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जैन बालशिक्षा
उपाध्यायऊमरमुनि
भाग
पाशा
AARI
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सन्म ति ज्ञानपीठ , आगरा
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सन्मति साहित्य-रत्नमाला का तीसरा रत्न
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जैन बाल-शिक्षा
भाग दूसरा
सम्पादक उपाध्याय अमरमुनि
सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
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प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ लोहामण्डी, आगरा।
नवम् संस्करण : १९८६
मूल्य : ५ रुपया
मुद्रक : वीरायतन मुद्रणालय वीरायतन-राजगीर, नालन्दा
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दो शब्द शिक्षा मानव जीवन की उन्नति का सबसे बड़ा साधन है। किसी भी देश, जाति और धर्म का अभ्युदय, उसकी अपनी ऊँची शिक्षा पर ही निर्भर है। हर्ष है कि जैन समाज अब इस ओर लक्ष्य देने लगा है और हर जगह शिक्षण - संस्थाओं का आयोजन हो रहा है।
परन्तु लौकिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा का, जैसा चाहिए वैसा, प्रबन्ध नहीं हो पाया है। जहां कहीं प्रबन्ध किया भी गया है, वहाँ धार्मिक शिक्षा का अभ्यास - क्रम अच्छा न होने से वह पनप नहीं पाया है।
हमारी बहुत दिनों से इच्छा थी कि यह कार्य किसो अच्छे । विद्वान के हाथों से सम्पन्न हो। हमें लिखते हुए हर्ष होता है कि उपाध्याय कविरत्न श्री अमरचन्द्र जी महाराज के द्वारा यह कार्य प्रारम्भ किया है। बालकों की मनोवृत्ति को ध्यान में रखकर ही उनकी योग्यतानुसार यह धर्म - शिक्षा का पाठ्यक्रम आपके सामने है। आप देखेगे, कि किस सुन्दर पद्धति से धार्मिक, सैद्धान्तिक, नैतिक और ऐतिहासिक विषयों का उचित संकलन किया गया है। आशा है, यह पाठ्यक्रम धार्मिक शिक्षा की पूर्ति करेगा।
ओमप्रकाश जैन मन्त्री-सन्मति ज्ञानपीठ लोहामण्डी, आगरा
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विषय-सूची
१ विनय २ नवकार मन्त्र और उसकी महिमा ३ सच बोलू (कविता) ४ उपासना ५ अभ्यास ( कविता) ६ प्रश्नोत्तर ७ सीख ( कविता) ८ तीर्थंकर ६ बताइए १० वीर भामाशाह ११ भगवान महावीर १२ प्रश्नोत्तर १३ धर्म १४ श्रम (कविता) १५ सोमा सती १६ स्थानक में क्या नहीं करना ? १७ विद्या १८ स्वस्थ शरीर स्वर्ग है १९ प्रयाण गीत २० जब भी बोलो २१ लड़के को समझदारी २२ शिक्षा का प्रारम्भ
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वन्दना
जय जय सन्मति, वीर हितंकर ! जय जय वीतराग, जय शंकर !
[ १
1
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विनय
हे भगवान ।
दया - निधान !! हम पाएँ इतना बरदान !
चाहे :ख हो,
चाहे सुख हो, रहे सत्य का हर दम ध्यान !
बाधाओं में
विपदाओं में, धीरज धरें, बनें बलवान !
तन मन वारें,
जीवन वारें, देश, धर्म पर हों बलिदान !
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महामन्त्र नवकार
नमो अरहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए अव्व साहूणं ।
अर्थ
अरहन्तों को नमस्कार हो । सिद्धों को नमस्कार हो । आचार्यों को नमस्कार हो । उपाध्यायों को नमस्कार हो ।
लोक में सब साधुओं को नमस्कार हो । यह नवकार मन्त्र है। इसके पांच पद हैं मिलाकर पैंतीस अक्षर हैं ।
और सब
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नवकार मन्त्र को प्राचीन काल में नमोक्कार मन्त्र भी
कहते थे ।
नवकार महामन्त्र की महिमा
( चूलिका )
एसो पंच - नमोक्कारो,
सव्व - पाव - प्पणासलो ।
मंगलाणं च
पढमं हवद्द
सव्वेसि,
मंगलं ||
अर्थ
यह पांच पदों को
नमस्कार,
सब पापों का नाश करने वाला है ।
संसार के सब मंगलों में
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पहला अर्थात् श्रेष्ठ मंगल है |
[ ४ ]
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__ सचमुच ही नवकार मन्त्र की महिमा अपार है। कहा भी है
सब से बढ़कर है नवकार, करता है भव - सागर पार ! श्री जिन - वाणी का यह सार, बार - बार जपो नवकार !
अभ्यास
१ नवकार मन्त्री पढ़ो ? २ नवकार के कुल कितने पद हैं ? ३ नबकार के कुल कितने अक्षर हैं ? ४ नवकार मन्त्र के महात्म्य का पाठ बोलो ?
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सच बोलूँ
मैं सच बोलू मैं सच बोलू
चन्दन महके, बेला महके, गुल गुलाब अलबेला महके । सच बोलू मन मेरा महके, मेरे मुंह की महक निराली ।
मैं सच बोलू, मैं सच बोलू !
मैं सच बोलू, ___ मैं सच बोलू।
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चांदी दमके, सोना दमके, हीरे का हर कोना चमके । सच बोलू मुंह मेरा दमके, मेरे मुंह की दमक निराली।
मैं सच बोलू, मैं सच बोलू !
मैं सच बोलू मैं सच बोलू।
चन्दा चमके, तारा चमके, सूरज प्यारा - प्यारा चमके, सच बोल, मन मेरा चमके । मेरे मन की चमक निराली।
मैं सच बोलू, मैं सच बोलू ।
मैं सच बोलू, मैं सच बोलू !
