Book Title: Jinsutra Lecture 06 Tum Mito to Milan Ho
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठवां प्रवचन तुम मिटो तो मिलन हो Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-सार श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी है, अभी तक मेरा श्याम नहीं आया। मुझे उसके दर्शन कराना! नककटे साधु की कहानी...क्या आपके संन्यासियों की यही स्थिति नहीं है? भीतर विचारों की भीड़ है और अहंकार से विक्षुब्ध हूं...? बेमुरौअत बेवफा बेगाना-ए-दिल आप हैं।...? बहुत शुक्रिया बहुत मेहेरबानी मेरी जिंदगी में हुजूर आप आए Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 / हला प्रश्न: है-बाहर भी वही, भीतर भी वही। शाम शाम कूकदी नूं जिंदगी दी शाम होई। | जिसे तुम रट रहे हो, वह तो परमात्मा है ही: जो रट रहा है, वह आया नहीं शाम मेरा, ओसनं मिलायो जी।। भी परमात्मा है। तो रटन में ज्यादा मत उलझ जाना। पुनरुक्ति 'श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी है, अभी तक कहीं मन को बहुत ज्यादा ग्रसित न कर ले! रटन पर बहुत ज्यादा मेरा श्याम नहीं आया। मुझे उसके दर्शन कराना।' भरोसा मत कर लेना। उपयोगी है. लेकिन कछ और भी आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो! कहीं चूक न जाऊं! चाहिए। वह है बोध। वह है ध्यान। 'श्याम-श्याम रटते ही जीवन की सांझ हो गई। अभी तक परमात्मा को पाना मात्र रटन की बात नहीं है। रटने से ही होता मेरा श्याम नहीं आया।' होता तो बड़ा आसान होता। रट तो तोते भी लेते हैं। बोध नहीं, पहचान तुम्हारे पास नहीं, श्याम तो बहुत बार आया। चाहिए! अकेली रटन काम न देगी। रटन ठीक है, उपयोगी है, | श्याम तो आता ही रहा। श्याम तो आता ही रहता है। उसके बहुमूल्य है-लेकिन बोध से संयुक्त हो तभी; अन्यथा रटन सिवाय और कोई है ही नहीं जो आये। जो भी आया है उसमें यांत्रिक हो जाती है। कोई रटता रहता है श्याम-श्याम-श्याम, | श्याम ही आया है। कोई और तो आयेगा कैसे? सभी उसके लेकिन इस रटन के पीछे और हजार विचार चलते रहते हैं। यह | रूप हैं। सभी उसके ढंग हैं। सभी उसके रंग हैं। फूल में भी रटन धीरे-धीरे अभ्यास हो जाती है। इसे करने के लिए, रटने के वही। पत्तों में भी वही। पहाड़ों-पत्थरों में भी वही। लिए, किसी बोध की जरूरत ही नहीं रह जाती; यंत्रवत सरकती | पशु-पक्षियों में वही। स्त्री-पुरुषों में वही! जहां 'कुछ' है, वही रहती है। तुम न भी चाहो तो होती रहती है। और भीतर गहरे है; और जहां कुछ भी नहीं है, वहां भी वही है। इसलिए तलों पर हजार-हजार विचार चलते रहते हैं, हजार वासनाएं आने-जाने की भाषा तो हमारे मन की भाषा है। चलती रहती हैं। जब तक वे भीतर के तल पर विचार और परमात्मा है : न आता न जाता। जो 'है' उसका ही नाम वासनाएं खो न जायें, जब तक रटन अकेली न रह जाये, श्याम परमात्मा है—जो सदा है, जिसमें कोई गति नहीं है, जिसमें कोई के लिए पुकार उठे तो बस पुकार हो, भीतर कुछ और न प्रक्रिया-क्रिया नहीं है, जो 'मात्र होना' है! इस क्षण भी तुम्हें हो-तब तो पुकारने की भी जरूरत न पड़ेगी, बिन पुकारे उसी ने घेरा है। तुम राह किसकी देखते हो? कहीं राह देखने में परमात्मा पास आ जाता है। ही तो नहीं चूक रहे हो? क्योंकि जब आंखें किसी की राह देखती परमात्मा कभी दूर गया नहीं। जो दूर चला जाये वह परमात्मा हैं, तो और सब चूक जाता है। तुम अगर अपनी प्रेयसी की राह नहीं। वह सदा तुम्हारे पास है। सब तरफ से उसने ही तुम्हें घेरा देख रहे हो द्वार पर बैठकर, तो फिर और कोई नहीं दिखायी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसत्र पड़ता। राह चलती रहती है। लोग गुजरते रहते हैं। तुम और पहचानेंगे। तू हमें धोखा न दे पायेगा! तू धनुष-बाण लेकर सबके प्रति अंधे हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारा मन एकाग्र आयेगा, कोई हर्ज नहीं, तो भी पहचानेंगे। तू मुरली हाथ में है-किसी वासना में, किसी कामना में, किसी आकांक्षा में, लेकर आयेगा तो भी पहचानेंगे। तू महावीर की तरह नग्न खड़ा अभीप्सा में, तुम एकजुट एकाग्र हो। तुम राह देखते हो किसी हो जायेगा, न धनुष-बाण होंगे न मुरली होगी, तो भी हम चेहरे की। पहचानेंगे। तू जीसस की तरह सूली पर लटक जायेगा, तो भी तो श्याम तो तुमने पुकारा होगा, लेकिन तुम किसी चेहरे की हमें धोखा न दे पायेगा! राह देख रहे हो-बांसुरी धरे हुए आयेगा, मोर-मुकुट लगाकर धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं, जिसने परमात्मा को आयेगा। तो तुम चूके! तुम्हारी इस आकांक्षा में ही, तुम्हारी इस चुनौती दे दी कि अब तू हमें धोखा न दे पायेगा, हम पहचान ही धारणा में ही पर्दा है। तुम्हारी कोई निश्चित मनोदशा है, जिसमें लेंगे! तू जिस रूप में आये, आ जाना; क्योंकि हमने अब एक तुम मांग कर रहे हो, ऐसा होना चाहिए। बात समझ ली है कि सभी रूप तेरे हैं। कहते हैं, तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले गये, तो वे झुके | फिर तुम कैसे चूकोगे? फिर जिंदगी की शाम कभी न होगी। नहीं। तुलसीदास जैसा समझदार आदमी भी नासमझी कर फिर जिंदगी सदा सुबह ही बनी रहेगी। गया। झुके नहीं, क्योंकि वे राम के भक्त थे, कृष्ण की मूर्ति के शंकराचार्य के जीवन में एक उल्लेख है। सामने झुकें कैसे! खड़े रहे, अड़े रहे। वे तो एक को ही पहचानते कल ही मैं सांझ उनकी कहानी कह रहा था। शिष्यों को समझा थे-धनुर्धारी राम को। यह मुरली-मुरारि को, यह मुरलीधारी | रहे हैं। कुछ ऐसा उलझा हुआ प्रश्न खड़ा को, वे पहचानते न थे, मानते भी न थे। कैसे झुकें! दीवाल पर कलम उठाकर एक चित्र बनाया-समझाने के कहानी बड़ी मधुर है। कहानी यह है कि उन्होंने कहा कि तुम लिए। चित्र में बनाया एक वृक्ष-बोधिवृक्ष। उसके नीचे जब धनुष-बाण हाथ लोगे, तभी मैं झकंगा, नहीं तो मैं न बैठाया एक युवा संन्यासी को-गुरु की तरह। और फिर उस झुकुंगा। मैं तो एक का ही भक्त हूं। चित्र के आसपास, युवा संन्यासी के आसपास, बिठाये बड़े बूढ़े कहानी कहती है कि तुलसीदास के लिए कृष्ण ने हाथ में शिष्य, जीर्ण-जर्जर, बड़े प्राचीन! एक शिष्य ने खड़े होकर धनुष-बाण लिया, मूर्ति बदली। मुरली खो गई, मोर-मुकुट खो कहा, 'यह आप क्या कर रहे हैं? शा गया, धुनर्धारी राम प्रगट हुए-तब, तब तुलसीदास झुके। मैं युवक संन्यासी को गुरु और इन बूढ़े वृद्ध ऋषि-मुनियों को नहीं मानता हूं कि मूर्ति बदली होगी। तुलसीदास ने ही कोई शिष्य! आपसे कुछ गलती हो गई है।' सपना देखा होगा। शंकर ने कहा, गलती नहीं हुई, जानकर बना रहा हूं। क्योंकि कहीं परमात्मा तुम्हारे पक्षपातों के अनुसार ढलता है ? तुम | शिष्य सदा बूढ़ा है। क्योंकि शिष्य का अर्थ है : मन। मन बड़ा परमात्मा को आज्ञा दे रहे हो? तुम परमात्मा को कह रहे हो कि प्राचीन है। मन बड़ा पुराना है। मन यानी पुराना। मन यानी अगर मेरी स्तुति चाहिए हो तो इस ढंग से आ जाओ! ऐसे पीत अतीत। मन यानी जो हो चुका, उसकी धूल-धवांस; जो जा वस्त्र पहनकर, पीतांबर होकर खड़े होना; ऐसा नील वर्ण हो चुका उसके रेखा-चिह्न; जो बीत चुका उसके पद-चिह्न। तुम्हारा, ऐसी तुम्हारी आंखें हों, इस तरह से खड़े होना। तुम मन का अर्थ ही है : जो बीत चुका, उसकी लकीरें। बड़ा पुराना मद्रा, ढंग, रूप-रंग, सब तय किये बैठे हो, इसलिए परमात्मा से है मन! / चूक रहे हो। लोग धार्मिक होने के कारण धर्म से चूक रहे हैं। शिष्य के पास मन है। गुरु का मन खो गया है, तो अतीत खो क्योंकि धार्मिक होने में वे सांप्रदायिक हो गये हैं और उन्होंने एक गया। तो शंकर ने कहा, 'गुरु तो सदा नित-नवीन है, युवा है, रुख पकड़ लिया है। किशोर है।' इसलिए तुमने देखा! राम की तुमने कोई बूढ़ी मेरी सारी चेष्टा यहां यही है कि तम्हारे पक्षपात विसर्जित हो / प्रतिमा देखी? बढे कभी तो हए होंगे। कोई जगत नियम तो नहीं जायें। तुम मांग न करो। तुम कहो, तू जिस रूप में आयेगा, हम बदलता—किसी के लिए नहीं बदलता। कृष्ण की तुमने बूढ़ी 116 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो प्रतिमा देखी? निश्चित बूढ़े हुए थे, अस्सी वर्ष के हो गये थे, रटन में इतने लीन हो कि तुम्हें फुर्सत कहां कि तुम जरा आंख तब तीर लगा और मरे। बुद्ध की तुमने बूढ़ी प्रतिमा देखी? खोलो और देखो कि कौन आया है! रटन जब वस्तुतः हार्दिक महावीर की तुमने बूढ़ी प्रतिमा देखी? नहीं, हमने कोई बूढ़ी होती है तो रटन होती ही नहीं। आवाज कहां उठती है। बोल उनकी प्रतिमा नहीं बनायी। इसलिए नहीं कि वे बूढ़े नहीं हुए थे; कहां उठते हैं! सब खो जाता है, सन्नाटा हो जाता है। बूढ़े तो हुए थे, लेकिन हम पहचान गये कि उनके भीतर जो घटा परमात्मा की खोज में निकले खोजी, परमात्मा को पाने के था वह नित नवीन था। सद्यःस्नात! अभी-अभी नहाया हआ। पहले खद खो जाते हैं। इसी क्षण जन्मा! वे ही उसे पाते हैं जो अपने को खो देते हैं। मन तो पुराना है। मन की धारणाएं पुरानी हैं। परमात्मा रटन का हिसाब छोड़ो। माला कितनी जपी, यह फिक्र छोड़ो। प्रतिपल नया है-नयी फटती कोंपल की भांति! नयी खिलती कितनी बार उसका नाम लिया, यह फिक्र छोड़ो। कली की भांति! मैं एक घर में मेहमान था। तो पूरा घर शास्त्रों से भरा पड़ा था। छोड़ो धारणाएं मन की, तो तुम उसे सब तरफ से आते तो मैंने कहा, 'बड़े शास्त्र हैं, क्या मामला है? कौन-कौन से पाओगे। हर पगध्वनि में उसी की पगध्वनि सुनायी पड़ेगी। शास्त्र हैं।' उन्होंने कहा, 'कुछ नहीं, सब शास्त्रों में राम-राम कोयल के मधुर कंठ में ही नहीं, कौवे की कांव-कांव में भी वही | लिखा है।' वे जिनके घर मैं ठहरा था, वे राम-भक्त थे। तो है। और जब तक तुम कौवे में न पहचान पाओगे, तब तक तुम | उनका काम ही है यह चौबीस घंटे, वे और कोई काम नहीं करते, जानना, पहचान पक्की न हुई। राम में ही नहीं, रावण में भी वही वे किताब लिये बैठे रहते हैं : राम-राम-राम-राम....। हजारों है। और जब तक तुमने कहा कि रावण में नहीं है, तब तक तुम किताबें उन्होंने खराब कर दी हैं। मैंने उनसे कहा, बच्चों को दे राम में भी न पहचान पाओगे।। | देते, पढ़ने के काम आ जातीं, स्कूल में बांट देते-ये तुमने तुलसीदास ने तो हद्द कर दी नासमझी की! कृष्ण में भी न | खराब क्यों कर दीं? अपना भी समय खराब किया। और मैंने पहचान पाये राम को, तो रावण में तो कैसे पहचान पायेंगे! उनसे कहा, देखो तुम ऐसे लिखते रहते हो चश्मा चढ़ाये, क्योंकि महाकवि रहे होंगे, जाग्रत पुरुष नहीं। काव्य की महिमा है आंखें धुंधली हो गई हैं, बूढ़े हो गये-राम कई दफे आता है, उनकी। बड़े सुंदर उनके वचन हैं। लेकिन कहीं कुछ चूका-चूका लौट जाता है। तुम्हें कभी फुर्सत में नहीं पाता। तुम्हें राम-राम है, कहीं कुछ खोया हुआ है-अनुभव खोया हुआ है। लिखने से फुर्सत मिले, तब न! राम हटे तो राम मिले! श्याम फिर जीवन की कभी शाम न होगी, अगर परमात्मा से पहचान | हटे तो श्याम मिले! तुम मिटो तो मिलन हो! हो गयी। जीवन की सांझ होती है, सुबह होती है, परिवर्तन होता थक थक के हर मुकाम पे दो-चार रह गये है, जन्म और मौत होती है; क्योंकि उससे हमारी पहचान नहीं हो तेरा पता न पाएं तो नाचार क्या करें! पाती, जो सनातन है, शाश्वत है। यह तसव्वुफ की भाषा है, प्रेम की, सूफियों की! 