीन हो जाता है। न कोई 'मैं' बचता, क्योंकि बच ही नहीं | सोचकर नहीं, विचारकर नहीं। वह कोई समाजवादी थोड़े ही सकता-'तू' ही नहीं बचा। कोई पर नहीं बचता, तभी तुम होता है। ऐसा घटता है। जब भीतर के केंद्र पर अहर्निश वर्षा शुद्ध होते हो; इतने अकेले होते हो कि तुम्हीं पूरा होती है, तो बाढ़ आती है। अमृत बरसता है तो बाढ़ आती है। आकाश-असीम-होते हो। | फिर बाढ़ आती है तो लुटना भी शुरू हो जाता है। महावीर परम स्वार्थी हैं। जो दूसरे को सुखी करने की चेष्टा में लगा है, उस पर जरा गौर सभी धर्म अपनी पराकाष्ठा में स्वार्थी होते हैं; क्योंकि धर्म का करना। तुमने भी दूसरे को सुखी करने की चेष्टा की है—कर बुनियादी आधार व्यक्ति है, समाज नहीं। यहीं तो राजनीति और पाए? कर इतना ही पाए कि उसे और दुखी कर दिया। पति 186 Lain Education International :
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________________ HTTACTRIVESHANRAIAPOOR Bana SMARAN HAR RE अनुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान 50 RAN पत्नी को सुखी करने की चेष्टा कर रहा है। पत्नी से पूछो। पत्नी दर्शन को जाते हैं तो वे कहते हैं, सेवा को जा रहे हैं। यह सेवा का पति को सुखी करने की चेष्टा कर रही है। पति से पूछो। बड़ा अनूठा अर्थ है। जिसको तुम्हारी सेवा की कोई भी जरूरत मां-बाप बेटे-बच्चों को सुखी करने की चेष्टा कर रहे हैं। बच्चों नहीं है, उसकी सेवा को जा रहे हैं। कोढ़ी को जरूरत है, बीमार से पूछो। तुम चकित होओगे! को जरूरत है, दुखी को जरूरत है। इसलिए ईसाइयत का दावा राजनेता समाज को सखी करने की कोशिश कर रहे हैं। समाज ठीक मालुम पड़ता है कि पूरब में पैदा हुए सभी धर्म स्वार्थी हैं; से पूछो। राजनेताओं से मत पूछो। लोगों से पूछो। कौन इनमें सेवा की कोई जगह नहीं है। न अस्पताल खोलने की किसको सुखी कर पा रहा है? सभी सभी को सुखी कर रहे हैं | उत्सुकता है, न स्कूल चलाने की उत्सुकता है। लोग आंखें बंद और संसार में सिवाय दुख के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता! सभी, | करके ध्यान कर रहे हैं-यह कैसा धर्म है! सभी को आनंद देने की चेष्टा में संलग्न हैं; मिलता है जो, उस ईसाइयत की बात में सचाई है। पर बात बुनियादी रूप से भ्रांत पर तो खयाल करो! तुम्हारी अभिलाषा से थोड़े ही आनंद है। ईसाइयत धर्म न बन पायी, राजनीति रही, समाजशास्त्र बंटेगा-होगा तो बंटेगा। और होने की यात्रा तो निजी रहा। सेवा तो ईसाइयत ने की, लेकिन जो सेवा करने गए उनके है-आत्मा की है। पास कुछ देने को न था। बांटने को तो गए, बड़ी शुभ-शुभ तुम वही दे सकोगे जो तुम हो जाओगे। इसके पहले कि तुम | आकांक्षा थी। लेकिन कहते हैं, नर्क का रास्ता शुभाकांक्षाओं से दो, हो जाओ। क्योंकि हम अपने को ही बांट सकते हैं, और तो पटा पड़ा है। गए तो सेवा करने, गर्दनें काट दीं। ईसाइयत ने कुछ बांटने को नहीं है। और अपने को भी हम तभी बांट सकते तलवारें उठा लीं। ईसाइयत ने जितने लोग मारे, किसी ने नहीं हैं, जब अनंत हो जाएं; नहीं तो कंजूसी होगी, डर लगेगा कि मारे। जीसस ने तो कहा था, कोई चांटा मारे तो दूसरा गाल कर बांटा तो कुछ कमी हो जाएगी, छोटे हो जाएंगे। | देना; लेकिन सेवा की धुन ऐसी चढ़ी कि अगर दूसरा सेवा तो जब तक तम इतने आत्मवान न हो जाओ कि तम्हारी आत्मा करवाने को राजी न हो तो खतम करो उसे, सेवा करके ही रहेंगे। का कोई किनारा न हो, तुम तटहीन सागर न हो जाओ, तब तक सेवा सीढ़ी बन गई स्वर्ग चढ़ने की। दूसरे से प्रयोजन न रहा। तम बांट न सकोगे, तब तक कपणता जारी रहेगी। तो यह कभी-कभी मुझे डर लगता है। कभी ऐसी दुनिया होगी, न विरोधाभास खयाल रखना। कोढ़ी होगा, न अंधा होगा, फिर ईसाइयत क्या करेगी? धर्म जो दूसरों की चिंता करते ही नहीं, क्योंकि चिंता करना ही भूल खतम! नहीं, खतम न होगा। वे अंधे को पैदा करेंगे, कोढ़ी को गए हैं जो दूसरे को सुख देना ही नहीं चाहते, न देने का विचार पैदा करेंगे-सेवा तो करनी ही पड़ेगी, नहीं तो मोक्ष कैसे करते हैं, क्योंकि एक सत्य उनकी समझ में आ गया है कि अपने जाएंगे! स्वर्ग कैसे जाएंगे! पास जो नहीं है वह हम दे न सकेंगे; जो अपने ही सुख को महावीर, बुद्ध, कृष्ण, किसी के धर्म में सेवा की कोई जगह जन्माने की सतत साधना में लगे हैं, क्योंकि उन्हें पता चल गया नहीं है। कारण? क्या इनके हृदय में प्रेम पैदा न हुआ? क्या है, जो अपने भीतर होगा, बढ़ेगा, बहेगा भी, बिखरेगा भी, इनके भाव करुणा के न थे? थे। लेकिन उन्होंने एक बड़ा गहरा फैलेगा भी, बंटेगा भी, वह अपने से हो जाता है, उसका कोई | सत्य जाना था कि तुम दूसरे को सुख देने की चेष्टा से सुख नहीं दे हिसाब नहीं रखना होता- ऐसे सभी व्यक्तियों ने परम स्वार्थ | सकते-दुख ही दोगे। की बात कही है। _ईसाइयत युद्ध लायी, दुख लायी। कौन सुखी हुआ! कपड़े मजहब यानी मतलब। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिन स्वार्थ इतना दिए होंगे लोगों को, दवा भी दी होगी; लेकिन आत्माएं खंडित महिमापूर्ण है कि परार्थ उसमें अपने-आप सध जाता है। कर डालीं। रोटी के सहारे, दवा के सहारे, लोगों के प्राण तोड़ इसलिए तुम एक अनूठी बात देखोगे, महावीर के धर्म में सेवा डाले, उनके जीवन की दिशा भटका दी। का कोई स्थान नहीं है। और अगर जैनियों के पास सेवा शब्द भी | महावीर का धर्म कहता है : तुम हो जाओ परिपूर्ण! तुम खिलो है, तो उसका अर्थ उनका बड़ा अनूठा है। जब वे जैन मुनि के दीये की भांति ! तुम बिखरो! फिर तुम्हारे जीवन में होता रहेगा 187
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________________ जिन सत्र भागः नाममा सब जिससे दूसरे को लाभ होगा। मगर वह लाभ प्रयोजन नहीं फूल-थाल सजाए! पूजा करने बाहर गए। मंत्रोच्चार किए। है। वह लाभ लक्ष्य नहीं है। वह लाभ परिणाम है। वह सहज | उच्चार बाहर हुआ! तुम बहिरात्मा! कहीं सिर झुकाया, किन्हीं परिणाम है। अपने से होता है। सूरज निकलता है तो सोचता | चरणों में सिर रखा, लेकिन चरण बाहर थे, तो तुम बहिरात्मा। थोड़े ही है, रात हिसाब थोड़े ही लगाता है कि कितने फूल | अभी तुम्हें भीतर आना होगा। अभी तुम आत्मा की सब से दी खिलाने हैं, कि कितने पौधों को प्राण देने हैं, कि कितने पक्षियों के | दशा में हो। आत्मा की दरिद्रतम अवस्था जो है, 'सर्वहारा', कंठ में गीत बनाना है, कि कितने मोर नाचेंगे, कि कितनी आंखें | वह है बहिरात्मा-बाहर जाता हुआ व्यक्ति। जितना बाहर प्रकाश से भरेंगी! यह कोई हिसाब लगाता है! सूरज से पूछो तो जाता है, उतना ही भीतर के स्वर दूर होते जाते हैं, भीतर का शायद उसे पता भी न हो कि फूल भी खिलते हैं मेरे कारण, कि संगीत खोता चला जाता है। जितना बाहर जाता है, उतनी ही सोए हए लोग जगते हैं मेरे कारण, कि पक्षी गीत गाने लगते हैं, | स्वभाव से जड़ें उखड़ जाती हैं, उतना ही दुख, उतनी ही क्लाति, कि भोर होती है मेरे कारण। उसे पता भी न होगा। यह | उतनी ही थकावट, उतनी ही ऊब, उतना ही जीवन भार, बोझिल स्वाभाविक, सहज परिणाम है। सूरज करता है, ऐसा नहीं; ऐसा | हो जाता है। सूरज की मौजूदगी में होता है। सूरज तो केटालिटिक है। उसकी | दूसरी दशा, महावीर कहते हैं, समझो लौटो घर-अंतरात्मा। मौजूदगी काफी है। | जिसने दूसरे की तरफ पीठ कर ली, नजर अपनी तरफ कर ली। जब भी कोई व्यक्ति महावीर जैसा स्वार्थ को उपलब्ध होता | अभी जहां हम खड़े हैं वहां दूसरे की तरफ नजर है, पीठ अपनी है-स्वार्थ यानी आत्मा को; जिस दिन कोई अपने में रम जाता| तरफ। हम अपनी ही तरफ पीठ किए हुए हैं—यह सांसारिक है-उसके आसपास बहुत पक्षी गीत गाते हैं। उसके आपपास की दशा है। धार्मिक की-उसने पीठ संसार की तरफ की, बे-मौसम फूल खिल जाते हैं। उसके आसपास सोए हुओं की सन्मुख हुआ अपने, अपनी तरफ चला, अब ध्यान अपने पर आंखें खुल जाती हैं। उसके आसपास जन्मों-जन्मों से भटके हुए है। इसी को महावीर 'सामायिक' कहते हैं। इसी को योग लोग मार्ग पर आ जाते हैं। कोई अनजाना तार खींचने लगता है। | 'ध्यान' कहता है। अब अपनी तरफ लौटने लगे। फिर एक लेकिन महावीर जैसा व्यक्ति कुछ करता नहीं; करने की भाषा दिन जब पहुंच गए, अपने में पहुंच गए, जिसके आगे जाने की ही भूल जाता है। होने की भाषा। होता है, करता नहीं। सेवा | कोई जगह न रही, ठहर गए उस बिंदु पर जहां से चले थे, जो करता नहीं, सेवा होती है। यह कोई कृत्य नहीं है, यह उसकी स्रोत था जीवन का, वर्तुल वहीं आकर पूरा हो गया तो फिर भाव-दशा है। अब अंतरात्मा भी कहना ठीक नहीं। क्योंकि अंतरात्मा तो वह है इसलिए इस बात को याद रखना कि महावीर के लिए आत्मा | जो अपनी तरफ नजर किए है। लेकिन अपने से अभी फासला से पार कुछ भी नहीं है। जो भी आत्मा के पार है, वह | है। मुड़ा है घर की तरफ, लेकिन घर अभी दूर है, रास्ता बीच में भटकानेवाला है। अपने से बाहर जिसने देखने की कोशिश की, | है। फिर घर ही पहुंच गया, तो अब तो अपने में और अपनी वह संसार में गया; अपने से भीतर जिसने देखने की कोशिश नजर में कोई फासला न रहा। अब तो स्वयं का होना और स्वयं की, वह मोक्ष में। को देखना एक ही हो गए। अब दो न रहे। अब तो डुबकी लग तो महावीर कहते हैं: आत्मा की तीन दशाएं हैं। एक | गई। इस अवस्था को महावीर कहते हैं : परमात्मा।। बहिरात्मा, जिसको दूसरा दिखाई पड़ता है, जिसकी नजर दूसरे परमात्मा महावीर के लिए अवस्था है-तुम्हारे अंतर्तम की। पर लगी है। फिर वह दूसरा कोई भी हो। धन हो कि पद हो, कि | दूसरों के लिए परमात्मा बाहर, कहीं स्वर्ग, कहीं आकाश में बैठा स्त्री हो कि पुरुष हो, कि परमात्मा हो, वह दूसरा कोई भी हो, है; महावीर के लिए अंतर-आकाश में। बेशर्त, दूसरे पर आंख लगी है, वह आदमी बहिरात्मा। इसलिए | महावीर ने बड़ी से बड़ी क्रांतिकारी उदघोषणा की है कि तुम तुम जब मंदिर जाते हो पूजा करने, तब महावीर तुमको बहिरात्मा | परमात्मा हो। जब तुम नहीं जानते हो तब भी हो। इससे क्या कहेंगे। पूजा करने और मंदिर गए! नजर बाहर रखी! फर्क पड़ता है। जब तुम्हें पता नहीं है, तब भी हो। भेद सिर्फ पता 188
