________________ जिन सत्र भागः नाममा सब जिससे दूसरे को लाभ होगा। मगर वह लाभ प्रयोजन नहीं फूल-थाल सजाए! पूजा करने बाहर गए। मंत्रोच्चार किए। है। वह लाभ लक्ष्य नहीं है। वह लाभ परिणाम है। वह सहज | उच्चार बाहर हुआ! तुम बहिरात्मा! कहीं सिर झुकाया, किन्हीं परिणाम है। अपने से होता है। सूरज निकलता है तो सोचता | चरणों में सिर रखा, लेकिन चरण बाहर थे, तो तुम बहिरात्मा। थोड़े ही है, रात हिसाब थोड़े ही लगाता है कि कितने फूल | अभी तुम्हें भीतर आना होगा। अभी तुम आत्मा की सब से दी खिलाने हैं, कि कितने पौधों को प्राण देने हैं, कि कितने पक्षियों के | दशा में हो। आत्मा की दरिद्रतम अवस्था जो है, 'सर्वहारा', कंठ में गीत बनाना है, कि कितने मोर नाचेंगे, कि कितनी आंखें | वह है बहिरात्मा-बाहर जाता हुआ व्यक्ति। जितना बाहर प्रकाश से भरेंगी! यह कोई हिसाब लगाता है! सूरज से पूछो तो जाता है, उतना ही भीतर के स्वर दूर होते जाते हैं, भीतर का शायद उसे पता भी न हो कि फूल भी खिलते हैं मेरे कारण, कि संगीत खोता चला जाता है। जितना बाहर जाता है, उतनी ही सोए हए लोग जगते हैं मेरे कारण, कि पक्षी गीत गाने लगते हैं, | स्वभाव से जड़ें उखड़ जाती हैं, उतना ही दुख, उतनी ही क्लाति, कि भोर होती है मेरे कारण। उसे पता भी न होगा। यह | उतनी ही थकावट, उतनी ही ऊब, उतना ही जीवन भार, बोझिल स्वाभाविक, सहज परिणाम है। सूरज करता है, ऐसा नहीं; ऐसा | हो जाता है। सूरज की मौजूदगी में होता है। सूरज तो केटालिटिक है। उसकी | दूसरी दशा, महावीर कहते हैं, समझो लौटो घर-अंतरात्मा। मौजूदगी काफी है। | जिसने दूसरे की तरफ पीठ कर ली, नजर अपनी तरफ कर ली। जब भी कोई व्यक्ति महावीर जैसा स्वार्थ को उपलब्ध होता | अभी जहां हम खड़े हैं वहां दूसरे की तरफ नजर है, पीठ अपनी है-स्वार्थ यानी आत्मा को; जिस दिन कोई अपने में रम जाता| तरफ। हम अपनी ही तरफ पीठ किए हुए हैं—यह सांसारिक है-उसके आसपास बहुत पक्षी गीत गाते हैं। उसके आपपास की दशा है। धार्मिक की-उसने पीठ संसार की तरफ की, बे-मौसम फूल खिल जाते हैं। उसके आसपास सोए हुओं की सन्मुख हुआ अपने, अपनी तरफ चला, अब ध्यान अपने पर आंखें खुल जाती हैं। उसके आसपास जन्मों-जन्मों से भटके हुए है। इसी को महावीर 'सामायिक' कहते हैं। इसी को योग लोग मार्ग पर आ जाते हैं। कोई अनजाना तार खींचने लगता है। | 'ध्यान' कहता है। अब अपनी तरफ लौटने लगे। फिर एक लेकिन महावीर जैसा व्यक्ति कुछ करता नहीं; करने की भाषा दिन जब पहुंच गए, अपने में पहुंच गए, जिसके आगे जाने की ही भूल जाता है। होने की भाषा। होता है, करता नहीं। सेवा | कोई जगह न रही, ठहर गए उस बिंदु पर जहां से चले थे, जो करता नहीं, सेवा होती है। यह कोई कृत्य नहीं है, यह उसकी स्रोत था जीवन का, वर्तुल वहीं आकर पूरा हो गया तो फिर भाव-दशा है। अब अंतरात्मा भी कहना ठीक नहीं। क्योंकि अंतरात्मा तो वह है इसलिए इस बात को याद रखना कि महावीर के लिए आत्मा | जो अपनी तरफ नजर किए है। लेकिन अपने से अभी फासला से पार कुछ भी नहीं है। जो भी आत्मा के पार है, वह | है। मुड़ा है घर की तरफ, लेकिन घर अभी दूर है, रास्ता बीच में भटकानेवाला है। अपने से बाहर जिसने देखने की कोशिश की, | है। फिर घर ही पहुंच गया, तो अब तो अपने में और अपनी वह संसार में गया; अपने से भीतर जिसने देखने की कोशिश नजर में कोई फासला न रहा। अब तो स्वयं का होना और स्वयं की, वह मोक्ष में। को देखना एक ही हो गए। अब दो न रहे। अब तो डुबकी लग तो महावीर कहते हैं: आत्मा की तीन दशाएं हैं। एक | गई। इस अवस्था को महावीर कहते हैं : परमात्मा।। बहिरात्मा, जिसको दूसरा दिखाई पड़ता है, जिसकी नजर दूसरे परमात्मा महावीर के लिए अवस्था है-तुम्हारे अंतर्तम की। पर लगी है। फिर वह दूसरा कोई भी हो। धन हो कि पद हो, कि | दूसरों के लिए परमात्मा बाहर, कहीं स्वर्ग, कहीं आकाश में बैठा स्त्री हो कि पुरुष हो, कि परमात्मा हो, वह दूसरा कोई भी हो, है; महावीर के लिए अंतर-आकाश में। बेशर्त, दूसरे पर आंख लगी है, वह आदमी बहिरात्मा। इसलिए | महावीर ने बड़ी से बड़ी क्रांतिकारी उदघोषणा की है कि तुम तुम जब मंदिर जाते हो पूजा करने, तब महावीर तुमको बहिरात्मा | परमात्मा हो। जब तुम नहीं जानते हो तब भी हो। इससे क्या कहेंगे। पूजा करने और मंदिर गए! नजर बाहर रखी! फर्क पड़ता है। जब तुम्हें पता नहीं है, तब भी हो। भेद सिर्फ पता 188 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org