'शाम शाम कूकदी नूं जिंदगी दी शाम होई। थक थक के हर मुकाम पे दो-चार रह गये। आया नहीं शाम मेरा, ओस नूं मिलायो जी।।' परमात्मा की खोज में जो निकलता है, एक घड़ी आती है थक श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी, अब तो जागो! जाता है, खो जाता है। रटन से कुछ भी न होगा। देखो! दर्शन चाहिए! आंख चाहिए! थकथक के हर मुकाम पे दो-चार रह गये। तुम्हारी रटन के कारण ही श्याम बहुत बार आया और लौट | तेरा पता न पाएं तो नाचार क्या करें। गया। उसने कहा, अरे! यह तो अभी भी रट रही है। अभी भी हम असहाय करें भी क्या, तेरा पता तो मिलता नहीं। खाली नहीं है! अभी भी मन इसका मुक्त नहीं है, शांत नहीं है! खोजते-खोजते खुद ही खो जाते हैं, अपना ही पता खो जाता है। अभी भी किसी श्याम-श्याम, को रट रही है! लेकिन जिस क्षण अपना पता खो जाता है, उसी क्षण सब तुम्हारी रटन के कारण ही तो पर्दा खड़ा हो गया है। तुम अपनी | | दिशाओं से उसकी मंगल वर्षा होने लगती है। मंगल वर्षा तो Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 RTER पहले भी हो रही थी, लेकिन हम भरे थे, हम किन्हीं खयालों से खोने की तैयारी करो! मिटने की तैयारी करो! एक-एक इंच दबे थे। अपने को गलाओ। ईश्वर की सभी धारणाएं छोड़ दो अगर ईश्वर को चाहते हो। | खोजनेवाला खो जाये, यही शर्त है उसे पाने की। अगर सत्य को पहचानना है तो शास्त्र को हटाओ। अगर उसे और फिर से तुम्हें दोहरा दूं, परमात्मा आता-जाता नहीं। देखना है जो अभी खड़ा है तुम्हारे सामने; जो हवा के झोंके में आने-जाने की क्रिया संसार है। सदा होने की स्थिति परमात्मा तुम्हें सहला गया हैजो पक्षियों के कलरव में तुम्हें बुला रहा है; है। जो आता है जाता है, उसी को तो हम मन कहते हैं। जो न सूरज की किरण में जिसने अपना हाथ फैलाया है और तुम्हारा | आता न जाता, जो सदा है, वही तो चैतन्य है। बादल आते हैं, स्पर्श किया है-अगर उसे देखना है, उस सहस्रबाहु को, उस घिरते हैं, घुमड़ते हैं, नाचते हैं, बिजलियां चमकती हैं, फिर विदा अनंत को, तो तुम सारी धारणाओं को हटाओ। तुम नग्न हो | हो जाते हैं! अब आषाढ़ आता है जल्दी; घिरेंगे बादल, घुमड़ेंगे, जाओ, निर्वस्त्र धारणाओं से बिलकुल निर्वस्त्र। यही तो घड़ी भर को बड़ा रौरव मचायेंगे, बड़ा शोरगुल करेंगे-फिर जा महावीर होने का अर्थ है-निग्रंथ, नग्न, दिगंबर! | चुके होंगे। जो बचा रहता है वही आकाश है। कितनी बार जैनों ने बड़ी उलटी बात पकड़ ली। वे समझे कि बस वस्त्र बादल घिरे और कितनी बार गये। आये और गये-वही संसार छोड़कर नग्न खड़े हो जाने पर महावीर की नग्नता पूरी हो जाती है। जो बचा रहा है पीछे, अछूता, अस्पर्शित, पोखर के कमल है। महावीर की नग्नता तब पूरी होती है जब चित्त के सारे वस्त्र के पत्तों जैसा, जिस पर कोई बादल की छाया भी न छटी और उतर जाते हैं। जिसे बादल मलिन भी न कर पाये, जिस पर बादलों की स्मृति तुमने कृष्ण की कहानी पढ़ी है? गोपियां स्नान कर रही हैं, वे भी नहीं है...! उनके वस्त्र चुराकर वृक्ष पर बैठ गये हैं। अश्लील मालूम होती आज आकाश को देखो, तो क्या तुम सोचोगे इस पर है। आज करें तो पुलिस पकड़ेगी। चल गई उन दिनों, अब न अरबों-खरबों वर्षों से बादल घिरते रहे हैं? निष्कलुष! निर्मल! चलेगी। और स्त्रियां ही मुश्किल में डाल देंगी। लेकिन कहानी कुंआरा! कुंआरा का कुंआरा! इसका कुंआरापन कभी भी का अर्थ बड़ा गहरा है। कृष्ण यह कह रहे हैं, जो मेरे प्रेम में खंडित नहीं हुआ। बादल आये और गये, इसके पास उनकी पड़ेगा उसके मैं वस्त्र छीन लूंगा। गोपी यानी जो उनके प्रेम में है। कोई स्मृति भी नहीं है। कृष्ण कह रहे हैं कि तुम्हारे वस्त्र छीन लूंगा, तुम्हें निर्वस्त्र ऐसा ही है परमात्मा। हम आते हैं जाते हैं परमात्मा है। करूंगा। कृष्ण कह रहे हैं कि जब तक तुम्हारे पास कुछ भी है। हम बहुत बार आये हैं, बहुत बार गये हैं-आषाढ़ के तुम्हारा, जिसमें तुम अपने को छिपा लो, तब तक मझसे मिलन बादल-कभी बहुत शोरगुल मचाया-नेपोलियन, चंगेज, न हो सकेगा। तैमूर! कभी चुपचाप भी आकर चले गये-कपसीले वस्त्र का अर्थ होता हैजिसमें तुम अपने को छिपा लो, ढांक बादल-कोई शोरगुल भी न मचाया, वर्षा भी न की, साधारण! लो। निर्वस्त्र होने का अर्थ है छिपाने को कुछ भी न रहा, ढांकने कभी बिजलियां कौंधी, बड़ा रौरव किया, बड़ा रौद्र रूप को कुछ भी न रहा; हमने खोला अपना हृदय, सारे शब्द, सारे दिखाया; कभी चुपचाप सपनों जैसे तैर गये, न कोई रौरव नाद सिद्धांत हटा डाले। तुम जब कहते हो, मैं हिंदू हूं, तो तुम मन पर किया, न कोई शोरगुल मचाया, किसी को पता भी न चला! कुछ वस्त्र पहने हुए हो। तुम्हारा मन नग्न नहीं। तुम्हारी चेतना कभी इतिहास बनाया उपद्रव का, कभी चुपचाप गुजर गये, का कुछ आवरण है। जब तुम कहते हो, मैं जैन हूं, तब तुम सत्य कानों-कान किसी को खबर भी न मिली आने-जाने की। पर हर के लिए खुले नहीं। तुम कहते हो, सत्य के प्रति मेरी कुछ धारणा | हालत में हम आये और गये। है; जब सत्य उस धारणा को पूरा करेगा तो ही मैं मानूंगा कि सत्य उसे जानना है, जो न आया और न गया। है: तुम भटकोगे फिर। एक सांझ नहीं, हजारों सांझ होंगी झेन फकीर हुआ H तोझान ओसो! वह बड़ा बहुमूल्य फकीर रटते-रटते, पहुंचना न होगा। था! कहते हैं जब तोझान ओसो समाधि को उपलब्ध हुआ, 1118 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो परमज्ञान को उपलब्ध हुआ, निर्वाण पा लिया उसने, खो गया यह कोई कंजूसी नहीं है। अर्थशास्त्र से इसका कोई लेना-देना सब भांति, बचा वही जो सदा है तो कहते हैं, देवलोक में नहीं है। इसका संबंध तो बड़े अध्यात्म से है। प्रत्येक चीज का देवता आतुर हुए तोझान को देखने को—होना ही चाहिए। सम्मान! तो भोजन करते वक्त भोजन को भी नमस्कार कर के ही क्योंकि देवता कितने ही सुंदर हों, अभी बादल ही हैं; कितने ही भोजन शुरू करना है। भोजन करते वक्त पहले परमात्मा को स्वर्णमंडित हों, अभी बादल ही हैं; कितने ही सुखमय हों, अभी भोग लगा देना है, तब भोजन शुरू करना है। आज फिर उसने सपने में ही हैं। उत्सुक हुए तोझान का चेहरा देखने को। जब भी अवसर दिया! आज फिर घड़ी आई भोजन की! एक दिन और कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो देवता उत्सुक होते हैं। मिला ! उसकी अनुकंपा अपार है-ऐसे भाव से।। उनको भी आकांक्षा जगती है। क्योंकि यह परम घटना घटी। तो तो किसने फेंके ये चावल के दाने? आश्रम में ऐसा कभी भी न देवता आये तोझान के आश्रम में। उन्होंने सब तरफ से चेष्टा की हुआ था। तो तोझान के मन में विचार उठा देखकर, किसने फेंके तोझान को देखने की, पहचानने की; लेकिन कोई चेहरा दिखायी ये चावल के दाने, किसने फेंके ये गेहूं। कहते हैं, उसी वक्त न पड़े। आकाश का कहीं कोई चेहरा है! बादल हो तो रूप-रंग, देवताओं ने उसके दर्शन कर लिये। क्योंकि जब विचार उठा तो रेखा, आकृति...। आकाश तो निराकार है। तोझान तो बादल घिरा। जब बादल घिरा तो आकृति आ गई। उस वक्त आकाश हो गया। उन्होंने सब तरफ से...उसके भीतर गये, पकड़ लिया देवताओं ने तोझान को। एक क्षण को ही उठी लहर, बाहर गये, सब तरफ से खोजा, कुछ भी न पाया। सन्नाटा है, | पर उठ गई। एक क्षण को कुछ सघन हो गया, भीतर एक तनाव अनंत सन्नाटा है, शून्य है! वे बड़े चिंतित हुए कि क्या हमें दर्शन आ गया : किसने, क्यों फेंके ये? यह कैसी गैर-सावधानी है? न होंगे। उसी में से गुजरते थे और उसके दर्शन न हो रहे थे। उसी| यह कौन है जो असावधानी से जी रहा है? एक प्रश्न उठ गया। के आसपास परिक्रमा कर रहे थे और उससे पहचान न हो रही एक समस्या आ गई। एक चिंता आ गई। बादल घिरे। क्षणभर थी! भीतर-बाहर आ जा रहे थे, लेकिन सब सूना सन्नाटा था। को सब अंधेरा हो गया। उस क्षण में देवताओं ने दर्शन कर मंदिर ही बचा था, प्रतिमा तो खो गई थी–दर्शन किसके हों! लिये। फिर खुल गये बादल। राम बचा था, धनुष-बाण खो गये थे, प्रतिमा खो गई थी। कृष्ण तोझान हंसा। उसने कहा, 'तो अच्छा, यह शरारत है।' बचा था, बांसुरी न बची थी, गीता न बची थी। गीता पर रखी उसने देवताओं से कहा, 'अच्छा तो यह शरारत है!' क्योंकि बांसुरी खो गई थी। जब तोझान का चेहरा आया और देवताओं ने तोझान को देखा, आखिर देवताओं में जो सब से ज्यादा कुशल था, उसने कहा, / तो तोझान ने भी देवताओं को देख लिया। उसने कहा, 'अच्छा, 'ठहरो! कुछ उपाय करना पड़ेगा। ऐसे तो दर्शन न होंगे।' तो यह तुम्हारी शरारत है!' तोझान घूमने निकला था। सुबह की बेला! नया-नया ऊगा जरा-सा विचार, और तनाव पैदा हो जाता है। निर्विचार, कि सूरज! पक्षियों के गीत! तोझान लौट रहा था आश्रम की तरफ। आकाश पैदा हो जाता है। उस चालाक देवता ने आश्रम के चौके से कुछ चावल मुट्ठियों में तो श्याम-श्याम रटने से कुछ भी न होगा। रटन ही तनाव भर लिये, कुछ गेहूं मुट्ठी में भर लिये और आकर तोझान के रास्ते बनेगी, बादल बनेगी। राम चदरिया ओढ़ लेने से कुछ भी न पर उन्हें फेंक दिया। होगा। सब चादर उतार देनी है। __ अब...