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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
भारतीय संस्कृति में अति प्राचीनकाल से ही दो समानान्तर धाराओं श्रमण-परम्परा के साहित्य का प्रश्न है दुर्भाग्य से वह आज हमें उपलब्ध की उपस्थिति पाई जाती है- श्रमणधारा और वैदिकधारा। जैन धर्म नहीं है, किन्तु वेदों में उस प्रकार की जीवन-दृष्टि की उपस्थिति के
और संस्कृति इसी श्रमणधारा का अङ्ग है। जहाँ श्रमणधारा निवृत्तिपरक सङ्केत यह अवश्य सूचित करते हैं कि उनका अपना कोई साहित्य रही, वहाँ वैदिकधारा प्रवृत्तिपरक। जहाँ श्रमणधारा में संन्यास का प्रत्यय भी रहा होगा, जो कालक्रम में लुप्त हो गया। आज आत्मसाधना प्रधान प्रमुख बना, वहाँ वैदिकधारा में गृहस्थजीवन का। श्रमणधारा ने सांसारिक निवृत्तिमूलक श्रमणधारा के साहित्य का सबसे प्राचीन अंश यदि कहीं जीवन की दु:खमयता को अधिक अभिव्यक्ति दी और यह माना कि उपलब्ध है, तो वह औपनिषदिक साहित्य में है। प्राचीन उपनिषदों शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दु:खों का सागर, अत: उसने में न केवल वैदिक कर्म-काण्डों और भौतिकवादी जीवन-दृष्टि की शरीर और संसार दोनों से ही मुक्ति को अपनी साधना का लक्ष्य माना। आलोचना की गई है, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों की जो प्रतिष्ठा हुई उसकी दृष्टि में जैविक एवं सामाजिक मूल्य गौण रहे और अनासक्ति, है, वह स्पष्टतया इस तथ्य का प्रमाण है कि वे मूलत: श्रमण जीवन-दृष्टि वैराग्य और आत्मानुभूति के रूप में मोक्ष या निर्वाण को ही सर्वोच्च के प्रस्तोता हैं। मूल्य माना गया। इसके विपरीत वैदिकधारा ने सांसारिक जीवन को यह सत्य है कि उपनिषदों में वैदिकधारा के भी कुछ सङ्केत उपलब्ध वरेण्य मानकर जैविक एवं सामाजिक मूल्यों अर्थात् जीवन के रक्षण हैं किन्तु यह नहीं भूलना चाहिये कि उपनिषदों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एवं पोषण के प्रयत्नों के साथ-साथ पारस्परिक सहयोग या सामाजिकता वैदिक नहीं, श्रमण है। वे उस युग की रचनायें हैं, जब वैदिकों द्वारा को प्रधानता दी। फलत: वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं श्रमण संस्कृति के जीवन मूल्यों को स्वीकृत किया जा रहा था। वे पारस्परिक सहयोग हेतु प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं, यथा- वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति के समन्वय की कहानी कहते हैं। हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ठ हो, हमारी गायें अधिक दूध ईशावास्योपनिषद् में समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से परिलक्षित दें, वनस्पति एवं अन्न प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हों, हममें परस्पर सहयोग होता है। उसमें त्याग और भोग, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, कर्म और हो आदि। ज्ञातव्य है कि वेदों में वैराग्य एवं मोक्ष की अवधारणा कर्म-संन्यास, व्यक्ति और समष्टि, अविद्या (भौतिक ज्ञान) और विद्या अनुपस्थित है, जबकि वह श्रमणधारा का केन्द्रीय तत्त्व है। इस प्रकार (आध्यात्मिक ज्ञान) के मध्य एक सुन्दर समन्वय स्थापित किया ये दोनों धाराएँ दो भिन्न जीवन-दृष्टियों को लेकर प्रवाहित हुई हैं। गया है। परिणामस्वरूप इनके साहित्य में भी इन्हीं भिन्न-भिन्न जीवन-दृष्टियों उपनिषदों का पूर्ववर्ती एवं समसामयिक श्रमण परम्परा का जो का प्रतिपादन पाया जाता है।
अधिकांश साहित्य था, वह श्रमण परम्परा की अन्य धाराओं के जीवित श्रमण-परम्परा के साहित्य में संसार की दुःखमयता को प्रदर्शित न रह पाने या उनके बृहद् हिन्दू-परम्परा में समाहित हो जाने के कारण कर त्याग और वैराग्यमय जीवन-शैली का विकास किया गया, जबकि या तो विलुप्त हो गया था या फिर दूसरी जीवित श्रमण परम्पराओं वैदिक साहित्य में ऐहिक जीवन को अधिक सुखी और समृद्ध बनाने अथवा बृहद् हिन्दू-परम्परा के द्वारा आत्मसात् कर लिया गया। किन्तु हेतु प्रार्थनाओं की और सामाजिक-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) और भौतिक उसके अस्तित्व के सङ्केत एवं अवशेष आज भी औपनिषदिक साहित्य, उपलब्धियों हेतु विविध कर्मकाण्डों की सर्जना हुई। प्रारम्भिक वैदिक पालित्रिपिटक और जैनागमों में सुरक्षित हैं। प्राचीन आरण्यकों, साहित्य, जिसमें मुख्यत: वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ समाहित हैं, में लौकिक उपनिषदों, आचाराङ्ग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने वाली प्रार्थनाओं और कर्मकाण्डों इसिभासियाई, थेरगाथा, सुत्तनिपात और महाभारत में इन विलुप्त या का ही प्राधान्य है। इसके विपरीत श्रमण-परम्परा के प्रारम्भिक साहित्य समाहित श्रमण परम्पराओं के अनेक ऋषियों के उपदेश आज भी पाये में संसार की दु:खमयता और क्षणभङ्गुरता को प्रदर्शित कर उससे वैराग्य जाते हैं। इसिभासियाई, सूत्रकृताङ्ग और उत्तराध्ययन में उल्लिखित
और विमुक्ति को ही प्रधानता दी गई है। संक्षेप में श्रमणपरम्परा का याज्ञवल्क्य, नारद, असितदेवल, कपिल, पाराशर, आरुणि, उद्दालक, साहित्य वैराग्य प्रधान है।
नमि, बाहुक, रामपुत्त आदि ऋषि वे ही हैं, जिनमें से अनेक के उपदेश श्रमणधारा और उसकी ध्यान और योग-साधना की परम्परा के एवं आख्यान उपनिषदों एवं महाभारत में भी सुरक्षित हैं। जैन परम्परा अस्तित्व के सङ्केत हमें मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की संस्कृति के काल में ऋषिभाषित में इन्हें अर्हत् ऋषि एवं सूत्रकृताङ्ग में सिद्धि को प्राप्त से ही मिलने लगते हैं। यह माना जाता है कि हड़प्पा संस्कृति वैदिक तपोधन महापुरुष कहा गया है और उन्हें अपनी पूर्व परम्परा से सम्बद्ध संस्कृति से भी पूर्ववर्ती रही है। ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में व्रात्यों बताया गया है। पालित्रिपिटक दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में भी
और वातरशना मुनियों के उल्लेख भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं बुद्ध के समकालीन छह तीर्थङ्करों- अजितकेशकम्बल, प्रकुधकात्यायन, कि उस युग में श्रमणधारा का अस्तित्व था। जहाँ तक इस प्राचीन पूर्णकश्यप, सञ्जयवेलट्ठिपुत्त, मङ्खलिगोशालक एवं निग्गंठनातपुत्त की