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________________ TERRIBE MEERUARDAN अनुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान LABERDER का है। महावीर ने मनुष्य को अंतिम इकाई माना। मनुष्य की | जगी नहीं, बल्कि आत्मा ने स्वच्छंदता का मार्ग लिया। आत्मा ने महिमा ऐसी किसी व्यक्ति ने कभी न गायी थी। मनुष्य के ऊपर | कहा, फिर ठीक है, अब कोई मालिक नहीं है; तो अब जो मौज कुछ न कुछ था। हो करें; तो अब तक जो-जो बंधन थे, निषेध थे, तोड़े तो अब चंडीदास का बड़ा प्रसिद्ध वचन है : तक जो-जो प्रतिबंध थे, उन्हें उखाड़ें: तो अब तक जो-जो करने साबार ऊपर मानुस सत्य, ताहार ऊपर नाईं। से रोके गए थे, अब कर ही लें। चंडीदास ने जरूर महावीर से लिया होगा। या चंडीदास के जैसे घर में बाप मर जाए तो बेटे में दो घटनाएं घट सकती भीतर भी वैसी ही भाव-ऊर्मि उठी होगी, जैसी महावीर के हैं-या तो वह नीत्से के रास्ते पर जा सकता है, या महावीर के। भीतर। चंडीदास कहते हैं : साबार ऊपर मानुस सत्य, सब सत्यों बाप मर जाए, तो निषेधात्मक तो यह होगा कि बाप ने जो-जो के ऊपर मनुष्य का सत्य है; ताहार ऊपर नाईं, उसके ऊपर कुछ करने से रोका था—कि मत जाना शराबघर, मत जाना वेश्या के भी नहीं। पास-अब कर लो। अब कोई रोकनेवाला न रहा। दूसरी इससे बड़ी और महिमा, इससे बड़ा गुणगान न हो सकता था। घटना भी घट सकती है कि अब तक तो बाप रोकनेवाला था, महावीर ने परमात्मा को इनकार किया, ताकि आत्मा को परम अब वह भी न रहा, अब मुझे जागना पड़ेगा ! अब जो काम बाप पद दिया जा सके। क्योंकि परमात्मा रहेगा तो आत्मा दोयम कर देता था, वह मुझे खुद ही करना पड़ेगा। तो अब तक तो डर रहेगी, नंबर दो रहेगी। परमात्मा रहेगा तो नजर दूसरे पर ही था कि किसी दिन बाप की आज्ञा तोड़कर पहुंच भी जाता रहेगी। लाख उपाय करो, नजर अपने पर न आ पाएगी। शराबघर, अब तो पहुंचने का कोई उपाय न रहा; अब तो मेरी ही यहीं परब और पश्चिम की मनीषा का फर्क स्पष्ट होता है। आज्ञा है; मैं ही जानेवाला हूँ। तो अनुशासन पैदा होगा। जब भी नीत्से भी इसी तर्क के करीब पहुंच गया था जहां महावीर पहुंचे। बाप मरता है तो दोनों घटनाएं सामने आती हैं। क्या तुम चुनोगे, सौ वर्ष पहले नीत्से भी करीब-करीब इसी घटना के आ गया, | तुम्हारा निर्णय है। जहां उसे एक बात समझ में आने लगी कि ईश्वर के रहते मनुष्य महावीर ने भी कहा कि कोई ईश्वर नहीं है। महावीर ने तो और परिपूर्ण स्वतंत्र न हो सकेगा। कोई ऊपर रहेगा। कोई नजर भी गहरी बात कही है। कौंधती ही रहेगी। कोई जांचता ही रहेगा। कोई मालकियत नीत्से ने तो कहा, मर चुका है। महावीर ने कहा, कभी था ही जतलाता ही रहेगा। ठीक वहीं उसी बिंदु पर जहां महावीर पहुंचे, नहीं, मरने का कोई सवाल नहीं। कल्पना थी। नीत्से भी पहुंचा; लेकिन तब रास्ते अलग हो गए। महावीर तो लेकिन वहीं से उन्होंने सूत्र अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने विमुक्त हुए, नीत्से विक्षिप्त हुआ। क्या फर्क पड़ गया? नीत्से कहा, कोई परमात्मा नहीं है, इसलिए अब प्रत्येक को परमात्मा ने यह बात तो समझ ली कि परमात्मा नहीं होना चाहिए, लेकिन | होना पड़ेगा। परमात्मा तो होना ही चाहिए, और कोई परमात्मा बात दूसरी न समझ पाया। यह तो निषेधात्मक अंग हुआ कि नहीं है। बिना परमात्मा के तो न चलेगा। तो अब जुम्मेवारी बड़ी परमात्मा न होना चाहिए। दूसरी बात न समझा कि अगर है, गहन है, असीम है। परमात्मा नहीं है तो अब आदमी को परमात्मा होना पड़ेगा। यह स्वतंत्रता उत्तरदायित्व बनी। कोई स्वतंत्रता ही नहीं है, जुम्मेवारी भी है। यह स्वच्छंदता बन इसलिए महावीर जैसा साधक खोजना बहुत मुश्किल है। गई नीत्से के लिए। तो नीत्से ने कहा, 'गाड इज़ डैड। एंड नाउ क्योंकि कोई सहारा भी नहीं है, जिसके चरणों में बैठकर रो लेते; मैन इज़ फ्री टू ड व्हाट सो एवर ही वांटस ट डा'. जिससे शिकायत-शिकवा कर लेते; जिससे कह देते कि तू क्यों _ 'ईश्वर मर गया और अब आदमी स्वतंत्र है, जो भी करना | नहीं उठा रहा है हमें, हम तो उठने को तैयार हैं, जिससे कह देते चाहे करे।' कि हम असहाय हैं, अब तू कुछ कर; हमारे किए कुछ भी नहीं यह स्वच्छंदता बनी। ईश्वर की मृत्यु, आत्मा का पुनर्जन्म न होता, अब तू सम्हाल, अब कोई भी न रहा, अब बिलकुल बनी। इधर ईश्वर तो मरा, लेकिन उसकी मृत्यु के कारण आत्मा अकेले हैं, अब नितांत एकांत है! इस एकांत में अपने को ही 189
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________________ ESH जिन सूत्र भाग: 1 SNOW उठाना है। इस एकांत में अपने को ही चलाना है। अपनी दिशा 'अप्पा कत्ता विकत्ता य'-तुम ही हो कर्ता, तुम ही हो खोजनी है। भोक्ता। न कोई करनेवाला है, न कोई तुम्हें भुगा रहा है। नीत्से अनाथ हुआ, विक्षिप्त हुआ। महावीर अनाथ होकर परमात्मा कोई लीला नहीं कर रहा है, तुम ही कर रहे हो। यह स्वयं नाथ हो गये, स्वयं भगवान हो गए। खेल सब तुम्हारा है। अगर तुम दुखी हो तो तुम ही जुम्मेवार हो। जैनों का 'भगवान' शब्द हिंदओं के 'भगवान' शब्द से अगर सुखी होना है तो तुम्हें सुख की नींवें रखनी पड़ेगी। और अलग अर्थ रखता है। ध्यान रखना, शब्द तो हम एक ही उपयोग अगर सुख-दुख दोनों के पार जाना है, तो तुम्हें ही जाना पड़ेगा। करते हैं, लेकिन जब हमारी भाव-दशाएं अलग होती हैं तो उनके यहां कोई नाव नहीं है, जिसमें बैठकर तुम उतर जाओ। तैरना अर्थ बदल जाते हैं। हिंदुओं के भगवान का अर्थ होता है, जिसने होगा! प्रत्येक को अलग-अलग तैरना होगा। यहां कोई किसी सृष्टि की, जिसने सब बनाया। जैनों के भगवान का अर्थ होता | को कंधे पर बिठाकर नहीं ले जा सकता है। है, जिसने अपने को जाना। जो जानकर परम महिमा से भर महावीर ने जो द्वार खोला, वह विमुक्ति का द्वार बना। गयाः भगवान। भाग्यवान हो गया जो! जिस पर भाग्य की नीत्से ने जो द्वार खोला, उसमें वह खुद ही पागल हो गया। अतुल वर्षा हुई। जिसने अपने भाग्य को खोज लिया। जिसने द्वार एक ही था। अपनी नियति को खोज लिया। नहीं कि सृष्टि उसने बनाई, ध्यान रखना, जो भी मैं तुमसे कह रहा हूं, अगर तुम ठीक से न बल्कि जो अपना स्रष्टा हो गया। बड़ा फर्क है। इसलिए हिंदू समझे तो बड़ी चूक हो जाएगी। सदा पूछेगा कि भगवान क्यों कहते हो महावीर को, क्या इन्होंने सत्य के साथ संबंध बनाना आग के साथ खेलना है। अगर दुनिया बनाई? वह बात ही नहीं समझ रहा है। वह अपनी जरा भी चूके, कुछ और का कुछ और समझ लिये, तो विक्षिप्तता धारणा बीच में ला रहा है। | हाथ आती है। विमुक्ति तो दूर, जो थोड़ी-बहुत समझ-बूझ थी, महावीर कहते हैं, दुनिया तो कभी बनायी नहीं गयी, कोई | वह भी खो जाती है। बनानेवाला नहीं है। क्योंकि बनाने की बात ही बचकानी है। अभी इंसानों को मानूसे-जमीं होना है भगवान बनाएगा तो फिर सवाल उठेगा, किसने उसे बनाया? महरो महताब के ऐवान नहीं दरकार अभी। यह तो बकवास कहीं रोकनी ही पड़ेगी। इसमें जाने में कुछ सार महावीर ने कहा, पृथ्वी से तो परिचित हो लो! जीवन के सत्य नहीं है। है अस्तित्व है कोई स्रष्टा नहीं है। लेकिन से तो परिचित हो लो। चांद-तारों के सपने छोड़ो। यहां से अस्तित्व कोई अराजकता नहीं है; जैसा कि नीत्से ने कहा। कोई | परिचित हो लो। अपने तथ्य से परिचित हो लो। आकाशों की परमात्मा नहीं है, तो अस्तित्व अराजक है। कोई व्यवस्था नहीं है | आकांक्षाएं छोड़ो! स्वर्ग-नर्कों के जाल छोड़ो। इसमें, तो फिर कर लो जो करना है। यह तो पागलपन है, कर अभी इंसानों को मानूसे-जमीं होना है लो जो करना है। यहां व्यर्थ समय मत गंवाओ, भोग लो जो | -पृथ्वी से परिचित होना है। भोगना है। दौड़ जाओ इच्छाओं में स्वछंद होकर! महरो महताब के ऐवान नहीं दरकार अभी। देखो, एक ही घटना को दो अलग व्यक्ति कैसे अलग लेते हैं! | -अभी इस उलझन में मत उलझो कि चांद-तारों में कौन महावीर ने कहा, वहां कोई व्यवस्थापक नहीं है, इसलिए निवास कर रहा है। सम्हलो, नहीं तो पागल हो जाओगे! जागो! यहां कोई सूत्रधार | महावीर बड़े यथार्थवादी हैं, प्रैगमेटिक, व्यवहारवादी हैं। ठोस नहीं है, तुम्हीं अकेले हो। अगर न जागे तो खो जाओगे, भटक जमीन पर पैर रखने की उनकी आदत है। सपनों को हटा देते हैं, जाओगे, यह अटल अंधेरा है! ये गहन खाइयां हैं। यहां कोई | काट देते हैं। मार्गदर्शक नहीं है, कोई मार्ग-द्रष्टा नहीं है। कोई आगे चल नहीं | तुम्हारा परमात्मा भी तुम्हारा सपना है। तुम्हारा परमात्मा भी रहा है, तुम अकेले हो! किन्हीं झूठे सहारों पर भरोसा मत रखो! तुम्हारा परिपूरक सपना है। जिंदगी में जो तुम नहीं कर पाते, वह जिम्मेवारी अपने हाथ में लो! तुम ही अपने मालिक हो! तुम परमात्मा के बहाने सपने में करते हो। यहां तम्हें जो नहीं 10 .
