________________ HTTACTRIVESHANRAIAPOOR Bana SMARAN HAR RE अनुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान 50 RAN पत्नी को सुखी करने की चेष्टा कर रहा है। पत्नी से पूछो। पत्नी दर्शन को जाते हैं तो वे कहते हैं, सेवा को जा रहे हैं। यह सेवा का पति को सुखी करने की चेष्टा कर रही है। पति से पूछो। बड़ा अनूठा अर्थ है। जिसको तुम्हारी सेवा की कोई भी जरूरत मां-बाप बेटे-बच्चों को सुखी करने की चेष्टा कर रहे हैं। बच्चों नहीं है, उसकी सेवा को जा रहे हैं। कोढ़ी को जरूरत है, बीमार से पूछो। तुम चकित होओगे! को जरूरत है, दुखी को जरूरत है। इसलिए ईसाइयत का दावा राजनेता समाज को सखी करने की कोशिश कर रहे हैं। समाज ठीक मालुम पड़ता है कि पूरब में पैदा हुए सभी धर्म स्वार्थी हैं; से पूछो। राजनेताओं से मत पूछो। लोगों से पूछो। कौन इनमें सेवा की कोई जगह नहीं है। न अस्पताल खोलने की किसको सुखी कर पा रहा है? सभी सभी को सुखी कर रहे हैं | उत्सुकता है, न स्कूल चलाने की उत्सुकता है। लोग आंखें बंद और संसार में सिवाय दुख के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता! सभी, | करके ध्यान कर रहे हैं-यह कैसा धर्म है! सभी को आनंद देने की चेष्टा में संलग्न हैं; मिलता है जो, उस ईसाइयत की बात में सचाई है। पर बात बुनियादी रूप से भ्रांत पर तो खयाल करो! तुम्हारी अभिलाषा से थोड़े ही आनंद है। ईसाइयत धर्म न बन पायी, राजनीति रही, समाजशास्त्र बंटेगा-होगा तो बंटेगा। और होने की यात्रा तो निजी रहा। सेवा तो ईसाइयत ने की, लेकिन जो सेवा करने गए उनके है-आत्मा की है। पास कुछ देने को न था। बांटने को तो गए, बड़ी शुभ-शुभ तुम वही दे सकोगे जो तुम हो जाओगे। इसके पहले कि तुम | आकांक्षा थी। लेकिन कहते हैं, नर्क का रास्ता शुभाकांक्षाओं से दो, हो जाओ। क्योंकि हम अपने को ही बांट सकते हैं, और तो पटा पड़ा है। गए तो सेवा करने, गर्दनें काट दीं। ईसाइयत ने कुछ बांटने को नहीं है। और अपने को भी हम तभी बांट सकते तलवारें उठा लीं। ईसाइयत ने जितने लोग मारे, किसी ने नहीं हैं, जब अनंत हो जाएं; नहीं तो कंजूसी होगी, डर लगेगा कि मारे। जीसस ने तो कहा था, कोई चांटा मारे तो दूसरा गाल कर बांटा तो कुछ कमी हो जाएगी, छोटे हो जाएंगे। | देना; लेकिन सेवा की धुन ऐसी चढ़ी कि अगर दूसरा सेवा तो जब तक तम इतने आत्मवान न हो जाओ कि तम्हारी आत्मा करवाने को राजी न हो तो खतम करो उसे, सेवा करके ही रहेंगे। का कोई किनारा न हो, तुम तटहीन सागर न हो जाओ, तब तक सेवा सीढ़ी बन गई स्वर्ग चढ़ने की। दूसरे से प्रयोजन न रहा। तम बांट न सकोगे, तब तक कपणता जारी रहेगी। तो यह कभी-कभी मुझे डर लगता है। कभी ऐसी दुनिया होगी, न विरोधाभास खयाल रखना। कोढ़ी होगा, न अंधा होगा, फिर ईसाइयत क्या करेगी? धर्म जो दूसरों की चिंता करते ही नहीं, क्योंकि चिंता करना ही भूल खतम! नहीं, खतम न होगा। वे अंधे को पैदा करेंगे, कोढ़ी को गए हैं जो दूसरे को सुख देना ही नहीं चाहते, न देने का विचार पैदा करेंगे-सेवा तो करनी ही पड़ेगी, नहीं तो मोक्ष कैसे करते हैं, क्योंकि एक सत्य उनकी समझ में आ गया है कि अपने जाएंगे! स्वर्ग कैसे जाएंगे! पास जो नहीं है वह हम दे न सकेंगे; जो अपने ही सुख को महावीर, बुद्ध, कृष्ण, किसी के धर्म में सेवा की कोई जगह जन्माने की सतत साधना में लगे हैं, क्योंकि उन्हें पता चल गया नहीं है। कारण? क्या इनके हृदय में प्रेम पैदा न हुआ? क्या है, जो अपने भीतर होगा, बढ़ेगा, बहेगा भी, बिखरेगा भी, इनके भाव करुणा के न थे? थे। लेकिन उन्होंने एक बड़ा गहरा फैलेगा भी, बंटेगा भी, वह अपने से हो जाता है, उसका कोई | सत्य जाना था कि तुम दूसरे को सुख देने की चेष्टा से सुख नहीं दे हिसाब नहीं रखना होता- ऐसे सभी व्यक्तियों ने परम स्वार्थ | सकते-दुख ही दोगे। की बात कही है। _ईसाइयत युद्ध लायी, दुख लायी। कौन सुखी हुआ! कपड़े मजहब यानी मतलब। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिन स्वार्थ इतना दिए होंगे लोगों को, दवा भी दी होगी; लेकिन आत्माएं खंडित महिमापूर्ण है कि परार्थ उसमें अपने-आप सध जाता है। कर डालीं। रोटी के सहारे, दवा के सहारे, लोगों के प्राण तोड़ इसलिए तुम एक अनूठी बात देखोगे, महावीर के धर्म में सेवा डाले, उनके जीवन की दिशा भटका दी। का कोई स्थान नहीं है। और अगर जैनियों के पास सेवा शब्द भी | महावीर का धर्म कहता है : तुम हो जाओ परिपूर्ण! तुम खिलो है, तो उसका अर्थ उनका बड़ा अनूठा है। जब वे जैन मुनि के दीये की भांति ! तुम बिखरो! फिर तुम्हारे जीवन में होता रहेगा 187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org