झेन आश्रम में बड़ी सावधानी बरती जाती है। क्योंकि जिस क्षण तुम्हें पता भी न रहेगा कि परमात्मा की प्रतिमा कैसी, प्रत्येक चीज का अपरिसीम सम्मान है। अन्न तो ब्रह्म है। नाम भी याद न रहेगा कि उसका नाम क्या है, उसका धाम क्या इसलिए कोई झेन साधु, कोई झेन साधक ऐसे चावल और गेहं है, पता-ठिकाना क्या है; जिस क्षण तुम अबझ, को फेंक नहीं सकता रास्ते पर। इसमें कोई अर्थशास्त्र का सवाल आश्चर्यचकित, अवाक, मौन, निराकार में खड़े हो नहीं है। यह कोई गांधीवादी बचायत और किफायत नहीं है। यह जाओगे-फिर कोई सांझ न होगी; फिर सुबह ही सुबह है। सवाल नहीं है। सवाल यह है कि प्रत्येक चीज का समादर है। परमात्मा के जगत में सुबह ही सुबह है; आदमी के जगत में 119 www.jainelibra y.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग सांझ ही सांझ है। आदमी के जगत में सुबह होती है सिर्फ सांझ उजाड़ रेगिस्तान जैसा था। एक उसे पाने के बाद का दुख। को लाने के लिए। आदमी के जगत में जन्म होता है केवल मृत्यु | क्योंकि पाने के बाद, और पाने की अदम्य लालसा जगती है। की तरफ जाने के लिए। यहां जन्म भी मौत की तरफ एक कदम यह कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि पूरी हो जाती है कभी। है। यहां सुख भी केवल दुख को पाने की व्यवस्था है। परमात्मा परमात्मा कुछ ऐसा थोड़े ही है कि पा लिया, पा लिया। इधर तो के जगत में फिर कोई सांझ नहीं है, वह तो सदा ही मौजूद है। पाया कि और भी पाने की आकांक्षा जगती है। यह तो सागर उलटा उधर नकाब तो परदे इधर पड़े अंतहीन है। इसका कोई कूल-किनारा नहीं है। आंखों को बंद जलवए-दीदार ने किया। जाहिरा दुनिया जिसे महसूस कर सकती नहीं तुम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? उसका ही जलवा है। उसके | हो गई है मुझमें इक ऐसी कमी तेरे बगैर।। ही दर्शन की रोशनी है सब तरफ। तुम किसे खोजते हो? कहीं। मगर यह तो जानने के बाद की बात है। जानने के पहले तो हमें उसकी रोशनी के कारण तुम आंखें बंद किये तो नहीं बैठे? पता ही नहीं कि हम क्या खो रहे हैं। जानने के पहले तो हमें पता उलटा उधर नकाब तो परदे इधर पड़े। ही नहीं है कि हम सम्राट हैं और भिखारी की तरह भटक रहे हैं। परमात्मा जैसे ही अपना घूघट उठाता है, तुम्हारी आंखें बंद हो जानने के बादजाती हैं। जाहिरा दुनिया जिसे महसूस कर सकती नहीं उलटा उधर नकाब तो परदे इधर पडे हो गई है मुझमें इक ऐसी कमी तेरे बगैर आंखों को बंद जलवए-दीदार ने किया। तुझसे छुटकर कितना फीका पड़ गया है रंगेगुल उसकी रोशनी तुम झेल नहीं पाते, आंख बंद कर लेते हो। हो गई बेले की कलियां सांवली तेरे बगैर जिस दिन तुम उसकी रोशनी झेल पाओगे, कंकड़-पत्थर में भी कल जहां जर्रा-जर्रा तूरदर आगोश था उसे छिपा पाओगे। कंकड़-पत्थर मानकर तुमने अपनी आंखें आज इस घर में नहीं है रोशनी तेरे बगैर बंद कर ली हैं। फिर से खोलो। आंख खोलो! दर्शन को दिल नहीं झुकता है पहले की तरह सजदों के साथ उपलब्ध होओ! नामुकम्मिल है मजाके-बंदगी तेरे बगैर। जिन्होंने उसे पाया है, वे कहते हैं : दो दुख हैं जीवन में। एक, और तो और, प्रार्थना में भी मन नहीं लगता अब। जिसने उसे पाने के पहले; एक, उसे पाने के बाद। पाने के पहले का | परमात्मा की एक झलक पा ली, फिर प्रार्थना में भी मन नहीं दुख नकारात्मक है। पाने के बाद का दुख बड़ा विधायक है। लगता; क्योंकि प्रार्थना में भी उसकी कमी ही खलती है। पाने के बाद के दुख में बड़ा रस है। उस पीड़ा में बड़ी मधुरता है, दिल नहीं झुकता है पहले की तरह सजदों के साथ मधुरिमा है। इसलिए तो नारद कहते हैं, भक्त भगवान से प्रार्थना नामुकम्मिल है मजाके-बंदगी तेरे बगैर। करता है : 'मेरे विरह को मत मिटा देना।' यह पाने के बाद की किसी को दिखाई भी न पड़ेगा बाहर से। परमात्मा को पाना, पीड़ा है। तब एक खेल शुरू होता है। वह खो-खोकर | संसार में कुछ पा लेने जैसी बात नहीं है। एक मकान बना लिया, फिर-फिर पाता है; आंख बंद-बंद करके फिर खोलता है। बना लिया–बात खतम हो गई। एक पत्नी से विवाह करना तुमने कभी खयाल किया! कोई बहुत चमत्कारी अनुभव होता था, रचा लिया–बात खतम हो गई। परमात्मा से तो सिर्फ बात हो, बड़ी गहन सुबह हुई हो, सूरज निकला हो, बड़ा प्रीतिकर हो शुरू होती है, खतम कभी नहीं होती। इसलिए तो कहता हूं: वातावरण-तुम देखते हो, फिर तुम आंख बंद करके, फिर सुबह ही सुबह है, सांझ नहीं आती। यात्रा का प्रारंभ तो है, फिर खोलकर देखते हो। एक क्षण को आंख बंद कर लेते हो ताकि अंत नहीं है। सागर में उतरते तो हैं, लेकिन फिर किनारा नहीं खो जाये, ताकि आंख ताजी हो जाये। फिर देखते हो। मिलता। लेकिन तब एक तरफ तो पीड़ा भी सालती है कि और परमात्मा को जिन्होंने पाया है, वे कहते हैं : दो दुख हैं। एक तो मिल जाये, गहन अतृप्ति जगती है, एक दिव्य असंतोष पैदा होता उसे पाने के पहले का दुख। वह कुछ भी नहीं है। वह तो सिर्फ है; और दूसरी तरफ हर तरफ से उसकी झलक भी आने लगती 1201 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो है। रह-रहकर उसके झोंके आ जाते हैं हवा के। रह रहकर चूकने का उपाय नहीं है। हां, तुम मानना चाहो तो माने रह उसकी गंध तैर जाती है। सकते हो कि चूके हो। चूकना तुम्हारी भ्रांति है। जिस दिन बहार जब भी चमन में दीये जलाती है जानोगे उस दिन हंसोगे-हंसोगे इस मूढ़ता पर कि अब तक हुजूमे-गुल से मुझे तेरी आंच आती है। कैसे मैंने माने रखा कि चूक गये थे, परमात्मा को चूक गये थे, बहार जब भी चमन में दीये जलाती है-जब बसंत आ जाता भूल गये थे! यह कैसे संभव हुआ था कि अब तक मैं समझ न है और बगीचों में दीये जलते हैं, फूलों के दीये जलते पाया था कि वह हमेशा मौजूद है, सब तरफ मौजूद है! हैं...हुजूमे-गुल से मुझे तेरी आंच आती है। तब फूलों के गुच्छों| कबीर कहते हैं कि मुझे देख-देखकर बड़ी हंसी आती है कि से मुझे तेरी आंच आती है। हर तरफ जीवन उसी की आंच देने मछली सागर में प्यासी है। मछली सागर में प्यासी है। और लगता है। हर श्वास उसी की श्वास है। हृदय में दौड़ते हुए सागर को मछली खोज रही है, कहां है। रक्त-कण उसी के हैं। तो एक तरफ तो सब तरफ से उसकी ईश्वर की सारी खोज ऐसे ही है जैसे मछली सागर को खोजती खबर मिलने लगती है; और दूसरी तरफ, और चाहिए, और हो, कहां है। इतने निकट है कि खोजने का अवकाश भी कहां चाहिए, और चाहिए, क्योंकि दूसरा किनारा नहीं मिलता। है! मछली सागर से ही बनती है, सागर में ही पैदा होती है। भक्त भगवान को पाकर और भी विरह में पड़ जाता है। यह सागर ही मछली के भीतर भी लहरें लेता है, बाहर भी लहरें लेता भक्ति का विरोधाभास है। जिन्होंने नहीं पाया है, वे तो | है। फिर सागर में ही लीन हो जाती है एक दिन, खो जाती है। कभी-कभी रोते हैं उसके लिए, कभी-कभी श्याम-श्याम की सागर की ही एक लहर है मछली-थोड़ी ज्यादा ठोस, थोड़ी रटन करते हैं, जिन्होंने पाया है, उनके रोने का तुम्हें कुछ पता ही ज्यादा देर टिक जानेवाली-थोड़े ज्यादा दिन उछल-कूद कर नहीं। वे रोते ही रहते हैं। कभी रोते हैं, कभी नहीं रोते-ऐसा लेती है और लहरों की बजाय; लेकिन लहर सागर की है। नहीं; रोते ही रहते हैं। रटन करते हैं, ऐसा भी नहीं है; लेकिन | इसलिए घबड़ाओ मत। चूकने का उपाय नहीं है। मैं तुम्हें जो फिर भी रटन होती रहती है। दूर गहन गहरे हृदय में पुकार समझा रहा हूं, वह पाने का उपाय नहीं बता रहा हूं; तुम्हें सिर्फ चलती ही रहती है। यह समझा रहा हूं कि तुमने चूकने के लिए जो उपाय बना रखे हैं, परमात्मा एक अनंत यात्रा है; ऐसा तीर्थ है जिसकी तरफ हम वे छोड़ दो। साधारणतः लोग कहते हैं कि हमें विधि बताओ कि चलते तो हैं, लेकिन कभी पहुंच नहीं पाते। परमात्मा गंतव्य नहीं | कैसे हम परमात्मा को पा लें। मैं तुमसे कहता हूं, मैं तुम्हें जो है। हम उसकी तरफ गति करते हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता विधि बतला रहा हूं, वह परमात्मा को पाने की नहीं है; क्योंकि कि हम कह दें, बस अब आगे और नहीं। अगर ऐसा होता तो उसको तो कभी खोया नहीं, वह तो बात ही छोड़ दो, वह परमात्मा को अनंत कहने का कोई भी अर्थ न था। अगर आगे बकवास तो मेरे सामने उठाओ ही मत। कोई मछली मुझसे पूछे और नहीं तो परमात्मा भी शांत है, पूरा हो गया। नहीं, सदा शेष | सागर कहां है, मैं जवाब देनेवाला नहीं हूं क्योंकि मैं क्यों है। यही दुविधा भी है, यही सौभाग्य भी। नहीं तो सोचो, जिसने फिजूल पंचायत में पडूं। वह तो नासमझ है ही और मुझको भी पा लिया वह क्या करता? ऊबकर, थककर बैठ जाता : 'अब नासमझ बनाने की तैयारी है। तो मैं तो यही समझने की कोशिश क्या करूं? अब कहां जाऊं? अब क्या बनूं? अब क्या हो करूंगा कि यह मछली कैसे भूल गई है, यह मछली कैसे जाऊं? अब किसको खोजं?' | अपरिचित रह गई है। इसके अपरिचय को तोड़ देना है। अनंत है। रोज-रोज नये-नये शिखर उसके पुकारते हैं। रोज परमात्मा से परिचय थोड़े ही बनाना है; अपने अपरिचय के जो नयी चुनौती आ जाती है। वह बुलाता ही चला जाता है। तुम ढंग हैं, वे तोड़ देने हैं। पर्दे उठा लेने हैं, जो हमने डाले पास भी आते चले जाते हो और फिर भी उसे छू नहीं पाते। हैं-परमात्मा तो सामने ही है। उसके चेहरे पर कोई घूघट नहीं _ 'आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो! कहीं चूक न है, हमारी ही आंखों पर पर्दा है। फिर पर्दा डाले तुम कहीं भी जाऊं...!' घूमते रहो, काशी कि काबा, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी आंख 1211 www.jainelibrart.