[
७
]
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उपासना
भगवान का नाम - स्मरण करने को ही उपासना कहते हैं । उपासना करने के लिए एकान्त और शुद्ध स्थान में अथवा स्थानक में जाकर, पूर्व की या उत्तर की ओर मुख करके, पालथी लगाकर बैठना चाहिए । आँखें आधी बन्द और आधी खुली रखनी चाहिए । उपासना के ससय शरीर हिलाना डुलाना नहीं चाहिए । इस समय न किसी से बातें करनी चाहिए और न किसी की ओर देखना चाहिए ।
६
सरल उपाय
भगवान का नाम स्मरण करने का यह है, कि नवकार मन्त्र का कम से कम एक सौ आठ बार जप करना चाहिए । जप करते समय नवकार मन्त्र बहुत मधुर, स्पष्ट और मन्द स्वर से बोलना चाहिए। अथवा मौन रहकर मन ही मन में जप करना चाहिए ।
·
( ८
८)
-
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( ε )
जप अंगुलियों पर या माला के द्वारा किया जा सकता है। यदि अंगुलियों पर जप करना हो, तो दांये हाथ की चार अंगुलियों के बारह पोरुओं पर सबसे छोटी अंगुली के क्रम से नवकार मन्त्र पढ़ - पढ़कर अंगूठा रखते जाएँ । जब इस प्रकार बारह बार नवकार मन्त्र का जाप हो जाए तो बायें हाथ के अंगूठे को बायें हाथ की ही सबसे छोटी एक अंगुली के एक पोरुए पर रक्खें । इस प्रकार जब बायें हाथ की तीन अंगुलियों के नौ पोरुए पर अंगूठा पहुंच जाए तो १०८ मंत्र का जप पूरा हो जायगा ।
करना हो, तो माला को
यदि माला पर जप दाहिने हाथ में लेकर अंगूठे और मध्यम. ( बीच की ) अंगूली से मनकों को नवकार मन्त्र पढ़ पढ़कर सरकाते एँ । इस प्रकार मनकों को एक- एक सरकाते हुए जब एक सौ आठ मनके पूरे हो जाएँ तो एक जप हो गया समझना चाहिए । यदि दूसरी माला फेरनी हो तो फिर वापस माला बदल कर जप करना चाहिए ।
माला काठ के मनकों की या सूत की बनाई जाती है । माला को जहाँ - तहाँ जमीन पर नहीं पटक देना चाहिए । एकान्त
शुद्ध
स्थान पर रखना
चाहिए ।
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( १० ) नवकार मन्त्र पढ़ते समय उसके अर्थ का भी विचार मन में करते रहना चाहिए। इससे मन एकाग्र हो जाएगा।
- नवकार मन्त्र का जप करने से शान्ति मिलती है और मन में पवित्रता आती है। मन के पाप और दोषों को हटाने के लिए नवकार मन्त्र - जैसा दूसरा कोई मन्त्र नहीं है।
बालकों ! तुम्हें भी सब झंझटों से अलग होकर, दिन में कम - से - कम दो बार भगवान की उपासना अवश्य करनी चाहिए। इसके लिए प्रातःकाल और सायंकाल का समय सबसे अच्छा है।
अभ्यास
१. उपासना किसे कहते हैं ? २. उपासना के लिए हमें किस प्रकार बैठना चाहिए ? ३. जप किस प्रकार करना चाहिए ? ४. माला फेरने की क्या विधि है ? ५. नवकार मन्त्र का जप क्यों करना चाहिए ?
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अभ्यास
एक - एक यदि पेड़ लगाओ, तो तुम बाग लगा दोगे। एक - एक यदि ईटें जोड़ो, तो तुम महल बना लोगे।
एक - एक यदि पैसा जोड़ो, तो बन जाओगे धनवान । एक - एक यदि अक्षर सीखों, तो बन जाओगे विद्वान ।
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प्रश्नोत्तर
प्रश्न-जैन किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो जिन भगवान को माने। और राग एवं द्वष __ को जीतने का प्रयास करे ।
प्रश्न-जिन किन्हें कहते हैं ? उत्तर-जिसने राग और द्वेष का नाश कर दिया हो ।
प्रश्न-जिन देव के और कोई दूसरे नाम भी हैं ?
उत्तर-हाँ हैं । जैसे अरहन्त, भगवान वीतराग, तीर्थङ्कर।
प्रश्न-जिन भगवान कौन होते हैं ? उत्तर-जो सर्वज्ञ और समदर्शी हो । प्रश्न-सर्वज्ञ, समदर्शी के क्या अर्थ हैं ? उत्तर-जो सब कुछ जानता हो, सब कुछ देखता हो।
( १२ )
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. ( १३ ) प्रश्न-अरहन्त किन्हे कहते हैं ?