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________________ HC अनुकरण नहीं- आत्म-अनुसंधान / मिलता, वह स्वर्ग में मांग लेते हो। लेकिन तुम्हारा मालूम होता है। कौन दुखी होना चाहता है! साफ है कि कोई परमात्मा-तुम्हारा परमात्मा है। तुम गलत हो-तुम्हारा | और शरारत कर रहा है। परमात्मा गलत होगा। जब तुम्हें प्रत्यक्ष कोई कारण न मिल पाए तो तुम अप्रत्यक्ष सोचो, विक्षिप्त आदमी का परमात्मा भी विक्षिप्त होगा! अंधे | कारण खोजते हो-समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति। अगर आदमी का परमात्मा भी अंधा होगा। क्योंकि जिसने खुद प्रकाश वहां भी कोई निमित्त न मिल पाए, तो भाग्य विडंबना, विधि, नहीं देखा, वह कल्पना भी नहीं कर सकता कि प्रकाश क्या है भगवान। मगर कोई, तुम नहीं। यह मन का जाल है। मन तुम्हें और प्रकाश को देखना क्या है और आंखें क्या हैं! एक सत्य देखने से अपरिचित रख रहा है कि तुम ही हो अपने बहरे आदमी का परमात्मा भी बहरा होगा। जिसने खुद ध्वनि दुख के कारण। नहीं सुनी कभी, वह कल्पना भी कैसे करेगा कि परमात्मा ध्वनि कोई मर गया-ऐसा उदाहरण लें जिसमें साफ ही दूसरा सुनता है, ध्वनि है क्या? दुख का कारण मालूम होता हो। पत्नी मर गई। अब तो साफ है तुम्हारा परमात्मा तुम्हारी प्रतिछवि है। मंदिरों में तुमने मूर्तियां | कि पत्नी न मरती तो पति दुखी न होता! इसलिए पत्नी मरकर नहीं बनाई हैं, दर्पण लगाए हैं। उन दर्पणों में तुम अपने को ही दुखी कर गई। यह भी कैसा वक्त चुना! यह कोई समय था, देखकर अपने ही चरणों में झुक जाते हो, घुटने टेककर अपने से अभी तो जवान थी! अभी तो विवाह करके, अभी तो फेरे ही बातचीत कर लेते हो। यह एकालाप है। यहां कोई उत्तर रचाकर लाये थे! तो पति रो रहा है। देनेवाला भी नहीं है। तुम जो चाहते हो, वहीं अपने को मना लेते | इसको कैसे समझाओ कि दुख के कारण तुम ही हो? वह तो हो, वही उत्तर अपने को समझा लेते हो। और इस तरह जीवन के कहेगा, यह तो बात साफ ही है कि पत्नी न मस्ती तो मैं सुखी था; क्षण व्यर्थ जाते हैं। पत्नी मर गई, इसलिए दुखी हूं। महावीर कहते हैं, हाथ में लो बागडोर अपनी। बहुत भटक | महावीर कहते हैं, पत्नी का मरना तो निमित्त है। तुम मृत्यु को चुके दूसरों के द्वारों पर। बहुत हाथ फैलाए भिक्षा के, अब स्वीकार नहीं कर पाते, वहां से दुख आ रहा है। जीवन में मृत्यु मालिक बनो! उत्तरदायित्व लो! यह बचकानापन छोड़ो। इस तो होगी ही। जन्म है तो मौत है। जन्म के साथ ही मौत हो गई बचपन के बाहर आओ, प्रौढ़ बनो! है। थोड़े समय की बात है। जन्म के साथ ही घटना घटनी शुरू 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता है।' हो गई। थोड़ा समय लगेगा और घटना पूरी हो जाएगी। मरना इससे मन में बड़ी पीड़ा होती है। इसलिए तो महावीर को बहुत जन्म के साथ ही शुरू हो गया। तुम जन्म के साथ मृत्यु को अनुयायी न मिले। मन हमारा मानता है कि सुख के तो हो भी स्वीकार नहीं कर पाते हो; वहां तुम्हारे अस्वीकार में दुख है। सकते हैं कि हमने निर्माण किया हो; लेकिन दुख, वह तो दूसरों. फिर, महावीर कहेंगे, यह स्त्री तुम्हारी पत्नी न होती, और मर ने किया है। जब भी तुम दुखी होते हो, तुम तत्क्षण आसपास जाती, तो तुम दुखी होते? तुम कहोगे, फिर मैं क्यों दुखी होता? कारण खोजने लगते होः कौन दुखी कर रहा है? पति दुखी होता इतनी स्त्रियां मरती रहती हैं। ऐसे अगर हर स्त्री के लिए दुखी है तो सोचता है, पत्नी दुखी कर रही है। बाप दुखी होता है तो होने बैलूं तो फिर सुखी होने का मौका ही न आएगा; फिर तो कोई सोचता है, बेटे दुखी कर रहे हैं, तुम जरूर कोई न कोई बहाना न कोई मरेगा, और रो रहे हैं; कोई न कोई मरेगा, रो रहे हैं। अर्थी खोजने लगते होः कौन दुखी कर रहा है ? क्योंकि दुख जब आ तो रोज ही उठती है। कितनी स्त्रियां दुनिया में मरती हैं रोज! अब रहा है तो कोई न कोई दुखी कर रहा होगा। और यह तो तुम मान | इसका कहां हिसाब रखेंगे, नहीं तो मर गए। ही नहीं सकते कि मैं अपने को दुखी कर रहा हूं; क्योंकि यह बात / नहीं, तो महावीर कहते हैं, यह तुम्हारी पत्नी, यह 'मेरी' है, तो बड़ी मूढ़ता की होगी। जब तुम दुखी नहीं होना चाहते तो क्यों उस 'मेरे' में से दुख आ रहा है। यही पत्नी किसी और की कर रहे हो? जरूर कोई और कर रहा है, मैं तो कभी दुखी होना होती, मर जाती, तुम्हें कुछ भी न होता, कोई रेखा भी न खिंचती। ही नहीं चाहता! इसलिए मैं क्यों करूंगा! यह तो सीधा तर्क तो पत्नी 'मेरी' है, इस 'मेरे' में से दुख आ रहा है।
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________________ जिन सूत्र भागः1 फिर, तुम्हारा खयाल है कि यह पत्नी तुम्हारे सुख का आधार अपने उत्तरदायित्व को टालने की बातें हैं। थी। यह भी तुम्हारा खयाल है। क्योंकि सुखी आदमी को कोई | महावीर, पतंजलि, बुद्ध इस प्रौढ़ता को उपलब्ध हुए कि उन्होंने सुख का आधार नहीं चाहिए। सुख भीतर से उमगता है। और कहा कि छोड़ो बकवास, तुम जुम्मेवार हो! और ये बहाने तुम जो दुखी आदमी कितने ही आधार खोज ले, सुखी नहीं हो पाता। तो खोजते हो दूसरों पर टालने के, इनसे कुछ राहत नहीं मिलती, पत्नी तो तुम्हारे सुख का आधार न थी। तुम्हारी कल्पना का, इनसे सिर्फ धोखा पैदा होता है। इनसे ऐसा लगता है, अब हम तुम्हारी भावना का, तुम्हारी वासना का-भला पर्दे की तरह करें क्या; दूसरों ने किया है, हमारे किए क्या होगा! निराशा पैदा काम किया हो पत्नी ने तुम्हारी अपनी वासना को फैलने के लिए; | होती है। गुलामी पैदा होती है। और एक गहन हताशा पैदा होती पत्नी ने तुम्हें मौका दिया हो कि फैला लो अपनी वासना को मेरे है। अब करेंगे क्या? अब इतिहास को बदलने का तो कोई ऊपर, लेकिन तुम्हारे सुख और दुख, तुम्हारे भीतर से उमगते हैं। उपाय नहीं। अब अर्थव्यवस्था तो आज बदलेगी नहीं, बदलने आदमी को कठिनाई है यह बात मानने में। आदमी चाहता है, में बदलनेवाले तो मर ही जाएंगे। जिन्होंने रूस में क्रांति लायी, कोई और जुम्मेवार हो। कोई भी हो जुम्मेवार, कोई और जुम्मेवार वे तो मर चुके; और जो आज जिंदा हैं, वे तड़फ रहे हैं। वे हो। इतिहास हो जुम्मेवार चलेगा। परतंत्रता से दबे हैं। लेनिन सोचकर मरा होगा कि हम बड़ा भारी पश्चिम में जितने विचार पैदा हुए, उन सब में कोई और काम करके जा रहे हैं। लेकिन जो आज उनके बच्चे हैं, वे आज जुम्मेवार है। परतंत्रता से दबे हैं; वे स्वतंत्र होने के लिए छटपटाते हैं। ईसाइयत कहती है, अदम और ईव को शैतान ने भड़काया और सोल्जेनित्सिन से पूछो। कारागृहों में पड़े हैं। शैतान ने कहा कि खा लो यह ज्ञान के वृक्ष का फल। उसने | लेनिन ने तो सोचा था कि बड़ा सुंदर समाज निर्मित होगा, उकसाया। भोले-भाले अदम और ईव उसकी बातों में आ गए। लेकिन वह हुआ नहीं। वह कभी होनेवाला नहीं, क्योंकि शैतान जुम्मेवार है। लेकिन कोई शैतान से पूछो। शैतान तो अब बुनियादी बात गलत है। दूसरा जम्मेवार है, जिस शास्त्र का यह तक कुछ भी बोला नहीं है। नहीं तो शैतान भी कुछ जुम्मेवारी | आधार है, वह शास्त्र गलत है। बताएगा, किसी और पर टालेगा। फ्रायड ज्यादा ईमानदार है इस हिसाब से। फ्रायड ने अपने अदम कहता है, ईव ने फुसलाया मुझे। अब पत्नी है, इसकी जीवन के अंतिम दिनों में लिखा कि आदमी कभी सुखी नहीं हो बातों में कौन नहीं आ जाए, आ ही गए! ईव कहती है, मैं क्या | सकता। हो ही नहीं सकता। यह असंभव है। क्योंकि इतने करूं, शैतान सांप की शकल में आया और मुझे फुसलाया। कारण हैं आदमी के दुखी होने के, उन कारणों को कब बदला जा सांप बेचारा मौन है; उसके पास जबान नहीं, नहीं तो वह भी | सकेगा, कौन बदलेगा, कैसे बदलेगा? असंभव है। जाल बहुत कहता कि किसने मुझे फुसलाया, शैतान ने मुझे फुसलाया। बड़ा है, आदमी बहुत छोटा है। लेकिन कहीं न कहीं बात सरकती जाती। और यह कहानी | फ्रायड की हताशा देखते हो-जीवन भर की चेष्टा, खोज के कहानी नहीं रही है, यह पूरे पश्चिम के इतिहास पर फैली है। बाद जब कोई आदमी कहता है कि आदमी कभी सुखी न हो हीगल कहता है, इतिहास जुम्मेवार है, जो भी दुख हो रहा है सकेगा, सुख सिर्फ कल्पना है, भुलावा है, आदमी दुखी ही उसके लिए। मार्क्स कहता है, अर्थव्यवस्था जुम्मेवार है। | रहेगा...! फ्रायड कहता है, गलत संस्कार जुम्मेवार हैं। मां-बाप ने जो लेकिन महावीर, बुद्ध, पतंजलि कहते हैं : आदमी परम आनंद व्यवहार किया है बच्चों के साथ, वह जुम्मेवार है। लेकिन कोई | को उपलब्ध हो सकता है। पर उसके पहले एक बहुत जरूरी न कोई जुम्मेवार है! बात समझ लेनी जरूरी है-वह यह कि मैं जम्मेवार है। टालो अभी पश्चिम का मनोविज्ञान इतना प्रौढ़ नहीं हुआ कि कह मत, हटाओ मत! तथ्य को स्वीकार करो। क्योंकि अगर मैं सके कि तुम जुम्मेवार हो। इसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए, बड़ी जुम्मेवार हूं अपने दुख का, तो मेरे हाथ में बागडोर आ गई; अब प्रौढ़ता चाहिए। ये बचकानी बातें कि कोई और जुम्मेवार है, मैं वे काम बंद कर दूं जिनसे दुख पैदा होता है; वे बीज बोना बंद 192 Jair Education International |