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 पर पर्दा है, तुम जहां जाओगे-तुम्हारी आंख का पर्दा... | तो कोई बैंक-बैलेंस है, न कोई जान-पहचान है, अपरिचित तुम्हारी आंख का पर्दा जन्मों-जन्मों तक तुम्हें घेरे रहेगा। दुनिया में जाते हैं, भाषा भी पता नहीं कि क्या भाषा बोलनी इसलिए यह तो पूछो ही मत कि कहीं चूक न जाऊं। कोई पड़ेगी! किस तरह के लोगों से मिलना होगा, कुछ पता नहीं है। उपाय नहीं चूकने का। अब तक कोई चूक ही नहीं पाया है। हां, तो बच्चा भी अगर समझदार हो जाये, जैसा कि कुछ लोग लेकिन तुम अगर मानना चाहो कि चूक गये हैं तो क्या करे, समझदार हैं, तो रुक जाये वहीं कि जाना नहीं। यहां सब मजे से सागर भी क्या करे? मछली को कैसे समझाये कि मैं यहां हूं? | चल रही है, ठीक से चल रही है, कहां की झंझट उठानी! भूख मछली की अगर यही मौज है कि चूकना चाहती है, चूकती रहे। लगेगी तो कौन दूध देगा! प्यास लगेगी तो कौन पानी देगा! और कहा है, आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो। मां के पेट में तो श्वास भी मां ही लेती है, उसी से बच्चे को अस्वीकार कर सकता होता तो स्वीकार करता। मुझसे लोग आक्सीजन मिलती है। श्वास भी वह खुद नहीं लेता। मां के ही पूछते हैं कि आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं! करूं क्या? भोजन पर पलता है। अस्वीकार करने का उपाय नहीं है। किसको अस्वीकार करूं? | लेकिन उसे पता नहीं कि जिसने उसे बनाया है, उसने इंतजाम मैं तो उनको भी देना चाहता हूं, जो लेने नहीं आये हैं, मगर क्या कर रखा है। वह आये, उसके पहले दूध तैयार है। करूं! जो आ जाता है उसको इनकार करने का तो सवाल कैसे __मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुषों को इतनी ज्यादा रस की, उठे? तुम्हारे आने के पहले भी तुम्हें स्वीकार किया हुआ है। आकर्षण की बात स्त्री के स्तन में क्यों है? पुरुष के मन में स्त्री ऐसा नहीं है कि तुम्हारे बाबत सोचता था कि तुम्हें स्वीकार करना के स्तन का बड़ा आकर्षण है! काव्य-शास्त्र भरे पड़े हैं। है। स्वीकार मेरी भाव-दशा है। ऐसे एक-एक आदमी के बाबत कविताएं उरोजों के, स्तनों के आसपास घूमती हैं। तो सोचूंगा भी कैसे कि किस-किसको स्वीकार करूं? स्वीकार कहानियां...! क्या कारण है? वह भी परमात्मा की व्यवस्था मेरी भाव-दशा है। अस्वीकार करने का मेरे पास उपाय नहीं है। है। क्योंकि जो पिता बनने जा रहा है, इसके पहले कि पिता बने, निर्णय तुम्हारा है, इकतरफा है। मुझे स्वीकार कर लो या मुझे वह अपने बेटे के लिए ठीक उरोज, भरे उरोजों का इंतजाम कर ले अस्वीकार कर दो, यह तुम्हारी बात है। मेरी तरफ से तुम रहा है। वह भी परमात्मा का आयोजन है। पुरुष के मन में स्त्री स्वीकृत हो, स्वीकार करो तो, अस्वीकार करो तो। के स्तन का इतना आकर्षण है-वह आकर्षण इसीलिए है। वह और घबड़ाओ मत। प्यास आ गयी है तो पानी भी आयेगा। प्रकृति की व्यवस्था है, क्योंकि अगर स्त्री के स्तन ठीक न हों, जाननेवाले तो कहते हैं, पानी पहले आ गया होगा, तभी प्यास सुडौल न हों, भरे न हों, भरे-पूरे न हों, तो बच्चा भूखा मरेगा। आयी है। क्योंकि जाननेवाले कहते हैं, परमात्मा बच्चे को पैदा तो पुरुष उस स्त्री को खोजेगा, जिसके स्तन भरे-पूरे हैं। वह उसे करता है, उसके पहले मां के स्तन में दूध भर देता है। देखा है सुंदर मालूम होगी। सुंदर वगैरह मालूम होना तो ठीक है, मगर चमत्कार! रोज घटता है, लेकिन देखते नहीं! इधर मां गर्भवती पीछे प्रकृति बड़ा आयोजन कर रही है। वह यह कह रही है कि हुई, उधर बच्चा बढ़ने लगा। अभी बच्चा आया भी नहीं है यह स्त्री है जो तेरे बच्चे की मां बन सकेगी। यह बच्चे को बचाने बाहर, अभी दूध पीनेवाला तैयार ही हो रहा है, अभी रास्ते पर | का आयोजन चल रहा है, तुम धोखे में पड़ रहे हो-तुम समझ है लेकिन दूध तैयार हो गया! मां के स्तन दूध से भर जाते हैं। रहे हो, तुम सौंदर्य का इंतजाम कर रहे हो। बच्चा जब आयेगा तब आयेगा, लेकिन परमात्मा तैयारी पहले से इसलिए जिन स्त्रियों के स्तन ठीक नहीं हैं, वे धीरे-धीरे खो कर लेता है। | जायेंगी, उनको पति न मिलेंगे, उनकी संतान न होगी। वे ऐसा ही सारे जीवन में है। तुम नाहक ही दौड़-धूप करते हो। धीरे-धीरे खो जायेंगी। यह बात अलग है, तुम नाहक शोरगुल मचाते हो। वह तो बच्चे जीवन के रहस्य को अगर तुम समझो तो यहां प्यास के पहले को भी थोड़ी बुद्धि हो तो वह भी बड़ी चिंता करेगा गर्भ में | पानी तैयार है; श्वास के पहले हवा तैयार है। और इसकी समझ पड़ा-पड़ा कि पता नहीं, अब जन्म के बाद क्या होता है, देखें! न जिसको आ गई, उसी के जीवन में श्रद्धा का आविर्भाव होता है। 122 Jain Equcation International Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARSINPUTERVARANAS * तुम मिटो तो मिलन हो हो नहीं सकता कि शीशा आए और सहबा न आए | है और जिसे बड़ी बेचैनी हो रही है। मय भी आएगी 'अदम' जब आबगीना आ गया। और या फिर किसी ऐसे आदमी का होना चाहिए, जिसका -जब प्यालियां आ गईं, जब मधुपात्र आ गये, तो शराब भी अहंकार उसकी नाक पर बैठा है। आती ही होगी। अहंकारी की नाक देखी! अहंकारी नाक की भाषा में बोलता हो नहीं सकता कि शीशा आए और सहबा न आए है। उसका सारा अहंकार नाक पर होता है। अगर नाक पर मय भी आएगी 'अदम' जब आबगीना आ गया। अहंकार बैठा हो, इससे बेचैनी मालूम हो रही है, तो कटा ही -जब प्यालियों की खनक आने लगी, तो शराब भी आती ही लो। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसरी! नाक ही न रहेगी तो होगी। तो जिसके जीवन में परमात्मा को खोजने की आकांक्षा अहंकार को बैठने की जगह न रह जाएगी। कटा ही लो प्यारे! आ गई, प्यास आ गई-अब घबड़ाओ मत, राह पर हो। ठीक कहीं कोई गहरी अड़चन होगी प्रश्नकर्ता को। मैं जानता हूं, दिशा में उन्मुख हो गये हो। अब डरो मत, अब प्यास को अड़चन होती है। यहां इतने लोग गैरिक वस्त्रों में हैं। यहां इतने पकड़ने दो कि तुम्हें पकड़ ले झंझावात की तरह, आंधी-अंधड़ लोग संन्यासी के वेश में हैं-तुम जब गैर-संन्यासी की तरह की तरह। अब उड़ाने दो प्यास को कि बन जाये तुम्हारे पंख। आते हो, तुम हीन-भाव अनुभव करते हो। लक्ष्मी कल ही मुझे अब मथने दो प्यास को कि बन जाये आग और जला दे तुम्हारे कहती थी कि दफ्तर में लोग उससे आकर कहते हैं कि सफेद अहंकार को। कपड़ों में हम यहां ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे अजनबी हैं, पराये हैं, हो नहीं सकता कि शीशा आए और सहबा न आए बाहर-बाहर हैं। स्वाभाविक है। यह एक परिवार है। यह मेरा मय भी आएगी 'अदम' जब आबगीना आ गया। परिवार है। वस्त्रों का ही थोड़े ही सवाल है; वस्त्र तो केवल इंगित हैं, इशारे हैं। जिन्होंने गैरिक वस्त्र स्वीकार किये हैं, उन्होंने दूसरा प्रश्नः कल के प्रवचन में आपने नककटे साधु की तो केवल इतना कहा है कि इस इशारे से हम कहते हैं कि अब हम कहानी सुनायी, जिसके चक्कर में पड़कर पूरा गांव नाक गंवा | तुमसे राजी हैं। यह तो सिर्फ एक भाव-भंगिमा है। उन्होंने यह बैठा था। क्या करीब-करीब यही स्थिति आपके संन्यासियों कहा है कि अब हम हमारा तर्क छोड़ते, विवाद छोड़ते-अब की नहीं है? तुम जहां ले चलोगे, चलेंगे; चलो, गड्ढे में ले चलोगे तो गड्ढे में चलेंगे; भटकाओगे तो भटकेंगे, लेकिन तुम्हारे साथ भटकेंगे। देखो, मेरी नाक तुम्हें साबित दिखाई पड़ती है या नहीं। क्योंकि जिन्होंने मुझे चुना है उन्होंने यह मानकर चुना है—इसलिए नहीं कहानी के होने के लिए पहले तो मैं नककटा होना चाहिए। न तो कि मैं उन्हें ठीक जगह ही पहुंचा दूंगा। इसका तो पता कैसे होगा गेरुआ वस्त्र पहने हूं, न माला लटकाई है। अपनी ही नाक नहीं जब तक पहुंचोगे न! इसका तो कोई उपाय नहीं है, पहले से जान कटी, तुम्हारी क्यों काढूंगा? लेने का। जिन्होंने मुझे चुना है उन्होंने यह मानकर चुना है कि इसलिए कहानी यहां लागू हो नहीं सकती। चलो, अब ठीक जगह भी पहुंचना अगर इस आदमी के बिना हां, जिन मित्र ने पूछा है, उनको जरा अपनी नाक टटोलकर होता हो तो भी इस आदमी के बिना नहीं चलना है। अगर यह देख लेनी चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं है कि है ही नहीं अब कटाने गड्ढे में ले जायेगा तो इसके साथ गड्ढे में सही। उन्होंने अपने को! कहीं पहले कटा तो नहीं बैठे! क्योंकि मैं मुश्किल से ऐसे विचार करने की, अपना निजी विचार करने की, जो अस्मिता आदमी के करीब आता हूं जो नककटा न हो। अगर तुम हिंदू हो थी, वह छोड़ी है। कपड़े तो गौण हैं। कपड़ों में क्या रखा था? तो नाक कटा चुके ! हिंदुओं के हाथ कटा ली। अगर मुसलमान कपड़ों से कहीं कोई संन्यासी हुआ है! लेकिन वह तो इंगित है अगर जैन हो तो कटा बैठे। | ऐसा हुआ कि रामकृष्ण की एक रात बैठक चलती थी। कुछ यह प्रश्न किसी नककटे का होना चाहिए, जो कहीं कटा बैठा बैठे थे लोग। कोई इसी तरह के सज्जन, जिन्होंने यह प्रश्न पूछा 123 www.jainelibrary org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - A NSAntamani जिन सूत्र भाग : 1 MEANERai है, वहां पहुंच गये। सभी जगह पहंच जाते हैं। इस तरह के लोग रहे हैं। जरा-सा शब्द 'उल्लू के पट्टे' मंत्र का काम कर गया। क्यों भटकते रहते हैं, यह भी बड़े आश्चर्य की बात है! अपने घर जरा सोचो तो! शास्त्र काम न आये। इतना तो याद रखते कि ही रहें! अपनी नाक बचानी है, अपने घर ही रहो; यहां-वहां 'शब्दों में क्या रखा है।' जाने में कहीं कट ही जाये। कोई रौ आ जाये, कोई सनक चढ़ वस्त्रों में क्या रखा है, पूछते हो? माला में क्या रखा है, पूछते जाये, किसी भावावेश में कटवा बैठो, फिर पछताओगे! | हो? उल्लू के पढे! थोड़ा सोचना, थोड़ा विचार करना! रामकृष्ण की बैठक में कोई पहुंच गये ज्ञानी। पंडित थे, आदमी जैसा है, छोटी-छोटी बातों से जीता है। क्षुद्र-क्षुद्र जानकार थे शास्त्रों के। रामकृष्ण कह रहे थे कि ओंकार के नाद | बातों से बनकर, मिलकर तुम्हारा व्यक्तित्व बना है। वह जिसने से बड़ी उपलब्धि होती है। ज्ञानी को अड़चन पड़ी। उसने कहा, | गैरिक वस्त्र स्वीकार किये हैं, वह भी जानता है, तुमसे ज्यादा ठहरें! ...