उत्तर--- जिन्होंने आत्मा के शत्रुओं का नाश कर दिया हो।
प्रश्न-आत्मा के शत्रु कौन हैं ? उत्तर-आत्मा के शत्रु राग, द्वेष, मोह आदि हैं। प्रश्न-~वीतराग किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिसने राग और द्वेष को जड़ - मूल से नष्ट कर दिया हो।
प्रश्न-तुम्हारा बड़ा पर्व - दिन कौन-सा है ? उत्तर-१. भगवान महावीर की जन्म - जयन्ती ।
२. पर्युषण पर्व में संवत्सरी - पर्व । प्रश्न- भगवान महावीर की जयन्ती कब होती है ? उत्तर-चैत्र सुदी तेरस के दिन । प्रश्न—संवत्सरी का पर्व कब होता है ? उत्तर–भादवा सुदी पंचमी को। प्रश्न-संवत्सरी के दिन क्या करना चाहिए? . उत्तर-१. उपवास (व्रत) रखना चाहिए
२. हिंसा नहीं करनी चाहिए। ३. झूठ नहीं बोलना चाहिए।
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( १४ ) ४. जीव - रक्षा के लिए दान करना चाहिए। ५. वर्ष भर में किए हुए पापों का पश्चात्ताप
करना चाहिए।
६. सबसे अपने अपराधों की क्षमा मांगनी चाहिए। प्रश्न-जब तुम लोग किसी से मिलो, तो किस प्रकार नमस्कार करना चाहिए? उत्तर-हाथ जोड़कर 'जयजिनेन्द्र' करना चाहिए।
अभ्यास
१. जैन किसे कहते हैं ? २. जिन किन्हें कहते हैं ? ३. बरहन्त कौन होते हैं ? ४. भगवान महावीर का जन्म किस दिन हुआ था ? ५. संवत्सरी का पर्व कब होता है ?
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सीख
कभी न कोई चीज चुराना, कभी न लालच में फंस जाना। कभी न दिल से दया भुलाना, कभी न कोई जीव सताना । कभी न चिड़ना और चिड़ाना, कभी न गाली मुंह पर लाना । कभी न दुष्टों से भय खाना, कभी न अपना धर्म गँवाना । कभी न खा - खा पेट फुलाना, कभी न खाते ही सो जाना । कभी न पढ़ने से घबराना, कभी न मन में आलस लाना ।
( १५ )
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( १६ ) कभी न करना ढोंग - बहाना, कभी न सच्ची बात छिपाना । कभी न बढ़ - बढ़ कर इतराना, कभी न मन में गुस्सा लाना । कभी न अपना नाम डुबाना, कभी न कुल को दाग लगाना । वीर प्रभू के नित गुण गाना, जीवन अपना सफल बनाना ।
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मगवान महावीर
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तीर्थंकर
भारत वर्ष में जैन का उपदेश देने वाले चौबीस तीर्थंकर हो चुके हैं। 'तीर्थ का अर्थ 'धार्मिक संघ' है। साधु, साध्वी, श्रावक ( गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले पुरुष) और श्राविका ( गृहस्थ धर्म का पालन करने वाली स्त्री ) को संघ कहते हैं। इस प्रकार चार संघ की स्थापना करने के कारण, वीतराग देव अरहन्त, भगवान तीर्थंकर कहलाते हैं । तीर्थंकर, यानी तीर्थ की स्थापना करने वाले।
संसार में जब - जब धर्म का नाश होता है, और अधर्म बढ़ने लगता है, तब - तब तीर्थंकर महापुरुप जन्म लेते हैं, और भोग - विलास में फंसे हुए जगत को धर्म का मार्ग बताते हैं।
तीर्थकर ईश्वर के अवतार नहीं होते। परन्तु जो आत्मा राग और द्वेष का नाश कर, केवल ज्ञान (पूर्णज्ञान ) प्राप्त कर लेते हैं और धर्म - तीर्थ की स्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर बन जाते हैं।
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( १८ ) तीर्थंकरों के चरणों में स्वर्ग के इन्द्र भी नमस्कार करते हैं। एक कालचक्र में २४ तीर्थंकर होते हैं ।
वर्तमान कालचक्र में जो चौवीस तीर्थकर हुए हैं, उनके पवित्र नाम इस भाँति हैं :
*
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१. श्री ऋषभदेव जी १३. श्री विमलनाथ जी २. श्री अजितनाथ जी १४. श्री अनन्तनाथ जी ३. श्री संभवनाथ जी १५. श्री धर्मनाथ जी ४. श्री अभिनन्दन जी १६. श्री शान्तिनाथ जी
श्री सुमतिनाथ जी १७. श्री कुन्थुनाथ जी श्री पद्मप्रभ जी
१८. श्री अरहनाथ जी श्री सुपार्श्वनाथ जी १९. श्री मल्लिनाथ जी श्री चन्द्रप्रभू जी २०. श्री मुनि सुव्रत जी श्री सुविधिनाथ जी २१. श्री नमिनाथ जी
श्री शीतलनाथ जी २२. श्री नेमिनाथ जी ११. श्री श्रेयांसनाथ जी २३. श्री पार्श्वनाथ जी १२. श्री वासुपूज्य जी २४. श्री महावीरस्वामी जी
भगवान ऋषभदेव का दूसरा नाम आदिनाथ भी है।
नौवें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ जी का दूसरा नाम श्री पुष्प दन्त भी है। इसी प्रकार बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी का दूसरा नाम अरिष्टनेमि भी है।
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( १६ ) चौवीचवें तीर्थंकर श्री भगवान महावीर स्वामी के बहुत नाम हैं। उन्हें वीर, अतिवीर, सन्मति और वर्द्धमान भी कहते हैं।
अभ्यास
१. तीर्थकर किसे कहते हैं ? २. तीर्थंकर कितने होते हैं ? ३. पहले और सोलहवे तीर्थंकर का नाम बताओ? ४. श्री पार्श्वनाथ कौन से तीर्थंकर हैं ? ५. श्री नेमिनाथ जी का दूसरा नाम क्या है ? ६. श्री सुविधिनाथ जी का दूसरा नाम क्या है ? ७. भगवान महावीर के और क्या - क्या नाम है ?
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उपस
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बताइए
अच्छा कौन ? बुरा कौन ? अन्धा कौन ? बहरा कौन ? वीर कौन ? कायर कौन ? चोर कौन ? साहूकार कौन? बलवान कौन ? निर्बल कौन ? रोगी कौन ? नीरोग कौन ?