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________________ अनुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान कर दूं जिनसे कड़वे फल आते हैं; उस फसल को जला डालूं, | तुम्हारे हाथ में होनी चाहिए। लेकिन अकसर, लोग इतनी झंझट निर्जरा करूं उन कर्मों की जिनके कारण मैं दुखी हो रहा हूं। नहीं लेते, क्योंकि घोड़े को सिखाना पड़ेगा। 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता है और विकर्ता, भोक्ता। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर बैठकर कहीं जा सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा अपना ही मित्र है।' रहा था। बड़े जोर से भागा जा रहा था। किसी ने पूछा, कहां जा महावीर कहते हैं, न तो तुम्हारा मित्र तुम्हारे बाहर है, न तुम्हारा रहे हो? उसने कहा, गधे से पूछो। क्योंकि मैंने तो यह आशा ही शत्र। जब तुम सत्प्रवृत्ति में हो...क्या है सत्प्रवृत्ति?...जब तुम छोड़ दी कि इसको चलाना संभव है। झंझट खड़ी होती है। बीच जागे हुए, शांत, आनंद-मग्न, निर्दोष भाव से ध्यानस्थ हो, बाजार में फजीहत होती है। कई दफे इसको चलाने की कोशिश सम्यक हो, संतुलित हो, तब तुम सत्प्रवृत्ति में हो। तब तुम मित्र | कर चुका-गधा है। मैं कहता हूं, बाएं चल, वह दाएं जा रहा हो। दुष्प्रवृत्ति में तुम ही अपने शत्रु हो। कोई तुम्हारा शत्रु नहीं। है। बीच बाजार में भीड़ लग जाती है; आखिर में मुझे हारना इसलिए किसी और से मत लड़ना। लड़ना है तो अपने से। पड़ता है। इससे मैंने फिर एक तरकीब निकाल ली : यह जहां जीतना है तो अपने को। बदलना है तो अपने को। होना है तो जाता है वहीं हम जाते हैं। अब कम से कम फजीहत तो नहीं स्वयं में। सारा खेल तुम्हारे भीतर है। होती। कोई यह तो नहीं कह सकता कि गधा मेरी मानता नहीं। 'अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है।' हालांकि मैं जानता हूं कि वह मानता नहीं है, वह अपनी तरफ से अविजित, जो जीता नहीं गया, ऐसा अपना आत्मा ही शत्रु है। | जाता है। एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणि य। गधे की अपनी यात्रा है। ते जिणित्तु जहानाय, विहरामि अहं मुणी।। बहुत लोग ऐसी ही दशा में हैं-अधिक लोग। जहां इंद्रियां 'अविजित कसाय और इंद्रियां ही शत्रु हैं। हे मुने। मैं उन्हें जाती हैं, तुम चले जाते हो; क्योंकि कौन फजीहत करे, कौन जीतकर यथान्याय, धर्मानुसार विचरण करता हूं।' | झगड़ा-झांसा करे! अगर इंद्रियों को वहां ले जाना है जहां तुम्हें महावीर कहते हैं, जब तक तुम्हारी इंद्रियां तुम्हारे बस में नहीं, | जाना है, तो बड़ा संयम चाहिए पड़ेगा, बड़ा अनुशासन, बड़ा तुम्हें चलाती हैं और तुम उनके पीछे चलते हो, तब तक दुख | प्रशिक्षण। इंच-इंच इंद्रियां लड़ेंगी। क्योंकि कौन अपनी होगा। होगा ही। अंधे का सहारा लेकर जो चलेगा, वह गड्ढे में | मालकियत इतनी आसानी से खोता है ! इंद्रियां जन्मों-जन्मों तक गिरेगा। इंद्रियों के पास कोई आंख थोड़े ही है। इंद्रियों के पास मालिक रहीं। गधे ने जन्मों-जन्मों तक तुम्हारी यात्रा तय की है। कोई बोध थोड़े ही है। तुम्हारी जीभ कहती है, खाए जाओ। जीभ आज अचानक तुम कहने लगे कि मेरी मानकर चलो! गधा के पास बोध थोड़े ही है, सिर्फ स्वाद है। कब रुकना है, कितना कहेगा, सोचो भी, क्या कह रहे हो? किससे कह रहे हो? होश खाना है, कब नहीं खाना है, कब बिना खाए गुजार देना है, कब है कुछ? जो सदा से होता आया है, वही होगा। जद्दोजहद पेट भर गया, कब पेट खाली है। कब जरूरत है, कब जरूरत होगी। गधा संघर्ष देगा। इंद्रियां लड़ेंगी। लेकिन अगर तुम नहीं है--जीभ कैसे कहेगी? जीभ के पास कोई बोध थोड़े ही इंद्रियों की मानकर चलने लगे, इसलिए कि कौन संघर्ष करे, तो है। वह बोध तो तुम्हारे पास है। बोध को तो तुमने रख दिया है तुम्हारी आत्मा कभी पैदा न हो पाएगी। बांधकर एक तरफ। जीभ की मानकर चलते हो, उलझन होगी, | इसलिए मैं कहता हूं, महावीर का मार्ग संघर्ष का, संकल्प का, अड़चन होगी। योद्धा का। इसीलिए तो उनको हमने महावीर कहा। साधारण जननेंद्रिय के पास कोई बोध थोड़े ही है। जननेंद्रिय की उत्तेजना | वीर भी नहीं कहा, महावीर कहा। यह उनका नाम नहीं है: यह अगर तुम्हें वासना में ले जाती है, तो तुम अंधे का हाथ पकड़कर | तो लोगों ने उनके संघर्ष को देखा। उनके दुर्धर्ष संघर्ष को देखा। चल रहे हो। अंधों का हाथ पकड़कर चलनेवाले गड्डों में गिरेंगे। | उनके योद्धा के भाव को देखा। देखा कि उन्होंने किसी चीज की सोचो! बोध तुम्हारे पास है। तो तुम घोड़े की मानकर मत कभी चिंता न की, संघर्ष कितना ही लंबा हो; लेकिन जब तक | चलो। लगाम हाथ में रखो। घोड़ा बुरा नहीं है, शुभ है-लगाम | विजय निश्चित न होगी, तब तक वे रुके नहीं, तब तक वे लड़ते 193 www.jainelibrary org
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________________ जिन सत्र भ ही रहे। उसके साथ ही साथ राग का अंधापन आता है। राग से मत लड़ो और एक बार जब इंद्रियां तुम्हारे वश में आ जाती हैं, तो तुम्हारे विवेक को जगाओ। जैसे-जैसे विवेक जगेगा-असली लड़ाई जीवन में एक प्रसाद पैदा होता है, एक सौंदर्य पैदा होता | वही है, विवेक को जगाने की। है-मालिक का सौंदर्य, सम्राट का सौंदर्य। तभी तो हमने मुल्ला नसरुद्दीन चोरों से डरता है। नए मकान, नए पड़ोस में फकीरों को पूजा और सम्राटों की फिक्र छोड़ दी। कौन जानता है रहने गया, तो एक कुत्ता खरीद लाया—उसने कहा बड़े से बड़ा आज, महावीर के समय में कौन-कौन सम्राट थे? प्रसेनजित को कुत्ता जो मिल सकता था, मजबूत से मजबूत। दुकानदार से पूछा कौन जानता है? बिंबिसार को कौन जानता है? अगर हम | कि 'यह काम आएगा?' उसने कहा, 'काम से उनका नाम भी जानते हैं तो इसीलिए कि महावीर के जीवन में ज्यादा...देखते हो इसको! सम्हालकर रहना। यह खतरनाक कहीं-कहीं उनका उल्लेख है। कौन फिक्र करता है उनकी? है।' लेकिन जिस दिन कुत्ता खरीदकर लाया, उसी रात चोरी हो चूंकि बिंबिसार महावीर से मिलने आया था, इसलिए उसकी भी गई। बड़ा परेशान हुआ। वापिस भागा हुआ दुकानदार के पास याद है; कि प्रसेनजित नमस्कार करने आया था, इसलिए उसकी पहुंचा कि यह क्या मामला है। उसने कहा कि इसमें क्या मामला भी याद है। जो नहीं आए, उनके तो नाम भी खो गए। क्या है। यह कुत्ता इतना बड़ा है, इसको जगाने के लिए एक छोटा हुआ? फकीर इतने मूल्यवान कैसे हो गए? यह नंगा आदमी, | कुत्ता भी चाहिए। यह सोया रहा, इसको चोर-वोर...यह कोई जिसके पास कुछ भी न था—जरूर इसके पास कुछ रहा होगा छोटा-मोटा कुत्ता है! एक छोटा कुत्ता और खरीदो! वह कि सम्राट फीके हो गए। एक दुर्धर्ष बल था। इसने चुनौती घबड़ाहट में चीखेगा, चिल्लाएगा तो यह उठेगा; नहीं तो यह स्वीकार की थी। यह हारा नहीं, इसने अपने पुरुषत्व को सिद्ध | उठनेवाला भी नहीं है। किया था। इसने अपनी मालकियत की घोषणा कर दी थी। कुछ | वह तुम्हारे भीतर का जो मालिक है, कितने जन्मों से घर्राटे ले भी हो जाए, इसने एक बात जारी रखी कि मालिक मैं हं। रहा है, सो रहा है! साधना कुछ भी नहीं है, छोटे-छोटे उपाय हैं होश मालिक है। और होश के अनुसार सब चलना चाहिए। जिनसे वह सोया हुआ मालिक जगने लगे। इस भांति अगर तुम यह बिलकुल ठीक गणित है जीवन का। साधना को देखोगे तो बड़े नए अर्थ खुलेंगे। अमीरे-दो जहां बन जा, असीरे-खारो-खस कब तक? महावीर ने महीनों तक उपवास किए हैं। वह कुछ भी नहीं, वह नई सूरत से तरतीबे-बिनाए-आशियां कर ले। छोटा कुत्ता खरीदना है। उपवास में जब तुम्हें भूख लगेगी, और -दो दुनियाओं के तुम मालिक बन सकते हो। तुम शरीर की न सुनोगे और शरीर कहेगा, भूख लगी, भूख अमीरे-दो जहां बन जा, असीरे-खारो-खस कब तक? लगी, भूख लगी और तुम शरीर की न सुनोगे, तो भूख धीरे-धीरे -यह कांटों में, झाड़ियों में कब तक उलझे रहना? शरीर से उतरकर मन पर आएगी। फिर भी तुम न सुनोगे। मन नई सूरत से तरतीबे-बिनाए-आशियां कर ले। लेकिन फिर चीखेगा, चिल्लाएगा, रोएगा, गिड़गिड़ाएगा, हजार उपाय तुम्हें एक नई दृष्टि और एक नई शैली खोजनी होगी-अपने घर करेगा; समझाएगा कि मर जाओगे; ऐसे भूखे रहे तो क्या होगा को बनाने की। नई सूरत से तरतीबे-बिनाए-आशियां कर तुम्हारा, यह शरीर जीर्ण-शीर्ण हुआ जाता है—तब भी तुम न ले-फिर तुम्हें अपना नीड़ कुछ और ढंग से बनाना होगा। सुनोगे तो भूख आत्मा तक पहुंच जाएगी। और जब भूख आत्मा अभी तुमने जो बनाया है, वह गलत है। इसमें गुलाम मालिक हो तक पहुंचती है तो आत्मा जगती है। तुम शरीर को ही तृप्त कर गया है, मालिक गुलाम हो गया है। इसमें नौकर सिंहासन पर देते हो, भूख मन तक ही नहीं पहुंच पाती; आत्मा तक पहुंचने बैठ गए हैं, सम्राट सोया है। उसे पता ही नहीं कि क्या हो रहा का क्या सवाल है? यह तो चुभाना है तीर का—उस सीमा तक है। सम्राट को जगाना होगा। | जहां तुम्हारा असली मालिक सोया है। सम्राट यानी तुम्हारा विवेक। जैसे ही विवेक जगता है उसके तो महावीर खड़े ही खड़े साधना करते थे, बैठते नहीं थे, लेटते साथ-साथ वैराग्य की व्यवस्था आती है। विवेक सो जाता है, नहीं थे। क्योंकि वैसे ही नींद गहरी है और अब बैठकर और 194
