Book Title: Jain Tattva Darshan Part 03
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री चन्द्रप्रभ स्वामिने नमः ।। SAHISAIRN OA.. अहिंसा परमो धर्म श्री वर्धमान जैन मंडल, चेन्नई द्वारा संचालित | (संस्थापक सदस्य : श्री तमिलनाड जैन महामंडल) श्री वर्धमान कुंवर जैन संस्कार वाटिका ... Ek Summer Holiday Camp संस्कारवाटिका Estd.:2006 Estd.:1991 ( JAIN TATVA DARSHAN) DOOOO संकलन व प्रकाशक पाठ्यक्रम-3 श्री वर्धमान जैन मंडल, चेन्नई Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक ज्ञान ज्योत जो बनी अमर ज्योत जन्म दिवस 14-2-1913 स्वर्गवास 27-11-2005 ah ് पंडितवर्य श्री कुंवरजी भाई दोशी * जन्म : गुजरात के भावनगर जिले के जैसर गाँव में हुआ था। * सम्यग्ज्ञान प्रदान : भावनगर, महेसाणा, पालिताणा, बेंगलोर, मद्रास। * प.पू. पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. का आपश्री पर विशेष उपकार। O* श्री संघ द्वारा पंडित भषण की पदवी से सशोभित। * अहमदाबाद में वर्ष 2003 के सर्वश्रेष्ठ पंडितवर्य की पदवी से सम्मानित। * प्रायः सभी आचार्य भगवंतों. साध -साध्वीयों से विशेष अनमोदनीय। * धर्मनगरी चेन्नई पर सतत् 45 वर्ष तक सम्यग् ज्ञान का फैलाव। * तत्त्वज्ञान, ज्योतिष, संस्कृत, व्याकरण के विशिष्ट ज्ञाता। * पूरे भारत भर में बड़ी संख्या में अंजनशलाकाएँ एवं प्रतिष्ठाओं के महान् विधिकारक। * अनुष्ठान एवं महापूजन को पूरी तन्मयता से करने वाले ऐसे अद्भुत श्रद्धावान्। * स्मरण शक्ति के अनमोल धारक। * तकरीबन 100 छात्र-छात्राओं को संयम मार्ग की ओर अग्रसर कराने वाले। * कई साधु-साध्वीयों को धार्मिक अभ्यास कराने वाले। * आपश्री द्वारा मंत्रों का स्पष्ट उच्चारण एवं विधि में शुद्धता को विशेष प्रधानता। * तीर्थ यात्रा के प्रेरणा स्त्रोत। दुनिया से भले गये पंडितजी आप, हमारे दिल से न जा पायेंगे। आप की लगाई इन ज्ञान परब पर, जब-जब ज्ञान जल पीने जायेगे तब बेशक गुरुवर आप हमें बहुत याद आयेंगे..... वि.सं.२०७१ई.स.2015 तृतीय आवृत्ति-5000 प्रतिया (कुल 8000 प्रतिया) मूल्य: रू.70/सर्व अधिकार : श्रमण प्रधान श्री संघ के आधीन साधु-साध्वीजी भगवंतो को और ज्ञानभंडारो को भेट स्वरूप मिलेगी। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान श्री कुंवर जैन - संस्कार वाटिका ।। श्री चन्द्रप्रभस्वामिने नमः ।। जैन तत्त्व दर्शन JAIN TATVA DARSHAN पाठ्यक्रम उ वर्धमान * दिव्याशीष "पंडित भूषण" श्री कुंवरजीभाई दोशी श्री श्री वर्धमान कुंवर जैन संस्कार वाटिका ..Ek Summer Holiday Camp कुंवर जैन संस्कार वाटिका * संकलन व प्रकाशक श्री वर्धमान जैन मंडल 33, रेड्डी रामन स्ट्रीट, चेन्नई - 600079. फोन : 044-25290018 / 25366201 / 25396070/ 23465721 Website : jainsanskarvatika.com E-mail : svjm1991@yahoo.in नोट: यह पस्तक बच्चों को रोचक बने. इस हेत आपके सझाव उपर के पते पर अवश्य भेजे । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० संस्कार वाटिका * अंधकार से प्रकाश की ओर .एक कदम अज्ञान अंधकार है, ज्ञान प्रकाश है, अज्ञान रूपी अंधकार हमें वस्तु की सच्ची पहचान नहीं होने देता। अंधकार में हाथ में आये हुए हीरे को कोई कांच का टुकडा मानकर फेंक दे तो भी नुकसान है और अंधकार में हाथ में आये चमकते कांच के टुकड़े को कोई हीरा मानकर तिजोरी में सुरक्षित रखे तो भी नुकसान हैं। ज्ञान सच्चा वह है जो आत्मा में विवेक को जन्म देता है। क्या करना, क्या नहीं करना, क्या बोलना, क्या नहीं बोलना, क्या विचार करना, क्या विचार नहीं करना, क्या छोडना, क्या नहीं छोडना, यह विवेक को पैदा करने वाला सम्यग् ज्ञान है। संक्षिप्त में कहें तो हेय, ज्ञेय, उपादेय का बोध कराने वाला ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। वही सम्यग्ज्ञान है। संसार के कई जीव बालक की तरह अज्ञानी है, जिनके पास भक्ष्य-अभक्ष्य, पेय-अपेय, श्राव्य-अश्राव्य और करणीय-अकरणीय का विवेक नहीं होने के कारण वे जीव करने योग्य कई कार्य नहीं करते और नहीं करने योग्य कई कार्य वे हंसते-हंसते करके पाप कर्म बांधते हैं। बालकों का जीवन ब्लोटिंग पेपर की तरह होता है। मां-बाप या शिक्षक जो संस्कार उसमें डालने के लिए मेहनत करते हैं वे ही संस्कार उसमें विकसित होते हैं। बालकों को उनकी ग्रहण शक्ति के अनुसार आज जो जैन दर्शन के सूत्रज्ञान-अर्थज्ञान और तत्त्वज्ञान की जानकारी दी जाय, तो आज का बालक भविष्य में हजारों के लिए सफल मार्गदर्शक बन सकता है। बालकों को मात्र सूत्र कंठस्थ कराने से उनका विकास नहीं होगा, उसके साथ सूत्रों के अर्थ, सूत्रों के रहस्य, सूत्र के भावार्थ, सूत्रों का प्रेक्टिकल उपयोग, आदि बातें उन्हें सिखाने पर ही बच्चों में धर्मक्रिया के प्रति रूचि पैदा हो सकती है। धर्मस्थान और धर्म क्रिया के प्रति बच्चों का आकर्षण उसी ज्ञान दान से संभव होगा। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी उद्देश्य के साथ वि.सं. 2062 (14 अप्रेल 2006) में 375 बच्चों के साथ चेन्नई महानगर के साहुकारपेट में "श्री वर्धमान जैन मंडल' ने संस्कार वाटिका के रूप में जिस बीज को बोया था, वह बीज आज वटवृक्ष के सदृश्य लहरा रहा है। आज हर बच्चा यहां आकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है। पंडित भूषण पंडितवर्य श्री कुंवरजीभाई दोसी, जिनका हमारे मंडल पर असीम उपकार है उनके स्वर्गवास के पश्चात मंडल के अग्रगण्य सदस्यों की एक तमन्ना थी कि जिस सद्ज्ञान की ज्योत को पंडितजी ने जगाई है, वह निरंतर जलती रहे, उसके प्रकाश में आने वाला हर मानव स्वव पर का कल्याण कर सके । इसी उद्देश्य के साथ आजकल की बाल पीढी को जैन धर्म की प्राथमिकी से वासित करने के लिए सर्वप्रथम श्री वर्धमान कुंवर जैन संस्कार वाटिका की नींव डाली गयी। वाटिका बच्चों को आज सम्यग्ज्ञान दान कर उनमें श्रद्धा उत्पन्न करने की उपकारी भूमिका रही हैं। आज यह संस्कार वाटिका चेन्नई महानगर से प्रारंभ होकर भारत में ही नहीं अपितु विश्व के कोने-कोने में अपने पांव पसार कर सम्यग् ज्ञान दान का उत्तम दायित्व निभा रही है। जैन बच्चों को जैनाचार संपन्न और जैन तत्त्वज्ञान में पारंगत बनाने के साथ-साथ उनमें सद् श्रद्धा का बीजारोपण करने का आवश्यक प्रयास वाटिका द्वारा नियुक्त श्रद्धा वासित हृदय वाले अध्यापक व अध्यापिकागणों द्वारा निष्ठापूर्वक इस वाटिका के माध्यम से किया जा रहा है। संस्कार वाटिका में बाल वर्ग से युवा वर्ग तक के समस्त विद्यार्थियों स्वयं के कक्षानुसार जिनशासन के तत्त्वों को समझने और समझाने के साथ उनके हृदय में श्रद्धा दृढ हो ऐसे शुद्ध उद्देश्य से "जैन तत्त्व दर्शन (भाग 1 से 9 तक)" प्रकाशित करने का इस वाटिका ने पुरूषार्थ किया है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन अभ्यास पुस्तिकाओं द्वारा "जैन तत्त्व दर्शन (भाग 1 से 9), कलाकृत्ति (भाग 1-3), दो प्रतिक्रमण, पांच प्रतिक्रमण, पर्युषण आराधना'' पुस्तक आदि के माध्यम से अभ्यार्थीयों को सहजता अनुभव होगी। इन पुस्तकों के संकलन एवं प्रकाशन में चेन्नई महानगर में चातुर्मास हेतु पधारे, पूज्य गुरु भगवंतों से समयसमय पर आवश्यक एवं उपयोगी निर्देश निरंतर मिलते रहे हैं। संस्कार वाटिका की प्रगति के लिए अत्यंत लाभकारी निर्देश भी उनसे मिलते रहे हैं। हमारे प्रबल पुण्योदय से इस पाठ्यक्रम के प्रकाशन एवं संकलन में विविध समुदाय के आचार्य भगवंत, मुनि भगवंत, अध्यापक, अध्यापिका, लाभार्थी परिवार, श्रुत ज्ञान पिपासु आदि का पुस्तक मुद्रण में अमूल्य सहयोग मिला तदर्थ धन्यवाद । आपका सुन्दर सहकार अविस्मरणीय रहेगा। इस पुस्तक के मुद्रक जगावत प्रिंटर्स धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने समय पर पुस्तकों को प्रकाशित करने में सहयोग दिया। इस पुस्तक को नौ विभागों में तैयार करने में विविध पुस्तकों का आधार लिया है, एवं नामी-अनामी चित्रकारों के चित्र लिये गये है। अत: उन पुस्तकों के लेखक, संपादक, प्रकाशकों के हम सदा ऋणी रहेंगे... इस पुस्तक में कोई भूल-त्रुटि हो तो सुज्ञ वाचकगण सुधार लेंवे। इस पुस्तक के लेखन, संपादन, प्रकाशन में कही पर भी तरणतारणहार जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा हो तो त्रिविधे त्रिविधे मिच्छामि दुक्कड़म्'। अंत में इस पुस्तक के माध्यम से बालक, बालिका सुपवित्र आचरण एवं शोभास्पद व्यवहार द्वारा स्व-पर के जीवन को सुशोभित बनाकर जिनशासन के गरिमापूर्ण ध्वज को ऊँचे आकाश तक लहरायें , यही शुभकामना। भेजिये आपके लाल को, सचे जैन हम बनायेंगे। दुनिया पूजेगी उनको, इतना महान बनायेंगे। जिनशासन सेवानुरागी श्री वर्धमान जैन मंडल साहुकारपेट, चेन्नई-79. नम्र विनंती : समस्त आचार्य भगवंत, मुनि भगवंत, पाठशाला के अध्यापक-अध्यापिकाओं एवं श्रुत ज्ञान पिपासुओं से नम्र विनंती है कि इन पाठ्यक्रमों के उत्थान हेतु कोई भी विषय या सुझाव अगर आपके पास हो तो हमें अवश्य लिखकर भेजें ताकि हम इसे और भी सुंदर बना सकें। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mitial मंडल को विविध गुरु भगवंतों का सफल मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद 1. प. पू. पंन्यास श्री अजयसागरजी म.सा. 2. प. पू. पंन्यास श्री उदयप्रभविजयजी म.सा. 3. प. पू. मुनिराज श्री युगप्रभविजयजी म.सा. 4. प. पू. मुनिराज श्री अभ्युदयप्रभविजयजी म.सा. 5. प. पू. मुनिराज श्री दयासिंधुविजयजी म.