सबसे गुण लेने वाला। दूसरों के दोष देखने वाला। दुःखी को देखकर भी दया न करने वाला। हित की बात न सुनने वाला। धर्म पर दृढ़ रहने वाला। धर्म से डिगने वाला। अनीति से कमाई करने वाला । नीति से कमाई करने वाला। अपने पर भरोसा करने वाला। दूसरों के भरोसे रहने वाला । भूख से ज्यादा खाने वाला। भूख से कम खाने वाला।
( २० )
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: १० :
वीर भामाशाह
बादशाह अकबर से हार कर महाराणा प्रताप, एक सघन जंगल में चले गए। वे एकान्त में बैठे - बैठे चिन्ता कर रहे थे। उस समय एक वृद्ध, किन्तु हृष्ट पुष्ट आदमी आता दिखाई दिया।
उसने आते ही कहा--"जय हो, महाराणा प्रताप की।" महाराणा ने आँख उठाकर उसे देखा। आने वाले की आँखों से टपाटप आंसू गिर रहे थे। उसने महाराणा के पाँव पकड़ कर कहा- “महाराणा जी ! आप इतने चिन्तित क्यों हो रहे हैं ?"
महाराणा ने उत्तर दिया- "भामाशाह मैं क्या बताऊँ । इस समय तो खाने को अन्न का एक दाता तक नहीं रहा । बच्चे और सिपाही सब भूखे मर रहे हैं। ऐसी अवस्था में शत्रु से लड़ना भला कैसे बने ?"
( २१ )
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( २२ ) भामाशाह बड़े विनय के साथ बोले- "प्रभो! आप इस बात की तनिक भी चिन्ता न करें। देखिए, सामने क्या आ रहा है ?"
महाराणा ने बड़े आश्चर्य चकित होकर देखा, कि थोड़ी देर में ही चाँदी, सोना, जवाहरात और रुपयों से लदी गाड़ियाँ वहाँ आ पहुंची। महाराणा बोले - "भामाशाह ! इतना द्रव्य ! यह सब कहाँ से लाये ?"
भामाशाह ने गद्गद् कण्ठ से कहा--- महाराणा जी, यह सब मेवाड़ की और आपकी ही सम्पत्ति है । मैं तो इसका रखवाला हूं। आप सेना जमा करें और राज्य को फिर से जीतें।
महाराणा की आँखों से हर्ष के आँसू गिरने लगे। उन्होंने तलवार उठाकर प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं अपना पूरा राज्य न जीत लूगा, तब तक सोने और चाँदी के थाली में भोजन नहीं करूंगा; घास के बिछौने पर सोऊँगा और पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा। ___ अन्त में भामाशाह की सहायता से महाराणा ने अपना राज्य जीत ही लिया। भामाशाह एक सच्चा जैन गृहस्थ था। वह देश - भक्त था । अपना धर्म पालते हुए नोति से धन कमाता था और उसे देश के उद्धार के लिए खर्च करता था।
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बालको ! तुम भामाशाह की तरह समय पड़ने पर देश पर सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहो।
अभ्यास
महाराणा प्रताप क्यों चिन्तित थे? भामाशाह ने क्या किया ?
भामाशाह कौन था ? ४. इस पाठ से हमें क्या शिक्षा मिलती है ?
मग माम महावीर
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महावीर भगवान् भगवान् महावीर ईसा से पाँच - सौ निन्यानवें ( ५६६ ) वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त ( तत्कालीन राजधानी वैशाली, क्षत्रिय कुण्ड ) में पैदा हुए थे । उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था वे क्षत्रिय थे। उनको माता रानी त्रिशला थीं, जो वज्जियों के प्रजातन्त्र के प्रमुख राजा चेटक की बहन थीं।
बचपन में वे 'वीर' नाम से पुकारे जाते थे । उनका नाम 'वर्धमान' और 'सन्मति' भी था। महावीर उनका पीछे का नाम है। उनका यह नाम इस तरह पड़ा कि एक बार वे अपने कुछ बाल मित्रों के साथ खेल रहे थे। उस समय एक बड़ा भयंकर काला साँप कहीं से निकल आया और फन फैलाकर खड़ा हो गया। सारे बालक भय के मारे भागने लगे, किन्तु भगवान् को जरा भी भय न लगा। उन्होंने सांप को पकड़ कर उठा लिया और एक ओर छोड़
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दिया । सचमुच में वह साँप तो भगवान् की परीक्षा लेने
नहीं था, देवता था । वह आया था । जब भगवान् डरे नहीं तो उसने प्रगट होकर कहा- "तुम सचमुच में उनका नाम महावीर पड़
महावीर हो ।" इस तरह
गया ।
जब वे तीस साल के हुए, को बाँट दिया और एक दिन छोड़कर मुनि बन गए । तप किया । तब वे तीर्थंकर एवं समदर्शी बन गए ।
तो उन्होंने अपना धन गरीबों अपना राजपाट और परिवार उन्होंने साढ़े बारह वर्ष तक घोर भगवान् हो गए । वे सर्वज्ञ
तब उन्होंने तीस साल दिया । उन्होंने कहा— तमाम समझो और किसी को मत हो । तो दूसरों को भी सुख पापी से नहीं ।"
तक जगह जगह उपदेश प्राणियों को अपने-- जैसा सताओ । तुम सुख चाहते दो। तुम पाप से घृणा करो.