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ मान्यताओं का निर्देश हुआ है, फिर चाहे उन्हें विकृत रूप में ही प्रस्तुत ५८) में कहा गया है "यह जो द्वादश-अङ्ग या गणिपिटक है वह क्यों न किया गया हो। इसी प्रकार थेरगाथा, सुत्तनिपात आदि के अनेक ऐसा नहीं है कि यह कभी नहीं था, कभी नहीं रहेगा और न कभी थेर (स्थविर) भी प्राचीन श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित रहे हैं। इस होगा। यह सदैव था, सदैव है और सदैव रहेगा। यह ध्रुव, नित्य सबसे भारत में श्रमणधारा के प्राचीनकाल में अस्तित्व की सूचना मिल शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है।" इस प्रकार जैन चिन्तक जाती है। पद्मभूषण पं० दलसुखभाई मालवणिया ने पालित्रिपिटक में एक ओर प्रत्येक तीर्थङ्कर के उपदेश के आधार पर उनके प्रमुख शिष्यों अजित, अरक और अरनेमि नामक तीर्थङ्करों के उल्लेख को भी खोज के द्वारा शब्द-रूप में आगमों की रचना होने की अवधारणा को स्वीकार निकाला है। ज्ञातव्य है कि उसमें इन्हें “तिस्थकरो कामेसु वीतरागो' करते हैं तो दूसरी ओर अर्थ या कथ्य की दृष्टि से समरूपता के आधार कहा गया है- चाहे हम यह माने या न मानें कि इनकी सङ्गति जैन पर यह भी स्वीकार करते हैं कि अर्थ-रूप से जिनवाणी सदैव थी परम्परा के अजित, अर और अरिष्टनेमि नामक तीर्थङ्करों से हो सकती और सदैव रहेगी। वह कभी भी नष्ट नहीं होती है। विचार की अपेक्षा है- किन्तु इतना तो मानना ही होगा कि ये सभी उल्लेख श्रमणधारा से आगमों की शाश्वतता और नित्यता मान्य करते हुए भी जैन परम्परा के अतिप्राचीन अस्तित्व को ही सूचित करते हैं।
उन्हें शब्द-रूप से सृष्ट और विच्छिन्न होने वाला भी मानती है। अनेकान्त
की भाषा में कहें तो तीर्थङ्कर की अनवरत परम्परा की दृष्टि से आगम वैदिक साहित्य और जैनागम
शाश्वत और नित्य हैं, जबकि तीर्थङ्कर-विशेष के शासन की अपेक्षा वैदिक साहित्य में वेद प्राचीनतम हैं। वेदों के सन्दर्भ में भारतीय से वे सृष्ट एवं अनित्य हैं। दर्शनों में दो प्रकार की मान्यताएँ उल्लिखित हैं। मीमांसकदर्शन के वैदिक साहित्य और जैनागमों में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह अनुसार वेद अपौरुषेय हैं अर्थात् किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित है कि वेदों के अध्ययन में सदैव ही शब्द-रूप को महत्त्व दिया गया नहीं हैं। उनके अनुसार वेद अनादि-निधन हैं, शाश्वत हैं, न तो उनका और यह माना गया कि शब्द-रूप में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए, कोई रचयिता है और नहीं रचनाकाल। नैयायिकों की मान्यता इससे उसका अर्थ स्पष्ट हो या न हो। इसके विपरीत जैन परम्परा में तीर्थङ्करों भिन्न है, वे वेद-वचनों को ईश्वर-सृष्ट मानते हैं। उनके अनुसार वेद को अर्थ का प्रवक्ता माना गया और इसलिए इस बात पर बल दिया अपौरुषेय नहीं, अपितु ईश्वरकृत हैं। ईश्वरकृत होते हुए भी ईश्वर के गया कि चाहे आगमों में शब्द-रूप में भिन्नता हो जाय किन्तु उनमें अनादि-निधन होने से वेद भी अनादि-निधन माने जा सकते हैं, किन्तु अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण था कि शब्द-रूप की इस जब उन्हें ईश्वरसृष्ट मान लिया गया है, तो फिर अनादि कहना उचित उपेक्षा के कारण परवर्तीकाल में आगमों में अनेक भाषिक परिवर्तन नहीं है, क्योंकि ईश्वर की अपेक्षा से तो वे सादि ही होंगे। हुए और आगम पाठों की एकरूपता नहीं रह सकी। यद्यपि विभिन्न
जहाँ तक जैनागमों का प्रश्न है उन्हें अर्थ-रूप में अर्थात् सङ्गीतियों के माध्यम से एकरूपता बनाने का प्रयास हुआ, लेकिन कथ्य-विषय-वस्तु की अपेक्षा से तीर्थङ्करों के द्वारा उपदिष्ट माना जाता उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। यद्यपि वह शब्द-रूप परिवर्तन है। इस दृष्टि से वे अपौरुषेय नहीं हैं। वे अर्थ-रूप में तीर्थङ्करों द्वारा भी आगे निर्बाध रूप से न चले, इसलिए एक ओर उन्हें लिपिबद्ध उपदिष्ट और शब्द-रूप में गणधरों द्वारा रचित माने जाते हैं, किन्तु करने का प्रयास हुआ तो दूसरी ओर आगमों में पद, अक्षर, अनुस्वार यह बात भी केवल अङ्ग आगमों के सन्दर्भ में है। अङ्गबाह्य आगम आदि में परिवर्तन करना भी महापाप बताया गया। इस प्रकार यद्यपि ग्रन्थ तो विभिन्न स्थविरों और पूर्वधर-आचार्यों की कृति माने ही जाते आगमों के भाषागत स्वरूप को स्थिरता तो प्रदान की गयी, फिर भी हैं। इस प्रकार जैन आगम पौरुषेय (पुरुषकृत) हैं और काल विशेष शब्द की अपेक्षा अर्थ पर अधिक बल दिये जाने के कारण जैनागमों में निर्मित हैं।
का स्वरूप पूर्णतया अपरिवर्तित नहीं रह सका, जबकि वेद शब्द-रूप किन्तु जैन आचार्यों ने एक अन्य अपेक्षा से विचार करते हुए में अपरिवर्तित रहे। आज भी उनमें ऐसी अनेक ऋचायें हैं- जिनका अङ्ग आगमों को शाश्वत भी कहा है। उनके इस कथन का आधार कोई अर्थ नहीं निकलता है (अनर्थका: हि वेद-मन्त्राः)। इस प्रकार यह है कि तीर्थङ्करों की परम्परा तो अनादिकाल से चली आ रही है वेद शब्द-प्रधान है जबकि जैन आगम अर्थ-प्रधान है। और अनन्तकाल तक चलेगी, कोई भी काल ऐसा नहीं, जिसमें तीर्थङ्कर वेद और जैनागमों में तीसरी भिन्नता उनकी विषय-वस्तु की अपेक्षा नहीं होते हैं। अत: इस दृष्टि से जैन आगम भी अनादि-अनन्त सिद्ध से भी है। वेदों में भौतिक उपलब्धियों हेतु प्राकृतिक शक्तियों के प्रति होते हैं। जैन मान्यता के अनुसार तीर्थङ्कर भिन्न-भिन्न आत्माएँ होती प्रार्थनाएँ ही प्रधान रूप से देखी जाती हैं साथ ही कुछ खगोल-भूगोल हैं, किन्तु उनके उपदेशों में समानता होती है और उनके समान उपदेशों सम्बन्धी विवरण और कथाएँ भी हैं। जबकि जैन अर्धमागधी आगम के आधार पर रचित ग्रन्थ भी समान ही होते हैं। इसी अपेक्षा से नन्दीसूत्र साहित्य में आध्यात्मिक एवं वैराग्यपरक उपदेशों के द्वारा मन, इन्द्रिय में आगमों को अनादि-निधन भी कहा गया है। तीर्थङ्करों के कथन और वासनाओं पर विजय पाने के निर्देश दिये गये हैं। इसके साथ-साथ में चाहे शब्द-रूप में भिन्नता हो, किन्तु अर्थ-रूप में भिन्नता नहीं होती उसमें मुनि एवं गृहस्थ के आचार सम्बन्धी विधि-निषेध प्रमुखता से है। अत: अर्थ या कथ्य की दृष्टि से यह एकरूपता ही जैनागमों को वर्णित हैं तथा तप-साधना और कर्म-फल विषयक कुछ कथाएँ भी प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त सिद्ध करती है। नन्दीसूत्र (सूत्र हैं। खगोल-भूगोल सम्बन्धी चर्चा भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ग्रन्थों में है। जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है उसका प्रारम्भिक रूप भिन्न थीं। यद्यपि विचार के क्षेत्र में महावीर और बुद्ध दोनों ही एकान्तवाद ही अर्धमागधी आगमों में उपलब्ध होता है। के समालोचक थे, किन्तु जहाँ बुद्ध ने एकान्तवादों को केवल नकारा, वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमश: ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों वहाँ महावीर ने उन एकान्तवादों का समन्वय किया। अत: दर्शन के और उपनिषदों का क्रम आता है। इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग क्षेत्र में बुद्ध की दृष्टि नकारात्मक रही है, जबकि महावीर की सकारात्मक। सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। अत: उनकी शैली इस दर्शन और आचार के क्षेत्र में दोनों में जो भिन्नता थी, वह उनके और विषय-वस्तु दोनों ही अर्धमागधी आगम-साहित्य से भिन्न है। साहित्य में भी अभिव्यक्त हुई है। फिर भी सामान्य पाठक की अपेक्षा आरण्यकों के सम्बन्ध में मैं अभी तक सम्यक् अध्ययन नहीं कर से दोनों परम्परा के ग्रन्थों में क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि दार्शनिक पाया हूँ अत: उनसे अर्धमागधी आगम साहित्य की तुलना कर पाना प्रस्थानों को छोड़कर