सा. पुस्तक में प्रकाशित विषय निम्न पुस्तकों में से लिए गये है : :: उपयुक्त ग्रंथ की सूची :: 2) योगबिंदु 5) लघु संग्रहणी 8) श्राद्धविधि प्रकरण 1) धर्मबिंदु 4) नवतत्त्व 7) गुरुवंदन भाष्य 1) 2) 3) 4) 5) कहीं मुरझा न जाए 6) रात्रि भोजन महापाप 7) पाप की मजा-नरक की सजा 8 ) चलो जिनालय चले 9) रीसर्च ऑफ डाईनिंग टेबल 10) सुशील सद्बोध शतक 11) जैन तत्त्वज्ञान चित्रावली प्रकाश 12) अपनी सच्ची भूगोल 13) सूत्रोना रहस्यो 14) गुड बॉय / पंच प्रतिक्रमण सूत्र 15) हेम संस्कार सौरभ गृहस्थ धर्म बाल पोथी :: उपयुक्त पुस्तक की सूची :: तत्त्वज्ञान प्रवेशिका बच्चों की सुवास / व्रतकथा 3) जीव विचार 6 ) चैत्यवंदन भाष्य 9) प्रथम कर्मग्रंथ 16) आवश्यक क्रिया साधना 17 ) गुरू राजेन्द्र विद्या संस्कार वाटिका 18) पच्चीस बोल : पू. आचार्य श्रीमद् विजय केसरसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय भुवनभानूसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय राजयशसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय रत्नाकरसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय हेमरत्नसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय हेमरत्नसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय सुशीलसूरीश्वरजी म.सा. पू. आचार्य श्रीमद् विजय जयसुंदरसूरीश्वरजी म.सा. पू. पंन्यास श्री अभयसागरजी म.सा. पू. पंन्यास श्री मेघदर्शन विजयजी म.सा. पू. पंन्यास श्री वैराग्यरत्न विजयजी म.सा. पू. पंन्यास श्री उदयप्रभविजयजी म.सा. पू. मुनिराज श्री रम्यदर्शन विजयजी म.सा. पू. साध्वीजी श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. पू. महाश्रमणी श्री विजयश्री आर्या Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXXX अनुक्रमणिका Ab 1) तीर्थंकर परिचय A. श्री 24 तीर्थंकर के माता-पिता के नाम 7 2) काव्य संग्रह A. प्रार्थना B. प्रभु स्तुतियाँ C. श्री पंच परमेष्ठि जिन चैत्यवंदन D. श्री सामान्य जिन स्तवन E. श्री पंच परमेष्ठि जिन स्तुति 3) जिन पूजा विधि A. अष्टप्रकारी पूजा के दोहे एवं सामान्य अर्थ 10 B. नवांगी पूजा के दोहे एवं सामान्य अर्थ 12 C. जिन मंदिर में प्रवेश और पूजा विधि का क्रम 14 4)ज्ञान A. वरदत्त B. गुणमंजरी 5) नवपद ___ अरिहंत के 12 गुण 6) नाद, घोष 7) मेरे गुरू 8) दिनचर्या बाल संस्कार गीत 9) भोजन विवेक - अभक्ष्य त्याग 20 10) माता-पिता का उपकार 11)जीवदया-जयणा 12) विनय-विवेक 13) सम्यग् ज्ञान A. दर्शनोपासना B. गुणोपासना C. दान धर्म D. शील धर्म E. तप धर्म 32 F. समता G. व्रत-नियम H. कहानी द्वारा आठ कर्म के नाम 1. नव तत्त्वों के नाम, व्याख्या एवं भेद 14) जैन भूगोल 15) सूत्र एवं विधि A. सूत्र 12. जग चिंतामणि सूत्र 13. जं किंचि सूत्र 14. नमुत्थुणं सूत्र 15. जावंति चेइआइं सूत्र 16. जावंत के वि साहू सूत्र 17. पंच परमेष्ठि नमस्कार सूत्र 18. उवसग्गहरं स्तोत्र 19. जय वीयराय सूत्र 20. अरिहंत चेइयाणं सूत्र पच्चक्खाण 1. मुट्ठिसहिअं पच्चक्रवाण 2. धारणा - अभिग्रह पच्चक्रवाण C. विधि ___ 1. चैत्यवंदन विधि 16) कहानी विभाग A. रात्रि भोजन त्याग B. देव भक्ति का सुफल C. कुमारपाल राजा D. लोभ कषाय E. संगम (श्री शालिभद्र का पूर्व जन्म) F. मयणा सुंदरी 17) प्रश्नोत्तरी 18) सामान्य ज्ञान - GAME A. हमारे तीर्थंकर B. इन्हें पहचानों 46 48 49 52 53 54 56 56 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 234 5 69 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 Cl तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री संभवनाथजी श्री अभिनन्दनस्वामीजी श्री सुमतिनाथजी श्री पदमप्रभस्वामीजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभस्वामीजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्य स्वामीजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शतिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतस्वामीजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पर्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी लंछन बैल हाथी घोडा बंदर क्रौंच पक्षी पद्मकमल स्वस्तिक चन्द्र मगरमच्छ श्रीवत्स गेंडा पाडा सुअर (वराह) बाजपक्षी वज्र मृग बकरा नंद्यावर्त कलश कछुआ नीलकमल शंख सर्प सिंह A. श्री 24 तीर्थंकर भगवान के माता-पिता के नाम माता मरुदेवी विजया सेना सिद्धार्था सुमंगला सीमा पृथ्वी लक्ष्मणा रामा नन्दा विष्णु जया श्यामा सुयशा सुव्रता अचिरा श्री देवी प्रभावती पद्मावती वप्रा शिवा 1. तीर्थंकर परिचय वामा त्रिशला पिता नाभिकुलकर जितशत्रु जितारि संवर मेघरथ श्रीधर सुप्रतिष्ठ महासेन सुग्रीव दृढ़रथ विष्णुराज वसुपूज्य कृतवर्मा सिंहसेन भानु विश्वसेन सूर सुदर्शन कुंभ सुमित्र विजय समुद्रविजय अश्वसेन सिद्धार्थ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $89898 A. प्रार्थना सकल विश्व का जय मंगल हो, ऐसी भावना बनी रहे अमित परहित करने को मन, सदेव तत्पर बना रहे सब जीवों के दोष दूर हो, पवित्र कामना उर उल्लसे सुख शांति सब जीवों को हो, प्रसन्नता जन मन विलसे 2. काव्य संग्रह B. प्रभु स्तुतियाँ पाताले यानि बिंबानि, यानि बिंबानि भूतले, स्वर्गेपि यानि बिंबानि तानि वंदे निरंतरं ॥ 1 ॥ 1 तुभ्यं नमस्त्रि-भुवनार्त्ति - हराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-भूषणाय तुभ्यं नमस्त्रि-जगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन भवोदधि - शोषणाय ॥ 2 ॥ शुं बालको माँ-बाप पासे बाल-क्रीडा नव करे ? ने मुखमाथी जेम आवे तेम शुं नव उच्चरे ? तेमज तमारी पास तारक ! आज भोला भावथी, जेवुं बन्यु तेवुं कहुं, तेमां कशुं खोटं नथी ॥3॥ जे दृष्टि प्रभु दर्शन करे, ते दृष्टि ने पण धन्य छे, जे जीभ जिनवर ने स्तवे, ते जीभ ने पण धन्य छे। पीए मुदा वाणी सुधा, ते कर्ण युग ने धन्य छे, तुज नाम मन्त्र विशद धरे, ते हृदय ने पण धन्य छे ॥ 4 ॥ 8 दया सिन्धु, दया सिन्धु दया करना दया करना, मुझे कर्मों के बंधन से प्रभु जल्दी जुदा करना । मुझे अगर पंख मिल जाए, मैं तेरे पास आ जाऊँ, मेरे महावीर प्यारे हो, मैं तेरे में समा जाऊँ ॥ 5 ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे प्रभु आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये। लीजिये हमको शरण में, हम सदाचारी बनें ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रतधारी बनें ।।6।। c. श्री पंच परमेष्ठि जिन चैत्यवंदन बार गुण अरिहंत देव, प्रणमीजे भावे, सिद्ध आठ गुण समरतां दु:ख दोहग जावे ॥1 || आचारज गुण छत्रीश, पचवीस उवज्झाय, सत्तावीस गुण साधुना, जपतां शिवसुख थाय || 2 || अष्टोत्तर शत गुण मलीए, एम समरो नवकार, धीर विमल पंडित तणो, नय प्रणमे नित सार ।। 3 ।। D. श्री सामान्य जिन स्तवन क्युं कर भक्ति करूं, प्रभु तेरी...... क्रोध लोभ मद मान विषय रस, छांडत गेल न मेरी कर्म नचावत तिमहि नाचत, माया वश नट चेरी दृष्टि राग दृढ बंधन बांध्यो, नीकसन न लहे सेरी करत प्रशंसा सब मिल अपनी, परनिंदा अधिकेरी कहत मान जिन भाव भगति बिन, शिवगति होत न मेरी क्यु ।। 1 ।। क्यु ।। 2 ।। क्युं ।। 3 ।। क्यु ।। 4 ।। क्युं ।। 5 ।। E. श्री पंच परमेष्ठि जिन स्तुति अरिहंत नमो, वली सिद्ध नमो. आचारज वाचक साधु नमो, दर्शन ज्ञान चारित्र नमो, तप ओ सिद्धचक्र सदा प्रणमो । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. जिन पूजा विहि A. अष्टप्रकारी पूजा के दोहे एवं सामान्य अर्थ अष्टप्रकारी 1. जल पूजा का दोहा "जल पूजा जुगते करो, मेल अनादि विनाश, जल पूजा फल मुज होजो, मांगु एम प्रभु पास ।" । अर्थ : विधिपूर्वक प्रभु की पूजा करके प्रभु से इस प्रकार मांगो कि, हे प्रभु ! इस पूजा के । फल से अनादिकाल से मेरी आत्मा पर लगे हुए कर्म मेल का विनाश हो जाये। ALL 2. चंदन पूजा का दोहा का शीतल गुण जेहमा रह्यो, शीतल प्रभु मुख रंग, आत्म शीतल करवा भणी, पूजो अरिहा अंग।। ___ अर्थ : यह चंदन पूजा मेरी भावना का प्रतीक है। प्रभु मैं भी अत्यंत संतप्त हूँ। कषायों की धधकती हुई आग से मेरी आत्मा भयंकर संताप एवं क्लेश भुगत रही है। मेरे इस - संताप को दूर करने के लिये, कषायों को हटाना आवश्यक है। आपकी चंदन पूजा के प्रभाव से मेरी आत्मा में भी कषायों की उपशांति हो। 3. पुष्प पूजा का दोहा । सुरभि अखंड कुसुम ग्रही, पूजो गत संताप । सुमजंतु भव्य ज परे, करिए समकित छाप ।। अर्थ : जिससे संताप मात्र नाश हो जाते हैं ऐसे प्रभु की तुम सुगंधित और अखंड पुष्पों द्वारा पूजा करो। जिस प्रकार पुष्प पूजा करने से उन पुष्पों को भव्यता का श्रेय मिलता है, उसी प्रकार तुम्हें भी भव्यता का श्रेय प्राप्त हो। 4. धूप पूजा का दोहा ध्यान घटा प्रगटावीए, वाम नयन जिनधूप । मिच्छत दुर्गंध दूरे टले, प्रगटे आत्म स्वरूप ।। 10 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अर्थ : हे प्रभो ! धूप दुर्गन्ध को हटाकर सौरभ (सुगन्ध) को प्रसारित करता है । और वातावरण को पवित्र बनाता है... उसी प्रकार मेरे आत्मा में रही मिथ्यात्व की दुर्गन्ध दूर हो और सम्यग्दर्शन की सुवास से मेरी आत्मा का एक-एक प्रदेश सुवासित बना रहे । मेरी आत्मा पवित्र बनी रहे। 2015 15. दीपक पूजा का दोहा । द्रव्य दीप सुविवेक थी, करता दु:ख होय फोक । भाव प्रदीप प्रगट हुए, भासित लोकालोक । - अर्थ : हे परमात्मन् ! यह दीपक अंधकार का विनाश करके, प्रकाश फैलानेवाला है। उसी प्रकार इस पूजा के द्वारा, मेरे अज्ञानरूपी अंधकार का नाश हो और ज्ञान का विवेकपूर्ण प्रकाश मेरे आत्म-प्रदेश पर प्रकाशित हो, जिससे सत्य को सत्य के रूप में और असत्य को असत्य के रूप में पहचान सकूँ। 6. अक्षत पूजा का दोहा -शुद्ध अखंड अक्षत ग्रही, नंदावर्त विशाल । पूरी प्रभु सन्मुख रहो, टाली सकल जंजाल ।। अर्थ : हे प्रभ ! इस चार गति रूप अनंतानंत संसारभ्रमण करके अब मैं थक चुका हूँ । अब आपके प्रभाव से ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रयी की प्राप्ति कर शीघ्रातिशीघ्र मैं सिद्धशिला पर विराजमान हो सकुं। तथा जिस प्रकार चावल बोने से वापस नहीं उगता, उसी प्रकार हमें भी पुन: जन्म न लेना पड़े । इस हेतु चावल का : साथिया करते हैं। 