उन्होंने अहिंसा का खूब प्रचार किया हजारोंलाखों स्त्री और पुरुष जैन धर्मं को मानने लगे । उन्होंने कोई नया धर्म नहीं चलाया । वे तो चौबीसवें तीर्थंकर थे । उनसे पहले ऋषभदेव, पार्श्वनाथ आदि तेईस तीर्थंकर और हो चुके
थे । जब अधर्म अधिक
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फैल जाता है, तब तीर्थकर जन्म लेते हैं और वे अधर्म को दूर करके धर्म फैलाते हैं।
__ जब महावीर स्वामी ७२ वर्ष के हुए, तब बिहार के पावापुरी नामक स्थान से, दिवाली की रात को वे मुक्त हो गए। मुक्त उसे कहते हैं, जो सदा के लिए संसार के बन्धन से छूट जाता है और फिर लौटकर बन्धन में नहीं आता।
अभ्यास
१ महावीर स्वामी कहाँ उत्पन्न हुए थे ? २ महावीर स्वामी के माता - पिता कौन थे ? ३ उनका नाम महावीर किस प्रकार पड़ा? ४ वे मुनि कब बने और फिर क्या किया ? ५ उन्होंने क्यों उपदेश दिया ? ६ वे कब और कहाँ मुक्त हुए?
[ २६ ।
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प्रश्नोत्तर
प्रश्न-तुम्हारे गुरु कौन होते हैं ? उत्तर-जैन साधु ।
प्रश्न-जैन साधु की पहचान क्या है ? उत्तर-१ मुख पर कषड़े को मुंहपत्ती होती है
२ जीवरक्षा के लिए ऊन का रजोहरण रखते हैं। ३ भोजन के लिए काठ के पात्र रखते हैं। ४ पैदल चलते हैं, सवारी पर नहीं बैठते । ५ गृहस्थों के घर से गोचरी माँग कर लाते हैं। ६ सफेद कपड़े, चादर बगैरह रखते हैं । ७ नंगे पैर रहते हैं, जूता नहीं पहनते । ८ रुपया पैसा नहीं रखते । & कच्चा पानी नहीं पीते ।
[ २७ ।
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१. हरी सब्जी, फल फूल नहीं खाते। ११ सिर के बालों का लोच करते हैं अर्थात् उन्हें
हाथों से उखाड़ते हैं।
प्रश्न-तुम्हारे गुरु तुम्हें क्या शिक्षा देते हैं ? उत्तर-१ पाँच पापों का त्याग करो।
२ सप्त कुव्यसनों को छोड़ो।
प्रश्न-पाँच पाप कौन से हैं। उत्तर-१ हिंसा
२ झूठ ३ चोरी ४ कुशील अर्थात् व्यभिचार
५ परिग्रह अर्थात् लालच प्रश्न-सप्त कुव्यसन कौन से हैं ? उत्तर --"जुआ खेलना, मांस, मद, वेश्यागमन शिकार ।
चोरी, पर रमणो - रमण, सातों व्यसन निवार ॥" अर्थात् 'जुआ, मांस, शराब, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, पराई स्त्रियों के साथ अनुचित सम्बन्ध-ये सातों बुरी आदतें हैं।' इनका त्याग करना चाहिए।
( २८ )
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प्रश्न-तुम्हारे धार्मिक स्थान को क्या कहते हैं ? उत्तर-जैन स्थानक या जैन - उपाश्रय ।
अभ्यास
१ तुम्हारे गुरु कौन होते हैं ? २ जैन साधु की क्या पहचान है ? ३ पांच पाप कौन से हैं ? ४ सात कुव्यसनों के नाम बताओ ? ५ जैन स्थानक का दूसरा क्या नाम है ?
mr
( २६ )
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धर्म
आज कल धर्म के सम्बन्ध में बड़ा गड़बड़ झाला है। हर एक पन्थ और हर एक आदमी अपना अलग - अलग धर्म बतलाता है । सब ओर अपनी - अपनी ढपली और अपना - अपना राग है। कोई किसी काम को धर्म बताता है, तो कोई किसी काम को।
- सच्चा धर्म क्या है; यह अभी बहुत कम लोग जानते हैं।
क्या तुम्हें एक ही बोल में धर्म का मर्म समझना है ? अगर समझना है, तो लो बताऊँ !
याद रखना !
भूल न जाना?
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"जिस काम से अपना भला हो वह धर्म है।"
अपना भला कैसे हो? दूसरों का भला करने से ।
जैन धर्म का निचोड़ है दूसरी की भलाई सब धर्मों का सार है-परोपकार, जनसेवा
"भलाई कर चलो जग में,
तुम्हारा भी भला होगा वही है जैन सच्चा, जो
भलाई ढला होगा ॥"
ना ।
खुश रहना, खुश रखना,
जीना और जिलाना । नाथ ! मेरे जीवन का
बस, एक यही हो गाना ।"
( ३१ )
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अभ्यास
१ धर्म का मर्म क्या है ?
२ दूसरों की भलाई करना पाप है या धर्म ? ३ अपना भला कैसे होता है ४ सच्चा जैन कौन है ?
?