एकता ही अधिक परिलक्षित होती है। मेरे लिये सम्भव नहीं है। किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक ___ आगमों का महत्त्व एवं प्रामाणिकता अध्ययन द्वारा उनमें और जैन आगमों में निहित समरूपता को खोजा प्रत्येक धर्म-परम्परा में धर्म-ग्रन्थ या शास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान जा सकता है। होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार व्यवस्था जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है उपनिषदों के अनेक अंश आचाराङ्ग, दोनों के लिए 'शास्त्र' ही एकमात्र प्रमाण होता है। हिन्दूधर्म में वेद इसिभासियाई आदि प्राचीन अर्धमागधी आगम-साहित्य में भी यथावत् का, बौद्धधर्म में त्रिपिटक का, पारसीधर्म में अवेस्ता का, ईसाईधर्म उपलब्ध होते हैं। याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरुण, में बाइबिल का और इस्लाम धर्म में कुरान का जो स्थान है, वही उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं स्थान जैनधर्म में आगम साहित्य का है। फिर भी आगम साहित्य को उपदेश इसिभासियाई, आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध न तो वेद के समान अपौरुषेय माना गया है और न बाइबिल या कुरान हैं। इसिभासियाइं में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश जैसा वह उपनिषदों में मिलता है। उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, ही, अपितु वह उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का सङ्कलन है, जिन्होंने उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में भी उपलब्ध अपनी तपस्या और साधना द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था। हैं। प्रस्तुत प्रसङ्ग में विस्तारभय से वह सब तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत जनो के लिए आगम जिनवाणी है, आप्तवचन है, उनके धर्म-दर्शन करना सम्भव नहीं है। इनके तुलनात्मक अध्ययन हेतु इच्छुक पाठकों ___ और साधना का आधार है। यद्यपि वर्तमान में जैनधर्म का दिगम्बर को अपनी इसिभासियाई की भूमिका एवं 'जैन, बौद्ध और गीता के सम्प्रदाय उपलब्ध अर्धमागधी आगमों को प्रमाणभूत नहीं मानता है, आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' खण्ड 1 एवं 2 देखने की क्योंकि उसकी दृष्टि में इन आगमों में कुछ ऐसा प्रक्षिप्त अंश है, अनुशंसा के साथ इस चर्चा को यहीं विराम देता है। जो उनकी मान्यताओं के विपरीत है। मेरी दृष्टि में चाहे वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हों या उनमें कुछ पालित्रिपिटक और जैनागम परिवर्तन-परिवर्धन भी हुआ हो, फिर भी वे जैनधर्म के प्रामाणिक पालित्रिपिटक और जैनागम अपने उद्भव-स्रोत की अपेक्षा से दस्तावेज हैं। उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध हैं। उनकी पूर्णत: समकालिक कहे जा सकते हैं, क्योंकि पालित्रिपिटक के प्रवक्ता भगवान् अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है। श्वेताम्बर बुद्ध और जैनागमों के प्रवक्ता भगवान महावीर समकालिक ही हैं। इसलिए मान्य इन अर्धमागधी आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये दोनों के प्रारम्भिक ग्रन्थों का रचनाकाल भी समसामयिक है। दूसरे ई०पू० पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवीं शती अर्थात् लगभग जैन-परम्परा और बौद्ध-परम्परा दोनों ही भारतीय संस्कृति की श्रमणधारा एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढ़ाव-उतार की एक प्रामाणिक कहानी के अङ्ग हैं अत: दोनों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एक ही है। इस तथ्य कह देते हैं। की पुष्टि जैनागमों और पालित्रिपिटक के तुलनात्मक अध्ययन से हो जाती है। दोनों परम्पराओं में समान रूप से निवृत्तिपरक जीवन-दृष्टि अर्धमागधी आगमों का वर्गीकरण को अपनाया गया है और सदाचार एवं नैतिकता की प्रस्थापना के वर्तमान में जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत प्रयत्न किये गये हैं, अत: विषय-वस्तु की दृष्टि से भी दोनों ही परम्पराओं किया जाता हैके साहित्य में समानता है। उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं कुछ प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि में मिल जाती 11 अङ्ग हैं। किन्तु जहाँ तक दोनों के दर्शन एवं आचार नियमों का प्रश्न है, 1. आयार (आचाराङ्गः), 2. सूयगड (सूत्रकृताङ्गः), 3. ठाण वहाँ स्पष्ट अन्तर भी देखा जाता है। क्योंकि जहाँ भगवान् बुद्ध आचार (स्थानाङ्गः), 4. समवाय (समवायाङ्गः), ५.वियाहपत्रत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्तिः के क्षेत्र में मध्यममार्गी थे, वहाँ महावीर तप, त्याग और तितीक्षा पर या भगवती), 6. नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा:), 7. उवासगदसाओ अधिक बल दे रहे थे। इस प्रकार आचार के क्षेत्र में दोनों की दृष्टियाँ (उपासकदशा:), 8. अंतगडदसाओ (अन्तकृद्दशा:), 9. अनुत्तरोववाइय
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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दसाओ (अनुत्तरौपपातिकदशा:), 10. पण्हावागरणाई (प्रश्नव्याकरणानि), दशवैकालिक मान्य रहे हैं, अपितु यापनीय आचार्य अपराजित (नवीं 11. विवागसुर्य (विपाकश्रुतम्), 12. दृष्टिवादः (दिट्ठिवाय), जो शती) ने तो दशवैकालिक की टीका भी लिखी थी। विच्छिन्न हुआ है। 6. छेदसूत्र 12 उपाङ्ग छेदसूत्रों के अन्तर्गत वर्तमान में 1. आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध), 1. उववाइयं (औपपातिकं), 2. रायपसेणइज (राजप्रसेनजित्कं) 2. कप्प (कल्प), 3. ववहार (व्यवहार), 4. निसीह (निशीथ), अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीय), 3. जीवाजीवाभिगम, 4. पण्णवणा 5. 'महानिशीथ और 6. जीयकप्प (जीतकल्प)- ये छह ग्रन्थ माने (प्रज्ञापना), 5. सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्तिः), 6. जम्बुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीप- जाते हैं। इनमें से महानिशीथ और जीतकल्प को श्वेताम्बरों की तेरापन्थी प्रज्ञप्तिः), 7. चंदपण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्तिः),८-१२.निरयावलियासुयक्खंध और स्थानकवासी सम्प्रदायें मान्य नहीं करती हैं। वे दोनों मात्र चार (निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः), 8. निरयावलियाओ (निरयावलिकाः), ही छेदसूत्र मानते हैं। जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय उपर्युक्त 6 9. कप्पवडिंसियाओ (कल्पावतंसिका:), 10. पुफियाओ (पुष्पिका:), छेदसूत्रों को मानता है। जहाँ तक दिगम्बर और यापनीय परम्परा का 11. पुष्फचूलाओ (पुष्पचूला:), 12. वण्हिदसाओ (वृष्णिदशा:)। प्रश्न है उनमें अङ्गबाह्य ग्रन्थों में कल्प, व्यवहार और निशीथ का उल्लेख मिलता है। यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में न केवल इनका उल्लेख जहाँ तक उपर्युक्त अङ्ग और उपाङ्ग ग्रन्थों का प्रश्न है। श्वेताम्बर मिलता है, अपितु इनके अवतरण भी दिये गये हैं। आश्चर्य यह है परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं। जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय कि वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मूलत: यापनीय परम्परा इन्हीं ग्यारह अङ्गसूत्रों को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि अङ्गसूत्र के प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थ "छेदपिण्डशास्त्र" में कल्प और व्यवहार वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं। उपाङ्गसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर परम्परा के प्रामाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रामाण्य स्वीकार किया के सभी सम्प्रदायों में एकरूपता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में बारह गया है। इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, उपाङ्गों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों निशीथ और जीतकल्प की मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं। आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं। साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद 10 प्रकीर्णक के परिकर्म विभाग के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था। इसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रन्थ माने जाते हैं - 1. चउसरण (चतुःशरण), 2. आउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), 4 मूलसूत्र 3. भत्तपरित्रा (भक्तपरिज्ञा), 4. संथारय (संस्तारक), 5. तंडुलवेयालिय सामान्यतया (1) उत्तराध्ययन, (2) दशवैकालिक, (3) आवश्यक (तंदुलवैचारिक), 6. चंदवेज्झय (चन्द्रवेध्यक), 7. देविन्दत्थय और (4) पिण्डनियुक्ति-ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों (देवेन्द्रस्तव), 8. गणिविज्जा (गणिविद्या), 9. महापच्चक्खाण की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता (महाप्रत्याख्यान) और 10 वीरत्थय (वीरस्तव)। नहीं है। जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एक मत से मूलसूत्र माना को मान्य नहीं करते हैं। यद्यपि मेरी दृष्टि में इनमें उनकी परम्परा के है। समयसुन्दर, भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्त्य विद्वानों में प्रो.ब्यूहलर, प्रो. विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इन्हें अमान्य किया जाये। इनमें शारपेन्टियर, प्रो. विन्टर्नित्ज़, प्रो.शुबिंग आदि ने एक स्वर से आवश्यक से 9 प्रकीर्णकों का उल्लेख तो नन्दीसूत्र में मिल जाता है। अत: इन्हें को मूलसूत्र माना है, किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय अमान्य करने का कोई औचित्य नहीं है। हमने इसकी विस्तृत चर्चा आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। ये दोनों सम्प्रदाय आगम संस्थान, उदयपुर से प्रकाशित 'महापच्चक्खाण' की भूमिका आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार को में की है। जहाँ तक दस प्रकीर्णकों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बर मूलसूत्र मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यों में भी किंचित् मतभेद पाया जाता पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। है। लगभग 9 नामों में तो एकरूपता है किन्तु भत्तपरिन्ना, मरणविधि इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एकरूपता का और वीरस्तव ये तीन नाम ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न आचार्यों के वर्गीकरण अभाव है। दिगम्बर परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक, में भिन्न-भिन्न रूप से आये हैं। किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर मरणविधि उत्तराध्ययन और आवश्यक मान्य रहे हैं। तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं का उल्लेख किया है तो किसी ने उसके स्थान पर वीरस्तव का उल्लेख में, धवला में तथा अङ्गपण्णत्ति में इनका उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि किया है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने 'पइण्णयसुत्ताई' के प्रथम भाग अङ्गपण्णत्ति में नन्दीसूत्र की भाँति ही आवश्यक के छह विभाग किये की भूमिका में प्रकीर्णक नाम से अभिहित लगभग 22 ग्रन्थों का उल्लेख गये हैं। यापनीय परम्परा में भी न केवल आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं किया है। इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय से पइण्णयसुत्ताइं नाम
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श से 2 भागों में प्रकाशित हैं। अङ्गविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट स्थान पर पूर्वोक्त तीस प्रकीर्णक मानते हैं। इसके साथ दस नियुक्तियों सोसायटी की ओर से हुआ है। ये बाईस निम्न हैं तथा यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापनासूत्र, वन्दित्तु, 1. चतुःशरण, 2. आतुरप्रत्याख्यान, 3. भक्तपरिज्ञा, ४.संस्तारक, तिथि-प्रकरण, कवचप्रकरण, संशक्तनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य 5. तंदुलवैचारिक, 6. चन्द्रवेध्यक, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणिविद्या, को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं। 9. महाप्रत्याख्यान, 10. वीरस्तव, 11. ऋषिभाषित, 12. अजीवकल्प, इस प्रकार वर्तमानकाल में अर्धमागधी आगम साहित्य को 13. गच्छाचार, 14. मरणसमाधि, 15. तित्थोगालिय, 16. आराध- अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र के रूप में वर्गीकृत नापताका, 17. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 18. ज्योतिष्करण्डक, १९.अङ्गविद्या, किया जाता है, किन्तु यह वर्गीकरण पर्याप्त परवर्ती है। १२वीं शती 20. सिद्धप्राभृत, 21. सारावली और 22. जीवविभक्ति। से पूर्व के ग्रन्थों में इस प्रकार के वर्गीकरण का कहीं उल्लेख नहीं इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध मिलता है। वर्गीकरण की यह शैली सर्वप्रथम हमें आचार्य श्रीचन्द होते हैं, यथा- “आउरपच्चक्खान" के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध की 'सुखबोधा समाचारी' (ई०सन् 1112) में आंशिक रूप से उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की होती है। इसमें आगम-साहित्य के अध्ययन का जो क्रम दिया गया कृति है। है उससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अङ्ग, उपाङ्ग आदि इनमें से नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी। किन्तु वर्तमानकाल में जिस देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते हैं और भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था। उसमें मात्र अङ्ग-उपाङ्ग, प्रकीर्णक कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम इतने ही नाम मिलते हैं। विशेषता यह है कि उसमें नन्दीसूत्र व पाये जाते हैं। इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का अनुयोगद्वारसूत्र को भी प्रकीर्णकों में सम्मिलित किया गया है। उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के कुछ सुखबोधासमाचारी का यह विवरण मुख्य रूप से तो आगम ग्रन्थों के आचार्य जो 84 आगम मानते हैं, वे प्रकीर्णकों की संख्या 10 के अध्ययन-क्रम को ही सूचित करता है। इसमें मुनि-जीवन सम्बन्धी आचार स्थान पर 30 मानते हैं। इसमें पूर्वोक्त 22 नामों के अतिरिक्त निम्न नियमों के प्रतिपादक आगम-ग्रन्थों के अध्ययन को प्राथमिकता दी गयी 8 प्रकीर्णक और माने गये हैं- पिण्डविशुद्धि, पर्यन्त-आराधना, है और सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन बौद्धिक परिपक्वता के पश्चात् योनिप्राभृत, अङ्गचूलिया, वङ्गचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना और हो ऐसी व्यवस्था की गई है। कल्पसूत्र। इसी दृष्टि से एक अन्य विवरण जिनप्रभ ने अपने ग्रन्थ जहाँ तक दिगम्बर परम्परा एवं यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे 'विधिमार्गप्रपा' में दिया है। इसमें वर्तमान में उल्लिखित आगमों के स्पष्टत: इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करती हैं, फिर भी मूलाचार में नाम तो मिल जाते हैं, किन्तु कौन आगम किस वर्ग का है, यह उल्लेख आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान से अनेक गाथाएँ उसके संक्षिप्त नहीं है। मात्र प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ आने के कारण प्रत्याख्यान और बृहत्-प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में अवतरित की यह विश्वास किया जा सकता है कि उस समय तक चाहे अङ्ग, उपाङ्ग गई हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनापताका / आदि का वर्तमान वर्गीकरण पूर्णत: स्थिर न हुआ हो, किन्तु जैसा आदि अनेक प्रकीर्णकों की गाथाएँ अवतरित हैं। ज्ञातव्य है कि इनमें पद्मभूषण पं० दलसुखभाई का कथन है कि कौन ग्रन्थ किसके साथ अङ्ग बाह्यों को प्रकीर्णक कहा गया है। उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम बन गया था, क्योंकि उसमें अङ्ग, उपाङ्ग, छेद, मूल, प्रकीर्णक एवं चूलिकासूत्रों के नाम एक ही 2 चूलिकासूत्र साथ मिलते हैं। विधिमार्गप्रपा में अङ्ग, उपाङ्ग ग्रन्थों का पारस्परिक चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार- ये दो ग्रन्थ सम्बन्ध भी निश्चित किया गया था। मात्र यही नहीं एक मतान्तर का माने जाते हैं। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानकवासी उल्लेख करते हुए उसमें यह भी बताया गया है कि कुछ आचार्य परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है। फिर चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं सूर्यप्रज्ञप्ति को भगवती का उपाङ्ग मानते हैं। जिनप्रभ भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों ने इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम वाचनाविधि के प्रारम्भ में अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, को मान्य रहे हैं। छेद और मूल- इन वर्गों का उल्लेख किया है। उन्होंने विधिमार्गप्रपा ___इस प्रकार हम देखते हैं कि 11 अङ्ग, 12 उपाङ्ग, 4 मूल, को ई० सन् 1306 में पूर्ण किया था, अत: यह माना जा सकता 6 छेद, 10 प्रकीर्णक, 2 चूलिकासूत्र-ये 45 आगम श्वेताम्बर है कि इसके आस-पास ही आगमों का वर्तमान वर्गीकरण प्रचलन में मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य हैं। स्थानकवासी व तेरापन्थी इसमें से 10 आया होगा। प्रकीर्णक, जीतकल्प, महानिशीथ और पिण्डनियुक्ति- इन 13 ग्रन्थों को कम करके 32 आगम मान्य करते हैं। आगमों के वर्गीकरण की प्राचीन शैली .. जो लोग चौरासी आगम मान्य करते हैं वे दस प्रकीर्णकों के अर्धमागधी आगम-साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन शैली इससे .
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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भिन्न रही है। इस प्राचीन शैली का सर्वप्रथम निर्देश हमें नन्दीसूत्र एवं 3. कल्प 3. चुल्लकल्पश्रुत पाक्षिकसूत्र (ईस्वी सन् पाँचवीं शती) में मिलता है। उस युग में आगमों 4. व्यवहार 4. महाकल्पश्रुत को अङ्गप्रविष्ट व अङ्गबाह्य- इन दो भागों में विभक्त किया जाता 5. निशीथ 5. निशीथ था। अङ्गप्रविष्ट के अन्तर्गत आचाराङ्ग आदि 12 अङ्ग आते थे। शेष 8. महानिशीथ 6. राजप्रश्नीय ग्रन्थ अङ्गबाह्य कहे जाते थे। उसमें अङ्गबाह्यों की एक संज्ञा प्रकीर्णक 7. ऋषिभाषित 7. जीवाभिगम भी थी। अङ्गप्रज्ञप्ति नामक दिगम्बर ग्रन्थ में भी अङ्गबाह्यों को प्रकीर्णक 8. प्रज्ञापना कहा गया है। अङ्गबाह्य को पुन: दो भागों में बाँटा जाता था- 9. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति 9. महाप्रज्ञापना 1. आवश्यक और 2. आवश्यक-व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत 10. चन्द्रप्रज्ञप्ति 10. प्रमादाप्रमाद सामायिक आदि छः ग्रन्थ थे। ज्ञातव्य है कि वर्तमान वर्गीकरण में 11. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति 11. नन्दी आवश्यक को एक ही ग्रन्थ माना जाता है और सामायिक आदि छः 12. महल्लिकाविमानप्रविभक्ति 12. अनुयोगद्वार आवश्यक अङ्गों को उसके एक-एक अध्याय रूप में माना जाता है, 13. अङ्गचूलिका 13. देवेन्द्रस्तव किन्तु प्राचीनकाल में इन्हें छः स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाता था। इसकी 14. वग्गचूलिका 14. तन्दुलवैचारिक पुष्टि अङ्गपण्णत्ति आदि दिगम्बर ग्रन्थों से भी हो जाती है। उनमें भी 15. चन्द्रवेध्यक सामायिक आदि को छ: स्वतन्त्र ग्रन्थ माना गया है। यद्यपि उसमें 16. अरुणोपपात 16. सूर्यप्रज्ञप्ति कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान के स्थान पर वैनयिक एवं कृतिकर्म नाम 17. वरुणोपपात 17. पौरुषीमण्डल मिलते हैं। आवश्यक-व्यतिरिक्त के भी दो भाग किये जाते थे- 18. गरुडोपपात 18. मण्डलप्रवेश 1. कालिक और 2. उत्कालिक। जिनका स्वाध्याय विकाल को छोड़कर 19. धरणोपपात 19. विद्याचरण विनिश्चय किया जाता था, वे कालिक कहलाते थे, जबकि उत्कालिक ग्रन्थों के 20. वैश्रमणोपपात 20. गणिविद्या अध्ययन या स्वाध्याय में काल एवं विकाल का विचार नहीं किया 21. वेलन्धरोपपात 21. ध्यानविभक्ति जाता था। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र के अनुसार आगमों के वर्गीकरण 22. देवेन्द्रोपपात 22. मरणविभक्ति की सूची निम्नानुसार है - 23. उत्थानश्रुत 23. आत्मविशोधि 24. समुत्थानश्रुत 24. वीतरागश्रुत श्रुत (आगम) 25. नागपरिज्ञापनिका 25. संलेखणाश्रुत 26. निरयावलिका 26. विहारकल्प (क) अङ्गप्रविष्ट (ख) अङ्गबाह्य 27. कल्पिका 27. चरणविधि 28. कल्पावतंसिका 28. आतुरप्रत्याख्यान 1. आचाराङ्ग 29. पुष्पिता 29. महाप्रत्याख्यान 2. सूत्रकृताङ्ग (क) आवश्यक (ख) आवश्यक व्यतिरिक्त 30. पुष्पचूलिका 3. स्थानाङ्ग 31. वृष्णिदशा 4. समवायाङ्ग 1. सामायिक 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति 2. चतुर्विंशतिस्तव इस प्रकार नन्दीसूत्र में 12 अङ्ग, 6 आवश्यक, 31 कालिक 6. ज्ञाताधर्मकथा 3. वन्दना एवं 29 उत्कालिक सहित 78 आगमों का उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य 7. उपासकदशाङ्ग 4. प्रतिक्रमण है कि आज इनमें से अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। 