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________________ हला सूत्र : रत्तीभर भेद नहीं है। तो जो मझे प्रीतिकर है वही दूसरे को अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। प्रीतिकर है। जो दूसरे को प्रीतिकर है वही मुझे प्रीतिकर है। मैं अप्पा मित्तममित्तं च, दप्पट्टिय सप्पट्टिओ।। और दसरा दो अलग-अलग आयाम नहीं एक ही चैतन्य के 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता है। और आत्मा ही सुख-दुख दो रूप हैं; एक ही स्वभाव के दो संघट हैं। कर्ता है। सत्प्रवत्ति में स्थित आत्मा अपना ही मित्र पर महावीर की शिक्षा परम स्वार्थ की है। परार्थ की तो वे बात और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा अपात्तम स्थित आत्मा अपना ही शत्र है। ही नहीं करते। परार्थ की वे बात ही कैसे करेंगे। 'पर' को तो वे महावीर के चिंतन का सारा विश्व आत्मा है। महावीर के उड़ने कहते हैं, खयाल ही छोड़ दो। परार्थ के लिए भी पर का खयाल का सारा आकाश आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त और कुछ भी | रखा तो पर से उलझे रह जाओगे। पर ही तो संसार है। दूसरे पर नहीं है। आत्मा से अन्यथा को कोई भी स्थान महावीर की धारणा | ध्यान रखना ही तो संसार है। दूसरे से अपने ध्यान को मुक्त कर में नहीं है। न संसार का कोई मूल्य है, न परमात्मा का कोई मूल्य लेना समाधि है। अपने पर लौट आए, अपने घर आ गए। है-दूसरे का कोई मूल्य ही नहीं है। मूल्य है तो अपना। अपना ध्यान अपने में ही लीन कर लिया। अपने से पार अब अगर ठीक से कहें और गलत न समझें तो महावीर से बड़ा | कुछ भी न बचा, जिसका कोई मूल्य है। स्वार्थी आदमी कभी हुआ नहीं। लेकिन गलत मत समझ लेना। इसलिए तो महावीर ने परमात्मा को स्वीकार न किया। क्योंकि स्वार्थ का अर्थ होता है : अपना अर्थ, अपना प्रयोजन। स्वार्थ परमात्मा को स्वीकार करने का तो अर्थ ही होता है, दूसरा का अर्थ होता है : अपना हित, अपना कल्याण, अपना मंगल। | महत्वपूर्ण बना ही रहेगा। वस्तुओं से छूटेंगे, दुकान से छूटेंगे तो जो स्वार्थ को पूरा साध लेते हैं उनसे परार्थ अपने आप सध जाता मंदिर महत्वपूर्ण हो जाएगा। धन से छटेंगे तो धर्म महत्वपूर्ण हो है। क्योंकि जो अपने हित में करता है वह दूसरे के अहित में जाएगा। पद से छूटेंगे तो परमात्मा का पद, परमपद, उसकी कभी कुछ कर ही नहीं पाता। क्योंकि जिसने अपने हित को आकांक्षा पैदा हो जाएगी। लेकिन हर हालत में दूसरा महत्वपूर्ण पहचानना शुरू किया, वह धीरे-धीरे जानने लगता है : जो अपने बना रहेगा। और महावीर का गहरा विश्लेषण यह है कि जब हित में है वह दूसरे के हित में भी है; और जो अपने हित में नहीं तक दसरा है तब तक संसार है। है, वह दूसरे के हित में भी नहीं है। इससे विपरीत भी, कि जो | जब तुम अकेले हो—इतने अकेले कि तुम्हें अकेलेपन का पता दूसरे के हित में नहीं है, वह अपने हित में नहीं हो सकता; और भी नहीं चलता; अगर अकेलेपन का पता चलता हो तो दूसरा जो दूसरे के हित में है वही अपने हित में हो सकता है। क्योंकि . अभी मौजूद है। अकेलेपन का पता तभी चलता है जब दूसरे की जैसा ही आत्मा है। मेरे और दूसरे के स्वभाव में याद आती है, जब दूसरे की आकांक्षा जगती है। दूसरे की कमी 1851 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340109
Book TitleJinsutra Lecture 09 Anukaran Nahi Aatm Anusandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size44 MB
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