________________ HEATERRA जन सूत्र भाग मालूम होती है तो अकेलेपन का पता चला है। अगर दूसरा धर्म का फर्क है। यहीं तो मार्क्स और महावीर का फर्क है। दूसरा बिलकुल ही खो गया है, तुम्हें दूसरे की याद भी नहीं आती तो महत्वपूर्ण है, तो समाज। मैं अकेला भर महत्वपूर्ण हूं, तो अकेलेपन का पता कैसे चलेगा? अकेलापन तब परम हो जाता | व्यक्ति। इससे तुम यह मत समझ लेना कि महावीर समाज है, पूर्ण हो जाता है। उसको महावीर ने 'कैवल्य' कहा है। वह विरोधी हैं। महावीर समाज से मुक्त हैं, विरोधी नहीं। और तुम अकेलेपन की परिपूर्णता है। इससे यह भी मत समझ लेना कि मार्क्स समाज का पक्षपाती है। तुम इतने अकेले हो कि अकेलेपन का भी पता नहीं चलता। समाज में है, लेकिन समाज का पक्षपाती नहीं है। यह जरा पता चलाने को तो दूसरे की थोड़ी-सी मौजूदगी चाहिए-छाया जटिल है। विरोधाभास मालूम होगा। सही, स्मृति सही। अपने घर की तुम्हें दीवाल बनानी होती है, तो इसे फिर से मैं दोहरा दूं। महावीर अपने स्वार्थ को इतनी पड़ोसी चाहिए। पड़ोसी के बिना कहां तुम सीमा-रेखा गहनता से साधते हैं कि उनके स्वार्थ में सबका स्वार्थ सध ही खींचोगे? पड़ोसी न भी प्रवेश कर सके तुम्हारी भूमि में तो भी जाता है; उसको अलग से साधने कि जरूरत नहीं रह जाती। पड़ोसी के बिना तुम अपनी भूमि किस भूमि को कहोगे? तो जहां | जहां महावीर विचरण करते हैं, वहां भी सुख की किरणें छिटकने तक अकेलेपन का पता चले वहां तक अकेलापन शुद्ध नहीं लगती हैं। जहां वे मौजूद होते हैं, वहां भी आनंद की लहरें हुआ-दूसरा मौजूद है; किसी अंधेरे कोने में खड़ा है; दूर सही बिखरने लगती हैं। पर मौजूद है। उसकी भनक पड़ेगी, उसकी छाया होगी; | जो आनंदित है, वह आनंद की लहरें अपने चारों तरफ पैदा प्रतिध्वनि होगी। करता है। जो दुखी है, वह दुख की लहरें पैदा करता है। तुम इसे समझना। आत्मवान तुम तभी हो सकोगे, जब दूसरे की दुखी हो, तो तुम लाख चाहो कि दूसरे को सुख दे , दोगे कहां छाया की भी जरूरत तुम्हारी परिभाषा के लिए न रह जाए। तभी से? लाओगे कहां से? अपने लिए न जुटा पाए, दूसरे को कहां तुम आत्मा हो जब तुम दूसरे से मुक्त हो। दोगे? दूसरे को तो देने की संभावना तभी है, जब इतना हो अगर तुम्हें अपनी आत्मा की अनुभूति के लिए भी दूसरे का तुम्हारे पास कि तुम्हारी समझ में न आता हो कि क्या करें; जब हारा लेना पड़ता है तो वह अनुभूति भी निर्भर हो गई, वह इतना हो तुम्हारे पास, बाढ़ की तरह कि कूल-किनारों को तोड़कर अनुभूति भी सांसारिक हो गई। बहा जाता हो; तुम इतने भरे हो आनंद से कि न लुटाओगे तो इसलिए आत्मा की गहनतम स्थिति में 'मैं' का भी पता न करोगे क्या? बादल जब भर जाता है जल से, तो बरसता है। चलेगा, क्योंकि 'मैं' के लिए तो 'तू' का होना जरूरी है। 'तू' फूल जब भर जाता है गंध से, तो गंध को लुटाता है। दीया जब के बिना 'मैं' का क्या अर्थ? कैसे कहोगे 'मैं?' जब भी रोशनी से जगमगाता है, भरा होता है, तो रोशनी लुटाता है। कहोगे 'मैं', 'तू' आ जाएगा; 'तू' पीछे के दरवाजे से प्रवेश करोगे क्या? कर जाएगा। जो व्यक्ति आनंद को उपलब्ध हुआ, वह एक आनंदित समाज इसलिए आत्मा का अर्थ अहंकार मत समझना, अस्मिता मत का आधार बनता है-लेकिन चेष्टा से नहीं-अनायास। समझना। आत्मा तो तभी परिपूर्ण होती है जब 'मैं' का भी भाव सहज ही। विलीन हो जाता है। न कोई 'मैं' बचता, क्योंकि बच ही नहीं | सोचकर नहीं, विचारकर नहीं। वह कोई समाजवादी थोड़े ही सकता-'तू' ही नहीं बचा। कोई पर नहीं बचता, तभी तुम होता है। ऐसा घटता है। जब भीतर के केंद्र पर अहर्निश वर्षा शुद्ध होते हो; इतने अकेले होते हो कि तुम्हीं पूरा होती है, तो बाढ़ आती है। अमृत बरसता है तो बाढ़ आती है। आकाश-असीम-होते हो। | फिर बाढ़ आती है तो लुटना भी शुरू हो जाता है। महावीर परम स्वार्थी हैं। जो दूसरे को सुखी करने की चेष्टा में लगा है, उस पर जरा गौर सभी धर्म अपनी पराकाष्ठा में स्वार्थी होते हैं; क्योंकि धर्म का करना। तुमने भी दूसरे को सुखी करने की चेष्टा की है—कर बुनियादी आधार व्यक्ति है, समाज नहीं। यहीं तो राजनीति और पाए? कर इतना ही पाए कि उसे और दुखी कर दिया। पति 186 Lain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :