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________________ तीर्थंकर भारत वर्ष में जैन का उपदेश देने वाले चौबीस तीर्थंकर हो चुके हैं। 'तीर्थ का अर्थ 'धार्मिक संघ' है। साधु, साध्वी, श्रावक ( गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले पुरुष) और श्राविका ( गृहस्थ धर्म का पालन करने वाली स्त्री ) को संघ कहते हैं। इस प्रकार चार संघ की स्थापना करने के कारण, वीतराग देव अरहन्त, भगवान तीर्थंकर कहलाते हैं । तीर्थंकर, यानी तीर्थ की स्थापना करने वाले। संसार में जब - जब धर्म का नाश होता है, और अधर्म बढ़ने लगता है, तब - तब तीर्थंकर महापुरुप जन्म लेते हैं, और भोग - विलास में फंसे हुए जगत को धर्म का मार्ग बताते हैं। तीर्थकर ईश्वर के अवतार नहीं होते। परन्तु जो आत्मा राग और द्वेष का नाश कर, केवल ज्ञान (पूर्णज्ञान ) प्राप्त कर लेते हैं और धर्म - तीर्थ की स्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर बन जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001359
Book TitleJain Bal Shiksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size2 MB
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