8. अन्तकृद्दशाङ्ग 5. कायोत्सर्ग 9. अनुत्तरौपपातिकदशांग६. प्रत्याख्यान यापनीय और दिगम्बर परम्परा में आगमों का वर्गीकरण 10. प्रश्रव्याकरण यापनीय और दिगम्बर परम्पराओं में जैन आगम-साहित्य के ११.विपाकसूत्र वर्गीकरण की जो शैली मान्य रही है, वह भी बहुत कुछ नन्दीसूत्र 12. दृष्टिवाद की शैली के ही अनुरूप है। उन्होंने उसे उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र से ग्रहण किया है। उसमें आगमों को अङ्ग और अङ्गबाह्य ऐसे दो (क) कालिक (ख) उत्कालिक वर्गों में विभाजित किया गया है। इनमें अङ्गों की बारह संख्या का 1. उत्तराध्ययन 2. दशाश्रुतस्कन्ध 1. दशवैकालिक 2. कल्पिकाकल्पिक नहीं है। मात्र यह कहा गया है अङ्गबाह्य अनेक प्रकार के हैं। किन्तु अपने तत्त्वार्थभाष्य (1/20) में आचार्य उमास्वाति ने अङ्ग-बाह्य के
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श अन्तर्गत सर्वप्रथम सामायिक आदि छः आवश्यकों का उल्लेख किया अङ्ग बाह्यों को आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त, ऐसे दो विभागों ध्ययन, दशा, कल्प-व्यवहार, निशीथ में बाँटा जाता था। आवश्यक-व्यतिरिक्त में भी कालिक और उत्कालिक और ऋषिभाषित के नाम देकर अन्त में आदि शब्द से अन्य ग्रन्थों ऐसे दो विभाग सर्वमान्य थे। लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के बाद का ग्रहण किया है। किन्तु अङ्गबाह्य में स्पष्ट नाम तो उन्होंने केवल से अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र-यह वर्तमान बारह ही दिये हैं। इसमें कल्प-व्यवहार का एकीकरण किया गया है। वर्गीकरण अस्तित्व में आया है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर एक अन्य सूचना से यह भी ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थभाष्य में उपाङ्ग दोनों परम्पराओं में सभी अङ्गबाह्य आगमों के लिए प्रकीर्णक (पइण्णय) संज्ञा का निर्देश है। हो सकता है कि पहले 12 अङ्गों के समान ही नाम भी प्रचलित रहा है। 12 उपाङ्ग माने जाते हों। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलङ्क, विद्यानन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों ने अङ्गबाह्य में न केवल उत्तराध्ययन, अर्धमागधी आगम-साहित्य की प्राचीनता एवं रचनाकाल दशवकालिक आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अपितु कालिक एवं भारत जैसे विशाल देश में अतिप्राचीनकाल से ही अनेक बोलियों उत्कालिक ऐसे वर्गों का भी नाम निर्देश (1/20) किया है। हरिवंशपुराण का अस्तित्व रहा है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भारत में तीन प्राचीन एवं धवलाटीका में आगमों का जो वर्गीकरण उपलब्ध होता है उसमें भाषाएँ प्रचलित रही हैं- संस्कृत, प्राकृत और पालि। इनमें संस्कृत 12 अङ्गों एवं 14 अङ्गबाह्यों का उल्लेख है। उसमें भी अङ्गबाह्यों के दो रूप पाये जाते हैं- छान्दस् और साहित्यिक संस्कृत। वेद में सर्वप्रथम छ: आवश्यकों का उल्लेख है, तत्पश्चात् दशवैकालिक, छान्दस् संस्कृत में है, जो पालि और प्राकृत के निकट है। उपनिषदों उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कप्पाकप्पीय (कल्पिकाकल्पिक), महाकप्पीय की भाषा छान्दस् की अपेक्षा साहित्यिक संस्कृत के अधिक निकट (महाकल्प), पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निशीथ का उल्लेख है। इस है। प्राकृत भाषा में निबद्ध जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें अर्धमागधी प्रकार धवला में 12 अङ्ग और 14 अङ्गबाह्यों की गणना की गयी। आगम साहित्य प्राचीनतम है। यहाँ तक कि आचाराङ्ग का प्रथम श्रुतस्कन्ध इसमें भी कल्प और व्यवहार को एक ही ग्रन्थ माना गया है। ज्ञातव्य और ऋषिभाषित तो अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी प्राचीन है कि तत्त्वार्थभाष्य की अपेक्षा इसमें कप्पाकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक है। ये दोनों ग्रन्थ लगभग ई०पू० पाँचवीं-चौथी शताब्दी की रचनाएँ और महापुण्डरीक-ये चार नाम अधिक हैं। किन्तु भाष्य में उल्लिखित हैं। आचाराङ्ग की सूत्रात्मक औपनिषदिक शैली उसे उपनिषदों का दशा और ऋषिभाषित को छोड़ दिया गया है। इसमें जो चार नाम निकटवर्ती और स्वयं भगवान् महावीर की वाणी सिद्ध करती है। भाव, अधिक हैं- उनमें कप्पाकप्पीय और महाकप्पीय का उल्लेख भाषा और शैली तीनों के आधार पर यह सम्पूर्ण पालि और प्राकृत नन्दीसूत्र में भी है, मात्र पुण्डरीक और महापुण्डरीक ये दो नाम साहित्य में प्राचीनतम है। आत्मा के स्वरूप एवं अस्तित्व सम्बन्धी विशेष हैं। इसके विवरण औपनिषदिक विवरणों के अनुरूप हैं। इसमें प्रतिपादित दिगम्बर परम्परा में आचार्य शुभचन्द्र कृत अङ्गप्रज्ञप्ति (अङ्गपण्णत्ति) महावीर का जीवनवृत्त भी अलौकिकता और अतिशयता रहित है। ऐसा नामक एक ग्रन्थ मिलता है। यह ग्रन्थ धवलाटीका के पश्चात् का प्रतीत प्रतीत होता है कि यह विवरण भी उसी व्यक्ति द्वारा कहा गया है, होता है। इसमें धवलाटीका में वर्णित 12 अङ्गप्रविष्ट व 14 अङ्गबाह्य जिसने स्वयं उनकी जीवनचर्या को निकटता से देखा और जाना होगा। ग्रन्थों की विषय-वस्तु का विवरण दिया गया है। इसमें अङ्गबाह्य ग्रन्थों अर्धमागधी आगम साहित्य में ही सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के की विषय-वस्तु का विवरण संक्षिप्त ही है। इस ग्रन्थ में और दिगम्बर छठे अध्याय, आचारङ्गचूला और कल्पसूत्र में भी महावीर की जीवनचर्या परम्परा के अन्य ग्रन्थों में अङ्गबाह्यों को प्रकीर्णक भी कहा गया है का उल्लेख है, किन्तु वे भी आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा (3.10) / इसमें कहा गया है कि सामायिक प्रमुख 14 प्रकीर्णक परवर्ती हैं, क्योंकि उनमें क्रमश: अलौकिकता, अतिशयता और अङ्गबाह्य हैं। इसमें दिये गये विषय-वस्तु के विवरण से लगता है अतिरञ्जना का प्रवेश होता गया है। इसी प्रकार ऋषिभाषित की कि यह विवरण मात्र अनुश्रुति के आधार पर लिखा गया है, मूल साम्प्रदायिक अभिनिवेश से रहित उदारदृष्टि तथा भाव और भाषागत ग्रन्थों को लेखक ने नहीं देखा है। इसमें भी पुण्डरीक और महापुण्डरीक अनेक तथ्य उसे आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर सम्पूर्ण का उल्लेख है। इन दोनों ग्रन्थों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में मुझे प्राकृत एवं पालिसाहित्य में प्राचीनतम सिद्ध करते हैं। पालिसाहित्य कहीं नहीं मिला। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के सूत्रकृताङ्ग में एक अध्ययन में प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात माना जाता है, किन्तु अनेक तथ्यों के का नाम पुण्डरीक अवश्य मिलता है। प्रकीर्णकों में एक सारावली आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि ऋषिभाषित, सुत्तनिपात से भी प्रकीर्णक है। इसमें पुण्डरीक महातीर्थ (शत्रुञ्जय) की महत्ता का विस्तृत प्राचीन है। अर्धमागधी आगमों की प्रथम वाचना स्थूलिभद्र के समय विवरण है। सम्भव है कि पुण्डरीक सारावली प्रकीर्णक का ही यह अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी शती में हुई थी, अत: इतना निश्चित् है कि दूसरा नाम हो। फिर भी स्पष्ट प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में उस समय तक अर्धमागधी आगम-साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा। इस प्रकार अर्धमागधी आगम-साहित्य के कुछ ग्रन्थों के रचनाकाल इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथम शती से लेकर दसवीं शती की उत्तर सीमा ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी सिद्ध होती है, जो कि तक आगमों को नन्दीसूत्र की शैली में अङ्ग और अङ्गबाह्य- पुनः इस साहित्य की प्राचीनता को प्रमाणित करती है।
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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ फिर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम काल निर्धारित करते समय उनमें उपलब्ध सांस्कृतिक सामग्री, साहित्य न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की। यह सत्य दार्शनिक-चिन्तन की स्पष्टता एवं गहनता, भाषा-शैली आदि सभी पक्षों है कि इस साहित्य को अन्तिम रूप वीरनिर्वाण सम्वत् 980 में वलभी पर प्रामाणिकता के साथ विचार करना चाहिए। इस दृक्षिा अध्ययन में सम्पन्न हुई वाचना में प्राप्त हुआ। किन्तु इस आधार पर हमारे कुछ करने पर ही यह स्पष्ट बोध हो सकेगा कि अर्धमागधी भागा साहित्य विद्वान् मित्र यह गलत निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि अर्धमागधी आगम का कौन सा ग्रन्थ अथवा उसका कौन सा अंश-विशेष किस काल साहित्य ईस्वी सन् की पाँचवी शताब्दी की रचना है। यदि अर्धमागधी की रचना है। आगम ईसा की पाँचवी शती की रचना हैं, तो वलभी की इस अन्तिम अर्धमागधी आगमों की विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश श्वेताम्बर वाचना के पूर्व भी वलभी, मथुरा, खण्डगिरि और पाटलीपुत्र में जो परम्परा में हमें स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, नन्दीसूत्र, नन्दीचूर्णि एवं वाचनायें हुई थीं उनमें सङ्कलित साहित्य कौन सा था? उन्हें यह स्मरण तत्त्वार्थभाष्य में तथा दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ की टीकाओं के रखना चाहिए कि वलभी में आगमों को सङ्कलित, सुव्यवस्थित और साथ-साथ धवला, जयधवला में मिलते हैं। तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर सम्पादित करके लिपिबद्ध (पुस्तकारूढ़) किया गया था, अत: यह किसी परम्परा की टीकाओं और धवलादि में उनकी विषय-वस्तु सम्बन्धी भी स्थिति में उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता है। सङ्कलन और निर्देश मात्र अनुश्रुतिपरक है, वे ग्रन्थों के वास्तविक अध्ययन पर सम्पादन का अर्थ रचना नहीं है। पुनः आगमों में विषय-वस्तु, भाषा आधारित नहीं हैं। उनमें दिया गया विवरण तत्त्वार्थभाष्य एवं परम्परा और शैली की जो विविधता और भिन्नता परिलक्षित होती है, वह से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा में स्थानाङ्ग, स्पष्टतया इस तथ्य की प्रमाण है कि सङ्कलन और सम्पादन के समवायाङ्ग, नन्दी आदि अर्धमागधी आगमों और उनकी व्याख्याओं समय उनकी मौलिकता को यथावत् रखने का प्रयत्न किया गया है, एवं टीकाओं में उनकी विषय-वस्तु का जो विवरण है वह उन ग्रन्थों अन्यथा आज उनका प्राचीन स्वरूप समाप्त ही हो जाता और के अवलोकन पर आधारित है क्योंकि प्रथम तो इस परम्परा में आगमों आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा और शैली भी परिवर्तित हो के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा आज तक जीवित चली आ रही जाती तथा उसके उपधानश्रुत नामक नवें अध्ययन में वर्णित है। दूसरे, आगम-ग्रन्थों की विषय-वस्तु में कालक्रम से क्या परिवर्तन महावीर का जीवनवृत्त अलौकिकता एवं अतिशयों से युक्त बन हुआ है, इसकी सूचना श्वेताम्बर परम्परा के उपर्युक्त आगम ग्रन्थों से जाता। यद्यपि यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु में कुछ प्रक्षिप्त ही प्राप्त हो जाती है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है अंश हैं, किन्तु प्रथम तो ऐसे प्रक्षेप बहुत ही कम हैं और दूसरे उन्हें कि किस काल में किस आगम ग्रन्थ में कौन सी सामग्री जुड़ी और स्पष्ट रूप से पहचाना भी जा सकता है। अत: इस आधार पर सम्पूर्ण अलग हुई है। आचाराङ्ग में आचारचूला और निशीथ के जुड़ने और अर्धमागधी आगम-साहित्य को परवर्ती मान लेना सबसे बड़ी पुनः निशीथ के अलग होने की घटना, समवायाङ्ग और स्थानाङ्ग में भ्रान्ति होगी। समय-समय पर हुए प्रक्षेप, ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय वर्ग में जुड़े हुए अर्धमागधी आगम-साहित्य पर कभी-कभी महाराष्ट्री प्राकृत के अध्याय, प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु में हुआ सम्पूर्ण परिवर्तन, प्रभाव को देखकर भी उसकी प्राचीनता पर संदेह किया जाता है। किन्तु ___अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक एवं विपाक के अध्ययनों में हुए आंशिक प्राचीन हस्तप्रतों के आधार पर पाठों के तुलनात्मक अध्ययन से यह परिवर्तन- इन सबकी प्रामाणिक जानकारी हमें उन विवरणों का स्पष्ट हो जाता है कि अनेक प्राचीन हस्तप्रतों में आज भी उनका 'त' तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन करने से मिल जाती है। इनमें श्रुतिप्रधान अर्धमागधी स्वरूप सुरक्षित है। आचाराङ्ग के प्रकाशित प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु का परिवर्तन ही ऐसा है, जिसके वर्तमान संस्करणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि परवर्तीकाल स्वरूप की सूचना केवल नन्दीचूर्णि (ईस्वी सन् सातवीं शती) में मिलती में उसमें कितने पाठान्तर हो गये हैं। इस साहित्य पर जो महाराष्ट्री है। वर्तमान प्रश्नव्याकरण लगभग ईस्वी सन् की पाँचवीं-छठी शताब्दी प्रभाव आ गया है वह लिपिकारों और टीकाकारों की अपनी भाषा में अस्तित्व में आया है। इस प्रकार अर्धमागधी आगम-साहित्य लगभग के प्रभाव के कारण है। उदाहरण के रूप में सूत्रकृताङ्ग का 'रामपुत्ते' एक सहस्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में किस प्रकार निर्मित, परिवर्धित, पाठ चूर्णि में 'रामाउत्ते' और शीलाङ्क की टीका में 'रामगुत्ते' हो गया। परिवर्तित एवं सम्पादित होता रहा है इसकी सूचना भी स्वयं अर्धमागधी अत: अर्धमागधी आगमों में, महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर आगम-साहित्य और उसकी टीकाओं से मिल जाती है। उनकी प्राचीनता पर सन्देह नहीं करना