7. नैवेद्य पूजा का दोहा IYE अणहारी पद में कर्या, विग्गह गई अनंत । Tum दूर करी ते दीजिये, अणहारी शिव संत ।। | अर्थ : हे प्रभो ! विग्रह गति में तो अणहारी पद अनंती बार प्राप्त किया है, | पर उससे मेरी कोई कार्यसिद्धि नहीं हुई । तो अब वह अणहारी पद दूर करके | मुझे हमेशा के लिये अणाहारी पद दीजिये। UE 18. फल पूजा का दोहा mins इंद्रादिक पूजा भणी, फल लावे धरी राग । पुरुषोत्तम पूजा करी, मांगे शिव फल त्याग ।। अर्थ : प्रभु पर भक्ति राग से, इन्द्रादि देव प्रभु की फल पूजा करने हेतु अनेक प्रकार के उत्तम फल लाते हैं और पुरुषोत्तम प्रभु की उन फलों द्वारा श्रद्धा से - पूजा करके, उनसे "जिससे मोक्ष की प्राप्ति रूप फल मिल सके", ऐसे त्याग धर्म की, चारित्र धर्म की मांग करते हैं। अर्थात् मोक्षफल रूपी दान माँगते हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B. नवांगी पूजा के दोहे एवं सामान्य अर्थ SIOOR 1. चरण: जल भरी संपुट पत्रमा, युगलिक नर पूजंत ऋषभ चरण अंगुठडे, दायक भवजल अंत ।। 1 ।। हे प्रभु ! आपके अभिषेक हेतु युगलिक जब पत्र संपुट में पानी भर लाए तब तक आपको इन्द्र ने भक्तिपूर्वक वस्त्राभूषण से सज्जित कर दिया था। यह देख विनीत युगलिकों ने प्रभु के चरणों की जल से पूजा की । इसी प्रकार मैं भी आपके चरणों को पूजकर भवजल का अंत चाहता हूँ। 2. जानु : जानु बले काउस्सग्ग रह्या, विचर्या देश विदेश खड़ा-खड़ा केवल लघु, पूजो जानु नरेश ।। 2 ।। हे प्रभु ! आपने इस जानु बल से काउस्सग्ग किया, देश-विदेश में विचरण किया और खड़े-खड़े ही आपने केवल ज्ञान प्राप्त किया। आपकी इस जानु पूजा के प्रभाव से मेरे भी जानु में वह ताकत प्रगट हों। 3.हाथ के कांडे: लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसीदान । LAT कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवी बहुमान ।। 3 || RES हे प्रभु! लोकांतिक देवों की दीक्षा की विनंती सुनने के बाद आपने इन हाथों से वर्षीदान दिया, आपकी इस पूजा के प्रभाव से मैं आपके समान वर्षीदान देकर संयम को स्वीकार करूँ। 4. खंभे (कंधा): मान गयुं दोय अंश थी, देखी वीर्य अनन्त । " भुजा बले भव जल तर्या, पूजो खंध महंत ।। 4 ।। हे प्रभु ! आपके अनंत वीर्य (शक्ति) को देखकर अहंकार दोनों कंधों में से निकल गया। एवं इन भुजाओं के बल से आप भव जल तिर गये। उसी प्रकार आपकी पूजा के प्रभाव से मेरा भी अहं चला जाए एवं मेरी भी भुजाओं में संसार को तिर जाने की ताकत प्राप्त हो। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. शिखा : सिद्धशिला गुण उजली, लोकांते भगवंत । वसिया तिणे कारण भवि, शिरशिखा पूजंत ।। 5 ।। । उज्ज्वल स्फटिक वाली सिद्धशिला के ऊपर लोकांत भाग में आप जा बसे हैं, अत: मुझे भी वह स्थान प्राप्त हो, इस भावना से मैं आपकी शिखा की पूजा करता हूँ। 6. ललाट: तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभुवन जन सेवंत । त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत ।। 6 ।। हे प्रभु ! आप तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से तीन लोक में पूज्य बनने से तीन लोक के तिलक समान हो, इसलिये आपके भाल में तिलक कर मैं भी अपना भाग्य आजमाना चाहता हूँ। 7. कंठ: सोल प्रहर प्रभु देशना, कंठे विवर वर्तुल । मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तिणे गले तिलक अमूल ।। हे प्रभु! आपने सतत 16 प्रहर तक मधुर ध्वनि से देशना दी। देव मनुष्य ने वह देशना सुनी । आपकी कंठ पूजा के प्रभाव से मुझे भी सत्पुरुषों के गुणगान करने का सौभाग्य प्राप्त हो। 8. हृदय : हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष । हिम दहे वनखंड ने, हृदय तिलक संतोष ।। 8 ।। हे प्रभु ! जिस प्रकार हिम (बर्फ) वनखंड को जला देता है, उसी प्रकार आपने हृदय कमल के उपशम भावरूपी बर्फ (करा) से राग-द्वेष रूपी वनखंड को जला दिया है। आपके ऐसे हृदय की पूजा से मुझे जीवन में संतोष गुण की प्राप्ति हो। 9. नाभि: रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विसराम । नाभि कमल नी पूजना, करतां अविचल धाम ।। 9 ।। हे प्रभु ! ज्ञान-दर्शन चारित्र से उज्जवल बनी, सकल सद्गुणों के निधान स्वरूप आपके नाभि कमल की पूजा से मुझे अविचल धाम अर्थात् मोक्ष सुख की प्राप्ति हो। नवअंग का महत्व उपदेशक नव तत्त्वना, तिणे नव अंग जिणंद । पूजो बहुविध राग थी, कहे शुभवीर मुणिंद ।। 10 ।। प्रभु ने नवतत्त्वों का उपदेश दिया। इसलिये प्रभु के नवअंग की पूजा बहुमानपूर्वक करनी चाहिये। प्रभु की पूजा से अपने अंदर नव तत्त्वों के हेयोपादेय का ज्ञान होता है। 13 Fea Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C. जिन मंदिर में प्रवेश और पूजा विधि का क्रम 1. कहीं पर भी जिन मंदिरजी या मंदिरजी की ध्वजा को देखते ही दोनों हाथ जोड़कर 'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए। 2. निसीहि बोल कर प्रवेश करना चाहिए। 3. परमात्मा का मुख देखते ही नमो जिणाणं कहना चाहिए। 4. अर्धावनत प्रणाम कर के तीन प्रदक्षिणा करनी चाहिए। 5. मधुर कंठ से प्रभु की स्तुति बोलनी चाहिए। 6. दूसरी निसीहि बोल कर गंभारे में प्रवेश करना चाहिए। 7. प्रतिमाजी के ऊपर से निर्माल्य उतारना चाहिए। 8. प्रतिमाजी पर मोर पिंछी करनी चाहिए। 9. सर्वप्रथम जल के कलश से सफाई करनी चाहिए। 10. मुलायम वस्त्र से केसर दूर करना चाहिए। 11 जरूरत हो तो ही विवेक पूर्वक वालाकुंची का प्रयोग करना चाहिए। 12 पंचामृत से अभिषेक करना चाहिए। 13 शुद्ध जल से अभिषेक कर चिकनाहट दूर करनी चाहिए। 14 पबासण ऊपर दो पाटलूंछणा करना चाहिए। 15 प्रतिमाजी के उपर तीन अंगलूछना करना चाहिए। 16 बरास पूजा करनी चाहिए। ___(बरास पूजा के पश्चात् तुरंत कपडे से पोंछना नही) पद 17 चंदन पूजा, पुष्पपूजा, धूपपूजा, दीपक पूजा, क्रमशः करनी चाहिए। 18 अक्षत पूजा, नैवेद्य पूजा, और फल पूजा करनी चाहिए। 19 चैत्यवंदन करना चाहिए। 20 पच्चक्खाण लेना चाहिए। 21 फिर से स्तुति बोलना और अविधि-आशातना का मिच्छामि दुक्कडं जरूर मांगना। 22 अंत में घटनाद करना चाहिए। 14 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय से पढ़ाई करना । शांति से पढ़ाई करना । एकाग्रता से पढ़ाई करना । ज्ञान दिव्य प्रकाश है । अज्ञान घोर अंधकार है। सन्मान दो । शिक्षक को आदर पाठशाला में नियमित जाया करो। पुस्तक को पटकना नहीं, किताब पर बैठना नहीं, - 4. ज्ञान पढ़ा हुआ भूलो मत । नया नया अध्ययन करते रहो । अपना ज्ञान बढ़ाते रहो । पुस्तक को मोड़ना नहीं, किताब को मोड़ना नहीं । 8 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान प्राप्त करने में आलस्य कभी करना नहीं। ज्ञान के साधनों को सम्हाल कर देना । ज्ञानी पुरुषों को आदर दो। आप विद्यार्थी हो.... फैशन से दूर रहो। व्यसन से दूर रहो। उच्चारण आपका एकदम साफ चाहिये । अक्षर साफ-सुथरे लिखने चाहिये । व्यवहार भी अच्छा करना चाहिये । पुस्तकों को सम्हाल कर रखो, दूसरों को पढ़ने के लिये दो। ज्ञानोपासना करने से, ज्ञानावरण कर्म टूटता है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A. वरदत्त दो भाई थे और दोनों ने दीक्षा ली। बड़ा भाई बहुत बुद्धिमान था । इसलिये हर वक्त पढता रहता था। दूसरा भाई बिलकुल अनपढ़ था । इसलिये हर वक्त सोया रहता था। दूसरे भाई को आनंद की नींद लेते देखकर बड़े भाई के मन में विचार आया- मैं क्यों होशियार बना, मैं भी अनपढ़ रहता तो आराम से सोता। एक दिन बड़े भाई ने सोचा, मैं भी आज सोता ही रहूँगा और वह सोने की तैयारी कर रहा था। इतने में एक महात्माजी प्रश्न पूछने आये, उनको जवाब दिया उतने में दूसरे महात्माजी आये, इस प्रकार एक-एक करके प्रश्न पूछने आने लगे । आखिरकार उन्हें गुस्सा आ गया और कहा - " मैं छ: महीने तक किसी को नहीं पढ़ाऊँगा ।" फिर पश्चाताप हुआ और उसने सोचा कि यह तो मैंने ज्ञान की बड़ी विराधना की है । वहाँ से आयु पूर्ण कर उन्होंने राजा के घर जन्म लिया। पर ज्ञान की विराधना के कारण अंधे-लूलेलंगड़े बने । B. गुणमंजरी सिंहराजा की रानी कपूरतिलका ने गुणमंजरी पुत्री को जन्म दिया। वह जन्म से ही गूंगी एवं रोगग्रस्त थी। सर्व प्रकार के सुख थे फिर भी पुत्री की ऐसी हालत देखकर राजा, आचार्य श्रीमद् विजय सेन सूरीश्वरजी गुरु भगवंत के पास गये । उपदेश सुनकर उनसे अपनी पुत्री के दुःख का कारण पूछा। तब गुरु भगवंत ने उस पुत्री का पूर्वभव सुनाया। खेटक ग्राम में जिनदेव के पाँच पुत्र और चार पुत्रियाँ थी । पुत्रों को ज्ञान नहीं चढता था। इसलिये स्कूल में पंडितजी मारते थे। बच्चों ने माँ के पास पंडितजी की शिकायत की। माँ को पंडितजी के ऊपर गुस्सा आया। पंडितजी का अपमान किया और सब किताबें अग्नि में डालकर जला दी। बच्चों की स्कूल छुड़वा दी। बच्चे जब बड़े हुए तो अनपढ़ होने के कारण कोई कन्या उनसे शादी करने को तैयार नहीं थी । तब पिता ने बच्चों को अनपढ़ रखने का कारण - माता को जानकर उनकी माँ को क्रोध से मार डाला। वह माता ही मरकर गुणमंजरी बनी है। यह सुनकर गुणमंजरी को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। ज्ञान की आराधना की, रोग गया। महाविदेह क्षेत्र में चारित्र लेकर मोक्ष गई। 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. नवपद अरिहंत के 12 गुण 1. अशोक वृक्ष 7. दिव्य ध्वनि 2. पुष्पों की वर्षा 8. सिंहासन 3. तीन छत्र 9. ज्ञानातिशय 4. भामंडल 10. वचनातिशय 5. चामर 11. पूजातिशय 6. देव दुंदुभि 12. अपायापगमातिशय एक कचोडी. दो समोसा 6. नाद - घोष संसार तेरा क्या भरोसा एक कचोडी, दो समोसा - संसार तेरा क्या भरोसा सोडा, लेमन, कोकाकोला - जैन धर्म का बोलमबोला गर्व से कहो हम हिन्दु है ___- महावीर की संतान है आधी रोटी खायेंगे - जैन धर्म अपनायेंगे गुरुजी अमारो अंतर्नाद - अमने आपो आशीर्वाद गुरुजी अमारो पकडो हाथ - संयमना दो आशीर्वाद 17. मेरे गुरू मेरे गुरु साधु – साध्वी महाराज हैं। मेरे गुरु के श्रमण, अणगार, मुनि आदि दूसरे अनेक नाम हैं। 