क्योंकि ज्ञानी जानता है कि रामकृष्ण गैर पढ़े-लिखे भलीभांति जानता है कि वस्त्रों से कुछ भी होनेवाला नहीं है; हैं, शास्त्र का तो कुछ पता नहीं है, हांक रहे हैं; संस्कृत तो आती लेकिन उसने एक कदम उठाया है; होने की दिशा में थोड़ी नहीं, कुछ भी कहे चल जा रहे हैं! वह अपना ज्ञान दिखाना हिम्मत की है; पागल होने की हिम्मत की है। मेरे साथ चलने की चाहता था। उसने कहा कि शब्दों में क्या रखा है! ओंकार तो हिम्मत पागल होने की हिम्मत है। क्योंकि मेरे साथ चलने का केवल एक शब्द है, इसमें रखा क्या है ? इससे कैसे आत्मज्ञान | मतलब है समाज में अड़चन होगी, परिवार में अड़चन होगी। हो जायेगा? अगर पति हो तो पत्नी झंझट देगी। अगर पत्नी हो तो पति झंझट बात तो पते की ही कह रहा था, लेकिन खुद आदमी पते का | देगा। अगर बाप हो तो बच्चे झंझट देंगे। नहीं था। रामकृष्ण ने उसकी तरफ देखा, चुप बैठे रहे। वह और संन्यासी मेरे पास आकर कहते हैं कि बेटे कहते हैं, 'पिता जोर-जोर से शास्त्रों के उल्लेख करने लगा और उद्धरण देने जी! आप घर में ही पहनो ये वस्त्र तो ठीक है, क्योंकि स्कूल में लगा। कोई आधा घंटा बीत गया, तब रामकृष्ण एकदम से | दूसरे बच्चे हम पर हंसते हैं कि तुम्हारे पिताजी को क्या हो गया! चिल्लायेः 'चुप, उल्लू के पट्टे! बिलकुल चुप! अगर एक | भले-चंगे थे, यह क्या इनको धुन सवार हुई!' पत्नियां मेरे पास शब्द बोला आगे तो ठीक नहीं होगा।' आती हैं। कहती हैं कि जरा समाज में जीना है, कम से कम इतना 'उल्लू के पट्टे' तो मैं कह रहा हूं, रामकृष्ण ने ज्यादा वजनी तो कर दो कि विवाह इत्यादि के अवसर पर पतिदेव गेरुआ गाली दी। तो रामकृष्ण कोई छोटी-मोटी बकवास नहीं मानते पहनकर न पहुंचें, नहीं तो दूल्हा तो एक तरफ रह जाता है, ये थे; वे जब गाली देते थे तो बिलकुल नगद! वह आदमी घबड़ा दूल्हा मालूम पड़ते हैं। और स्त्रियां देखकर हंसती हैं कि इनको गया, तमतमा गया एकदम! क्रोध भर गया आंख में। जोश आ | क्या हो गया। गया। सांझ थी ठंडी, शीत के दिन थे, पसीना-पसीना हो गया। कोई मेरे साथ खड़े होकर तुम्हें कुछ राहत थोड़े ही मिल पर हिम्मत भी न पड़ी, क्योंकि अब रामकृष्ण ने इतने जोर से कहा जायेगी! अड़चन में डालूंगा। यह तो अड़चन में डालने की है, और अगर कुछ गड़बड़ की तो मारपीट हो जायेगी; वहां सब शुरुआत है। जैसे-जैसे पाऊंगा कि तुम्हारी अंगुली हाथ में आ रामकृष्ण के भक्त थे। फिर, रामकृष्ण फिर अपना समझाने लगे गई, पहुंचा पकडूंगा। यह तो शुरुआत है। आगे-आगे देखिए कि ओंकार...। कोई पांच-सात मिनट बाद उस आदमी की | होता है क्या! तरफ देखा और कहा, महानुभाव! माफ करना। वह तो मैंने सिर्फ इसलिए कहा था कि देखें शब्द का असर होता है कि नहीं! तीसरा प्रश्नः भीतर विचारों की ऐसी भीड़ है कि भगवान का तुम तो बिलकुल तमतमा...। 'उल्लू के पट्टे' का इतना असर, | भी...भगवान जैसा गुरु पाकर भी इस जन्म में पहुंचने की तो जरा सोचो तो ओंकार का! पसीना-पसीना हुए जा रहे हो, आशा नहीं बंधती। बिना कारण आंसू बहाता हूं, रोता हूं, मरने-मारने पर उतारू हो। वह तो यह कहो कि लोग मौजूद हैं, | चीखता-चिल्लाता हूं, फिर भी मौका आने पर न अहंकार से नहीं तो तुम मेरी गर्दन पर सवार हो जाते। हाथ-पैर तुम्हारे कंप बच पाता हूं और न भीतर की बड़बड़ाहट से। प्रभु श्री, यदि 124| . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो इस जन्म में भी नहीं पहुंच पाया, तो फिर क्या अगला पथ वैसा बनो! इसमें अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। साक्षी एकमात्र सूत्र ही कोरा रह जायेगा? आप भी सहायता न कर पायेंगे क्या? | है। विचारों से लड़ो मत-देखो! चलने दो, क्या बिगाड़ते हैं! चलने दो जैसे राह चलती है, कारें गुजरती हैं, बसें गुजरती हैं, नहीं, चिंता का कोई भी कारण नहीं है। विचारों की भीड़ है। | बैलगाड़ियां गुजरती हैं, अच्छे-बुरे-भले लोग गुजरते हैं, छुटकारा आसान भी नहीं। लेकिन छुटकारा आसान नहीं है, शैतान-साधु गुजरते हैं-राह चलती है, तुम राह के किनारे बैठे इससे यह मत समझना कि विचारों की भीड़ बड़ी बलशाली है। रहो; देखते रहो चलती राह को। जैसे राह बाहर चल रही है, नहीं! छुटकारा इसीलिए कठिन मालूम पड़ रहा है कि तुमने ऐसे ही विचारों का कारवां भी भीतर चल रहा है; लेकिन वह भी विचारों की भीड़ से लड़ना शुरू कर दिया है, वहां भूल हो गई तुमसे बाहर है। शरीर के भीतर है, तुमसे बाहर है। तुम तो वह है। ताकत विचारों की नहीं है-तुम्हारे गलत आयोजन की है। चैतन्य हो जो देखता है कि ये विचार चल रहे हैं। अंधेरा कमरे में भरा हो और तुम धक्के देकर उसे बाहर तादात्म्य छोड़ो! दूर खड़े होकर देखते रहो, देखते रहो, देखते निकालना चाहो और अंधेरा तो नहीं निकलेगा ऐसे, तो तुम्हारे रहो—इतना भी रस मत लो कि इन्हें अलग करना है। इतना भी मन में लगेगा, अंधेरा बड़ा प्रबल है, बड़ा बलशाली है। रस लिया कि अड़चन शुरू हुई, संबंध बने। जन्म-जन्म भी धक्के मारो अंधेरे को तो न निकलेगा, यह सच मित्र से ही संबंध नहीं बनते, शत्र से भी है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अंधेरा बलशाली है। इससे तुम पक्ष में हो उससे भी संबंध बनता है। जिसके तुम विपक्ष में केवल इतना ही पता चलता है कि धक्का मारना सम्यक उपाय | हो उससे भी संबंध बनता है—विपक्ष का सही। संबंध मत नहीं है। जितनी ताकत धक्का मारने में लगा रहे हो उतनी ताकत बनाओ। साक्षी का इतना ही अर्थ है : असंबंध, असंग। दूर खड़े दीये को जलाने में लगाओ। दीया खोजो। जरा-सा, छोटा-सा देखते रहो। जैसे तुम किसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हो और नीचे दीया, जरा-सी दीये की बाती, और अंधेरा बाहर हो जायेगा। घाटियों में काफिले गुजर रहे हैं लोगों के गुजरने दो, तुम्हारा धक्के मारने से अंधेरा बाहर नहीं होता, क्योंकि अंधेरा है ही नहीं, क्या लेना-देना है। बाहर कोयल बोल रही है, कभी कोई कुत्ता धक्का मारोगे कैसे उसे? जो नहीं है उसे धकाया नहीं जा भौंकेगा, कभी कोई कौवा कांव-काव करेगा-इससे तुम सकता। उसकी ताकत नहीं है कुछ भी। उसका बल इसी में है। अड़चन में नहीं पड़ते। तुम सिर नहीं धुन लेते कि अब क्या करें, कि वह नहीं है। कुर्सी होती, फर्नीचर होता, निकाल बाहर कर यह कुत्ता भौंक रहा है! तुम सिर नहीं धुन लेते कि यह कौवा देते। पति-पत्नी होते, उन्हें भी धक्का देकर बाहर कर देते! कांव-काव कर रहा है! यह तुम्हारा मन भी कांव-काव कर रहा अंधेरे को कैसे करोगे? दीया जलाओ! सम्यक आयोजन करो! है, भौंक रहा है-भौंकने दो! तुम इससे भी थोड़े दूर हट ठीक साधन खोजो! | जाओ। तुम इससे भी थोड़े पीछे हट जाओ। और हटने में विचार अंधेरे की भांति हैं। तुम उन्हें धक्के देकर बाहर न कर | अड़चन नहीं है, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव मन के पार है। पाओगे। जितना धक्का दोगे उतना ही पाओगे कि वे बलशाली | तो इसी क्षण पहुंचना हो सकता है, पूरे जन्म की बातें क्या होते जा रहे हैं। उतने ही तुम कमजोर मालूम पड़ोगे। हर बार करनी, आगे जन्म की चिंता क्या करनी! और ध्यान रखो, मेरी हारोगे, हर बार हारोगे; आत्मविश्वास खो जायेगा। फिर सहायता तुम्हें पूरी उपलब्ध है, उसमें रंचमात्र कमी नहीं है। रोओगे, चीखोगे, चिल्लाओगे। उससे भी क्या होगा? कुछ भी लेकिन अकेली मेरी सहायता से क्या होगा? मैं इशारा कर न होगा। क्योंकि न तो अंधेरा सुनेगा रोने को, न चीखने को, न सकता हूं, चलना तो तुम्हें ही पड़ेगा। मैं औषधि बता सकता हूं, चिल्लाने को। अंधेरा तो मानता है एक ही भाषा-वह है प्रकाश | लेकिन पीना तो तुम्हें ही पड़ेगी। मैं निदान कर सकता हूं, लेकिन की भाषा। और विचार भी मानते हैं एक ही भाषा-वह है | मेरे निदान से ही तो कुछ न होगा। औषधि भी दे सकता हूं, उससे साक्षी-भाव की भाषा। भी तो कुछ न होगा। औषधि का तुम्हें उपयोग करना पड़ेगा, तो साक्षी बनो! जितनी बार कहा जाये उतना ही थोड़ा है : साक्षी ही बीमारी कटेगी। साक्षी की बात कर रहा हूं; वह औषधि है। 125 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 उसका उपयोग करो। | जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसका उपयोग न हो। पाप का और ध्यान रखना भी उपयोग है, क्योंकि उसी से पुण्य की सुवास उठती है। विचार हर प्रदीप की पृष्ठभूमि में का भी उपयोग है, अन्यथा निर्विचार कैसे हो पाओगे? संसार अंधकार अनिवार्य है। की जरूरत है, अन्यथा सत्य को कैसे खोजोगे? भटकना भी बिना सघनता क्षुद्र विरलता जरूरी है, अन्यथा पहुंचोगे कैसे? एक बार तुम्हारे जीवन में कर सकती विस्तार नहीं सृजनात्मक भाव आ जाये और हर चीज का सृजनात्मक मूल्य मिले बिना परिवेश शून्य का आ जाये, तो तुम पाओगे, संब चीज का तुमने उपयोग करना सज पाता आकार नहीं। शुरू कर दिया। हर प्रदीप की पृष्ठभूमि में कड़ा-कर्कट भी फेंकने जैसा नहीं है: उसका भी उपयोग हो अंधकार अनिवार्य है। सकता है। लेकिन तुम्हें सदियों से इस तरह की बातें सिखायी गई अंधकार तुम्हारा दुश्मन भी नहीं है। जरा प्रदीप जला लो, फिर | हैं—यह गलत, यह गलत, यह गलत; गलत और सही को तो अंधकार भी सुख देगा। अंधकार की मखमली चादर प्रकाश विपरीत, दुश्मन की तरह खड़ा किया गया है; राम और रावण को और हजार गुना प्रज्वलित कर देती है। इसलिये तो दिन में | को लड़ाया गया है; भगवान और शैतान को खंडित करके तारे नहीं दिखाई पड़ते हैं तो अपनी ही जगह; कहीं चले नहीं अलग कर दिया गया है; पाप और पुण्य, दिन और रात गये हैं; दिन में कुछ सो नहीं गये हैं, कहीं खो नहीं गये हैं, अपनी दुश्मन—इस