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________________ तुम मिटो तो मिलन हो है। रह-रहकर उसके झोंके आ जाते हैं हवा के। रह रहकर चूकने का उपाय नहीं है। हां, तुम मानना चाहो तो माने रह उसकी गंध तैर जाती है। सकते हो कि चूके हो। चूकना तुम्हारी भ्रांति है। जिस दिन बहार जब भी चमन में दीये जलाती है जानोगे उस दिन हंसोगे-हंसोगे इस मूढ़ता पर कि अब तक हुजूमे-गुल से मुझे तेरी आंच आती है। कैसे मैंने माने रखा कि चूक गये थे, परमात्मा को चूक गये थे, बहार जब भी चमन में दीये जलाती है-जब बसंत आ जाता भूल गये थे! यह कैसे संभव हुआ था कि अब तक मैं समझ न है और बगीचों में दीये जलते हैं, फूलों के दीये जलते पाया था कि वह हमेशा मौजूद है, सब तरफ मौजूद है! हैं...हुजूमे-गुल से मुझे तेरी आंच आती है। तब फूलों के गुच्छों| कबीर कहते हैं कि मुझे देख-देखकर बड़ी हंसी आती है कि से मुझे तेरी आंच आती है। हर तरफ जीवन उसी की आंच देने मछली सागर में प्यासी है। मछली सागर में प्यासी है। और लगता है। हर श्वास उसी की श्वास है। हृदय में दौड़ते हुए सागर को मछली खोज रही है, कहां है। रक्त-कण उसी के हैं। तो एक तरफ तो सब तरफ से उसकी ईश्वर की सारी खोज ऐसे ही है जैसे मछली सागर को खोजती खबर मिलने लगती है; और दूसरी तरफ, और चाहिए, और हो, कहां है। इतने निकट है कि खोजने का अवकाश भी कहां चाहिए, और चाहिए, क्योंकि दूसरा किनारा नहीं मिलता। है! मछली सागर से ही बनती है, सागर में ही पैदा होती है। भक्त भगवान को पाकर और भी विरह में पड़ जाता है। यह सागर ही मछली के भीतर भी लहरें लेता है, बाहर भी लहरें लेता भक्ति का विरोधाभास है। जिन्होंने नहीं पाया है, वे तो | है। फिर सागर में ही लीन हो जाती है एक दिन, खो जाती है। कभी-कभी रोते हैं उसके लिए, कभी-कभी श्याम-श्याम की सागर की ही एक लहर है मछली-थोड़ी ज्यादा ठोस, थोड़ी रटन करते हैं, जिन्होंने पाया है, उनके रोने का तुम्हें कुछ पता ही ज्यादा देर टिक जानेवाली-थोड़े ज्यादा दिन उछल-कूद कर नहीं। वे रोते ही रहते हैं। कभी रोते हैं, कभी नहीं रोते-ऐसा लेती है और लहरों की बजाय; लेकिन लहर सागर की है। नहीं; रोते ही रहते हैं। रटन करते हैं, ऐसा भी नहीं है; लेकिन | इसलिए घबड़ाओ मत। चूकने का उपाय नहीं है। मैं तुम्हें जो फिर भी रटन होती रहती है। दूर गहन गहरे हृदय में पुकार समझा रहा हूं, वह पाने का उपाय नहीं बता रहा हूं; तुम्हें सिर्फ चलती ही रहती है। यह समझा रहा हूं कि तुमने चूकने के लिए जो उपाय बना रखे हैं, परमात्मा एक अनंत यात्रा है; ऐसा तीर्थ है जिसकी तरफ हम वे छोड़ दो। साधारणतः लोग कहते हैं कि हमें विधि बताओ कि चलते तो हैं, लेकिन कभी पहुंच नहीं पाते। परमात्मा गंतव्य नहीं | कैसे हम परमात्मा को पा लें। मैं तुमसे कहता हूं, मैं तुम्हें जो है। हम उसकी तरफ गति करते हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता विधि बतला रहा हूं, वह परमात्मा को पाने की नहीं है; क्योंकि कि हम कह दें, बस अब आगे और नहीं। अगर ऐसा होता तो उसको तो कभी खोया नहीं, वह तो बात ही छोड़ दो, वह परमात्मा को अनंत कहने का कोई भी अर्थ न था। अगर आगे बकवास तो मेरे सामने उठाओ ही मत। कोई मछली मुझसे पूछे और नहीं तो परमात्मा भी शांत है, पूरा हो गया। नहीं, सदा शेष | सागर कहां है, मैं जवाब देनेवाला नहीं हूं क्योंकि मैं क्यों है। यही दुविधा भी है, यही सौभाग्य भी। नहीं तो सोचो, जिसने फिजूल पंचायत में पडूं। वह तो नासमझ है ही और मुझको भी पा लिया वह क्या करता? ऊबकर, थककर बैठ जाता : 'अब नासमझ बनाने की तैयारी है। तो मैं तो यही समझने की कोशिश क्या करूं? अब कहां जाऊं? अब क्या बनूं? अब क्या हो करूंगा कि यह मछली कैसे भूल गई है, यह मछली कैसे जाऊं? अब किसको खोजं?' | अपरिचित रह गई है। इसके अपरिचय को तोड़ देना है। अनंत है। रोज-रोज नये-नये शिखर उसके पुकारते हैं। रोज परमात्मा से परिचय थोड़े ही बनाना है; अपने अपरिचय के जो नयी चुनौती आ जाती है। वह बुलाता ही चला जाता है। तुम ढंग हैं, वे तोड़ देने हैं। पर्दे उठा लेने हैं, जो हमने डाले पास भी आते चले जाते हो और फिर भी उसे छू नहीं पाते। हैं-परमात्मा तो सामने ही है। उसके चेहरे पर कोई घूघट नहीं _ 'आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो! कहीं चूक न है, हमारी ही आंखों पर पर्दा है। फिर पर्दा डाले तुम कहीं भी जाऊं...!' घूमते रहो, काशी कि काबा, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी आंख 1211 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrart.org
SR No.340106
Book TitleJinsutra Lecture 06 Tum Mito to Milan Ho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size45 MB
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