3. मेरे गुरु पांच इन्द्रियों को वश में रखने वाले हैं। मेरे गुरु क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चार कषायों से मुक्त हैं। 5. मेरे गुरु पाँच महाव्रतों को धारण करनेवाले हैं। 6. मेरे गुरु पाँच प्रकार के आचारों का पालन करनेवाले हैं। 7. मेरे गुरु पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन करनेवाले हैं। 8. मेरे गुरु विश्व के समस्त जीवों का कल्याण करनेवाले हैं। 18 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. दिनचर्या बाल-संस्कार गीत आ वात कदी ना भुलाय, जय अरिहंत, जय अरिहंत उठी सवारे हाथ जोवाय, चोवीस प्रभु ना दर्शन कराय, पछी आठ नवकार गणाय, आ वात......जय.....(1) सवारे व्हेला उठी जवाय, माता-पिता ने नमन कराय, पछी प्रभु ना दर्शन कराय, आ वात.....जय......(2) नवकारशी ओ दातण कराय, खाता-खाता कदी ना बोलाय, खाता-खाता कदी ना वंचाय, आ वात...जय.....(3) नाही धोई मंदिर जवाय, चांदलो करी प्रदक्षिणा अपाय पछी प्रभु नी पूजा कराय, आ वात......जय......(4) पूजा पछी गुरू वंदन कराय, टाईम काढी ने व्याख्यान संभलाय, लेसन करीने स्कूले जवाय, आ वात......जय.....(5) रात्री-भोजन कदी ना कराय, कांदा-बटाटा कदी ना खवाय, द्विदल-अभक्ष्य कदी न लेवाय, आ वात....जय...(6) बेठा-बेठा जमे ते माणस केवाय, उभा-उभा खाय ते भैंस केवाय, फावे तेम कदी ना खवाय, आ वात.....जय......(7) रात्रे पाठशाला मां जवाय, नवा-नवा सुत्रों गोखाय, सारूं-भणीने सारा थवाय, आ वात......जय....(8) टी.वी विडियों कदी न जोवाय, अप् शब्दों कदी ना बोलाय, झुठ-चोरी कदी ना कराय, आ वात......जय......(9) भाई-बहेन ने कदी ना माराय, मोटा सामु कदी ना बोलाय, सारा छोकरा अ ज कहेवाय, आ वात...जय.....(10) मोटा थईने वज्रस्वामी बनाय, साधु नही तो श्रावक बनाय, कुमारपाल वा धर्मी बनाय, आ वात......जय.....(11) संस्कार गीत नो पाठ कराय, देव-गुरुना आशिष पमाय, तोज आपणा थी सारा बनाय, आ वात.....जय.....(12) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. भोजन विवेक : अभक्ष्य त्याग जैन से अभक्ष्य भी नहीं खाया जा सकता क्योंकि इसमें सूक्ष्म और त्रस (हिलते-चलते) जीव बहुत होते हैं। ये खाने से बहुत पाप लगता है, बुद्धि बिगड़ती (मलिन होती) है, शुभ कर्तव्य नहीं हो सकते। परिणाम स्वरूप इस भव में और परलोक में भी बहुत दुःखी होना पड़ता है। माँस, शराब, शहद और मक्खन (छाछ में से बाहर निकालने के तुरंत बाद का मक्खन) ये चारों महाविगई अभक्ष्य गिने जाते हैं। कन्दमूल, काई (सेवाल), फफूंदी इत्यादि भी अभक्ष्य हैं, क्योंकि इसमें अनन्त जीव होते हैं। इसके अलावा बासी भोजन, अचार (पानी के अंशवाला अचार), द्विदल के साथ कच्चा दूध-दही-छाछ वगैरह, दो रात के बाद का दही-छाछ तथा बरफ, आइस्क्रीम, कुल्फी, कोल्ड ड्रिंक्स, वगैरह भी अभक्ष्य गिने जाते हैं। रात्रि भोजन भी नहीं कर सकते। देखिये चित्र 1 उसमें माँस खाने वाला बैल बना है और कसाई द्वारा काटा जा रहा है। अभक्ष्य चित्र 2: मनुष्य शराब पीकर गटर में पड़ा है, उसके खुले मुँह में कुत्ता पेशाब करता है। 20 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र 3 : शहद के छत्ते पर असंख्य जंतु चिपककर मरते हैं। मक्खियाँ विष्टा वगैरह के अपिवत्र पुद्गल लाकर इसमें भरती है। शहद निकालने वाला धूनी धधका कर शहद के छत्तों को बोरे में रखता है, इसमें बुहत सारी मक्खियाँ मरती है। मक्खन चित्र 4 : मक्खन में उसी वर्ण के (रंग के) असंख्य जीव सूक्ष्मदर्शक यंत्र (माइक्रोस्कोप) द्वारा देखे जा सकते हैं। ममा | रात्रिभोजन चित्र 5 : रात को खाने वाले कौआ, उल्लू, बिल्ली, चमगादड़ 9 वगैरह होते हैं। होटल में अभक्ष्य होता है, अभक्ष्य की मिलावट हो सकती है। इसलिये होटल का, लारी का, ढाबे का भी नहीं खा सकते। फास्टफुड वगैरह भी नहीं खाना चाहिये। द्विदल दो रात बीते दही छाछ, बासि आदि चित्र 6 : गर्म नहीं किया हुआ दही, छाछ या दूध, द्विदल के साथ मिलने से असंख्य सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार बासी नरम पूरी, रोटी, खोया वगैरह में तथा बराबर धूप में तपाये बिना के अचार में और दो रात से ज्यादा के दही छाछ में भी असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं। इसीलिये ये सभी अभक्ष्य भक्षण नहीं करने योग्य बनते हैं। तथा कन्दमूल, प्याज, आलू, अदरक, लहसुन, मूली, गाजर, शकरकन्द वगैरह में भी कण-कण में अनन्त जीव हैं। बैंगन आदि भी अभक्ष्य हैं। नमी से खाखरा, पापड़, वगैरह में फफूंदी आती है, वह भी अनन्तकाय है। अत: अभक्ष्य है। हमें नहीं खाना चाहिये। कंदमूल पानी के अंश वाले अचार Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. माता-पिता का उपकार माता-पिता के उपकारों से ऋण मुक्त होने के लिए कोई सुपुत्र रोज सुबह माता-पिता की तेलों से मालिश करे, सुगंधी जल से स्नान करावे, सुंदर वस्त्र, मूल्यवान आभूषण पहनावे, अत्यंत शुद्ध-सात्विक भोजन करावे, विविध प्रकार के मीठे फलों के मधुर रस पिलाये, जीवन भर अपने कंधे पर लेकर घूमे फिर भी माता-पिता के उपकार से ऋण मुक्त नहीं हो पाता शिष्य प्रश्न : तो क्या ऋण मुक्त होने का कोई उपाय नहीं? प्रभु उत्तर : एक ही उपाय है। वह यह है कि माता-पिता को धर्म के मार्ग पर ले आना । जो पुत्र अपने माता पिता को परमात्मा द्वारा प्रतिबोधित धर्मपथ पर ले आता है और उन्हें महासुकृतों द्वारा पुण्यानुबंधी पुण्य का भाता देता है, परभव सुधारता है वहीं उनके उपकारों से मुक्त होता है। प्रभु के इन वचन अनुसार हमें भी माता-पिता के उपकार से ऋण मुक्त होने के लिये उन्हें धर्म मार्ग पर जोडना चाहिये। जैसे उनसे अनुरोध करके रात्रि भोजन त्याग, कंदूमल त्याग, नित्य प्रभु दर्शन-पूजन इत्यादिक धार्मिक कृत्य करवाने चाहिये। I 11. जीवदया - जयणा • जूठा नहीं डालना। • थाली धोकर पीना। • प्राणियों के आकार की वस्तुएँ नहीं खानी । • किसी को भी नहीं मारना। • बिना छाने पानी नहीं वापरना। मच्छर, जूं, चूहा आदि को मारने की दवा का उपयोग नहीं करना। • ठंडा और गर्म पानी का मिश्रण नहीं करना। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. विनय विवेक © अक्षर वाले कपड़े नहीं पहनने। © कागज पर बैठना एवं खाना नहीं। © गुरु का अविनय नहीं करना। © खाते-खाते नहीं बोलना। © ज्ञानद्रव्य का भक्षण नहीं करना। © ज्ञान के उपकरण पेन, पेंसिल, मुँह में नहीं डालना। © थूक से अक्षर नहीं मिटाना। © ज्ञान के उपकरण को जेब में रखकर भोजन नहीं करना। © ज्ञानी एवं गुणी व्यक्ति से द्वेष नहीं करना। © किसी के पढने में अंतराय नहीं करना। सामान्य प्रश्नोत्तरी 1. हम कौन हैं? हम जाति से आर्य हैं और धर्म से जैन हैं। 2. पंच परमेष्ठि किसे कहते हैं? परम स्थान पर विराजमान ऐसे अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ये पंच परमेष्ठि हैं। 3. अभी किसका शासन चल रहा है? अब चरम तीर्थपति चौबीसवें भगवान श्री महावीर प्रभु का शासन चल रहा है। 4. मंदिर में प्रवेश करते समय क्या बोलना चाहिये मंदिर में प्रवेश करते समय तीन बार 'निसीहि' बोलना चाहिये । 5. भगवान तथा ध्वजा को देखकर क्या बोलना चाहिये? भगवान तथा ध्वजा को देखते ही दोनों हाथ जोड़कर 'नमो जिणाणं' बोलना चाहिये। 6. रास्ते में महाराज साहब मिलते हैं तो क्या बोलना चाहिये? दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिये। 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. सम्यग् ज्ञान A. दर्शनोपासना वीतराग परमात्मा के ऊपर श्रद्धा रखो। साधु पुरुषों के प्रति आदरभाव रखो। संघ और शासन के प्रति वफादारी रखो। जिनमंदिर, जैन धर्म की निंदा मत करो। कभी भी साधु-साध्वीजी की निंदा मत करो । कभी भी श्रावक-श्राविका की निंदा मत करो। मन में यह विचार करो कि ......जगत को सुख का सच्चा और अच्छा रास्ता दिखाने वाले जिनशासन का मैं सेवक हूं। मैं जीवन पर्यंत शासन की सेवा करूंगा और दूसरे लोगों को जिनशासन का अनुरागी बनाऊँगा। 124 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं तीर्थयात्रा करूंगा। मैं तीर्थरक्षा करूंगा। मैं तीर्थ में आशातना से बचूंगा। मैं तीर्थ में जाकर रहूँगा। मैं गुरुजनों की सेवा करूंगा। मैं गुरुभक्ति करता रहूँगा। मैं गुरुजनों की उपासना करुंगा। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका ....इस चतुर्विध श्री संघ की सुख शांति के लिये सदा जाग्रत रहूँगा। इनके दर्शन करने से दर्शनावरण - कर्म टूटता है। 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B. गुणोपासना कोई यदि गुस्सा करे,. यदि कोई अभिमान करे,........ कोई यदि कपट करे,. कोई यदि लोभ करे........ बहुत ज्यादा हँसना नहीं। बहुत ज्यादा नहीं रोना । कभी नाराज मत होना । कभी चिड़ना नहीं । परन्तु तुम क्षमा रखना। परन्तु तुम नम्र रहना । तुम सरल बने रहना। तुम उदार बने रहना ।। दूसरों का मजाक उड़ाना नहीं । दूसरों का उपहास करना नहीं । दूसरों का नुकसान नहीं करना || दूसरों को तकलीफ देना नहीं । 26 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु दर्शन रोज करो प्रभु पूजा रोज करो प्रभु प्रार्थना रोज करो प्रभु की भक्ति रोज करो कभी गुस्सा आ जाये तो..... मौन रहो, शांत रहो, बोलो ही मत। या फिर नवकार मंत्र का स्मरण करो। उस जगह से दूर चले जाओ। पर गुस्सा तो करना ही नहीं। इस तरह गुणोपासना करने से मोहनीय कर्म टूटता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरों को दान देने से नहीं रोकना । दूसरों के सुख से ईर्ष्या नहीं करना । किसी को बंगला मिलता है। किसी को कपडे मिलते हैं। C. दानधर्म कोई तपश्चर्या करता है। कोई भक्ति करता है । उसमें तुम रुकावट मत करो । किसी को खाना मिलता है । किसी को रुपये मिलते हैं । 28 कोई सेवा कार्य करता है । कोई व्रत - प्रतिज्ञा - नियम लेता है। उसमें तुम बाधा मत डालो । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औरों को ज्ञान का दान देते रहो। और जीवों को अभयदान देते रहो। साधु-साध्वीजी को सुपात्रदान देते रहो। गरीबों पर अनुकंपादान करते रहो। दान देकर हमेशा खुशी व्यक्त करों । दान देकर कभी अभिमान मत करो । कुछ न कुछ देते रहना... देने से कभी कुछ कम नहीं होता । इस तरह दान धर्म की आराधना करने से 29 अंतराय कर्म टूटता है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील यानी स्वभाव तुम अपने स्वभाव को प्रेमभरा, स्नेहभरा बनाना । तुम अपने स्वभाव को उदार और सहनशील बनाना । शील यानी सादगी D. शीलधर्म शरीर की ज्यादा साज-सज्जा नहीं करना । कपड़ों की ज्यादा साज-सज्जा नहीं करना । शील यानी सभ्यता सभ्यता से बोलो, सभ्यता से चलो। सभ्यता से बैठो, सभ्यता से खड़े रहो । 30 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील यानी सदाचार परीक्षा में चोरी मत करो। औरों की वस्तुएँ मत उठाओ। घर में से पैसों की चोरी मत करो। माता-पिता का दिल जरा भी नहीं दुखाना। उपकारी जनों के उपकार नहीं भुलाना। किसी के साथ विश्वासघात नहीं करना, धोखा नहीं देना। दु:खी जीवों पर दया करना। इस तरह शील धर्म की आराधना करने से शुभ नाम कर्म बंधता है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E. तपधर्म कभी उपवास करना चाहिये । कभी आयंबिल करना चाहिये । कभी एकासना करना चाहिये । कभी बियासना करना चाहिये । जितनी भूख लगी हो उससे कुछ कम खाना। एकाध मनपसंद चीज का त्याग कर देना । अपनी इच्छा से कुछ न कुछ कष्ट सहन किया करो। स्वेच्छा से कुछ समय स्थिर एवं एकाग्र बनकर बैठो। 32 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य पुरुषों का, बड़ों का विनय करना । हमेशा धार्मिक अध्ययन करना । बीमार लोगों की सेवा करना । श्री नवकार मंत्र का ध्यान करना । रात्रि भोजन नहीं करना । कंदमूल या अभक्ष्य चीजें नहीं खाना । बाजार में, होटल में नहीं खाना । बैठकर भोजन करो। बैठकर पानी पीओ । याद रखो : पाउच से या बिसलरी बोटल का पानी भी अपने रुमाल से छाने बिना न पीओ । जीने के लिये खाना है, खाने के लिये जीना नहीं है। 33 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F. समता कभी अपने मुँह अपनी बड़ाई नही करनी चाहिये। कभी दूसरे लोगों को नीचा नहीं दिखाना चाहिये। मैं ताकतवाला ! मैं खूबसूरत ! मैं ज्ञानी ! मैं अक्लमंद ! मैं तपस्वी ! मैं धनवान ! इस तरह की बड़ाईयाँ कभी नहीं करना। वह तो निरा कमजोर वह तो कितना बदसूरत वह तो बिल्कुल बुद्धू 34 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह तो केवल खा.... खा... करने वाला वह तो बेचारा गरीब ! इस तरह औरों का अपमान नहीं करना। अपनी बड़ाई करने से और दूसरों को नीचा दिखाने से नीच गौत्र कर्म बंधता है । जनम जनम तक दुर्बलता, बदसूरती, गरीबी...नीच कुल में जन्म और तरह तरह के दु:ख झेलने पड़ते हैं। सभी जीवों के प्रति सम्मान भाव रखो। सभी जीवों के प्रति समता भाव रखो। 35 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G. व्रत-नियम नामो लाएसव्यसाहणं नमो रिहताण मंगलाणंबस बज्माया पावन हमें अपने जीवन में कुछ न कुछ व्रत नियम जरुर करने चाहिये ज्ञानपंचमी का व्रत मौन एकादशी का व्रत वरसीतप नवपदजी की ओली वर्धमान आयंबिल तप छट्ठ का तप । अट्ठम का तप ये सारे या इसमें से कोई भी व्रत-तप करना हो तो गुरु महाराज के पास जाकर इसके बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाहिये। बाद में तप करना चाहिये। 36 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम अभी छोटे हो..पर निम्न नियम तो तुम भी पाल सकते हो : * रोजाना माता-पिता को प्रणाम करना । * चोरी नहीं करना * नित परमात्मा के दर्शन व पूजन करना। * बीड़ी या सिगरेट नहीं पीना * 108 बार नवकार मंत्र का स्मरण करना। * गाली नहीं बोलना * नित सामायिक करना। * झूठ नहीं बोलना। * सिनेमा नहीं देखना। * तम्बाकू वाला पान या सुपारी नहीं खाना। * पाउडर, क्रीम, नेलपॉलिश, लिपिस्टिक, वगैरह नहीं लगाना। अपनी इच्छा से गुरुदेव के पास जाकर प्रतिज्ञा-नियम कर लेना चाहिये। इससे नियम के पालन में मन मजबूत रहता है। कभी गलती से या अनजाने में कोई नियम टूट जाये तो गुरु महाराज से प्रायश्चित्त लेना चाहिये। 37 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H. कहानी द्वारा आठ कर्मों के नाम एक सेठ था, ज्ञानचन्द (ज्ञानावरणीय कर्म) । वह हर रोज दर्शन (दर्शनावरणीय कर्म) करने जाता था। एक दिन रास्ते में उसके पेट में वेदना हुई (वेदनीय कर्म) । वहां डॉ. मोहनदास आए (मोहनीय कर्म)। उन्होंने कहा तुम्हारी आयु कम है (आयुष्य कम) । भगवान का नाम लो (नाम कर्म) । तुम्हें उच्च गोत्र मिलेगा (गोत्र कर्म)। तुम्हारे सब अंतराय टूट जायेंगे (अंतराय कर्म)। 1. नवतत्त्वों के नाम, व्याख्या एवं भेद : नौ तत्त्व - पदार्थ के स्वरूप तत्त्व के नाम भेद व्याख्या 1 जीव 14 जो जीता है, प्राणों को धारण करता है, जिसमें चेतना है, वह जीव है; जैसे मानव, पशु, पक्षी आदि। 2. अजीव जिसमें जीव, प्राण, चेतना नहीं है, वह अजीव है, जैसे टेबल, पलंग, धर्मास्तिकाय आदि। 3. पुण्य 42 शुभ कर्म पुण्य है अर्थात् जिसके द्वारा जीव को सुख का अनुभव होता है, वह पुण्य है। 4. पाप 82 अशुभ कर्म पाप है अर्थात् जिसके द्वारा जीव को दु:ख का अनुभव होता है, वह पाप है। 5. आश्रव 42 कर्म के आने का रास्ता अर्थात् कर्म बंध के हेतुओं को आश्रव कहते हैं। 6. संवर 57 आते हुए कर्मों को रोकना, वह संवर है। 7. निर्जरा 12 कर्मों का अंशत: क्षय होना, वह निर्जरा है। 8. बंध 4 आत्मा और कर्मों का दूध और पानी की तरह संबंध होना वह बंध है। 9. मोक्ष 9 संपूर्ण कर्मों का नाश या आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रगटीकरण होना, वह मोक्ष है। कुलभेद 276 14 अ आ 5 hoy nos K-Dow 20 per ter HINTS FOR PRONUNCIATION OF SUTRA A | औ AU | च CHA |त TA ह HA 4 | अं AM | छ CHHA थ THA र RA क्ष KSHA/XA ___AH ____JA द DA ल LA ज्ञ Gya RU ZA/JHA ध DHA व VA TA 7 NA स SA ट्ट T ख KHA THA प PA 9T SHA @ TH GA GA | ड फ FA/PHA ष SA 5 DD DHA ब BA ŞDDH NA भ BHA अनुस्वर M/N |म MA इस 355005७ DA 38 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. जैन भूगोल जंबुदीप * अलोक में लोक है। * लोक में मध्य लोक है। * मध्यलोक में जंबूद्वीप है। * जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र है। * भरतक्षेत्र में भारत है - भारत B. * हमारा देश * हमारा क्षेत्र भरत क्षेत्र * हमारा द्वीप जंबूद्वीप * हमारा लोक तीर्छा लोक-(मध्य लोक) * सिद्ध भगवान का क्षेत्र - सिद्धशिला * ऋषभदेव आदि 24 तीर्थंकरों का क्षेत्र - भरत क्षेत्र * सीमंधर स्वामी आदि 20 विहरमान - महाविदेह क्षेत्र तीर्थंकरों का क्षेत्र * सबसे बडा पर्वत - मेरुपर्वत * सबसे बड़ा समुद्र- स्वयंभूरमण समुद्र * सबसे बड़ा द्वीप - स्वयंभूरमण द्वीप * सबसे बड़ा क्षेत्र - महाविदेह क्षेत्र Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. सूत्र एवं विधि विभाग A. सूत्र 12. जग चिंतामणि सूत्र JAGA CHINTAMANI SOOTRA इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! ICHCHHĀKĀRE'ŅA SAŅDISAHA BHAGAVAN ! चैत्यवंदन करूं? इच्छं, जग चिंतामणि ! CHAITYAVANDANA KARU? ICHCHHAM, JAGA-CHINTAMANI ! जगनाह ! जगगुरु! जगरक्खण ! जगबन्धव! JAGA-NAHA ! JAGA-GURU ! JAGARAKKHANA ! JAGA-BANDHAVA! जगसत्थवाह जग भाव विअक्खण JAGA-SATTHAVAHA! JAGA-BHAVAVIAKKHANA! अट्ठावय संठविअ रूव ! ATTHAVAYA SAŅTHAVIA RUVA! कम्मट्ठ विणासण चउवीसं पि जिणवर ! KAMMATTHA VIŅĀSAŅA! CHAUVEESAM PI JIŅAVARA! जयन्तु अप्पडिहय सासण JAYANTU APPADIHAYA SASAŅA || 1 ||| कम्मभूमिहिं कम्मुभूमिहिं पढम संघयणि KAMMA-BHOOMIHIM KAMMA-BHOOMIHIM PADHAMA SANGHAYANI, उक्कोसय सत्तरिसय, जिणवराण विहरंत लब्भइ, UKKOSAYA SATTARISAYA, JIŅAVARĀŅA VIHARAŅTA LABBHAI, नवकोडिहिं केवलीण, कोडि सहस्स नव साहू गम्मइ, NAVAKODIHIM KE'VALEEŅA, KODI-SAHASSA NAVA SAHOO GAMMAI, संपइ जिणवर वीस मुणि, बिहं कोडिहिं वरनाण SAMPAI JIŅAVARA VISA MUŅI, BIHUM KODIHIM VARANĀŅA, समणह कोडि सहस्स दुअ, थुणिज्जइ निच्च विहाणि SAMANAHAKODI SAHASSADUA, THUNIJJAI NICHCHA VIHANI || 2 || जयउ सामिअ! जयउ सामिअ! JAYAU SAMIYA! JAYAU SAMIYA! रिसह ! सत्तुंजि ! उन्जिन्ति पह नेमिजिण ! RISAHA! SATTUNJI, UJJINTI PAHU NE'MIJINA! 40 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयउ वीर सच्चउरिमण्डण ! JAYAU VIRA! SACHCHAURI- MAŅD AŅA! भरुअच्छहिं मुणिसुव्वय ! BHARUACHCHHAHIM MUNISUVVAYA ! मुहरिपास दुह दुरिअ खंडण ! MUHARIPĀSA! DUHA-DURIA KHANDAŅA! अवर विदेहि तित्थयरा, AVARA VIDE'HIM TITTHAYARA चिहं दिसि विदिसि जिं के वि CHIHUM DISI VIDISI JIN KE'VI. तीआणागय संपइ अ, वंदु जिन सव्वे वि TEEĀŅĀGAYA SAMPAIA, VAŅDU JIŅA SAVVE VI|| 3 ||| सत्ताणवइ सहस्सा, लक्खा छप्पन्न अट्ठ कोडिओ, SATTĀŅAVAI SAHASSĀ, LAKKHĂ CHHAPPANNA ATTHA KODIO बत्तीस-सर बासियाई, तिअलोए चेइए वंदे, BATTEESA SAYA BÄSIYAIM, TIALOE' CHEIE' VANDE' || 4 || पनरस कोडिसयाई, कोडि बायाल लक्ख अडवन्ना, PANARASA KODI SAYÃIM, KODI BÃYALA LAKKHA ADAVANNĀ छत्तीस सहस्स असीई, सासय बिम्बाइं पणमामि CHHATTEESA SAHASA ASIIM, SÃSAYA-BIMBÃIM PAŅAMĀMI || 5 ||| भावार्थ: चैत्य-वंदन के रूप में रचित इस सूत्र से सर्व तीर्थंकर भगवंतों, प्रसिद्ध तीर्थों एवं सर्व चैत्यों और जिन प्रतिमाओं की स्तुति तथा श्रमण भगवंतों आदि को वंदन किया गया है Explanation: This sootra is Chaityavandan, which is composed by shri Gautamswami, when he went on pilgrimage to Astapada Tirth. In the first gatha-verse obeisance is offered to the twenty four tirthankars whose idols are there on the Ashtapada tirth, in the second gatha, the obeisance is done to the existant living maximum and