दुश्मनी के भाव से तुम्हारी परेशानी हो रही है। जगह हैं। पूरा आकाश तारों से भरा है, वैसा ही जैसा रात में, मैं तुमसे कहता हूं, दिन और रात दुश्मन नहीं हैं, एक ही खेल लेकिन तारे दिखाई नहीं पड़ते, उनको पृष्ठभूमि चाहिए अंधकार | के हिस्से हैं। राम और रावण दुश्मन नहीं हैं; अन्यथा राम-कथा की। जब अंधकार घेर लेता है, तब तारे चमक आते हैं। न बनेगी। अमावस की रात जैसे चमकते हैं वैसे कभी नहीं चमकते। / तुमने रामलीला में देखा! पर्दे पर धनुष-बाण लिये खड़े हैं, तो जीवन को सृजनात्मक दृष्टि से देखो। यहां कुछ बुरा है, लड़ रहे हैं, और पर्दे के पीछे राम और रावण बैठकर गपशप कर ऐसा कहकर लडो मत। जो बरा है उसे पष्ठभमि बना लो और रहे हैं, चाय पी रहे हैं। जिंदगी के पर्दे के पीछे भी मैंने ऐसा ही जो शुभ है उसका दीया जलाओ और तब तुम पाओगे, अशुभ देखा है। वहां जो सामने नाटक करते दिखायी पड़ रहे थे दुश्मनी ने भी शुभ को साथ दिया, अंधेरे ने भी दीये को ज्योतिर्मय किया। का, पीछे गले लगकर बैठे हैं। होना भी ऐसा ही चाहिए; नहीं तो तब विचार भी ध्यान की पृष्ठभूमि बन जाते हैं। तब पाप भी जीवन खंड-खंड होकर छितर जाता। पुण्य की पृष्ठभूमि बन जाते हैं। और तब संसार भी परमात्मा की किसने सम्हाला है? ये जिंदगी की सारी ईंटें किस सीमेंट से | खोज का उपाय हो जाता है। तब शरीर भी आत्मा का मंदिर हो | जुड़ी हैं? ये शुभ और अशुभ साथ-साथ कैसे खड़े हैं? साधु जाता है। | और असाधु कैसे साथ-साथ जुड़े हैं? संयुक्त हैं। और एक मेरा पूरा दृष्टिकोण अनिंदा का है। किसी भी चीज की निंदा का | बार तुम्हें यह समझ में आ जाये तो तनाव कम हो जायेगा। तब एक ही अर्थ होता है कि तुम उसका उपयोग करना न जान पाये; | तुम पाओगे कि अगर कुछ अड़चन हो रही है, तो मेरी तुम समझ न पाये कि इसका क्या करें। तुमने जिसे मार्ग का समझ-बूझ में कुछ कमी है। पत्थर समझा, वह प्रतिमा भी बन सकती थी। तुमने जिसे मार्ग| मैंने सुना है, एक महिला को सितार सीखने की धुन सवार का पत्थर समझा, वह मार्ग की सीढ़ी भी बन सकती थी। तुम हुई। तो पहले ही दिन चाहती थी कि मेघ-मल्हार हो जाये। पत्थर मानकर बैठ गये और रोने लगे। मैं कहता हं, सीढ़ी | पहले दिन चाहती थी कि पशु-पक्षी आ जायें। बार-बार जाकर समझो, चढ़ो! मैं कहता हूं, अनगढ़ पत्थर देखकर नाराज मत | खिड़की पर देख आती थी, अभी तक नहीं आये। न कोई भीड़ होओ, जरा छैनी उठाओ, गढ़ो! जड़ी। उलटे पति जो घर में बैठा था वह निकलकर बाहर चला 126 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो गया। बच्चे जो ऊधम कर रहे थे घर में, वह भी सन्नाटा हो गया, ग्रंथि कट जाती है, उसके जीवन में करुणा पैदा नहीं होती, सिर्फ वे भी कहीं निकल गये। पास-पड़ोसियों ने द्वार-दरवाजे बंद कर क्रोध का अभाव हो जाता है। उस आदमी का जीवन पहले से लिये। तो उसने समझा कि निश्चित ही सितार में कुछ भूल है। बदतर हो जाता है। अब क्रोध भी न रहा। रूखा-रूखा, जिस दुकान से सितार खरीद लाई थी, फोन किया कि आदमी | सूखा-सूखा अब कोई चीज उसे उद्वेलित नहीं करती, लेकिन भेजो, सितार में कुछ गड़बड़ है। आदमी आया, ठोक-पीटकर करुणा का जन्म नहीं होता। क्योंकि करुणा तो तब पैदा होती है सब उसने कहा, बिलकुल ठीक है। आदमी वापस पहुंचा भी जब तुम क्रोध की वीणा को बजाना सीख जाते हो। नहीं था कि फिर फोन...उसने कहा, 'भई इतनी जल्दी कैसे वीणा तोड़ दी तुमने क्रोध की, तो क्रोध तो न होगा। जैसे कि बिगड़ गया?' उसने कहा कि न बजाओ तो सब ठीक रहता है, अगर तुम वीणा फेंक आये बाहर, तो विसंगीत पैदा न होगा, लेकिन बजाओ कि सब गड़बड़! तब उस आदमी को समझ में लेकिन संगीत भी पैदा न होगा। क्रोध अगर तोड़ दो तो क्रोध तो आया। उसने कहा कि 'देवी! बजाना भी आता है?' / पैदा न होगा, लेकिन करुणा भी पैदा न होगी, क्योंकि करुणा सितार की भूल नहीं है-बजाना आता है कि नहीं! उसी वीणा का संगीत है। सजे हुए हाथ, सधे हुए हाथ उसी वीणा कहते हैं, परम संगीतज्ञ, जिनको बजाने की कला आ जाती है, पर करुणा को बजाते हैं—बुद्ध, महावीर-जिस वीणा पर तुम अगर बर्तनों को भी बजा दें तो सितार बज उठते हैं; क्रोध बजाते हो। सधे हुए हाथ उसी जीवन-ऊर्जा से निर्विचार कंकड़-पत्थरों को टकरा दें तो स्वरों का आरोह-अवरोह हो जाता बजाते हैं, जिसमें तम केवल विचारों की उलझन में पड़ जाते हो। है। सितार की भूल नहीं है। जीवन की कहीं कोई भूल नहीं है। सधे हुए हाथ इसी शरीर में अशरीरी को खोज लेते हैं, जिसमें तुम बजाना न आया। थोड़ा बजाने की फिक्र करो। और बजाने का केवल हड्डी-मांस-मज्जा पाते हो। भूल वीणा की नहीं है, इतना पहला सूत्र है : स्वीकृति। सब, जो परमात्मा ने दिया है, उसका | स्मरण रखना। | कुछ न कुछ उपयोग है, निरुपयोगी तो हो ही नहीं सकता चूकने का कोई कारण नहीं है, जरा साज को सम्हालना है। अस्तित्व में। होगा ही क्यों? फिर तो अस्तित्व न होगा, 'बेदार' वह तो हरदम सौ-सौ करे है जलवे अराजकता होगी। सब उपयोगी है। और जल्दी मत करना इस पर भी गर न देखे तो है कसूर तेरा। काटने-पीटने की कि यह गलत है, इसे अलग कर दो; यह परमात्मा तो कितने-कितने ढंग से नाचता है तुम्हारे चारों गलत है, इसे अलग कर दो। तरफ! जैसे क्रोध है: अगर तुम क्रोध को काट डालो...अब 'बेदार' वह तो हरदम सौ-सौ करे है जलवे। वैज्ञानिकों के पास उपाय हैं कि शरीर की कुछ ग्रंथियां काट डाली | इस पर भी गर न देखे तो है कसर तेरा। जायें तो आदमी का क्रोध समाप्त हो जाता है। कुछ ग्रंथियां काट | और जैसा मैं देखता हूं, यह किसी एक ही व्यक्ति का प्रश्न नहीं डाली जायें तो कामवासना समाप्त हो जाती है। तुम देखते ही हो, है-'ईश्वर बाबू' ने पूछा है-सबका है। जैसा मैं देखता हूं, सांड कैसे बैल हो जाता है ! ग्रंथि काट दी तो बड़ी सरल बात है हर आदमी मंजिल के सामने ही बैठा रो रहा है कि मंजिल कहां, यह तो। फिर ब्रह्मचर्य के लिए इतना उपद्रव क्यों मचाना। यह कि किस मार्ग से जायें। इतना सीधा हो जाता है कि सांड देखते-देखते बैल हो जाता है। हसरत पे उस मसाफिरे-बेकस के रोइये तो जरा-सी ग्रंथियां काट डालो। क्रोध की भी ग्रंथियां हैं, उसके जो थक के बैठ जाता हो मंजिल के सामने। भी हारमोन हैं-काट डालो! आज नहीं कल, खतरा है कि तुम्हें देखकर हंसी भी आती है, रोना भी आता है। रोना आता दुनिया की सरकारें आदमी से क्रोध की, बगावत की ग्रंथियों को है कि तुम बड़े परेशान हो रहे हो। हंसी आती है कि व्यर्थ परेशान काट देंगी। तो फिर कोई शोरगुल न होगा। फिर कोई हड़ताल न हो रहे हो। सामने ही द्वार है। मंजिल के सामने ही थककर बैठे होगी। फिर कोई बगावत, विद्रोह न होगा, कोई क्रांति न होगी। | हो। कहीं चलकर जाना नहीं है। कहीं उठकर भी नहीं जाना है। लेकिन तुम जरा सोचो, जिस आदमी के जीवन से क्रोध की क्योंकि मंजिल तुम्हारे बाहर नहीं है, तुम्हारे भीतर है, तुम्हारा 127 www.jainelibrar org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 स्वभाव है, तुम्हारा स्वरूप है। थोड़े साक्षी को साधो! वीणा हैं कि हम जब तक राजी हो पाते हैं एक बात करने को, तब तक सुमधुर होने लगेगी। तार तालमेल में आने लगेंगे। थोड़े साक्षी | आप जा चुके, आप कुछ और कहने लगे! को साधो, संगीत उठेगा। जैसे-जैसे साधते जाओगे वैसे-वैसे | मुझे रोज ही ऐसा करना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हें वहां ले जाना संगीत मधुर, सूक्ष्म होता जायेगा। और ऐसी भी घड़ी आती है-उस ला-मंजिल-उस जगह जिसके आगे फिर कोई और है-तब शून्य का भी संगीत उठता है। आ जायेगी घड़ी, | मंजिल नहीं है। और अंत समय में भी तुम्हारे बीच से मुझे हट क्योंकि मैं देखता हं मंजिल के सामने ही तुम बैठे हो। जाना पड़ेगा, क्योंकि मैं तुम्हारा द्वार हूं, दरवाजा हूं; तुम्हारी मंजिल नहीं। चौथा प्रश्नः गुरु यानी गुरुद्वारा। गुरु का केवल इतना ही अर्थ है कि वह बेमुरौअत बेवफा बेगाना-ए-दिल आप हैं, तुम्हें इशारा कर दे परमात्मा की तरफ और हट जाए। आखिरी आप माने या न मानें मेरे कातिल आप हैं। घड़ी में मैं भी हट जाऊंगा। जब तुम पहुंचने-पहुंचने के करीब सांस लेती हूं तो यह महसूस होता है मुझे, जानती हूं दिल में रखने के ही काबिल आप हैं। दीवाल हो जाऊंगा, दरवाजा नहीं। फिर मैं तुम्हें रोषंगा परमात्मा गम नहीं है लाख तूफानों से टकराना पड़े से। तो मुझे बेवफा होना ही पड़ेगा। मैं हं वह किश्ती कि जिस किश्ती के साहिल आप हैं। 'आप माने या न मानें मेरे कातिल आप हैं'–मानता हूं। यह धंधा ही कातिल होने का धंधा है। तरु ने पूछा है। बिलकुल ठीक है : बेमुरौअत, बेवफा! ठहरा गया है ला के जो मंज़िल में इश्क की मुरौअत की नहीं जा सकती। करूं तो तुम्हें रास्ते पर न ला क्या जाने रहनुमा था कि रहजन था, कौन था! गा। कई बार सख्त होना पड़ता है। कई बार तम्हें गहरी चोट प्रेम की मंजिल पर जो तुम्हें ले आता है, तय करना मुश्किल भी करनी पड़ती है। होता है कि वह पथ-प्रदर्शक था कि लुटेरा था। झेन फकीर डंडा लिये रहते हैं। वे अपने शिष्यों के सिर पर डंडे | ठहरा गया है ला के जो मंज़िल में इश्क की मारते हैं। क्या जाने रहनुमा था कि रहजन था, कौन था! स भी है—सक्षम है. उतना स्थल नहीं है। जब तय करना बहत मश्किल है। क्योंकि प्रेम की मंजिल पर वही लगता है, जरूरत है कि तुम नींद में खोये जा रहे हो, तो डंडा भी ला सकता है जो तुम्हें लूटता भी हो। वहां मार्गदर्शक और लुटेरे मारना पड़ता है। तो बेमुरौअत बिलकुल ठीक है, क्योंकि प्रेम है। एक ही हैं, रहनुमा और रहजन एक ही हैं। तुमसे, इसलिए बेमुरौअत होना ही पड़ेगा। क्योंकि प्रेम है, पूरा प्रयास यही तो है कि तुम्हें मिटा दूं, ताकि तुम 'हो' सको! इसलिए तुम्हें जगाना ही पड़ेगा। और माना कि कई बार जब तुम्हें तुम्हारे अहंकार को तोड़ दूं, ताकि तुम्हारा निरहंकार मुक्त हो जगा रहा हूं, तब तुम कोई मीठा सपना देख रहे हो, तो तुम नाराज सके, उठ सके! तुम्हारे अहंकार की जंजीर टूटे, तो ही तुम्हारे भी होते हो। निरहंकार की स्वतंत्रता का आविर्भाव हो। लेकिन अगर तुम 'बेवफा बेगाना-ए-दिल'–ठीक है। तुम जितने मेरे करीब जन्मों-जन्मों तक जंजीरों में रहे हो, तो जंजीरों को तुमने आभूषण आओगे, उतना मैं पीछे दूर हटता जाऊंगा, क्योंकि तुम्हें और मान लिया है। तो जब मैं तुम्हारे आभूषण तोडूंगा-मैं समझता आगे ले जाना है। इसलिए बहुत बार बेवफा मालूम पडूंगा। हूं जंजीरें, तुम समझते हो आभूषण-तो तुम्हें लगेगा कि यह बुलाऊंगा पास और खुद दूर हट जाऊंगा। पुकारूंगा और जब तो...