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________________ अनुकरण नहीं-आत्म-अनसंधान लेटकर, क्या उसे और गहरी करनी है ? तो महावीर खड़े ही खड़े है, जैसे देखता ही नहीं है। सुनता भी नहीं। हिलाया-डुलाया साधना किये हैं, ताकि जागरण बना रहे। शरीर थक जाता है। भी, लेकिन ओंठ न हिले। उसने यह भी न कहा कि मैं बहरा हूं। एक घड़ी आती है, शरीर कहता है, अब बैठो, अब विश्राम | वह भागा। खोज-खोजकर जंगल में भटकता रहा, सांझ करो! और महावीर कहते, 'छोड़ बकवास! हो गया बहुत होते-होते लौटा तो देखा कि गायें आकर महावीर के पास बैठी विश्राम। अब नहीं करना विश्राम।' खड़े ही रहते, खड़े ही हैं। अरे! उसने कहा, यह तो बड़ा चालबाज है। होशियार है। रहते, तब थकान मन में उतरती। मन कहता, अब यह बहुत हो | कहीं छिपा रखा था, अब भागने की तैयारी कर रहा था। देखता गया, अब तो गिर जाओगे। महावीर कहते कि सुनना नहीं है। था कि सूरज ढले, अंधेरा हो जाए ले भागे। उसने कहा कि जब तक कि भीतर की चेतना खड़ी न हो जाए, वे नहीं सुनते। इसने तो बड़ी चालबाजी की। इसलिए बना हुआ खड़ा है। वह धीरे-धीरे थकान वहां तक पहुंच जाती है—उस गहरे तल तक क्रोध में आ गया। उसने कहा, मैं देखता हूँ, तेरा यह बहरापन कि आत्मा भी झिझककर खड़ी हो जाती है। क्योंकि यह तो घड़ी नकली है। अब मैं तुझे असली बहरा बनाए देता हूं। मरने की आ गई। उसने दो लकड़ी की खूटियां दोनों कानों में ठोंक दी। महावीर महावीर ने हजार तरह से मौत की घड़ी को अपने पास लाए, खड़े रहे, तब भी कुछ न बोले। क्योंकि मौत की घड़ी ही जगा सकती है। जीवन तो जगा न पाया, कहानी बड़ी प्रीतिकर है। अब इतनी प्रीतिकर कहानियां घटती जीवन ने तो खूब सुला दिया। नहीं, क्योंकि लोग काव्य की भाषा भूल गए हैं; गणित का गंदा मौत का भी इलाज हो शायद, हिसाब सीख गए हैं। जिंदगी का कोई इलाज नहीं। कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। इंद्र घबड़ा गया। देवता घबड़ा यह जिंदगी तो बहुत सुला गई। यह जिंदगी तो बहुत जिंदगी गए। क्योंकि ऐसा देवपुरुष मुश्किल से होता है। वे भागे हुए सिद्ध न हुई; साथी-संगी सिद्ध न हुई। यह तो मूर्छित कर गई, आए और उन्होंने कहा, 'आप हमें आज्ञा दें। आप बड़े बेहोश कर गई। तो महावीर ने मौत का उपयोग किया-जगाने असुरक्षित हैं। ऐसे तो कोई भी मार डालेगा। हम साथ रहेंगे। के लिए। भूखे, प्यासे-खड़े रहे। हम सुरक्षा रखेंगे। यह दुबारा नहीं होना चाहिए।' एक गांव में...खड़े थे गांव के बाहर। मौन लिये हुए थे। एक महावीर बोलते तो नहीं थे, लेकिन यह तो अंतर की बात है; गडरिया कह गया कि ये जरा मेरी गायों को देखते रहना, मैं अभी बाहर से तो कुछ कहा नहीं था, न बाहर से कुछ सुना गया था। आया। वे तो कछ बोलते न थे, इसलिए कछ बोले नहीं। और महावीर ने भीतर से कहा कि जो हआ है, ठीक हआ है। यह ते वह जल्दी में था, इसलिए उसने कुछ फिक्र भी न की। उसने | देखो कि मुझे कितनी जाग मिली है। तुम यही देख रहे हो कि समझा : मौनं सम्मति लक्षणम्। खड़ा है फकीर, देख लेगा। वह | कान में खीले ठोंक दिए। कान तो जाते ही, आज नहीं कल अर्थी लौटकर आया, गायें तो सरक गईं, इधर-उधर हो गईं, जंगल में | पर चढ़ते ही, जल ही जाते, टूट ही जाते, इनका क्या लेना-देना चली गईं। वह बड़ा नाराज हुआ। वह चिल्लाया कि क्या हुआ, है! मिट्टी मिट्टी में मिलती। तुम यह तो देखो, कितनी जाग दे मेरी गायें कहां गईं? तुम खड़े-खड़े यहां क्या कर रहे हो? जरा गया वह आदमी! जब वह खीले ठोंक रहा था, तब शरीर ने पूरी रोक लेते, तुम्हारा क्या बिगड़ जाता? लेकिन उसने देखा, यह चेष्टा की थी कि बोल, रोक, लेकिन उस समय मैं संयम साधे आदमी तो खड़ा ही है; यह तो बोलता ही नहीं; आंख भी नहीं रहा। मैंने कहा, 'क्या बोलना है? क्या रोकना है? जो मिटेगा झपकता। जैसे इसने सुना ही नहीं। उसने कहा, क्या बहरे हो? | वह मिट रहा है। जो कल मिटेगा, वह आज मिट रहा है। जो मगर वह तब भी कुछ न बोला। तो यह सोचकर कि बहरा ही है, जलेगा अग्नि में उसको बचाना क्या है? कौन बचा पाया है? वह बेचारा भागा कि इससे फिजल समय खराब करने में कोई | इधर कान में खीले ठुकते गए, वहां भीतर कोई जागने लगा। मैं सार नहीं है। पागल है, या बहरा है, या क्या मामला है! आंख शरीर से अलग हो गया। उसकी कृपा बड़ी है। वह बड़ी दया भी नहीं झपकता। देखता ही चला जाता है। और देखता भी ऐसे कर गया है। सहायता करनी हो, उसकी करो, क्योंकि वह मुझे 1195
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________________ जिन सत्र भागः जगा गया है—जो मुझसे नहीं हो पाता था, वह कर गया है। लेकिन इजाजत मांगने में उलझ गए। फिर जब 'नहीं' कह दिया बड़ा दुर्धर्ष योद्धा का रूप है महावीर का। संघर्ष उनका सूत्र | गया तो ये हिम्मत न जुटा सके करने की। इन्होंने शास्त्रों के आदेश सुन लिये, शास्ताओं की आवाज सुन ली। इन्होंने 'अविजित एक अपना आत्मा ही शत्र है। अविजित कसाय मुनियों के वचन सुन लिये, सदगुरुओं की बात सुन ली। पूछ और इंद्रियां ही शत्रु हैं। हे मुने! मैं उन्हें जीतकर यथान्याय बैठे। अब तोड़ें तो अपराध लगता है मन में; न तोड़ें तो पीड़ा विचरण करता हूं।' होती है। और ये देखते हैं, दूसरे पीए जा रहे हैं। उन्होंने पूछने की यह वचन बड़ा बहुमूल्य है। ही फिक्र न की। एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य। अगर तुम धार्मिक जीवन जी रहे हो, तो तुम्हारे मन में यह ते जिणित्तु जहानाय, विहरामि अहं मुणी।। सवाल कभी भी न उठेगा कि अधार्मिक मजे में हैं और मैं दुख में उन्हें जीतकर मैं उस परम धर्म के अनुसार आचरण करता हूं। हूं। अगर यह सवाल उठता है तो इसका अर्थ है कि तुम्हारा इससे बड़ी गलती होती है। क्योंकि अनुवाद या मूल भी गलत धार्मिक जीवन झूठा-झूठा, उच्छिष्ट, उधार, बासा। तुमने नियम समझा जा सकता है।...'यथान्याय' धर्मानुसार विचरण करता | पकड़े हैं, बोध नहीं पकड़ा; अन्यथा यह असंभव है कि धार्मिक हूं...तो अनुयायियों ने समझा कि धर्म के अनुसार विचरण करने | आदमी और आनंद में न हो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धार्मिक से, यथान्याय आदमी विजेता हो जाता है। लेकिन महावीर आदमी को महल मिल जाएंगे। मिल भी सकते हैं, न भी मिलें। बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, 'हे मुने! मैं उन्हें मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जीतकर...।' जीतना पहले है। जागना पहले है। हो जाएगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उसके आसपास '...यथान्याय धर्मानुसार आचरण करता हूं।' जाग गया हूं, | सोने-चांदी की वर्षा हो जाएगी। पर मैं यह कह रहा हूं कि अब धर्मानुसार आचरण हो रहा है। धर्म यानी स्वभाव। धर्म धार्मिक आदमी के पास कुछ भी न हो तो भी जिनके पास यानी विवेक जाग्रत, सुप्रतिष्ठित; तुम्हारी भीतर की ज्योति सोने-चांदी की वर्षा हो रही है, उनसे वह ज्यादा आनंदित होगा। जलती हुई; तुम्हारा दीया बुझा हुआ नहीं, जलता हुआ; तुम्हारे | जो पदों पर हैं, उनसे वह ज्यादा प्रतिष्ठित होगा। जिनके पास प्राण चमकते हुए। फिर स्वभावतः आचरण धर्म का होता है। सब है, उनसे ज्यादा होगा उसके पास, चाहे कुछ भी न हो। यह फिर तम जो भी करते हो वही नीति है। फिर तम जो भी करते हो होना कछ भीतरी है। वही न्याय है। फिर तुम जो भी करते हो वही शुभ है। अगर तुम ईमानदार हो तो ईमानदारी काफी है आनंद। ध्यान रखना, शुभ को साधने की चेष्टा नहीं की जा सकती। ईमानदार होने का मजा इतना है कि फिर कौन फिक्र करता है, जागरण के साथ शुभ के फूल खिलते हैं। ईमानदारी से कुछ और मिला कि नहीं। कुछ और की फिक्र तो एक ट्रेन में एक आदमी ने पूछा कि क्या मैं यहां सिगरेट पी वही करता है जो ईमानदार नहीं है। यहां बेईमान भी अपने को सकता हूं। जिस रेलवे कर्मचारी से पूछा था, उसने कहा, 'जी ईमानदार समझते हैं। तुमने कभी कोई आदमी देखा जो तुमसे नहीं। यहां सिगरेट पीना सख्त मना है।' / कहता हो कि मैं बेईमान हूं? कोई नहीं कहता। 'तो फिर यह सिगरेट के टुकड़े किसके पड़े हैं?' उस आदमी एक अदालत में मजिस्ट्रेट ने एक चोर से पूछा कि तूने इस ने कहा। दुकान में रात में पांच बार प्रवेश किया, पूरी रात? 'यह उन लोगों के हैं जो इजाजत नहीं मांगते।' उसने कहा, 'क्या करूं मालिक! ईमानदार संगी-साथी यहां जो जिंदगी है, इसमें मैं अकसर देखता हूं, लोग मेरे पास मिलते ही नहीं। अकेले...जमाना ऐसा खराब होग आते हैं, वे कहते हैं, 'हम ईमानदार हैं, फिर भी जीवन में कोई खटपट की आवाज से मुल्ला नसरुद्दीन की नींद उचट गई। सुख नहीं; और बेईमान फल-फूल रहे हैं। ये भी बेईमान हैं। सीढ़ियां उतरकर उसने देखा कि चोर रसोई घर का सामान बोरे में मगर ये इजाजत मांगकर फंस गए हैं। पीना तो ये भी चाहते थे। समेट रहा है। दरवाजा मेढ़कर उसने पीछे से ललकारा, 'सारा 196
