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________________ कलिकाल सर्वज्ञ अचार्य श्री हेमचंद्र सूरीश्वरजी महाराज का उन पर असीम उपकार था । अपनी शक्ति और बुद्धि का सदुपयोग राजेश्वर कुमारपाल ने गुरु महाराज के कथनानुसार शासन की योजनाओं में किया था। तारंगा तीर्थ का मंदिर आज भी उनकी उदारता और प्राचीन शिल्प कला के प्रति उनके प्रेम का साक्षी है। अपनी 81 वर्ष की उम्र में वि.सं. 1230 में आयुष्य पूर्ण होने से व्यंतरजाति में 'महर्द्धिक' देव हुए। देव जाति का आयुष्य पूर्ण होने पर वे भद्दिलपुर नगर में राजा शतानंद के यहाँ शतबल नामक पुत्र होंगे। उस समय वहाँ पर धर्म की सर्वोत्तम आराधना कर आगामी चोबीसी के प्रथम तीर्थंकर श्री पद्मनाभ भगवंत (श्रेणिक राजा का जीव ) के पास चारित्र ग्रहण कर उन्हीं तीर्थंकर प्रभु के 'गणधर' बन कर मुक्तिगति को प्राप्त करेंगे। अठारह फूलों से 18 देश प्राप्त किये। पाँच कौड़ी के कारण 5 महाव्रत एवं पंचम गति मोक्ष को भी प्राप्त किया । अर्थात् निष्ठा से की गई थोड़ीसी आराधना आत्मा को कितनी ऊँची ले जा सकती है, यह बात इस दृष्टांत से स्पष्ट होती है। धन्य है ऐसे जीवदया के प्रेमी नरवीर कुमारपाल महाराज को । D. लोभ कषाय नदी के प्रवाह में से लकड़ियाँ इकट्ठी करके लाते हुए एक आदमी को रानी ने देखकर राजा से उसको धन देने के लिये कहा । राजा ने उसे बुलाया तब उसने अपने बैल की जोड़ी के लिए एक बैल 51 मांगा। राजा उसका एक बैल देखने के लिए उसके घर गया तो देखा कि उसके यहाँ रत्न, सुवर्ण से बने हुए पशु पक्षियों की सैंकड़ों जोड़ियाँ थीं। उसकी स्त्री ने राजा को भेंट करने के लिए रत्नथाल भरकर सेठ को दिया। अति लोभ से रत्नथाल हाथ में लेते ही सेठ की अंगुलियाँ सर्प के फण सदृश हो गई। यह सब देखकर राजा ने उसकी निन्दा करके 'फणहस्तङ्ख नाम रख दिया। वह लोभी मरकर अपने भंडार में सर्प हो गया ! वहाँ पर भी अपने ही पुत्रों के द्वारा मारा गया और लोभ से भर कर चौथी नरक में चला गया।
SR No.006116
Book TitleJain Tattva Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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