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श्रम और सहयोग उठ उठ कर लहरै गिर जाती, किन्तु किनारे तक आ जाती । तुम कहते हो जिसको सागर, बनता बूंद - बूंद से मिलकर ।।
जलधर की भी यही कहानी, धोरे - धीरे उड़ता पानी ।
कंकड़ मिल पर्वत बन जाते, दुनियाँ में ऊँचे उठ जाते ।।
तुच्छ बीज भी क्रमशः बढ़ता, फल फलों को धारण करता। रेशे - रेमे यदि मिल पाते, रस्सा वह मजबूत बनाते ।।
[ ३३ ]
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आसमान के छोटे तारे, कभी न हम से अब तक हारे । कदम - कदम यदि हम बढ़ते हैं, शिखरों पर हम जा चढ़ते हैं ।। सबको है संघर्ष उठाता, व्यर्थ नहीं श्रम हरगिज जाता। दुनियां में सहयोग बड़ा है, स्नेह बड़ा है-त्याग बड़ा है।
( ३४ )
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सोमा सती यह बात बहुत पुराने जमाने की है। एक सेठ बड़े ही धर्मात्मा थे। वे जैन धर्म का पालन करते थे। रोज सुबह उठकर नवकार नवकार मन्त्र पढ़ना, सामायिक करना और गुरुदेव के दर्शन करना, उनका काम था।
सेठ साहब की एक बेटी थी, उसका नाम था सोमा। बह पिता के समान ही बड़ी लगन से धर्म का पालन करती थी। श्री गुरुदेव से, रोज सुबह उठ कर सामायिक करने का, उसने नियम ले लिया था।
बड़ी होने पर जब उसकी शादी हुई, तो ससुराल का घर अच्छा न मिला। ससुराल वाले धर्म के नाम तक से चिढ़ते थे, उन्हें जैन धर्म से तो बहुत ही नफरत थी। खास तौर से उसकी सास, न तो खुद धर्म करती थी और न दूसरे को करने देती थी।
[ ३५ ]
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सोमा के सामने बड़ी कठिनाई आई। अब वह बेचारी क्या करे ? क्या अब अपना धर्म छोड़ दे ? नहीं, उसने सब संकट सहने मंजूर किए, परन्तु अपना धर्म नहीं छोड़ा। वह रोज सुबह उठकर नवकार मन्त्र की माला पढ़ती और सामायिक करतो ।
सास ने उसे बहुत रोका, बहुत बुरा - भला कहा। पर वह न मानी। सोमा ने सास से बड़ी विनय के साथ कहा"आप मुझ पर नाराज न हों। आप जो आज्ञा देंगी, जो सेवा बताएँगी, खुशी - खुशी उसको पूरा करूंगी । परन्तु अपना धर्म नहीं छोड़ सकती। दिन रात के चौबीस घण्टों में दो घड़ी भगवान का भजन करती हूं, कुछ अधिक समय तो नहीं लेती।"
सोमा की प्रार्थना का सास पर कुछ असर नहीं हुआ। वह उसी तरह बकझक करती रही। कभी - कभी तो बहुत झगड़ती, मार - पीट भी करती। पर सोमा शान्ति के साथ सब संकट सहती रही। उसने बदले में सास को कभी एक शब्द भी बुरा न कहा। सोमा बहुत भली लड़की थी। गुरुदेव और पिताजी से उसने अहिंसा धर्म को बहुत सुन्दर शिक्षा पाई थी। वह शान्ति का महत्व समझती थी।
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एक दिन सोमा की सास ने बड़ा ही भयंकर काम किया। उसने संपेरे से एक जहरीला साँप मँगाया और घड़े में बन्द करके रख दिया। दिन छिपने पर सोमा को कहा कि 'जाओ, उस घड़े में फूलमाला रक्खी है उठा लाओ।' इस तरह वह सोमा को मार कर रोज - रोज का झगड़ा खत्म कर देना चाहती थी।
। परन्तु सोमा को अपने धर्म पर बड़ा दृढ़ विश्वास था। वह उठी और घड़े के पास जाकर पहले भगवान का स्मरण किया। नवकार मन्त्र पढ़ा और फिर घड़े में हाथ डाला। ज्योंही हाथ बाहर निकाला, तो हाथ में साँप की जगह सचमुच फूलों की माला थी। सास यह देखकर हैरान हो गई। सीमा पास आकर माला देने लगी तो सास ने अलग रखवा दी। अलग रखते ही वह फिर साँप हो गया। .
- सास ने समझ लिया- "सोमा सच्ची धर्मात्मा है। भगवान् की भक्त है। इसके धर्म के प्रभाव से ही साँप फूलों को माला बन गया। सच है, धर्म से क्या नहीं हो जाता। सीताजी के धर्म के प्रभाव से धधकती हुई आग पानी बन गई थी। महासती द्रौपदी का सभा में चीर बढ़ गया था।
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हमारा भाग्य बहुत अच्छा है कि हमें ऐसो धर्मात्मा बहू
मिली ।"
उस दिन से सास सोमा को प्यार करने की आँखों में बहुत बढ़ गई
की इज्जत सास
।
भो और सब घर वाले भी, सोमा की तरह,
करने लगे ।
.
।
धर्म में बहुत बड़ी शक्ति है । वह बड़े से बड़े चमत्कार दिखा सकता है । परन्तु सच्चा विश्वास मन में होना चाहिए । विश्वास के बिना कुछ नहीं होता ।
अभ्यास
१ सोमा कौन थी ?
२ उसकी सास क्यों नाराज रहती थी ?
३ घड़े में साँप क्यों रक्खा था ?
४ साँप फूल की माला क्यों बन गयी थी ? ५ धर्म में शक्ति है, परन्तु कब ?