minimum tirthankaras, the omniscients as well as the sadhus. In the third gathas obeisance is offered to the jineshwars on the tirth as the "place of pilgrimage" viz. Shatrunjay. Similiarly in the fourth gatha, obeisance is done to the 8,57,00,282 everlasting world's Jain Temple and in the fifth gatha obeisance is formed to the 15,42,58,36,080 perpual and eternal Jina pratimas 13. जं किंचि सत्र JAM KINCHI SOOTRA जं किंचि नाम तित्थं, सग्गे पायालि माणुसे लोए JAM KINCHI NÄMATITTHAM, SAGGE PÃYALI MĀŅUSSE'LOE जाइं जिण बिम्बाई, ताइं सव्वाइं वंदामि JAIM JINABIMBAIM, TAIM SAVVAIM VANDAMI || 1 || भावार्थ: इस सूत्र में तीनों लोक में स्थित सर्व जैन तीर्थों और सर्व जिन प्रतिमाओं का नमस्कार किया गया है। Explanation: By this sootra, salutations are offered to all the jina pratimas of the namal tirthas in all the three worlds 41 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. नमुत्थुणं सूत्र NAMUTTHUNAM SOOTRA नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं NAMUTTHUNAM ARIHANTĂNAM BHAGAVANTĂNAM || 1 || आइगराणं, तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं ĀIGARĀNAM, TITTHAYARĂNAM, SAYAM-SAMBUDDHĀNAM || 2 || पुरुिसुत्तमाणं, पुरिस सीहाणं, पुरिस वर पुंडरीयाणं, PURISUTTAMĀNAM, PURISA SEEHĀNAM, PURISA-VARA PUNDAREEĂNAM, पुरिस वर गंध हत्थीणं PURISA-VARA GANDHAHATTHEENAM || 3 || लोगुत्तमाणं, लोग नाहाणं LOGUTTAMĂNAM, LOGA-NĀHĀNAM लोग-हियाणं, लोग पईवाणं, लोग पज्जोअगराणं LOGA-HIYĀNAM, LOGA-PAEEVĂNAM, LOGA-PAJJO A GARĀNAM || 4 || अभय दयाणं, चक्खु दयाणं ABHAYADAYANAM CHAKKUDAYANAM मग्ग दयाणं, सरण दयाणं, बोहि दयानं MAGGADAYĀNAM, SARANADAYĀNAM, BOHIDAYĀNAM || 5 || धम्म दयाणं, धम्म देसयाणं DHAMMA DAYANAM, DHAMMA DE'SAYAṆAM धम्म नायगाणं, धम्म सारहीणं DHAMMA NAYAGANAM, DHAMMA SARAHINAM धम्म वर चाउरंत चक्कवट्टीणं DHAMMAVARA CHĂURANTA CHAKKAVATTINAM || 6 || अप्पsिहय वरनाण दंसण धराणं APPADIHAYA-VARANANA DANSANADHARAṆAM विट्ट छउमाणं VIYATTACHHAUMĂNAM || 7 || जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं JINANAM JAVAYANAM, TINNANAM TARAYANAM बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोअगाणं BUDDHANAM BOHAYÃNAM, MUTTẤNAM MOAGĀNAM || 8 || 42 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वन्नूणं सव्व दरिसीणं SAVVANNOONAM SAVVADARISIŅAM सिव मयल मरुअ मणंत मक्खय SIVA-MAYALA-MARUA-MANANTA MAKKHAYA मव्वाबाह मपुणरावित्ति MAVVĀBĀHA - MAPUNARĀVITTI सिद्धिगई नामधेयं ठाणं संपत्ताणं SIDDHIGAI NĀMADHE YAM, THANAM SAMPATTĂNAM नमो जिणाणं जिअ भयाणं NAMO JINĀNAM, JIA BHAYĀNAM || 9 || जे अ अईआ सिद्धा, जे अ भविस्सन्ति णागए काले JE' A-AEEÂ SIDDHĀ, JE' A BHAVISSANTI NĀGAE KALE, संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि SAMPAIA VATTAMĀNĀ, SAVVE' TIVIHE 'NA VANDĀMI || 10 || भावार्थ: इस सूत्र द्वारा शक्रेन्द्र अरिहंत भगवान की उनके सर्वश्रेष्ठ गुणों के वर्णन से स्तुति करते है। Explanation: In this sootra there are virtues of arihant bhagavana. The indra maharaja prays the tirthankara at the time of all five auspicious occasions "Panch Kalyanak" with this very sutra. The other name of this sutra is Shakrastava. 15. जावंति चेइआई सूत्र JAVANTI CHEIAIM SOOTRA जावंति चेइआई, उड्ढे अ अहे अ तिरिअ लोए अ, JAVANTI CHE TAIM, UDDHE AAHE'A TIRIA LOE' A सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई SAVVĀIM TĀIM VANDE', IHA SANTO TATTHA SANTĂIM || 1 || भावार्थ: इस सूत्र से तीनों लोक में स्थित सर्व जिन चैत्यों को नमस्कार किया जाता है। Explanation: By this sootra salutations are offered to all the jina pratimas situated in the upper, the middle and the lower worlds 16. जावंत केवि साहू सूत्र JAVANTA KEVI SAHOO SOOTRA जावंत के वि साहू, भरहेरवय महाविदेहे अ, JĀVANTA KE'VÌ SĀHOO, BHARAHE 'RAVAYA MAHĀVIDE'HE A सव्वेसिं ते पणओ, तिविहेण तिदंड विरयाणं SAVVE'SIM TE'SIM PANAO, TIVIHE 'NA TIDANDA VIRAYĀNAM || 1 || 43 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ: इस सूत्र में सभी भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में स्थित सर्व श्रमणों को नमस्कार किया जाता है। Explanation: By this sootra obeisance is offered to all the monks and nuns (sadhus and sadhvis) who are in the Bharat, Airavata and Mahavideha kshetra. 17. पंच परमेष्ठि नमस्कार सूत्र PANCHA PARAMESHTTHI NAMASKARA SOOTRA नमोर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्य : NAMORHAT SIDDHÃCHÄRYO PADHYAYA SARVA SADHUBHYAH || 1 || भावार्थ: श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि द्वारा दृष्टिवाद नामक पूर्व में से उघृत इस सूत्र से श्री पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। Explanation: By this Sootra obeisance is offered to the panchparamesthis which is composed by shri siddhsena divakara suri. 18. उवसग्गहरं स्तोत्र UVASAGGAHARAM STOTRA उवसग्गहरं पास UVASAGGA-HARAM PÃSAM पासं वंदामि, कम्म घण मुक्कं PASAM VANDAMI, KAMMA-GHANA MUKKAM विसहर विस निन्नासं, मंगल कल्लाण आवासं VISAHARA VISA NINNASAM, MAŅGALA KALLĀŅA ĀVĀSAM || 1 || विसहर फुलिंग मंतं VISAHARA PHULIŅGA MANTAM कंठे धारेइ जो सया मणुओ KAŅTHE DHARE'I JO SAYÄ MAŅUO तस्स गह रोग मारी, दुट्ठ जरा जंति उवसामं TASSAGAHAROGAMAREE, DUTTHAJARA JANTI UVASAMAM || 2 || चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहु फलो होइ CHITTHAU DOORE MAŅTO, TUJZA PĀŅĀMO VI BAHUFALO HOI नर तिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख दोगच्चं NARA-TIRIE'SU VI-JEEVĀ, PĀVAŅTI NA DUKKHA DOGACCHAM || 3 || तुह सम्मत्ते लद्धे, TUHA SAMMATTE LADDHE', चिंतामणि कप्प पायव भहिए CHINTAMANI KAPPAPAYA-VABBHAHIYE' 44 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं PAVANTI AVIGGHENAM, JEEVAAYARAMARAM THANAM || 4 || इअ संथुओ महायस IA SANTHUO MAHĀYASA भत्तिब्भर निब्भरेण हियऐण BHATTIBBHARA NIBBHAREŅA HIYE'ŅA ता देव दिन बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद TÃ DE'VA DIJJA BOHIM, BHAVE BHAVE PÃSA JIŅACHANDA || 5 || भावार्थ: श्री भद्रबाहु स्वामी द्वारा रचित इस सूत्र में सर्व विघ्नों को दूर करने वाले श्री पार्श्वनाथ प्रभु के गुणों की स्तुति की गयी है। Explanation: This is the stavana in praise of shri parshvanath prabhu. All the calamities are removed by this similiarly having recited this stavana the request for the attachment of the right faith is made. This sootra is composed by acharya bhagvan shri bhadrabahu swami आ 19. जय वीयराय सूत्र JAYA VEERAYA SOOTRA जय वीयराय जग गुरु JAYA VEEYARÃYA! JAGA - GURU ! होउ ममं तुह प्पभावओ भयवं HOU MAMAM TUHA PABHÃVAO BHAYAVAM भव निव्वेओ, मग्गाणुसारिया इट्ठ फल सिद्धि BHAVANIVVE'O MAGGĀŅU-SÄRIÄ ITTHA-FALA-SIDDHI || 1 ||| लोग विरुच्चाओ गरुजण पआ LOGA-VIRUDDHACHCHÃO GURUJAŅA POOÃ परत्थ करणं च, सुहगुरु जोगो PARATTHAKARAŅAM CHA, SUHAGURU-JOGO तव्वयण सेवणा, आभवमखंडा TAVVAYANA-SEVANA, ABHAVAMAKHANDA || 2 || वारिज्जइ-जइ वि नियाण, बंधण वीयराय तुह समये VARIJJAI JAIVI NIYANA, BANDHANAM VEEYARAYA! TUHA SAMAYE' तहवि मम हज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं TAHAVI MAMA HUJJA SE'VA, BHAVE' BHAVE TUMHA CHALAŅĀŅAM || 3 || दुक्खक्खओ कम्मक्खओ DUKKHAKKHAO KAMMAKKHAO समाहि मरणं च बोहि लाभो अ SAMĀHI MARAŅAM CHA BOHILĀBHO A 45 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपज्जऊ मह एअंतुह नाह पणाम करणेणं SAMPAJJAU MAHA EAM, TUHA NAHA! PAŅĀMA KARAŅEŅAM || 4 || सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याण कारणम् SARVA-MANGALA-MANGALYAM, SARVA-KALYANA-KARANAM प्रधाणं सर्व धर्माणां, जैन जयति शासनम् PRADHÃNAM SARVA DHARMÄNĀM. JAINAM JAYATI SHÄSANAM 11 5 || भावार्थ: इस सूत्र द्वारा प्रभु से आत्म कल्याण के लिए निर्दोष एंव उत्तम तेरह प्रार्थनायें की गयी है। Explanation: By this sootra the request is made to the prabhu for 13 best virtues. 20. अरिहंत चेइयाणं सूत्र ARIHANTA CHEIYANAM SOOTRA अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं ARIHAŅTA CHE'IYĀŅAM, KARE'MI KÄUSSAGGAM वंदण-वत्तिआए, पूअण-वत्तिआए VANDANA-VATTIYAE, POOANA-VATTIYAE' सक्कार-वत्तिआए, सम्माण-वत्तिआए SAKKARA-VATTIYAE, SAMMANA-VATTIYAE' बोहिलाभ-वत्तिआए, निरुवसग्ग-वत्तिआए BOHILABHA-VATTIYAE', NIRUVASAGGA-VATTIYAE' || 1 || सद्धाए, मेहाए, धीईए, SADDHÃE', ME'HÃE', DHIIE' धारणाए, अणुप्पेहाए, वढमाणीए DHĀRAŅÃE', ANUPPE'HÃÈ', VADDHAMĀŅIE' ठामि काउस्सग्गं (अन्नत्थ......) THAMI KAUSSAGGAM (ANNATHA......) ||2|| भावार्थ: इस सूत्र में जिन प्रतिमाओं की आराधना के लिए काउस्सग्ग करते समय की भावनाओं का वर्णन है। Explanation: In this sootra, there is description of the emotions while performing the kaussagga for the adoration of the JINA idols. B. पच्चक्खाण 1. मुट्ठिसहि पच्चक्रवाण मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाई (लेने वाले बोले पच्चक्खामि) चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साहमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह ।। (लेने वाले बोले वोसिरामी) ( पानी पीने के बाद उठते वक्त यह पच्चक्खाण लेना चाहिए।) 