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________________ नुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान सामान यहीं रख दो, नहीं तो तुम्हारी खैरियत नहीं!' बोरे में चाय और चाहिए नहीं। की छननी डालकर चोर बोला, 'अब इतने बेईमान मत बनो तो जब महावीर कहते हैं, 'हे मुने। मैं उन्हें जीतकर...' सरकार ! इसमें आधा माल तो आपके पड़ोसी का है।' इंद्रियों के ऊपर विवेक जाग गया है। इंद्रियों की अंधेरी रात पर चोर भी...'इतने बेईमान मत बनो सरकार!' यहां सभी विवेक का सूरज उग आया है, सूर्यास्त समाप्त हुआ है, सूर्योदय बेईमानों को ईमानदार होने का खयाल है। कसौटी यह है कि हुआ है। अगर तुम्हारी ईमानदारी सुख न लाए, जब मैं कहता हूं, तुम्हारी 'मैं उन्हें जीतकर, धर्मानुसार यथान्याय आचरण करता हूं।' ईमानदारी सुख न लाए, तो मेरा मतलब है: जब तुम्हारी इससे ऐसा मत समझना कि महावीर सोच-सोचकर आचरण ईमानदारी ही सुख न हो जाए। भाषा में तो हमें आगे-पीछे शब्द करते हैं। हमें ऐसा ही लगता है। इससे सारा धर्म उलटा हो जाता रखने पड़ते हैं, क्योंकि एक साथ सभी शब्द नहीं बोले जा है हमारी समझ में। एक अंधा आदमी टटोल-टटोलकर दरवाजा सकते; लेकिन जीवन में ईमानदारी और सुख साथ-साथ घटता खोजता है, कहां से बाहर जाऊं। आंखवाला आदमी निकल है। कहने में तो कहना पड़ेगा, ईमानदारी सुख लाती है। क्योंकि जाता है, सोचता थोड़े ही है! इतना भी नहीं सोचता कि दरवाजा भाषा लाइन में जमानी पड़ती है, पंक्तिबद्ध, रेल के डब्बों की कहां है। आंख है तो बस दरवाजा दिखाई पड़ता है। सोचता भांति, एक डब्बे के पीछे दूसरा डब्बा रखना पड़ता है। जीवन तो | कौन है! पूछता भी नहीं दरवाजा कहां है। निकल जाता है। युगपत है, साइमल्टेनियस है। टटोलता भी नहीं। / इधर मैं बोल रहा है, उधर पक्षी गीत गा रहे हैं, इधर तम सुन रहे ते जिणित्त जहानाय, विहरामि अहं मणी। हो, हवाएं वृक्षों से घूम रही हैं—यह सब एक साथ हो रहा है। -अब मैं बिहार कर रहा हूं, परम आनंद में! हे मुने! लेकिन अगर इसको भाषा में रखना हो तो एक के पीछे दूसरे को | जीतकर इंद्रियों को, अब सुख ही सुख है। बिहार! अब आनंद रखना पड़ेगा, नहीं तो बड़ी गडमड हो जाएगी। फिर कुछ समझ | ही आनंद है। में न आएगा। इसलिए कहते हैं कि ईमानदारी सख लाती है।। मौजे-सहबा निगाह थी अपनी लेकिन वह कहने की बात है। ईमानदारी सुख है। ईमानदारी रक्से-मस्ती कलाम था अपना। सुख है, इसमें भी तो सुख को पीछे रखना पड़ रहा है। ईमानदारी अगर सूफियों की भाषा में इसको कहें, तो शराब की लहरें अब के इतना भी पीछे नहीं है। ईमानदारी में ही सुख है। अपनी आंखों में हैं। ईमानदारी का सुख उसके बाहर नहीं है। बेईमान का सुख मौजे-सहबा निगाह थी अपनी! उसके बाहर है। इसे समझ लो। कोई बेईमानी के लिए ही थोड़ी | -शराब की लहरें आंखें हो गयी हैं; या आंखें शराब की | बेईमानी करता है; कुछ और पाने के लिए करता है। बेईमानी में लहरें हो गई हैं। खुद थोड़ी साध्य है, साधन है। आदमी चोरी भी करता है तो चोर रक्से-मस्ती कलाम था अपना। | होने के लिए थोड़े ही; हत्या भी करता है तो हत्यारा होने के लिए -और अब नृत्य की मस्ती ही हमारे भीतर का गीत है, थोड़े ही कुछ और आकांक्षा है। बेईमान की आकांक्षा बेईमानी कलाम है, कविता है। के बाहर है। जिसका भी विवेक जागा, उसकी मस्ती जागी। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम्हारे जीवन की साधना में जिसका विवेक जागा, उसका आनंद जागा। आनंद और तुम्हारे जीवन का सुख समाविष्ट न हो तो तुम बेईमान हो, मस्ती विवेक के अनुषंग हैं। ध्यान के साथ मस्ती वैसे ही आती अधार्मिक हो। अगर तुम कहो कि ध्यान करने से क्या मिलेगा तो है, जैसे तम्हारे साथ तम्हारी छाया आती है। मस्ती गौण है, जैसे तुम बेईमान हो, अधार्मिक हो। अगर तुम कहो, प्रेम करने से छाया गौण है। तुम आ गए तो छाया भी आ गई। अगर मैं तुम्हें क्या मिलेगा, तो तुम दुकानदार हो, बेईमान हो। निमंत्रण देने जाऊं और कहूं कि आना, तो तुम्हारी छाया के लिए प्रेम 'मिलना' है-आगे-पीछे क्या? प्रेम पर्याप्त है, कछ अलग से निमत्रंण नहीं देता। तुम्हारी छाया अपने से आती है। 197
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________________ जिन सूत्र भागः1 N ANORT PIN जो अपने से आती है, तम्हारे आने के कारण आती है. वही छाया। जिनके लिए कोई नाम नहीं, जिनकी कोई अभिव्यक्ति नहीं हो है। मस्ती छाया है। | सकती। बस इशारे, बस इशारे, इंगित। “एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए। तो महावीर कहते हैं, 'एक ओर से निवृत्ति, दूसरी ओर से असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति।' छाया को बहुत लोगों | प्रवृत्ति करना चाहिए।' यह बड़ा अनूठा सूत्र है। लोग हैं, जो ने धर्म समझ लिया है। वे छाया को लाने की कोशिश में लगे हैं। कहते हैं, प्रवृत्ति करनी चाहिए। चार्वाक हैं, कहते हैं, प्रवृत्ति मूल की फिक्र ही भूल गई है। कोई उपवास कर रहा है और करो, प्रवृत्ति ही सब कुछ है, निवृत्ति की बकवास में मत पड़ना। खयाल ही भूल गया है कि उपवास छाया है, विवेक मूल है। मौत आएगी, सब खो जाएगा, कुछ भी न बचेगा। भोग लो। अगर विवेक को साधा तो उपवास घटेगा। घटता है। आज जो है उसे भोग लो। कुछ भी छोड़ो मत; क्योंकि जिसने सधते-सधते विवेक के एक दिन ऐसी घड़ी आती है कि शरीर की | छोड़ा वह व्यर्थ गया, उसने व्यर्थ समय गंवाया, तो चार्वाक याद ही भूल जाती है। ऐसी महाघड़ी आती है, इतना आनंद कहते हैं कि घी भी पीना पड़े उधार लेकर तो पी लो। ऋणं भीतर होता है कि कौन शरीर की याद करता है! घृत्वा...! कोई फिक्र नहीं, ले लो ऋण से, क्योंकि कौन चुकाता तुमने कभी खयाल किया, शरीर की याद दुख में ही आती है! है! कौन चुकाने के लिए बच जाता है। मौत सबको मिटा देती दुख के कारण ही आती है। पैर में कांटा गड़े तो पैर का पता है; न कोई लेनेवाला है, न कोई देनेवाला है-सब चलता है। सिर में दर्द हो तो सिर का पता चलता है। सिरदर्द | हिसाब-किताब खतम हो जाता है। सब हिसाब-किताब यहीं गया तो सिर भी गया। जब शरीर पूरा स्वस्थ होता है तो पता ही की बातचीत है। न कोई कभी लौटता; इसलिए न कोई पुण्य है, नहीं चलता। और जब भीतर महाआनंद की घटना घटती है, न कोई पाप। वे कहते हैं, प्रवृत्ति। जब आत्मा स्वस्थ होती है-जरा उसकी कल्पना तो करो! उसे फिर दूसरी तरफ उनके विपरीत लोग हैं। वे कहते हैं, त्याग! कहना ही मुश्किल है। तो शरीर की याद भूल जाती है। न भूख त्याग करो। भोगो मत। फंस जाओगे। नर्क जाओगे। छोड़ो, का पता चलता है, न प्यास का पता चलता है-ऐसा रम जाता क्योंकि छोड़ने का मूल्य है परमात्मा की नजरों में। वे प्रवृत्ति के है चित्त, ऐसा ठहर जाता है। समय रुक जाता है। क्षेत्र भूल | दुश्मन हैं। तो भोगी हैं चार्वाक, फिर त्यागी हैं। जाता है। अब यह बड़े मजे की बात है कि अगर जैन मुनियों को आज मयाने-कल्ब-ओ-नजर एक मकाम है उसका समझा जाए तो वे महावीर के अनुयायी सिद्ध न होंगे। वे चार्वाक मुकाम? मरहला? जो भी कुछ है नाम उसका के दुश्मन सिद्ध होते हैं, लेकिन महावीर के अनुयायी सिद्ध नहीं जमाले ताबिशेरू गर्मिए-खिराम नहीं होते। वे चार्वाक के विपरीत हैं, यह सच है; लेकिन महावीर के हज़ार ऐसी अदाएं हैं जिनका नाम नहीं। साथ नहीं है, यह भी सच है। वे कहते हैं, छोड़ो, छोड़ो, छोड़ना -वह एक ऐसी अदा है जिसका कोई नाम नहीं। ही... / एक कहता है, भोगो, भोगो, भोगना ही...। ध्यान भी एक पड़ाव है, वह भी अंत नहीं। महावीर बड़े संतुलित हैं। वे कहते हैं, 'एक ओर से निवृत्ति, मयाने-कल्ब-ओ-नजर एक मुकाम है उसका दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए।' असंयम से निवृत्ति और - इन दोनों आंखों के बीच में एक पड़ाव है ध्यान का। संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए, वे कहते हैं, भोगो-संयम को मुकाम ? मरहला? जो भी कुछ है नाम उसका भोगो! छोड़ो-असंयम को छोड़ो! भोगो प्रकाश को, छोड़ो -कोई भी नाम दो, पड़ाव कहो, मुकाम कहो। अंधकार को। भोगो आत्मा को, छोड़ो शरीर को। भोगो विवेक जमाले ताबिशेरू गर्मिए-खिराम नहीं को, वैराग्य को, बोध को, बुद्धत्व को! त्यागो मूर्छा को, मिथ्या -लेकिन उसे प्रगट करने का उपाय नहीं है। दृष्टि को, असम्यकत्व को। छोड़ो। हज़ार ऐसी अदाएं हैं, जिनका नाम नहीं। लेकिन ध्यान रहे, महावीर कहते हैं, निवृत्ति-प्रवृत्ति दोनों दो जिंदगी में ऐसी हजार अदाएं हैं, जिनके लिए कोई शब्द नहीं, पंख की भांति हैं। पक्षी उड़ न पाएगा एक पंख से। 198