आए थे गुरु के पास, यह आदमी कातिल सिद्ध हुआ। हम तुम चल पड़ोगे तो तुम पाओगे कि मैं वहां नहीं खड़ा हूं जहां से खोजते थे, कोई जो सांत्वना देगा, इसने और सारी सांत्वनाएं पुकारा था। छीन लीं। हम खोजते थे, कोई जो हमारे शृंगार को और थोड़ा इसलिए बहुत-से मित्र मेरे साथ परेशानी में रहते हैं। वे कहते बढ़ावा देगा, जो हमारे आभूषणों को और थोड़ी सजावट देगा। 128 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो लेकिन तुम जिसे आभूषण कहते हो, वह आभूषण नहीं। और | कब तक जानती रहोगी 'तरु'? रखो! तुमने जिसे अभी समझा है तुम हो, वह तुम नहीं-उसकी तो जानने-जानने में कब तक समय गंवाओगी? कहीं ऐसा न हो हत्या ही करनी पड़ेगी-बेमुरौअत! उस पर कोई दया नहीं की कि जानने की बात जानने की ही रह जाए! होने की बनाओ! जब जा सकती! उसे तो मिटाना होगा। वही तो तुम्हारे पावों को कोई बात ऐसी लगती हो कि दिल में रख लेने की है, तो सोचो जकड़े है। मत। सोचने में क्षण न खोओ, रख ही लो! 'सांस लेती हूं तो यह महसूस होता है मुझे, एक बारी धक से होकर दिल की फिर निकली न सांस जानती हूं दिल में रखने के ही काबिल आप हैं। किस शिकार अन्दाज का यह तीरे-बेआवाज है! गम नहीं है लाख तूफानों से टकराना पड़े फिर जब कोई चीज हृदय में जाती हो, तो जाने दो तीर की मैं हूं वह किश्ती कि जिस किश्ती के साहिल आप हैं।' तरह। सोचो मत! सोचने में ही तीर इधर-उधर हो जाएगा। और तूफान से टकराने में गम कैसा? क्योंकि तूफान से टकराकर | हर बात के पकने का क्षण होता है, ऋतु होती है। जो अभी हो ही कोई किनारे को उपलब्ध होता है। किनारे के आसपास ही सकता है, अभी हो सकता है; कल न हो पाए। और जो अभी न तूफान है, तूफानों के आसपास ही किनारा है। और अगर ठीक हो सका, ताजा-ताजा न हो सका, वह कल कैसे हो पाएगा? से कहें तो तूफान में ही छिपा किनारा है। बासा हो जाएगा। तो जो दिल में रख लेने जैसा लगे उसे रखो! मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो अगर जगह न हो तो दिल को बाहर करो! जगह बनाओ! किनारे से टकरा गया था सफीना। मेरे पास होने का एक ही अर्थ है, कि तुम मिटने की कला नाव किनारे से टकराकर डूब गई, यह कारण है डूब जाने का! | सीखो। नहीं कि तुम्हारे दिल में रहने का मेरा कोई इरादा है; यह मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो! तो केवल बीच का उपाय है। यह तो केवल बहाना है। यह तो मैं किनारे से टकरा गया था सफीना! तुम्हें फुसला रहा हूं। यह तो मैं यह कह रहा हूं कि चलो इस वह किनारा ही क्या जो तम्हारी नाव को न तोड दे। वह किनारा | बहाने से सही. इस निमित्त सही. तम अपना दिल तो छोडो. ही क्या जो तुम्हें तुम्हारी नाव से मुक्त न कर दे! नाव नदी के अपना दिल तो तोड़ो! मेरे लिए ही सही, जगह तो बनाओ! लिए है। किनारा तो तुम्हें नाव से छुड़ा ही देगा, नाव को तोड़ ही जगह बनते ही मैं वहां नहीं बैलूंगा। जगह हो जाए तो उसी जगह देगा। वह मंजिल ही क्या जिसको पाकर रास्ता खो न जाए, मिट | में तो परमात्मा विराजमान होता है। कबीर ने कहा है : न जाए! जिससे चल चुके वह मिट जाना चाहिए, अन्यथा उस गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागूं पांव। पर लौट जाने की संभावना बनी रहती है। | किसके पैर पकडूं! दोनों साथ ही खड़े हैं, किसके पहले चरण तो जितना-जितना तुम बढ़ते जाओगे उतना-उतना मैं तुम्हारी छुऊं। कहीं कोई अपमान न हो जाए, कोई अनादर न हो जाए। नाव को तोड़ता जाऊंगा। जब देखूगा किनारा करीब है तो नाव कहीं शिष्टाचार का कोई भंग न हो जाए। बिलकुल तोड़ देनी चाहिए। नहीं तो डर है कि तुम फिर | गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागू पांव। वासनाओं की नाव में सवार हो जाओ। बड़ी मुश्किल में पड़ गए होंगे। ऐसा होता नहीं। जब गुरु होता और ध्यान रखना, जो नाव उस किनारे से इस किनारे तक ले है तो गोविंद नहीं होता; जब गोविंद होता है तो गुरु नहीं होता। आयी है, वही नाव इस किनारे से उस किनारे ले जा सकती है। कभी ऐसा भी होता है, जब दोनों साथ खड़े होते हैं। एक बार नाव तो वही होगी, सिर्फ दिशा बदलती है। जो सीढ़ी तुम्हें ऊपर होता है ऐसा। पहले गुरु को जगह देते हैं। धीरे-धीरे गुरु हृदय ले जाती है, वही सीढ़ी तुम्हें नीचे भी ले जा सकती है। इसलिए में बैठता जाता है, बैठता जाता है, फिर एक दिन गुरु हट जाता समझदार ऊपर पहुंचकर सीढ़ी तोड़ देते हैं। है-उस दिन गोविंद। इधर गुरु जाने को होता है, उधर गोविंद 'सांस लेती हूं तो यह महसूस होता है मुझे आने को होता है। एक घड़ी में ऐसी बात होती है जब गुरु जा रहा जानती हूं दिल में रखने के ही काबिल आप हैं। होता है, गोविंद आ रहा होता है तब दोनों साथ खड़े होते हैं। 1129 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागू पांव। अस्तित्व में लीन हो रहा है और एक गहन चुप्पी घेरती जा रही फिर कबीर कहते हैं, गुरु के ही पैर लगे। है। बस अब तो एक कोने में बैठकर अस्तित्व की लीला 'बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए।' निहारती रहूं और वक्त आए तो उसमें लीन हो जाऊं। पास में इसके दो अर्थ हो सकते हैं, दोनों महत्वपूर्ण हैं। एक अर्थ तो क्या बचा है! यह हो सकता है कि जब कबीर बिगूचन में पड़ गए तो गुरु ने बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी गोविंद की तरफ इशारा कर दिया कि गोविंद के ही पैर लगो।। मेरी जिंदगी में हुजूर आप आए, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताये...वह मुक्त कर दिया कदम चूम लूं या आंखें बिछा दूं चिंता से। कहा कि फिक्र न कर मेरी, गोविंद के पैर लग। करूं क्या, यह मेरी समझ में न आए। एक अर्थ तो यह हो सकता है, जो कि सीधा-साधा है। इससे भी महत्वपूर्ण अर्थ है दूसरा, वह यह है कि...बलिहारी गुरु ___ मैं कहता हूं, जो हो बांटो। नाच हो तो नाच। गीत हो तो गीत। आपकी गोविंद दियो बताये...कबीर कहते हैं, पैर तुम्हारे ही | मस्ती हो तो मस्ती। अगर चुप्पी घनी हो रही है तो चुप्पी बांटो! लगूंगा, क्योंकि तुम्हारी ही बलिहारी है कि तुमने गोविंद को | मौन भी बांटो। बताया। फिर गोविंद के तो पैर अब लगते ही रहेंगे, लगते ही बड़ी संपदा है मौन की। मस्ती से भी बड़ी मस्ती है मौन की! रहेंगे, अब तो पैरों में ही पड़े रहेंगे। लेकिन तुम्हारे पैर अब दोबारा नाच से भी गहन नाच है मौन का। गीत से भी गीत, गीत से भी न मिलेंगे। गहन गीत है गीत मौन का-बांटो उसे! गुरु जा रहा है, गोविंद आ रहा है। गुरु विदा हो रहा है। चुप्पी का अर्थ यह थोड़े ही है कि उसे सम्हालकर बैठो। तो सदगुरु वही है जो तुम्हें मिटाए, तुम्हारे हृदय के सिंहासन पर | चुप्पी की कंजूसी हो गई। बैठ जाए-बस उस क्षण तक जब तक तुम तैयार नहीं हो, ध्यान रखना, जीवन में शुभ भी हम इस ढंग से कर सकते हैं सिंहासन तैयार नहीं है, फिर हट जाए। असदगुरु वही है जो तुम्हें कि अशुभ हो जाये और अशुभ भी इस ढंग से कर सकते हैं कि हटाए, तुम्हारे सिंहासन पर बैठ जाए और फिर हटेन। फिर कहे, | शुभ हो जाये-सारी कला यही है। इसी कला को जिसने जान छोड़ो भी अब परमात्मा-अरमात्मा की बातचीत! तो यह तो एक | लिया उसने धर्म को जान लिया। झट से छटे. दसरी में पड़ गए। यह तो अपनी झंझट से छटे तो अब एक तो मौन है जो कंजसी का मौन है। एक तो मौन है कि दूसरे की झंझट में पड़ गए। इससे तो पहली ही झंझट ठीक थी, | जो अपने-आप को बंद कर लेने का मौन है कि हट जाओ दूर कम से कम अपनी तो थी। सबसे-सबसे तोड़ लेनेवाला मौन है। अपने में बंद हो जाओ 'गम नहीं है लाख तूफानों से टकराना पड़े मोनोड बन जाओ, लीबनेस के। सब द्वार-दरवाजे बंद कर दो, मैं हूं वह किश्ती कि जिस किश्ती के साहिल आप हैं।' खिड़कियां बंद कर दो। कोई हवा न आये, कोई रोशनी न आये। अंधड़ है, आंधी है और वह अंधड़, आंधी है मूर्छा का, तक आये। तो यह मौन तो मरघट का मौन होगा। इसका गुण प्रमाद का, सोए-सोए होने का। उससे ठीक से टकराओ! निद्रा अलग होगा। यह गुण शुभ नहीं है। यह मौन तो मौत जैसा मौन से टकराकर ही जागरण पैदा होता है। निद्रा से टकराकर होगा। इससे सड़ी लाश की बदबू आयेगी। ही-उसी टकराहट में, उसी घर्षण में-जागरण पैदा होता है। __ इसलिए तुम बहुत-से त्यागी, तपस्वी, मौनियों के पास जाकर, वही जागरण किनारा है। मुनियों के पास सिर्फ लाश की सड़न पाओगे। मौन वहां खिल न पाया, फूल न बना। मौन वहां केवल अभाव रहा। मौन का अर्थ आखिरी प्रश्न: आप कहते हैं कि तुम्हारे पास जो है उसे वहां इतना ही रहा कि बोलते नहीं हैं। यह भी कोई मौन हुआ जो बांटो। मगर ऐसा हो रहा है कि संगीत, नृत्य, मस्ती सब | बोल न सके। मौन तो बोलता है—मौन से भी बोलता है। 