46 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. धारणा - अभिग्रह पच्चक्खाण धारणा अभिग्रह पच्चक्खाई (लेने वाले बोले पच्चक्खामि), अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरई ।। (लेने वाले बोले वोसिरामी) (कुछ भी वस्तु के त्याग के लिए एवं नयी आराधना के लिए यह पच्चक्खाण लिया जाता है।) C. विधि विभाग 1. चैत्यवंदन विधि (चैत्यवंदन यह भाव पूजा है, अतः इसके प्रारम्भ में तीन बार निसीहि बोलनी चाहिए।) 41. सबसे पहले खमासमण सूत्र बोलकर एक खमासमण देना 02 फिर नीचे के सूत्र खडे रहकर बोलना इरियावहियं सूत्र, तस्स उत्तरी करणेणं सूत्र, अन्नत्थ ऊससिएणं सूत्र | 3. इसके बाद “एक लोगस्स न आवे तो चार नवकार" का काउस्सग्ग करके हाथ जोडकर लोगस्स सूत्र बोलना। 4. फिर खमासमण सूत्र अलग अलग तीन बार बोलकर तीन खमासमण देकर बाद में यह आदेश मांगना इच्छाकारेण संदिसह भगवान ! चैत्यवंदन करूं ? इच्छं (कहकर (Left) बाया पैर खडा करके बैठकर नीचे का सूत्र हाथ जोडकर बोलना) 6. सकलकुशलवल्ली पुष्करावर्तमेघो, दुरिततिमिर भानु: कल्पवृक्षोपमान: भवजलनिधिपोत: सर्वसंपत्तिहेतुः, स भवतु सततंव: श्रेयसे शांतिनाथःश्रेयसे पार्श्वनाथ: ।। 7. फिर चैत्यवंदन बोलना (हो सके वहां तक मूलनायक भगवान का चैत्यवंदन बोलना) 8. फिर जंकेंचि सूत्र, नमुत्थुणं (शक्रस्तव) सूत्र बोलना 9. फिर ललाट पर दोनो हाथ जोडकर जावंति चेइयाइंसूत्र बोलना 10. फिर खनासमण देकर ललाट पर दोनो हाथ जोडकर जावंत केवि साहू सूत्र बोलना 11. फिर नमोऽर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसर्व-साधुभ्य : बोलकर स्तवन बोलना (न आवे तो उवसग्गहरं सूत्र बोलना) 12. फिर ललाट पर दोनों हाथ जोडकर जयवीयराय सूत्र बोलना। 13. बाद में खडे होकर श्री अरिहंत चेइयाणं सूत्र बोलना। 14. फिर अत्रत्थ सूत्र बोलना, बाद में एक नवकार का काउस्सग्ग करके नमोऽर्हत्. बोलकर स्तुति बोलना। 15. बाद में एक खमासमण देकर पच्चक्खाण का आदेश मांगना इच्छकारी भगवान पसाय करी पच्चक्खाण नो आदेश देजोजी। (फिर यथाशक्ति पच्चक्खाण करना) 16. फिर आव्यो शरणे तुमारे... इत्यादिस्तुति बोलकर परमात्मा को मोती अथवा चावल से वधाणा चाहिए। 17. फिर एक खमासमण देकर जीमना हाथ जमीन पर एवं बांया हाथ मुंह के पास रखकर निम्न वाक्य बोलना विधि करता जो कुछ अविधि, आशातना हयी हो, उसके लिए मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं। 18. अंत में जिनशासन देव की जय हो ऐसा बोलना चाहिए। A 47AVRAN Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. कहानी विभाग A. रात्रि भोजन त्याग एक सियार ने सागरसेन मुनिराज के पास रात्रि भोजन का त्याग कर दिया। एक दिन वह सियार बहुत प्यासा था, बावड़ी में पानी पीने के लिये उतरा। वहाँ अंधेरा दिखने से रात्रि समझकर ऊपर आ गया। ऊपर प्रकाश देखकर फिर नीचे गया। नीचे बार-बार अंधेरा दिखने और रात्रि में पानी का त्याग होने से अत्यंत प्यास से वह मर गया। इस व्रत के प्रभाव से वह सियार मनुष्य गति में प्रीतिकुमार नामक श्रावक हो गया। उसी भव में दीक्षा लेकर कर्मों से मुक्त हो गया। देखो बच्चों ! रात्रि भोजन करने से मनुष्य उल्लू, बिल्ली आदि पशु बन जाते हैं और यह पशु, प्यास सहन करने से, नियम पालन करने से, मनुष्य क्या भगवान बन गया। इसलिए हम सबको रात्रि भोजन त्याग कर देना चाहिये। प्रश्नावली- 1) सियार मरकर कहाँ गया? 2) रात्रि भोजन करने से क्या गति होती है ? 3) रात्रि भोजन का फल बताओ? 48 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B. देव भक्ति का सुफल एक मेंढक भगवान् की भक्ति में गद्गद् होकर कमल पंखुड़ी को मुख में दबाकर दर्शन के लिए चल पड़ा। मार्ग में राजा श्रेणिक के सैनिक के घोडे के पैर के नीचे दब गया और शुभ भावों से मरकर स्वर्ग में दर्दुर नाम का देव हो गया। वहाँ से तत्क्षण ही भगवान् के समवसरण में दर्शन करने आ गया। राजा श्रेणिक ने उस देव के मुकुट में मेंढ़क का चिन्ह देखकर श्री गौतम स्वामी से उसका परिचय पूछा। वहाँ सभी लोग देवदर्शन की भावना के फल को सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुए। देखों बालकों ! भगवान् के दर्शन की भावना से भी कितना पुण्य बन्ध होता है। कभी भी खाली हाथ से भगवान और गुरु का दर्शन नहीं करना चाहिए। चावल, लौंग, सुपारी, फल आदि चढ़ाकर ही दर्शन करना चाहिए। प्रश्नावली 1. मेंढक कैसे मरा और कहा गया ? 2. दर्शन करते समय क्या चढ़ाना चाहिये ? 3. चित्र में देव कहाँ है और मेंढक कहाँ ? C. कुमारपाल राजा तिलंग देश की यह बात है। एकशिला नामक नगरी में भक्ति के अनुरागी आढर नामक सेठ रहते थे। उनके पास ही भगवान महावीर स्वामी का सुंदर मंदिर था। सेठ सहकुटुंब मंदिर जा कर प्रतिदिन प्रभुभक्ति अच्छी तरह से करते थे । पर्यूषण पर्व का दिन था। आज सेठ ने अपने नरवीर नामक नौकर से कहा, भाई, प्रभु पूजन की संपूर्ण सामग्री तैयार है। हमारे साथ तुम भी चलो, और वीतरागी तीर्थंकर भगवान का दर्शन-पूजन कर पवित्र बनो । सेठजी की बात को सुनकर नरवीर को बहुत आनंद हुआ। इस समय सेठ के यहाँ कर्म की विचित्रता 49 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से ही नौकर के रूप में काम कर रहा था। लेकिन वह सचमुच जयकेशी राजा का राजपुत्र था। आज उसने अपनी उच्च कुलीनता का विचार किया और सोचा, सेठ की सामग्री से पूजन करने से मुझे क्या लाभ होगा? मेरे पास अपने श्रम की पाँच कौड़ी की पूँजी है, उसी से ही मैं आज की भक्ति कर अपने जीवन को सफल कर लूँ। ऐसा निश्चय कर उसने मालन से पाँच कौड़ी के फूल माँगे । मालन ने 18 फूल चुन कर दिये। फूलों से भरा हुआ थाल लेकर नरवीर मंदिर में गया। प्रभु की नवागी पूजा बड़े उमंग के साथ की। जयणा से पुष्पों को प्रभु के अंग पर कलाकारी से रखकर अंगरचना की। इस प्रकार उसने शाम तक प्रभुभक्ति व ध्यान में दिन बिताया एवं अखंडित पुण्य कर्म का संचय किया। परिणामस्वरूप अपनी मृत्यु के पश्चात् वह राजा त्रिभुवन के यहाँ उसके पुत्र के रूप में जन्मा। राजा त्रिभुवनपाल और उसकी प्रजा आज बहुत ही आनंद मना रही थी। राज भवन में आज पुत्र जन्म की खुशियाँ मनाई जा रही थी। यह राजपुत्र का जीव, वही पूर्वजन्म के नरवीर (नौकर) की आत्मा थी। उस धर्मवीर बालक का नाम 'कुमारपाल' रखा गया। समय बीत रहा था। कुमार भी बड़े हो रहे थे। राजा सिद्धराज जयसिंह उसकी प्रगति और जीवन विकास के लिये बार-बार विघ्नरूप हुए। किन्तु मनुष्य के भाग्य में जो लिखा गया है, वह कभी मिट नहीं सकता। अपरिमित आपत्तियों को और कष्टों को सहते-सहते एक दिन कुमार पाल वि.सं. 1199 में राजा बने। पाँच कौड़ी के अठारह पुष्पों से उन्होंने जो पुण्य उपार्जन किया था, उसके प्रताप से वह इस भव में क्रमश: अठारह देशों के मालिक बने। इतनी अपरिमित राजसमृद्धि प्राप्त होने पर भी वे धर्म को कभी भूले नहीं। त्यागी गुरु महाराजों का सन्मान और जीवदया के प्रति दिलचस्पी उनके जीवन में अभिन्न अंग रही। वे अपने राज्य में घोड़े और हाथियों को भी कपड़े से छना हुआ पानी पीने को देते थे। अपनी राज्यसत्ता की सहायता से उन्होंने जितना जीवदया का जो प्रचार और प्रसार किया था, उतना महाराजा श्रेणिक भी कर नहीं पाए। इसी पर से उनका जीवदया के प्रति अनहद प्रेम प्रमाणित होता है। 50 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकाल सर्वज्ञ अचार्य श्री हेमचंद्र सूरीश्वरजी महाराज का उन पर असीम उपकार था । अपनी शक्ति और बुद्धि का सदुपयोग राजेश्वर कुमारपाल ने गुरु महाराज के कथनानुसार शासन की योजनाओं में किया था। तारंगा तीर्थ का मंदिर आज भी उनकी उदारता और प्राचीन शिल्प कला के प्रति उनके प्रेम का साक्षी है। अपनी 81 वर्ष की उम्र में वि.सं. 1230 में आयुष्य पूर्ण होने से व्यंतरजाति में 'महर्द्धिक' देव हुए। देव जाति का आयुष्य पूर्ण होने पर वे भद्दिलपुर नगर में राजा शतानंद के यहाँ शतबल नामक पुत्र होंगे। उस समय वहाँ पर धर्म की सर्वोत्तम आराधना कर आगामी चोबीसी के प्रथम तीर्थंकर श्री पद्मनाभ भगवंत (श्रेणिक राजा का जीव ) के पास चारित्र ग्रहण कर उन्हीं तीर्थंकर प्रभु के 'गणधर' बन कर मुक्तिगति को प्राप्त करेंगे। अठारह फूलों से 18 देश प्राप्त किये। पाँच कौड़ी के कारण 5 महाव्रत एवं पंचम गति मोक्ष को भी प्राप्त किया । अर्थात् निष्ठा से की गई थोड़ीसी आराधना आत्मा को कितनी ऊँची ले जा सकती है, यह बात इस दृष्टांत से स्पष्ट होती है। धन्य है ऐसे जीवदया के प्रेमी नरवीर कुमारपाल महाराज को । D. लोभ कषाय नदी के प्रवाह में से लकड़ियाँ इकट्ठी करके लाते हुए एक आदमी को रानी ने देखकर राजा से उसको धन देने के लिये कहा । राजा ने उसे बुलाया तब उसने अपने बैल की जोड़ी के लिए एक बैल 51 मांगा। राजा उसका एक बैल देखने के लिए उसके घर गया तो देखा कि उसके यहाँ रत्न, सुवर्ण से बने हुए पशु पक्षियों की सैंकड़ों जोड़ियाँ थीं। उसकी स्त्री ने राजा को भेंट करने के लिए रत्नथाल भरकर सेठ को दिया। अति लोभ से रत्नथाल हाथ में लेते ही सेठ की अंगुलियाँ सर्प के फण सदृश हो गई। यह सब देखकर राजा ने उसकी निन्दा करके 'फणहस्तङ्ख नाम रख दिया। वह लोभी मरकर अपने भंडार में सर्प हो गया ! वहाँ पर भी अपने ही पुत्रों के द्वारा मारा गया और लोभ से भर कर चौथी नरक में चला गया। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E.