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लगी । सोमा
अब तो सास
धर्म का पालन
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। १६ :
स्थानक में क्या नहीं करना
स्थानक हम जैनों का एक बहुत ही पवित्र धर्म स्थानक है । है । वहाँ हम सामायिक, संवर आदि धर्म ध्यान और भगवान महावीर आदि महापुरुषों का भजन करते हैं। जब कभी गुरुदेव पधारते हैं, तो वहां उनके दर्शन करते हैं और व्याख्यान सुनते हैं ।
-
अपने धर्म स्थान की मान मर्यादा का ध्यान रखना, हमारा मुख्य कर्त्तव्य है । यदि हम ही अपने धर्म स्थान का गौरव न रक्खेगे, तो फिर दूसरा कौन रक्खेगा । इसलिए स्थानक में जाकर इन बातों का ख्याल रखना चाहिए ।
१ जूते अन्दर नहीं ले जाने ।
२ फल, फूल, सब्जी बगेरह भी नहीं रखना । ३ रेशम के बने हुए अपवित्र वस्त्र नहीं पहनने । ४ मैले और गन्दे कपड़े भी नहीं रखने ।
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५ पान - सुपारी खैनी मादि भी नहीं चबाना। ६ इधर - उधर हर जगह नहीं थूकना । ७ ताश, चौपड़ आदि कोई खेल नहीं खेलना । ८ आपस में लड़ना - झगड़ना नहीं। ६ किसी को गाली नहीं देना, क्रोध नहीं करना । १० झूठ नहीं बोलना। ११ सिनेमा आदि के गन्दे गोत नहीं गाने । १२ धर्म पुस्तकों को लापरवाही से नहीं डालना। १३ गुरुदेव के आसन को पैर नहीं लगाना। १४ गुरुदेव की ओर पीठ नहीं करना । १५ व्याख्यान के समय आपस में बात नहीं करना।
अभ्यास
१ स्थानक किसे कहते हैं ? २ स्थानक में तुम क्या करते हो ? ३ गुरुदेव कहाँ ठहरते हैं ? ४ स्थानक में क्या नहीं करना चाहिए।
[ ४. 1
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विद्या
___ विद्या धन उद्यम बिना, कही जु पावै कौन । बिना डुलाए ना मिले, ज्यों पंखा को पौन ।।
करत - करत अभ्यास के, जड़मति हो सुजान ।
रसरी आवत - जात ते, सिल पर पद्रत निसान ।। सरसुति के भण्डार की, बड़ी अपूरब बात । ज्यों - ज्यों खरचै त्यों बढ़े, बिन खरचे घटिजात ।।
नहीं रूप कछ रूप है, विद्या रूप - निधान !
अधिक पूजियत रूप ते, बिना रूप विद्वान ।। विद्या धन सब धनन तं, अति उत्तम ठहराइ । छोने न कोऊ सकत है, चोर न सकत चुराइ ॥
उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होइ। पड़ो अपावन ठौर में, कंचन तजत न कोई ॥
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पढ़िवे में मन दीजिये, विद्या हो भरपूर । गुरू को सेवा कीजिए, मन तें छल करि दूर ॥
नहि धन धन है बुध कहें, चोर सकै नहिं चोर हूं,
धन में विद्या धन बड़ो, रहत पास सब काल | देय जितो बाढ़े तितो, छोर न सकत नृपाल ||
बिद्या
पातत्वाद्
विद्या वित्त अनूप | छोरि सकै नहि भूप ॥
ददाति विनयं,
विनयाद् याति पात्रताम् धनमाप्नोति,
धनाद् धर्मः ततः सुखम् ॥
- विद्या से विनय, विनय से पात्रता (योग्यता ), पवित्रता
से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख मिलता है ।
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स्वस्थ शरीर स्वर्ग है HEALTH IS HEAVEN पान मसाला
मौत मसाला गुटका खाओ
गाल गलाओ जर्दा खाओ
जीभ जलाओ धूम्रपान
खतरे में जान तम्बाकू का पान
कैन्सर का आह्वान डॉ. आर. के. अग्रवाल
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___ जीव - जन्तुओं के प्रति हमारा स्नेह प्रकृति के प्रति हमारे वास्तविक प्रेम को प्रकट करता है।
-जवाहर लाल नेहरू
क्रूरता के इन अपराधों से आप बचिए
गाय एवं अन्य जानवरों के पैर, सींग एवं गले को तंग रस्सी से इस प्रकार जकड़ कर बांधने से क्रूरता को प्रोत्साहन मिलता है ।
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* इससे हम जानवर को अंग भंग कर उन्हें मृत्यु की ओर धकेलते हैं।
* गाय एवं बछड़ों को कसाई के हाथ बेचकर हम भो उनके वध के लिये उतने ही जिम्मेदार है।
* अधिक दूध प्राप्त करने के लोभ में उनके शरीर में 'फूका' करना अथवा अन्य ठोस वस्तु प्रवेश कराना एक निर्मम अपराध है।
सूअर, गडुरियों के मुह एबं पैर बांध कर उन्हें बाँस या लाठियों पर उल्टा लटका कर ले जाना अत्यन्त पीड़ादायक है। उन्हें लाठियों से पीटना एवं तीखे भालों या सलाखों से गोदना या छेदना भी अपराध है।
किसी जामवर को ट्रक, रेलगाड़ी, बैलगाड़ी, रिक्शा आदि में उसे पीड़ादायक स्थिति में ले जाना एक अपराध है।
करुणा मण्डल परियोना (446 I-C रोड सरदारपुरा, जोधपुर (राज.) द्वारा प्रसारित )
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प्रयाण गीत २६ जनवरी, गणतंत्र - दिवस तथा १५ अगस्त, स्वाधीनतादिवस के प्रसंग पर आप सभी दूरदर्शन के माध्यम से सैनिक टुकड़ियों या स्कूली छात्र - छात्रओं के माध्यम से राष्ट्रभक्ति से युक्त प्रयाण - गीत सुनते रहे हैं। गुरुदेव द्वारा लिखित है यह धर्म - बालकों के लिए प्रयाण - गोत। पढ़िए तो जरा आंखों की परेड के माध्यम से "!
जय जैन धर्म की बोलो, जय जैन धर्म की बोलो।
धर्म अहिंसा सबका प्यारा, हरता है जग का दु:ख सारा। प्रेम की मिसरी घोलो,
जय जैन धर्म की बोलो। त्यागो वैर, विरोध, बुराई, करो सभी की सदा भलाई । मन की कुण्डो खोलो। जय जैन धर्म की बोलो। .