1301 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो तो ध्यान रखना, मौन सिर्फ न बोलना भर न हो; नहीं तो वही आपसे प्रार्थना कर रहे हैं कि आप चलो, तो थोड़ा रस रहेगा। होगाः क्रोध काट डाला, काम की ग्रंथि काट डाली। काम की | किसी न किसी को तो ले जाना ही पड़ेगा। ग्रंथि गई तो ब्रह्मचर्य पैदा होने का उपाय भी गया। क्रोध की ग्रंथि पति-पत्नी सदा किसी एक को और साथ ले लेते हैं। दोनों के गई तो करुणा भी न आई। ऐसा मौन मत कर लेना कि सिर्फ न बीच जरा बातचीत चलाने को सेतु बन जाता है। यह बोलना बोलने पर आग्रह हो कि बोलते नहीं हैं। तो फिर तुम्हारे भीतर कोई बोलना है? लेकिन दो प्रेमी चुपचाप बैठ जाते हैं। देखते हैं जिंदगी सड़ने लगेगी, प्रवाह बंद हो जाएगा। तुम एक पोखर हो चांद को आकाश में। या सुनते हैं हवा की सरसराहट! या देखते जाओगे, सरिता न रहोगे। जल्दी ही कीचड़ मच जायेगी। जल्दी | हैं चुपचाप तारों को। कुछ बोलते नहीं। लेकिन खुले हैं। बहते ही तुम अपनी कुंठा में सड़ोगे। क्योंकि जीवन संबंधों में है। हैं एक-दूसरे में, ऊर्जा मिलती है। मिलन होता है। एक गहन कोई फिक्र नहीं, हजार ढंग हैं बोलने के। बोलना ही थोड़े ही तल पर गहन संभोग होता है। पर चुप! सब कुछ है! किसी का हाथ ही हाथ में ले लो तो क्या तुम बोले | शब्द बाधा डालते हैं। जब कोई प्रेमी किसी प्रेयसी से बहुत नहीं? किसी की तरफ भरी हुई आंखों से देखा तो क्या तुम बोले कहने लगे, बार-बार कहने लगे कि मैं तुझे प्रेम करता है, तब नहीं? किसी के पास चपचाप बैठे रहे, लेकिन बंद नहीं खले, समझना कि प्रेम जा चुका, अब बातचीत है। अब प्रेम नहीं है, बहते तो क्या तुम बोले नहीं? सच तो यह है कि जीवन में जो भी इसलिए बातचीत से परिपूर्ति करनी पड़ती है। नहीं तो प्रेम काफी महत्वपूर्ण है, ऐसे ही बोला जाता है। जब दो प्रेमी गहन प्रेम में | है, कहने की जरूरत नहीं है। होते हैं तो चप बैठ जाते हैं। जब प्रेमी बातचीत करने लगें तो तो मैं तुमसे कहता है, मौन तो आये, लेकिन जीवंत आये, समझना कि पति-पत्नी हो गये। पति-पत्नी चुप नहीं बैठ सकते, बहता हुआ आये। तुम्हारा प्रवाह न मिटे। तुम बंद न होओ। क्योंकि चुप बैठे तो दोनों बंद हो जाते हैं; दोनों बंद हो जाते हैं तो तुम खुलो। तो फिर मौन भी बंटे। बोझिल हो जाते हैं। तो पत्नी कहने लगती है, 'चुप क्यों बैठे यह मैं तुमसे जो बोल रहा हूं, क्या तुम सोचते हो, बोल रहा हो? क्या मतलब?' तो कुछ भी बोलो! बोल जारी रखो, | हूं? अपना मौन बांट रहा हूं। क्योंकि तुम मेरे मौन को सीधा न ताकि कहीं ऐसा न हो कि एक-दूसरे की मुर्दानगी और एक-दूसरे समझ सकोगे, शब्दों की सवारी से बांट रहा हूं। शब्दों के ऊपर की ऊब प्रगट हो जाये। तो बोलते हैं, चेष्टा करके बोलते हैं। सवार होकर जो आ रहा है, वह मौन है। घुड़सवार को देखना, नहीं बोलना हो, बोलते हैं। कुछ भी बात ले आते हैं-खबर, घोड़े को ही मत देखते रहना। शब्दों पर जो सवारी करके आ रहा समाचार-उसकी चर्चा चलाने लगते हैं। न पत्नी को उस में है, जरा उसे देखो। तुम्हें जो मैं देना चाहता हूं, वह शब्द नहीं है। रस है, न पति को रस है; न पत्नी सुन रही है, न पति बोल रहा तुम्हें जो देना चाहता हूं, वह मेरा मौन है। है लेकिन वाणी चल रही है। दोनों आसपास शब्दों का जाल | तो मौन ही बांटो। कहीं छुपता है कुछ! अगर जीवंत मौन हो बुनते हैं, ताकि कहीं धोखा न टूट जाये, कहीं भ्रम न मिट जाये, तो मौन ही दिखाई पड़ने लगता है, सघन हो जाता है। जहां से कहीं ऐसा न हो जाये कि पता चले कि हम ट गये, गुजरोगे, दूसरा आदमी चौंककर सुनने लगेगा मौन को जरा पास अलग-अलग हो गये! मेरे एक मित्र हैं। हिमालय की यात्रा को जाते थे। तो मुझसे 'बेदार'! छुपाए से छुपते हैं कहीं तेरे कहा, आप चलें। मैंने कहा कि हिमालय की यात्रा पर जाते हो, चेहरे से नुमायां हैं आसार मुहब्बत के। अच्छा है। तुम पति-पत्नी जा रहे हो, मुझे क्यों और बीच में लेते कहीं प्रेम छुपा! कितना छिपाओ, आंख की झलक, चेहरे का हो? मेरे होने से बाधा पड़ेगी। उन्होंने कहा, आप भी क्या बात रंग-ढंग, ओंठों की मुस्कुराहट; कितना छिपाओ, चाल की करते हैं! तीस साल हो गये शादी हुए, अब क्या बाधा खाक गति, उठने-बैठने का प्रसाद, सब तरफ जैसे प्रेमी के आसपास पड़ेगी? अब तो हालत ऐसी है कि अगर तीसरा आदमी मौजूद | कुछ सूक्ष्म धुंघरू बजते हैं! न हो तो हमारी समझ में नहीं आता, क्या करें! इसलिए तो 'बेदार'! छुपाए से छुपते हैं कहीं तेरे ____ 131 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 चेहरे से नुमायां हैं आसार मुहब्बत के बड़ा शोर मचता है, फिर तूफान जा चुका, फिर शांति कैसी घनी मौन भी नहीं छुपता। परमात्मा भी नहीं छुपता। तुम चुप भी हो जाती है! जब बुद्ध जैसा व्यक्ति शांत होगा, सदियों-सदियों बैठे रहो तो भी प्रगट होता चला जाता है। का एक तूफान, जन्मों-जन्मों का एक तूफान, एक अंधड़ जो हम तो चुप थे मगर अब मौजे सबा के हाथों चलता ही रहा और चलता ही रहा, अचानक आज बंद हो फैली जाती हैं तेरे हुस्न की खुशबू हर सू गया-देवताओं को खबर न मिलेगी! चुप होने से ही खबर जब कोई प्रभु को उपलब्ध होता है, उस परम शांति को, परम | मिल गई। निर्विकार को, तो चुप भी बैठा रहे तो भी क्या फर्क पड़ता है! जो है वही बांटो। अगर चुप्पी बन रही है, शुभ है। बंद मत हम तो चुप थे मगर अब मौजे सबा के हाथों होना, चुप्पी को भी संबंध बनाये रखना। मित्रों को कभी निमंत्रित -हम तो चुप ही बैठे थे, लेकिन सुबह की ठंडी हवायें आ कर देना कि आओ, चुपचाप बैठेंगे। जिसको चुपचाप बैठना गईं, हम क्या करें! | होगा, आ जायेगा। हाथ में हाथ ले लेना: साथ-साथ रो लेना, फैली जाती है तेरे हुस्न की खुशबू हर सू या हंस लेना। बोलना मत। और तब तुम पाओगे कि एक नया -और तेरे सौंदर्य की खुशबू ये हवायें ले चलीं, और ये ही द्वार खुला संबंधों का। तुमने किसी और ढंग से दूसरे मनुष्य फैलाने लगीं। की चेतना को छुआ और तुमने मौका दिया, दूसरे को भी कि एक बुद्ध को परम अनुभव हुआ। कहते हैं, सात दिन वे चुप बैठे | नये ढंग से, शब्दों के अलावा संबंध निर्मित करे। रहे। पर देवता भागे चले आये स्वर्ग से। पहंच गई भनकः कुछ 'गहन चुप्पी घेरती जाती है। एक कोने में बैठकर अस्तित्व की घटा है पृथ्वी पर! अस्तित्व ने कोई नया रंग लिया है! अस्तित्व लीला निहारती हूं।' ने कोई नया नाच नाचा है! कोई शिखर बना है अस्तित्व का! निहारने को बांटो। जिस ढंग से तुम निहारती हो, उसी ढंग से कोई गौरीशकर उठा है! भागे देवता। वे चुप ही बैठे रहे। किसी और को निमंत्रित करो कि आओ, मेरी दृष्टि में सहभागी देवताओं ने नमस्कार किया, चरणों में सिर रखा, और कहा, कुछ बनो। इसलिए तो मैंने तुम्हें यहां बुला भेजा है। बुलाये चला बोलें! बुद्ध ने कहा, 'लेकिन तुम्हें पता कैसे चला? मैं तो जाता हूं: दूर-दूर देशों से, पृथ्वी का कोई कोना नहीं जहां से लोग बिलकुल चुप हूं। सात दिन से तो मैं बोला ही नहीं। और मैंने तो चले नहीं आते! अपनी दृष्टि में मैं तुम्हें सहभागी बनाना चाहता यही तय किया है कि बोलूंगा नहीं। क्या सार बोलने से? | हूं। चाहता हूं कि तुम भी जरा मेरी आंख से झांककर देखो। जो जिनको समझना है, बिना बोले समझ लेंगे। और जिनको नहीं | मैंने देखा है, थोड़ा-सा तुम भी देखो। फिर तुम अपनी आंख समझना है, वे कहीं बोलकर भी समझ पायेंगे! मगर यह तो खोज लेना। एक दफा स्वाद तो आ जाये। बताओ, तुम्हें खबर कैसे मिली?' 'और वक्त आये तो उसी में लीन हो जाऊं।' तो देवताओं ने कहा, आप भी कैसी बात करते हैं। यह घटना आ ही जायेगा वक्त। आ ही गया है। बांटो! बांटना भी लीन कुछ ऐसी है, जब घटती है तब खबर मिल ही जाती है। तुम बैठे होने की प्रक्रिया है।। रहो चुप, जल्दी ही तुम पाओगे कि रास्ते बनने लगे, तुम्हारी तरफ 'पास में क्या बचा है?' जब कुछ नहीं बचता, तभी जो बचा लोग आने लगे। वे तुम्हें बुलवा कर रहेंगे। तुम्हें बोलना ही है वही संपदा है। एक झेन फकीर एक रास्ते से गुजर रहा था। पड़ेगा, तुम्हारी करुणा को बोलना ही पड़ेगा। तुम इतने कठोर वह बड़ा बलिष्ठ आदमी था। बड़ा बलशाली था। दो डाकुओं कैसे हो सकोगे? हम ही आ गये, कितनी दूर से-स्वर्ग से! ने उस पर हमला कर दिया। दुबले-पतले दीन-हीन डाकू थे; कोई चुप हो गया है! कुछ घटा है! | नहीं तो डाकू ही क्या होते-दीन-हीन ही डाक् बनते हैं। उसने तुमने कभी चुप्पी को अनुभव किया है ? चुप्पी भी एक घना दोनों की गर्दन पकड़कर उनको उठा लिया और दोनों का सिर अस्तित्व है। रेलगाड़ी शोरगुल करती निकल जाती है। उसके टकराने जा रहा था, तो उसे खयाल आया : अरे बेचारे! इनके बाद तुमने देखा है, चुप्पी कैसी घनी हो जाती है! तूफान आता है, पास कुछ भी तो नहीं है। दोनों को छोड़ दिया। वे तो बड़े [132 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मिटो तो मिलन हो चौंके-से, चौकन्ने-से खड़े रह गये कि अब क्या करना। और जो कुछ उसके पास था उसने दे दिया। वे दोनों भागे लेकर। और वह फकीर जोर-जोर से हंसने लगा, तो वे लौटकर आये। उन्होंने कहा कि महाराज! आप हंस क्यों रहे हैं? आप अजीब आदमी हैं। हम तो समझे कि मरे! आपने जब दोनों के सिर पास लाये, तो हम समझे कि गये! फिर क्या हुआ, आपने दोनों को छोड़ भी दिया? हमने मांगा भी नहीं, हम तो भागने की तैयारी कर रहे थे कि आपके पास जो था आपने दे दिया। अब आप हंस किसलिए रहे हैं? तो उस फकीर ने कहा कि आज मझे पहली दफे पता चला उसका जो मेरे पास है, और जिसे कोई भी ले नहीं सकता। जो लेने योग्य था, देने योग्य था वह मैंने तुम्हें दे दिया-आज मैं नग्न खड़ा हूं। आज मेरे पास बस वही बचा है, जिसको न कोई ले सकता है, न कोई दे सकता है। आज शुद्ध अस्तित्व बचा है। उसी शुद्ध अस्तित्व का नाम महावीर ने आत्मा दिया है। खोओ। जो खो ही जायेगा उसे अपने हाथ से ही खो दो। जो मौत छीन लेगी तुम उसे स्वयं ही दे दो, ताकि मौत जब आये तो छीनने को उसके पास कुछ भी न हो। तुम्हारे पास कुछ भी न हो जिसे वह छीन सके। मौत के पहले जो छीना जा सकता है, उसे बांट दो। पकड़ो मत! पकड़ छोड़ो! और तब तुम पाओगे: मौत आयेगी, लेकिन तुम्हें मार न पायेगी। क्योंकि मौत घटती है इसीलिए कि तुम उसे पकड़े हो जो छीना जा सकता है। जब मौत छीनती है, तुम समझे कि मरे। जिसने उसे पहले ही छोड़ दिया-मौत आती है, खाली हाथ चली जाती है। कुछ है ही नहीं छीनने को। वही बचा है जिसे छीना नहीं जा सकता-स्वभाव, धर्म, तुम्हारे भीतर का परमात्मा! आज इतना ही।