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________________ अनुकरण नहीं—आत्म-अनुसंधान भोगी भी गिर जाता है, त्यागी भी गिर जाता है। ऐसे भोगो कि अधिक लोग इस कोशिश में रहते हैं कि संसार बदल जाए। त्याग भी बना रहे। ऐसे त्यागो कि भोग भी बना रहे। यह जीवन मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि 'इतना दुख है संसार में, आप की परम कला है। क्यों नहीं कुछ करते?' दुख संसार में है। लोग दुख चाहते हैं। एगओ विरई कुंजा, एगओ य पवत्तणं। मैं क्या करूं? और अगर वे दुख चाहते हैं, तो यही उनका सुख असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।। होगा। उनके सुख में बाधा देनेवाला मैं कौन हूं? यह गाड़ी पर जीवन में जो भी तुम्हारे पास है, कुछ भी छोड़ने योग्य नहीं। जो लोग बैठे हैं, यह चाक जो लोग चला रहे हैं, वे चलाना चाहते उसका उपयोग करना है। पत्थर है, सीढ़ी बना लो। अनगढ़ हैं इसलिए चला रहे हैं। उन्हें उनके दुख से जबर्दस्ती थोड़े ही पत्थर है, छैनी उठा लो, प्रतिमा बना लो। | छुड़ाया जा सकता है। हां, जिनकी समझ में आ जाए वे गाड़ी से इसलिए तो मैं कहता हूं, कामवासना को ब्रह्मचर्य बना लो। नीचे उतर जाएं। क्रोध को करुणा बना लो। काटो मत। काटने की कोई जरूरत रुकता नहीं किसी के लिए कारवाने-वक्त नहीं है, क्योंकि जो तुमने काटा, तो तुम कभी पूरे न हो पाओगे। मंजिल है जुस्तजू की न कोई मुकाम है। वह जो अंश तुमने काट दिया है, उतनी जगह सदा-सदा खाली इस संसार की न तो कोई मंजिल है, न कोई मुकाम है। और रह जाएगी। वह छेद की तरह तुम्हारे व्यक्तित्व में रहेगी। तुम यह जो कारवां है समय का, यह किसी के लिए रुकता नहीं। हां परिपूर्ण पुरुष न हो सकोगे। - तुम चाहो तो उतर सकते हो। तुम चाहो तो रुक सकते हो। तुम्हें कुछ भी मत छोड़ो। सबका उपयोग कर लो। बुद्धिमान वही है यह रोकता भी नहीं। इस बात को खूब गहरे हृदय में बैठ जाने जो जीवन में जो मिला है, उन सभी उपकरणों का ठीक संयोजन देना कि तुम संसार में तभी तक रुके हो जब तक तुम रुकना कर लेता है। अभी सब असंबंधित पड़ा है। तार है, वीणा है, चाहते हो। एक क्षण को भी, क्षण के अंशमात्र को भी, संसार फूटा पड़ा है। ठीक से जोड़ो। इसी टूटे-फूटे तार, तुम्हें रोक नहीं सकता। तुम उतरने को राजी हो, तुम्हें कोई रोक इसी टूटी-फूटी वीणा से महासंगीत पैदा हो सकता है। कुछ भी नहीं सकता। और अगर तुम सोचते हो कोई और तुम्हें रोक रहा छोड़ना नहीं है। तुम जैसे हो, इसका आयोजन बदलना है। चीजें है, तो तुम अपने को धोखा दे रहे हो। गलत स्थानों पर रखी हैं; जहां होनी चाहिए वहां नहीं हैं। जो महावीर के समय की कथा है। एक युवक महावीर को सुनकर जहां होना चाहिए वहां नहीं है। कुछ कहीं रखा है, कुछ कहीं घर लौटा। नया-नया उसका विवाह हुआ था। स्नान करने रखा है। लेकिन इसमें से कछ भी छोड़ने योग्य नहीं है। क्योंकि बैठा। परानी कथा है, अब तो ऐसी बात होती नहीं। पत्नी उसके जो भी है, अकारण नहीं है। उसका कोई कारण है। तुम्हारी | शरीर पर उबटन लगा रही थी। अब तो कौन पत्नी लगाती है! समझ में न आए तो जल्दी मत करना। तोड़ने, काटने, हटाने की किसी तरह शरीर ही बचाकर घर से निकल गए तो बहुत है। वह भाषा गलत है। संयोजन की, साधन की भाषा सही है। उबटन लगा रही थी, स्नान करवा रही थी! स्नान-गृह में वह _ 'पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष, ये दो भाव हैं। जो भिक्षु बैठा था चौकी पर, पत्नी उबटन लगा रही थी, और पत्नी ने इनका सदा निषेध करता है, वह मंडल में नहीं रुकता, मुक्त हो कहा, 'सुनो! तुम भी महावीर को सुनने गए। मेरा भाई भी कई जाता है।' वर्षों से सुनता है। और वह सोच रहा है संन्यास ले लेने की।' संसार तो नहीं रुकेगा। संसार तो चलता ही रहेगा। संसार तो वह युवक हंसने लगा। उसने कहा, 'सोच रहा है? सोचने का चक्र है। महावीर उसे मंडल कहते हैं। वह तो घूमता रहेगा। संन्यास से क्या संबंध? लेना हो ले ले, न लेना हो न ले। गाड़ी का चाक घूमता रहेगा। जब तक गाड़ी में बैठी हुई सोचने से क्या मतलब? न लेना हो तो साफ समझे कि नहीं वासनाओं भरे लोग हैं, गाड़ी चलती रहेगी। तुम इसे रोकने की लेना है, लेना हो तो ले ले। कौन रोक रहा है?' उसकी पत्नी ने कोशिश मत करो। तुम चाहो तो गाड़ी से नीचे उतर सकते हो। कहा कि 'क्या तुम सोचते हो, संन्यास इतनी आसान चीज है? तुम्हें कोई रोकनेवाला नहीं है। आदमी को सोचना पड़ता है, विचार करना पड़ता है। तुम भी तो 199
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________________ - जिन सूत्र भाग 1 सुनने गए थे, क्या तुम संन्यास तत्क्षण ले सकते हो?' लगता है अपना है, प्यारा है; कोई लगता है पराया है, दुश्मन वह युवक उठकर खड़ा हो गया। पत्नी ने कहा, 'कहां जाते है। कोई लगता है आज अपना नहीं, तो कल अपना हो जाए, हो? यह तो बातचीत ही थी।' मगर वह तो दरवाजा खोलकर ऐसी आकांक्षा जगती है। कोई दूर है तो आकांक्षा होती है, पास बाहर हो गया। पत्नी ने कहा, 'नग्न हो, कहां जाते हो?' उसने आ जाए, गले लग जाए। और कोई पास भी खड़ा हो तो होता कहा, 'खतम हो गई बात। लेना है—ले लिया।' पत्नी ने है, दूर हटे, विकर्षण पैदा होता है। तुम सारे संसार को राग-द्वेष कहा, 'अंदर आओ! यह मजाक की बात थी।' में बांटते चलते हो। जाने-अनजाने। इसे जरा होश से देखना, 'संन्यास तो', उसने कहा, 'मजाक में भी ले लिया जाए तो | तो तुम पाओगे प्रतिपलः अजनबी आदमी रास्ते पर आता है, बात खतम।' तत्क्षण तुम निर्णय कर लेते हो भीतर, राग या द्वेष का; मित्र कि वह नग्न ही महावीर के पास पहुंचा। सारे गांव की भीड़ लग शत्रु; चाहत के योग्य कि नहीं; प्यारा लगता है कि दुश्मन; गई। महावीर से उसने कहा कि ऐसा-ऐसा हआ। उस क्षण में | भला लगता है, पास आने योग्य कि दर जाने योग्य। झलक भी मुझे लगा कि ठीक है, यह मैं क्या कह रहा हूं। दूसरे के लिए कह मिली आदमी की राह पर और चाहे तुम्हें पता भी न चलता हो, रहा हूं कि सोचे न, सोच तो मैं भी रहा था। मगर तत्क्षण मुझे तुमने भीतर निर्णय कर लिया-बड़ा सूक्ष्म राग का या द्वेष का। बोध हुआ कि अगर लेना है तो ले लूं। कौन रोक रहा है? कौन | यह निर्णय ही तुम्हें संसार से बांधे रखता है। रोक सकता है? एक कार गुजरी, गुजरते से ही एक झलक आंख पर पड़ी, जब मरते वक्त तुम्हें कोई न रोक सकेगा, तो संन्यास के वक्त तुमने तय कर लियाः ऐसी कार खरीदनी है कि नहीं खरीदनी है। कोई तुम्हें कैसे रोक सकता है? जो उतरना चाहता है, उतर जाता | लुभा गई मन को कि नहीं लुभा गई। कोई स्त्री पास से गुजरी। है। लेकिन हम बड़े बेईमान हैं। हम हजार बहाने करते हैं। कोई बड़ा मकान दिखाई पड़ा। सुंदर वस्त्र टंगे दिखाई पड़े, वस्त्र हमारी बेईमानी यह है कि हम यह भी नहीं मान सकते कि हम | के भंडार में। राग-द्वेष पूरे वक्त, तुम निर्णय करते चलते हो। संन्यास नहीं लेना चाहते, कि वैराग्य नहीं चाहते। हम यह भी यह राग-द्वेष की सतत चलती प्रक्रिया ही तुम्हारे चाक को दिखावा करना चाहते हैं कि चाहते हैं, लेकिन क्या करें! चलाए रखती है। किंतु-परंतु बहुत हैं। तुम मंडल में फंसे रहते हो। फिर क्या उपाय है? ‘पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो भाव हैं। जो भिक्षु एक तीसरा सूत्र है। बुद्ध ने उसे उपेक्षा कहा है। वह बिलकुल इनका निषेध करता है, वह मंडल संसार में नहीं रुकता, मुक्त हो | ठीक शब्द है। महावीर इसको विवेक कहते हैं, बिलकुल ठीक जाता है।' शब्द है। वे कहते हैं, न राग न द्वेष, उपेक्षा का भाव। न कोई मेरा रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे। है, न कोई पराया है। न कोई अपना है, न कोई दूसरा है। न कोई जे भिक्खू रूंभई निच्चं, सेन अच्छइ मंडले।। सुख देता है, न कोई दुख देता है। चौबीस घंटे भी एक दफा तुम बस दो बातें हैं—राग और द्वेष, इन दो के सहारे चक्र चलता उपेक्षा का प्रयोग करके देखो, चौबीस घंटे में कुछ हर्जा न हो है। राग, कि कुछ मेरा है। राग, कि कोई अपना है। राग, कि जाएगा। चौबीस घंटे एक धारा भीतर बनाकर देखो कि कुछ भी किसी से सुख मिलता है। इसे सम्हालूं, बचाऊं, सुरक्षा करूं। सामने आएगा, तुम उपेक्षा का भाव रखोगे, न इस तरफ न उस द्वेष, कि कोई पराया है। द्वेष, कि कोई शत्रु है। द्वेष, कि किसी तरफ, न पक्ष न विपक्ष, न शत्रु न मित्र-तुम बाटोगे न, देखते के कारण दुख मिलता है। द्वेष, कि इसे नष्ट करूं, मिटाऊं, रहोगे खाली नजरों से। चौबीस घंटे में ही तुम पाओगेः एक समाप्त करूं। बाहर देखनेवाली नजर हर चीज को राग और द्वेष अपूर्व शांति! क्योंकि वह जो सतत क्रिया चाक को चला रही में बदलती है। | थी, वह चौबीस घंटे के लिए भी रुक गई तो चाक ठहर जाता है। तुमने कभी खयाल किया। राह से तुम गुजरते हो, किसी की ऐसा ही समझो कि तुम साइकल चलाते हो, तो पैडल मारते ही तरफ राग से देखते हो, किसी कि तरफ द्वेष से देखते हो। कोई रहते हो। दोनों तरफ पैडल लगे हैं। दोनों पैडल एक-दूसरे के 2001