महावीर का नाम सुमरना, जीवन का पथ उज्ज्वल करना । पाप कालिमा धो लो,
जय जिनेन्द्र की बोलो । अनेकान्त की ज्योति जगाना, पक्षपात का भाव हटाना । अमर सच्चाई तोलो, जय जैन धर्म की बोलो ।
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जब भी बोलो
बोलो किन्तु सच ! " सत्य ही भगवान है" - ऐसा कथन है भगवान महावीर का । सत्य से व्यक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ती है । सत्य से सम्मान प्राप्त होता है, इज्जत बढ़ती है । सत्य हमारा रक्षक भी है । पाठशाला में गाया जाता है, बच्चों के द्वारा"झूठ बोलना पाप है, घर के नीचे साँप है ।" साँप भयावह होता है, जहरीला भी । झूठ भी जहर ही है । सत्य अमृत है - "सत्यमेव जयते नानृतम् ।" गुरुदेव श्री की लेखनी सच ही तो कह रही हैजब बोलो, तब सच सच बोलो,
कभी न बातें रच - रच बोलो ।
-
जब बोलो तब हँस कर बातों में मिसरी - सी
जब बोलो तब झुककर बोलो, सोच समझ कर रुक कर
बोलो ।
जब बोलो तत्र अपने मन
की
जब बोलो तब हितकर मन में आदर भर कर
खुलकर
बातें
जब बोलो तब बिन अवसर मत बोलो तत्र मीठा कमी न कुछ भी कडुआ बोलो |
जब
बोलो,
बोलो ।
कम ही बोलो, मुँह को खोलो । बोलो,
द्वेष, कपट रख कभी न बोलो, निन्दा चुगली का मल धो लो |
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बोलो, घोलो ।
बोलो ।
खोलो ।
कभी किसी का भेद न खोलो, घर की बात न बाहर
बोलो ।
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गागर में सागर : लड़के की समझदारी
--- श्री यशपाल जैन __ एक लड़का था। वह बड़ा सच्चा और ईमानदार था। एक दिन वह पड़ोसी के घर गया। पड़ोसी कहीं गया था। उसके यहाँ एक टोकरी में बहुत से सेब रक्खे थे। बड़े बढ़िया सेब थे। लड़के को सेब बहुत अच्छे लगते थे। लेकिन उसने उनको हाथ तक नहीं लगाया।
पड़ोसी लौटा तो देखा, सारे सेब ज्यों - के - त्यों रक्खे हैं। उसने लड़के से पूछा, "क्यों, तुम्हें सेब पसंद नहीं हैं क्या ?"
लड़के ने कहा, "मुझे सेब बेहद पसंद हैं। _पड़ोसी आश्चर्य चकित होकर बोला, "तो तुमने लिए क्यों
नहीं ?"
लड़के ने कहा- "कैसे ले सकता था ?"
पड़ोसी बोला, "क्यों, इसमें क्या बात थी? कोई देखने वाला तो था नहीं।"
"इससे क्या हुआ।" लड़के ने कहा, "कोई दूसरा देखने वाला हो या न हो मैं तो देख रहा था। मैं अपने को बेईमानी करते देखना हर्गिज बर्दाश्त नहीं कर सकता था !"
पड़ोसी इस ब त को सुनकर गद्गद हो गया। उसने कहा, "तुम ठीक कहते हो। आत्मा सब में है और वह हमारे भले-बुरे, सब कामों को देखती रहतो है।"
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शिक्षा का प्रारंभ * शिक्षा माता के चरणों से ही प्रारम्भ होती है, और
शैशव की बातों में शिशुओं से कहा प्रत्येक शब्द
उनके चरित्र का निर्माण करता है। - बेल ★ बहुधा देखा गता है कि वास्तविक शिक्षा तभी प्रारंभ
होती है जब व्यक्ति विद्यालय या महाविद्यालय से निकलते हैं।
- सन्त निहालसिंह सीख बाल - जगत् को जीवन निर्माण में व्यबहारिकता को भी अत्यन्त आवश्यकता रहती है। कैसे चलें, रहें आदि छोटो - छोटी बातों का ध्यान रखना भी परम आवश्यक है। बचपन में अंकुरित सुसंस्कार जीवन भर साथ निभाते हैं। पढ़िए, गुरुदेव श्री की लेखनी से आबद्ध ये व्यवहार-पूत्र' !
बड़ों को सदा आप कहकर बोलो, तुम या तू मत कहो । तू कहना तो बहुत ही भद्दा है । 'आप' बड़ों के लिए आदर-भाव का सूचक है।
जब किसी से बोलना हो तो बड़े आदर के साथ पिताजी, चाचाजी, भाईजी तथा अम्माजी, ताईजी, बहनजी, आदि यथायोग्य विशेषण लगाकर बोलना चाहिए।
अपने से बड़ों के साथ चलना हो तो उनसे एक दो कदम पीछे रहो, वे पीछे हों तो मार्ग देकर, उनको आगे हो जाने दो। दरवाजे के अन्दर जाना हो तो पहले उनको जाने दो। दरवाजा वन्द हो तो आगे बढ़ कर उसे खोल दो ।
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________________ राष्ट्रसन्त उपाध्याय कविश्री जी महाराज द्वारा लिखित जैन बालशिक्षा चार भाग बाल विद्यालयों में नन्ने-मन्ने बच्चों के लिए धार्मिक शिक्षा हेतु बहुत ही उपयोगी पुस्तकें हैं / भारत के अनेक प्रांतों के स्कूलों की कक्षाओं में इन पुस्तकों को नैतिक शिक्षा के साथ पढ़ाया जाता है। आप भी अपने बच्चों के लिए एवं पाठशालाओं के लिए उपरोक्त पुस्तकों को मंगाकर अपने बच्चों के नैतिक जीवन का विकास करें। व्यवस्थापक रामधन शर्मा साहित्यरत्न 1 जैन बाल शिक्षा भाग-१ 2 जैन बाल शिक्षा भाग-२ 3 जैन बाल शिक्षा भाग-३ 4 जैन बाल शिक्षा Personal us भाग-४