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________________ . मयणा सुंदरी मालव देश की राजधानी उज्जयिनी के महाराजा प्रजापाल की पत्नी रूपसुन्दरी की पुत्री थी मयणासुंदरी। चौसठ कलाओं में निपुण मयणासुंदरी जब विद्याभ्यास करके आयी तो पिताजी ने परीक्षा की। उस समय उसने कहा कि इस संसार में सभी अपने-अपने कर्मानुसार दु:ख-सुख का अनुभव करते हैं। उसमें न कोई कम कर सकता है न बढ़ा सकता है। तब राजा ने कहा कि तुम्हें आज तक जो मिला है वह मेरे प्रताप से है, लेकिन तू यदि कर्म का प्रताप मानती है तो देख तेरे कर्मों का फल। और मयणासुंदरी का ब्याह राजा ने एक कोढ़ी पुरूष (श्रीपाल) से किया जो कि 700 कोढियों का राजा था। मयणासुंदरी ने अत्यंत हर्ष पूर्वक उसे अपना पति मान लिया। शादी के दूसरे दिन श्रीपाल-मयणा जिनेश्वर देव की पूजा करके आचार्य भगवंत के वंदनार्थ गये। वहाँ मयणासुंदरी ने गुरुभगवंत से कहा – 'मेरे मन में किसी बात का दु:ख नहीं है। परन्तु अज्ञानी लोग जैनधर्म की निन्दा करते हैं, वह मेरे मन में खटकता है।' मयणासुंदरी का दृढ़ सम्यक्त्व जानकर आचार्यश्री ने उन्हें सिद्धचक्र महायंत्र की आराधना (नवपदजी की ओली) की विधि और प्रभाव समझाकर कहा कि यह यंत्र तुम्हें यह भव और परभव में मनोवांछित सिद्धि प्रदान करने वाला होगा । नवपदजी की आराधना से अंबर राजा का शरीर स्वस्थ होने लगा। नवमें दिन सिद्धचक्रजी के प्रक्षाल का जल शरीर पर लगाने से शरीर रोग-रहित हो गया। यह देखकर सारे राज्य में जैन शासन की जय-जयकार होने लगी। श्रीपाल और मयणासुंदरी के मन में सिद्धचक्र के प्रति अटूट श्रद्धा हो गयी। कभी भी किसी भी संकट में सिद्धचक्रजी का स्मरण करते ही सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। 53
SR No.006116
Book TitleJain Tattva Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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