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________________ HOM अनुकरण नहा-आत्म-अनुसंधान विपरीत लगते हैं, मगर एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं; दोनों | तुम्हारे भीतर समंदर बंद है। एक-दूसरे के सहयोगी हैं। एक पैडल ऊपर होता है तो दूसरा समंदर है एक बूंद पानी में बंद! लेकिन भीतर नजर ही नहीं नीचे होता है। एक बाएं तरफ है तो दूसरा दाएं तरफ है। दोनों | जाती तो समंदर का दर्शन नहीं होता। तुम नाहक छोटे बने हो। दुश्मन मालूम पड़ते हैं, लेकिन दोनों गहरे संयोग में हैं, और दोनों तुम व्यर्थ ही अपने को क्षुद्र समझे हो। तुम अकारण ही हीन माने के कारण ही चाक चल रहा है, गाड़ी चल रही है, साइकिल चल बैठे हो। और हीन मान लिया, इसलिए श्रेष्ठ बनने की कोशिश रही हैं। तुम पैडल रोक दो, तो हो सकता है, थोड़ी-बहुत में लगे हो। थोड़ी आंख भीतर आए, थोड़ी उपेक्षा में दृष्टि दो-चार-दस कदम पुरानी गति के कारण साइकिल चल जाए, सम्हले, थोड़ी तुम्हारी ज्योति यहां-वहां न कंपे, राग-द्वेष के लेकिन सदा न चल पाएगी। पैडल रोकते ही गति क्षीण होने | झोंके न आएं, तो तुम अचानक पाओगेः समंदर है एक बूंद पानी लगेगी, साइकिल लड़खड़ाने लगेगी। दो-चार-दस कदम के में बंद। तब तुम विराट हो जाओगे, विशाल हो जाओगे। यही बाद तुम्हें साइकिल से नीचे उतरना पड़ेगा, नहीं तो साइकल तुम्हें तुम्हारा परमात्म-भाव है। नीचे उतार देगी। किरण चांद में है शरर संग में राग और द्वेष पैडल की भांति हैं। विपरीत दिखाई पड़ते हैं, . यह बेरंग है डूब कर रंग में लेकिन उन दोनों के ही पैडल मारकर तुम जीवन के चके को खुद ही का नशेमन तिरे दिल में है सम्हाले हुए हो। उपेक्षा को साधो! उपेक्षा का अर्थ है : पैडल फलक जिस तरह आंख के तिल में है। मत मारो, बैठे रहो साइकिल पर, कोई हर्जा नहीं। कितनी देर जैसे आंख के छोटे-से तिल में सारा आकाश समाया हुआ बैठोगे? इसलिए तो मैं कहता हूं अपने संन्यासियों को, भागने है...आंख खोलते हो आकाश को देखते हो, कितना विराट की कोई जरूरत नहीं, बैठे रहो जहां हो। साइकिल पर ही बैठना आकाश आंख के छोटे से तिल में समाया हुआ है। है, बैठे रहो। घर में रहना है, घर में रहो। दुकान पर रहना है, खुदी का नशेमन तेरे दिल में है। दुकान पर रहो। थोड़ा ध्यान सधने दो, साइकिल खुद ही फलक जिस तरह आंख के तिल में है। गिराएगी तुम्हें, तुम्हें थोड़े ही छोड़ना पड़ेगा। साइकल खुद ही वह परमात्मा का घर भीतर है। वह तुम छोटे मालूम पड़ते छोड़ देगी। साइकिल कहेगी, अब बहुत हो गया, उतरो! हो...आंख का तिल कितना छोटा है, सारे आकाश को समा जरा उपेक्षा सधे, जरा विवेक सधे, जरा ध्यान सधे, जरा | लेता है! अमूर्छा थोड़ी उठे, कि जीवन में अपने-आप क्रांति घटित होनी | तुम छोटे मालूम पड़ते हो, हो नहीं। जिस दिन तुम्हारा भीतर शुरू हो जाती है। चौबीस घंटे शायद तुम्हें लगे, बहुत मुश्किल | का विस्फोट होगा, उस दिन तुम जानोगे कि तुम सदा-सदा से है, शायद डर भी लगे कि कहीं ऐसा न हो कि साइकिल से गिर अनंत को, निराकार को, निर्गुण को अपने भीतर लिये चलते थे। ही जाएं, हाथ-पैर न टूट जाएं; कहीं ऐसा न हो जाए कि फिर | समंदर है एक बूंद पानी में बंद! साइकिल पर दुबारा चढ़ ही न सकें तो ऐसा करो कि दिन में लेकिन इसकी खोज नियम, मर्यादा, अनुशासन, नीति, एक घंटा ही उपेक्षा साधो। लेकिन फिर एक घंटा परिपूर्ण उपेक्षा सदाचार, इतने से ही न होगी। इतने से तुम अच्छे आदमी बन साधो। वह एक घंटा भी तुम्हें जीवन का दर्शन करा जाएगा। जाओगे-सभ्य। सभ्य शब्द बड़ा अच्छा है। इसका मतलब : क्षणभर को भी अगर राग-द्वेष की बदलियां आंखों में न घिरी हों, सभा में बैठने योग्य। और कुछ खास मतलब नहीं है। जहां चार तो जीवन का सत्य दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। तब न कोई जन बैठे हों, वहां तुम बैठने योग्य हो जाओगे, सभ्य हो मित्र है, न कोई शत्रु है। तब तुम्हीं अपने मित्र हो, तुम्हीं अपने जाओगे। कोई तुम्हें दुतकारेगा नहीं कि हटो यहां से! शत्रु हो। सत्प्रवृत्ति में मित्र हो, दुष्प्रवृत्ति में शत्रु। नीति-नियम सीख जाओगे, शिष्टाचार। लेकिन उस परमात्मा खुदी क्या है राजे-दुरूने-हयात के जगत में इतने से काफी नहीं है। सभा में बैठने योग्य हो जाने समंदर है एक बूंद पानी में बंद। से, तुम अपने में बैठने योग्य न बनोगे। जो तुम्हें सभा में बैठने 2011
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________________ जिन सत्र भागः1 योग्य बना दे, वह सभ्यता। जो तुम्हें अपने में बैठने योग्य बना आत्मा का नियम खिला नहीं; आत्मा के नियम में बिहार न दे, वही संस्कृति। हुआ। ऊपर-ऊपर की व्यवस्था सीख गए-कैसे उठना, कैसे शेख! मकतब के तरीकों से कुशादे-दिल कहां बैठना, कैसे मंदिर जाना, कैसे पूजा करना, क्रियाकांड, वह सब किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग। सीख गए तो जैन हो गए, हिंदू हो गए, मुसलमान हो गए, ईसाई शेख! मकतब के तरीकों से कुशादे-दिल कहां-यह | हो गए। लेकिन जो होना था उससे बच गए। उठने-बैठने के निमय और व्यवस्थाएं और आचरण की और झूठे सिक्के बड़े खतरनाक होते हैं। क्योंकि झूठे सिक्कों पद्धतियां, मकतब के तरीके, इनसे दिल का विकास नहीं होता, का बोझ और उनकी खनन-खनन तुम्हें धोखा दे सकती है और इनसे आत्मा नहीं बढ़ती, इनसे आत्मा नहीं फलती-फूलती। ऐसा लग सकता है, असली सिक्के अपने पास हैं। असली किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग! यह तो सिक्का तो जिनत्व का है। जिन होना। अगर होना ही हो तो जिन ऐसे ही है, जैसे कोई तेल से या गंधक से बिजली के बल्ब को होना। कुछ और होने से राजी मत होना। सस्ते में अपने को मत जलाने की कोशिश करे। कोई संबंध नहीं है। तेल भरना पड़ता बेच डालना। परमात्मा ही खरीदा जा सकता है इस जीवन से; है दीये में। गंधक के भी दीये बन सकते हैं। लेकिन बिजली की इससे कम की आकांक्षा मत करना। रोशनी को गंधक और तेल की कोई भी जरूरत नहीं है। यह हो सकता है, क्योंकि यह हुआ है। यह हो सकता है, | किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग! मकतब | क्योंकि यह तुम जैसे ही मनुष्यों में हुआ है। तुम इसके मालिक के तरीकों से, जीवन के साधारण शिष्टाचार के नियमों को जिसने हो। यह तुम्हारा स्वभाव-सिद्ध अधिकार है। धर्म समझ लिया, वह ऐसे ही है जैसे एक बिजली के बल्ब को तेल भरकर जलाने की कोशिश कर रहा हो। वह व्यर्थ है। आज इतना ही। जैसे ही थोड़ी-सी समझ को तुम उकसाओगे, वैसे ही तुम पाओगे: तुम्हारे भीतर की रोशनी न तो तेल चाहती है न गंधक; तुम्हारे भीतर की रोशनी ईंधन पर निर्भर नहीं है। तुम्हारे भीतर की रोशनी तुम्हारा स्वभाव है। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ।। 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता, विकर्ता, सत्प्रवृत्ति में स्थित मित्र, दुष्प्रवृत्ति में स्थित अपना ही शत्रु है।' इस सत्य को तुम हृदयंगम करो। इस सत्य को भीतर ले जाओ। इस सत्य का साक्षात्कार करो। इस सत्य को खोजो अपने जीवन में, क्या ऐसा ही नहीं है? अगर तुम्हें भी ऐसा दिखाई पड़ने लगे—मेरे कहने से नहीं, महावीर के वक्तव्य से नहीं; ऐसा तुम्हें भी दिखाई पड़ने लगे, ऐसी तुम्हारी दृष्टि हो जाए–तो तुम 'जिन' होने की यात्रा पर निकल जाओगे। और जैन कभी होना मत चाहना। होना ही है तो जिन होना। होना ही है तो महावीर होना। अनुयायी होने से क्या होगा? अनुकरण नहीं, आत्म-अनुसंधान। जैन बनकर धोखा मत देना। जैन बनने का मतलब है : सीख गए ऊपर के मकतब के तरीके 2021