संगम (श्री शालिभद्र का पूर्व जन्म) सालिमही शालीग्राम में एक गरीब विधवा धन्या अपने संगम नामक पुत्र के साथ रहती थी। संगम नगरजनों के पशुओं को चरवाता था। किसी पर्वोत्सव में सब घरों में बनती हुई खीर देखकर संगम ने अपनी माँ से कहा - "माँ ! मेरे लिए तू खीर क्यों नहीं बनाती?" "ओह.... गरीबी क्या चीज है ? मेरे पुत्र को क्या पता ? हाय.... गरीबी। मैं अपने इकलौते बेटे का एक सामान्य मनोरथ भी पूर्ण नहीं कर सकती।'' ऐसे विचारों से धन्या रोने लगी। उसके रूदन से पड़ोसी स्त्रियों को पता चला। उन्होंने घी, दूध, शक्कर आदि खीर की सामग्री दी। इस सामग्री से खीर बनाकर बेटे को परोसकर धन्या किसी कार्यवश बाहर गई। __ इधर कोई मासोपवासी जैन मुनि महाराज भिक्षा लेने के लिए पधारे। उनको देखते ही संगम ने विचार किया - 'ये सचेतन चिंतामणि रत्न, जंगम कल्पवृक्ष और कामधेनु रूप मुनि महाराज मेरे भाग्य से इस समय यहाँ आये हैं। बहुत अच्छा हुआ, नहीं तो मुझ जैसे गरीब को ऐसे उत्तम पात्र का योग कहाँ मिलता है ? यह सोचकर संगम ने तुरंत ही माँ की परोसी हुई अपनी थाली की पूरी खीर अपूर्व भावोल्लास के साथ मुनि को बोहरा दी। बाहर से आकर माँ ने संगम को फिर से खीर परोसी। आकंठ खीर खाने से संगम को अजीर्ण हुआ और दर्द से पीड़ित होते हुए भी उसी रात मुनि को किये हुए दान की अनुमोदना करता हुआ मर कर राजगृही नगरी के गोभद्र सेठ और भद्रा सेठानी के यहाँ पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम शालीभद्र रखा और युवावस्था में उसका बत्तीस (32) स्त्रियों के साथ पाणिग्रहण हुआ। वह भोग विलास में मस्त रहने लगा। उसके पिता देवलोक से पुत्र स्नेह के कारण सोने और वस्त्र की नव्वाणु पेटियाँ भेजने लगे। जिस दिन उसने जाना कि मेरे ऊपर भी कोई मालिक है (श्रेणिक महाराज) तब उसे संसार से विरक्ति हुई और धीरे-धीरे एक-एक स्त्री का त्याग करने लगे। धन्ना (बहनोई) के कहने पर एक साथ सब त्यागकर परमात्मा वीर प्रभु के पास चारित्र ग्रहणकर उग्र तपश्चर्या कर मोक्ष पाये। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मयणा सुंदरी मालव देश की राजधानी उज्जयिनी के महाराजा प्रजापाल की पत्नी रूपसुन्दरी की पुत्री थी मयणासुंदरी। चौसठ कलाओं में निपुण मयणासुंदरी जब विद्याभ्यास करके आयी तो पिताजी ने परीक्षा की। उस समय उसने कहा कि इस संसार में सभी अपने-अपने कर्मानुसार दु:ख-सुख का अनुभव करते हैं। उसमें न कोई कम कर सकता है न बढ़ा सकता है। तब राजा ने कहा कि तुम्हें आज तक जो मिला है वह मेरे प्रताप से है, लेकिन तू यदि कर्म का प्रताप मानती है तो देख तेरे कर्मों का फल। और मयणासुंदरी का ब्याह राजा ने एक कोढ़ी पुरूष (श्रीपाल) से किया जो कि 700 कोढियों का राजा था। मयणासुंदरी ने अत्यंत हर्ष पूर्वक उसे अपना पति मान लिया। शादी के दूसरे दिन श्रीपाल-मयणा जिनेश्वर देव की पूजा करके आचार्य भगवंत के वंदनार्थ गये। वहाँ मयणासुंदरी ने गुरुभगवंत से कहा – 'मेरे मन में किसी बात का दु:ख नहीं है। परन्तु अज्ञानी लोग जैनधर्म की निन्दा करते हैं, वह मेरे मन में खटकता है।' मयणासुंदरी का दृढ़ सम्यक्त्व जानकर आचार्यश्री ने उन्हें सिद्धचक्र महायंत्र की आराधना (नवपदजी की ओली) की विधि और प्रभाव समझाकर कहा कि यह यंत्र तुम्हें यह भव और परभव में मनोवांछित सिद्धि प्रदान करने वाला होगा । नवपदजी की आराधना से अंबर राजा का शरीर स्वस्थ होने लगा। नवमें दिन सिद्धचक्रजी के प्रक्षाल का जल शरीर पर लगाने से शरीर रोग-रहित हो गया। यह देखकर सारे राज्य में जैन शासन की जय-जयकार होने लगी। श्रीपाल और मयणासुंदरी के मन में सिद्धचक्र के प्रति अटूट श्रद्धा हो गयी। कभी भी किसी भी संकट में सिद्धचक्रजी का स्मरण करते ही सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। 53 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117. प्रश्नोत्तरी 1. पंच परमेष्ठि किसे कहते हैं ? 2. हम कौन है ? अभी किसका शासन चल रहा है ? मंदिर में प्रवेश करते समय क्या बोलना चाहिए ? 5. भगवान तथा ध्वज को देखकर क्या बोलना चाहिए ? 6. रास्ते में महाराज साहब मिलते हैं तो क्या बोलना चाहिए ? 7. तीसरे भगवान का नाम और लंछन कौनसा है ? 8. भगवान को कितने अंग पर पूजा की जाती है ? 9. पाँच ज्ञान में से दूसरे ज्ञान का नाम क्या है ? 10. अरिहंत और सिद्ध भगवंत के गुण कितने हैं ? 11. सुबह उठकर सबसे पहले क्या करना चाहिए ? 12. अलोक के अंदर क्या है ? 13. सबसे बडा पर्वत कौनसा है ? 14. सामायिक में कुल कितने खमासमण आते हैं ? 15. जंबुद्वीप का आकार कैसा है ? 16. मध्यलोक में क्या है ? 17. इस काल में कुल कितने भगवान भरत क्षेत्र में हो गए ? 18. सबसे बड़े क्षेत्र का नाम क्या है ? 19. सबसे बड़ा समुद्र कौनसा है ? 20. तिर्छा लोक का दूसरा नाम क्या है ? 21. सबसे बड़े द्वीप का नाम क्या है ? 22. जंबुद्वीप किसमें है? 23. भगवान को पक्षाल करने के बाद कितने अंगलुछने किये जाते हैं ? 24. नवतत्वों में दूसरा व तीसरा तत्व का नाम क्या है ? 25. भगवान को सबसे पहले कौनसी पूजा करनी चाहिए ? 26. नरवीर किसका पुत्र था ? 27. शालीभद्र की माता का नाम क्या था ? 28. मेंढक मरकर कहाँ गया ? 29. मुनिराज के पास किसने रात्रीभोजन त्याग करने का नियम लिया ? 30. अरिहंत भगवान के गुण कितने और उनके नाम लिखिए ? 31. पाँच नाद - घोष लिखिए ? 32. मेरे गुरु के बारे में पांच वाक्य लिखिए ? 33. माता - पिता के उपकार के बारे में दस लाइन लिखिए ? 34. जीवदया और जयणा के बारे में पांच वाक्य लिखिए ? 35. विनय - विवेक के बारे में पाँच वाक्य लिखिए ? 36. नव तत्वों के नाम, व्याख्या एवं भेद लिखिए ? 37. पहले एवं अंतिम तीर्थंकर भगवान के माता-पिता का नाम लिखिए ? 54 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. जग चिंतामणी सूत्र का भावार्थ लिखिए ? 39. जं किंचि सूत्र का भावार्थ लिखिए ? 40. नमुत्थुणं सूत्र का भावार्थ लिखिए ? 41. जावंति चेइआई सूत्र का भावार्थ लिखिए? 42. जावंत के वि साहु सूत्र का भावार्थ लिखिए ? 43. पंच परमेष्ठि नमस्कार सूत्र का भावार्थ लिखिए ? 44. उवस्सग्गहरं स्तोत्र का भावार्थ लिखिए ? 45. जय वियराय सूत्र का भावार्थ लिखिए ? 46. अरिहंत चेइयाणं सूत्र का भावार्थ लिखिए ? 47. मुट्ठिसहियं पच्चक्खाण लिखिए ? 48. धारणा अभिग्रह पच्चक्खाण लिखिए ? 49. चैत्यवंदन की विधि लिखिए ? 50. रात्री भोजन त्याग की कहानी दस लाईन में लिखिए ? 51. देव भक्ति का सुफल कहानी दस लाईन में लिखिए ? 52. कर्म के कारण नौकर होना पडा कहानी दस लाईन में लिखिए ? 53. संगम (श्री शालीभद्र का पूर्व जन्म) की कहानी दस लाईन में लिखिए ? 54. मयणासुंदरी की कहानी दस लाइन में लिखिए ? 55. सकल विश्व का जय मगल हो - प्रार्थना लिखिए? 56. हे प्रभु आनंद दाता - स्तुति लिखिए? 57. शुं बालको माँ बाप पासे - स्तुति लिखिए ? 58. श्री पंच परमेष्ठि जिन चैत्यवंदन लिखिए ? 59. श्री सामान्य जिन स्तवन लिखिए ? 60. श्री पंच परमेष्ठि जिन स्तुति लिखिए ? 61. अष्टप्रकारी पूजा के दोहे में से कोई भी चार दोहे लिखिए ? 62. अष्टप्रकारी पूजा के दोहे के अर्थ में से कोई भी चार दोहे के अर्थ लिखिए ? 63. नवांगी पजा के कोई भी चार दोहे लिखिए? 64. नवांगी पूजा के दोहे के कोई भी चार दोहे के अर्थ लिखिए ? 65. जिन मंदिर में प्रवेश और पूजा विधि का क्रम लिखिए ? 66. ज्ञान के बारे में पांच लाईन लिखिए ? 67. भोजन - विवेक (अभक्ष्य - त्याग) के बारे में दस लाईन लिखिए ? 68. ज्ञानोपासना, दर्शनोपासना और गुणोपासना सबके बारे में पाँच पाँच लाईन लिखिए ? 69. दान धर्म, शील धर्म और तप धर्म के बारे में पाँच - पाँच लाईन लिखिए ? 70. समता और व्रत - नियम के बारे में पाँच - पाँच लाईन लिखिए ? 71. करेमि भंते सूत्र लिखिए ? 72. नमुत्थुणं सूत्र की प्रथम चार गाथा लिखिए ? 73. उवस्सग्गहरं पास..... जंति उवसामं तक लिखिए ? 74. सर्व मंगल............. शासनम् तक लिखिए ? 75. जावंत के वि साहे - सूत्र लिखिए ? 55 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. सामान्य ज्ञान GAME A. निम्न कोष्टक में 24 तीर्थंकरों में से 10 तीर्थंकर भगवंतों के नाम छिपे है। वे सीधे, उल्टे, टेढ़े, तिरछे हो सकते है, आप उन्हें ढूंढ़ निकाले । म क प ष द ल न 45 क ला दे अ जि व प म हा त ब स म 14 3 ↑ क 2 ↑ वी क৯5 - F ल 1 7 ঌto न हि त ह ट म प 61 र शी र द य म ल्लि ना त ना थ प र 5 ↓ ना म र प पा म 1. ध ठ वि म ल र 17 4 15 र्म 56 थ स्वा र ग स न मि ना सु ना थ नि या ना थ B. चित्रों को देखकर उनके नाम खाली स्थान में भरो : बाएँ से दाएँ 1. सि र 2. 3. 4. थ सं 5. भ क 6. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. उपर से नीचे ↓ - (3) (4) (3) (5) (3) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा मांगीलालजी तेजराजजी निंबजिया (सिरोही) की पुण्य स्मृति में स्व. शा मांगीलालजी श्रीमती धरमीबाई तेजराजजी निंबजिया मांगीलालजी निंबजिया @FIRMO KK KAMLESH CABLE CO. SREE RAJENDRA STEEL 22, Managappan Street, 55, Ponnappa Chetty Street, Chennai - 600079. Chennai - 600 003. Ph. 9884054386 Ph. 98400 54529 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक पाठशाला में आने से.... ___1) सुदेव, सुगुरु, सुधर्म की पहचान होती है। 2) भावगर्भित पवित्र सूत्रों के अध्ययन व मनन से मन निर्मल व जीवन पवित्र बनता है और जिनाज्ञा की उपासना होती है। 3) कम से कम, पढाई करने के समय पर्यंत मन, वचन व काया सद्विचार, सद्वाणी तथा सद्वर्तन में प्रवृत्त बनते हैं। पाठशाला में संस्कारी जनों का संसर्ग मिलने से सदगुणों की प्राप्ति होती है "जैसा संग वैसा रंग"। 5) सविधि व शुद्ध अनुष्ठान करने की तालीम मिलती है। भक्ष्याभक्ष्य आदि का ज्ञान मिलने से अनेक पापों से बचाव होता है / कर्म सिद्धान्त की जानकारी मिलने से जीवन में प्रत्येक परिस्थिति में समभाव टिका रहता है और दोषारोपण करने की आदत मिट जाती है। महापुरुषों की आदर्श जीवनियों का परिचय पाने से सत्त्वगुण की प्राप्ति तथा प्रतिकुल परिस्थितिओं में दुर्ध्यान का अभाव रह सकता है। विनय, विवेक, अनुशासन, नियमितता, सहनशीलता, गंभीरता आदि गुणों से जीवन खिल उठता है। बच्चा आपका, हमारा एवं संघ का अमूल्य धन है। उसे सुसंस्कारी बनाने हेतु धार्मिक पाठशाला अवश्य भेजे।