चाहिये। अपितु उन ग्रन्थों की वस्तुतः अर्धमागधी आगम विशेष या उसके अंश विशेष के विभिन्न प्रतों एवं नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के आधार पर रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है, इस सम्बन्ध में पाठों के प्राचीन स्वरूपों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिये। विषय-वस्तु सम्बन्धी विवरण, विचारों का विकासक्रम, भाषा-शैली वस्तुतः अर्धमागधी आगम-साहित्य में विभिन्न काल की सामग्री आदि अनेक दृष्टियों से निर्णय करना होता है। उदाहरण के रूप में सुरक्षित है। इसकी उत्तर सीमा ई०पू० पाँचवीं-चौथी शताब्दी और स्थानाङ्ग में सात निह्नवों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है जो कि निम्न सीमा ई०सन् की पाँचवीं शताब्दी है। वस्तुत: अर्धमागधी वीरनिर्वाण सं०६०९ अथवा उसके बाद अस्तित्व में आये, अत: आगम-साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों का या उनके किसी अंश-विशेष का विषय-वस्तु की दृष्टि से स्थानाङ्ग के रचनाकाल की अन्तिम सीमा
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श वीरनिर्वाण सम्वत् 609 के पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी आगमों का रचनाकाल ई.सन् की पाँचवीं शताब्दी नहीं माना जा सकता। का उत्तरार्ध या द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होती है। इसी प्रकार डॉ. हर्मन याकोबी ने यह निश्चित किया है कि आगमों का प्राचीन आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की विषय-वस्तु एवं भाषा-शैली आचाराङ्ग अंश ई.पू. चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर ई.पू. तीसरी शताब्दी के रचनाकाल को अर्धमागधी आगम-साहित्य में सबसे प्राचीन सिद्ध के पूर्वार्द्ध के बीच का है। न केवल अङ्ग आगम अपितु दशाश्रुतस्कन्ध, करती है। अर्धमागधी आगम के काल-निर्धारण में इन सभी पक्षों पर बृहत्कल्प और व्यवहार भी, जिन्हें आचार्य भद्रबाहु की रचना माना विचार अपेक्षित है। जाता है याकोबी और शुबिंग के अनुसार ई.पू. चतुर्थ शती के उत्तरार्द्ध इस प्रकार न तो हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों की यह दृष्टि समुचित से ई.पू. तीसरी शती के पूर्वार्द्ध में निर्मित हैं। पं. दलसुखभाई आदि है कि अर्धमागधी आगम देवर्द्धिगणि की वाचना के समय अर्थात् ईसा की मान्यता है कि आगमों का रचनाकाल प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा, की पाँचवीं शताब्दी में अस्तित्व में आये और न कुछ श्वेताम्बर आचार्यों छन्दयोजना, विषय-वस्तु और उपलब्ध आन्तरिक और बाह्य साक्ष्यों का यह कहना ही समुचित है कि सभी अङ्ग आगम अपने वर्तमान के आधार पर ही निश्चित किया जा सकता है। आचाराङ्ग का प्रथम स्वरूप में गणधरों की रचना है और उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन, श्रुतस्कन्ध अपनी भाषा-शैली, विषय-वस्तु, छन्दयोजना आदि की दृष्टि परिवर्धन, प्रक्षेप या विलोप नहीं हुआ है। किन्तु इतना निश्चित है कि से महावीर की वाणी के सर्वाधिक निकट प्रतीत होता है। उसकी कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर अर्धमागधी आगम-साहित्य शौरसेनी आगम औपनिषदिक शैली भी यही बताती है कि वह एक प्राचीन ग्रन्थ है। साहित्य से प्राचीन है। शौरसेनी आगम-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ उसका काल किसी भी स्थिति में ई.पू. चतुर्थ शती के बाद का नहीं कसायपाहुडसुत्त भी ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी से प्राचीन हो सकता। उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रूप में जो 'आयारचूला' जोड़ी नहीं है। उसके पश्चात् षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधाना, गयी है, वह भी ई.पू. दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। सूत्रकृताङ्ग तिलोयपण्णत्ति, पिण्डछेदशास्त्र, आवश्यक (प्रतिकमणसूत्र) आदि का भी एक प्राचीन आगम है उसकी भाषा, छन्दयोजना एवं उसमें विभिन्न क्रम आता है, किन्तु पिण्डछेदशास्त्र और आवश्यक (प्रतिक्रमण) के दार्शनिक परम्पराओं तथा ऋषियों के जो उल्लेख मिले हैं उनके आधार अतिरिक्त इन सभी ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त आदि की उपस्थिति पर यह कहा जा सकता है कि वह भी ई.पू. चौथी-तीसरी शती से से यह फलित होता है कि ये सभी ग्रन्थ पाँचवीं शती के पश्चात् के बाद का नहीं हो सकता, क्योंकि उसके बाद विकसित दार्शनिक हैं। दिगम्बर आवश्यक (प्रतिक्रमण) एवं पिण्डछेदशास्त्र का आधार मान्यताओं का उसमें कही कोई उल्लेख नहीं है। उसमें उपलब्ध वीरस्तुति भी क्रमश: श्वेताम्बर मान्य आवश्यक और कल्प-व्यवहार, निशीथ आदि में भी अतिरञ्जनाओं का प्राय: अभाव ही है। अङ्ग आगमों में तीसरा छेदसूत्र ही रहे हैं। उनके प्रतिक्रमण सूत्र में भी वर्तमान सूत्रकृताङ्ग क्रम स्थानाङ्ग का आता है। स्थानाङ्ग, बौद्ध आगम अङ्गुत्तरनिकाय की के तेईस एवं ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययनों का विवरण है तथा शैली का ग्रन्थ है। ग्रन्थ-लेखन की यह शैली भी प्राचीन रही है। स्थानाङ्ग पिण्डछेदशास्त्र में जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त देने का निर्देश में नौ गणों और सात निह्नवों के उल्लेख को छोड़कर अन्य ऐसा है। ये यही सिद्ध करते हैं कि प्राकृत आगम-साहित्य में अर्धमागधी कुछ भी नहीं है जिससे उसे परवर्ती कहा जा सके। हो सकता है कि आगम ही प्राचीनतम है चाहे उनकी अन्तिम वाचना पाँचवीं शती के जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण ये उल्लेख उत्तरार्ध (ई.सन् 453) में ही सम्पन्न क्यों न हुई हो? उसमें अन्तिम वाचना के समय प्रक्षिप्त किये गये हों। उसमें जो दस इस प्रकार जहाँ तक आगमों के रचनाकाल का प्रश्न है उसे ई.पू. दशाओं और उसमें प्रत्येक के अध्यायों के नामों का उल्लेख है, वह पाँचवीं शताब्दी से ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक लगभग एक हजार भी उन आगमों की प्राचीन विषय-वस्तु का निर्देश करता है। यदि वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्याप्त माना जा सकता है क्योंकि उपलब्ध वह वलभी के वाचनाकाल में निर्मित हुआ होता तो उसमें दस दशाओं आगमों में सभी एक काल की रचना नहीं हैं। आगमों के सन्दर्भ में की जो विषय-वस्तु वर्णित है वह भिन्न होती। अत: उसकी प्राचीनता और विशेष रूप से अङ्ग आगमों के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता में सन्देह नहीं किया जा सकता। समवायाङ्ग, स्थानाङ्ग की अपेक्षा एक तो यही है कि वे गणधरों द्वारा रचित होने के कारण ई.पू. पाँचवीं परवर्ती ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में द्वादश अङ्गों का स्पष्ट उल्लेख है। शताब्दी की रचना हैं। किन्तु दूसरी ओर कुछ विद्वान् उन्हें वलभी में साथ ही इसमें उत्तराध्ययन के 36, ऋषिभाषित के 44, सूत्रकृताङ्ग सङ्कलित एवं सम्पादित किये जाने के कारण ईसा की पाँचवीं शती के 23, सूत्रकृताङ्ग प्रथम श्रुतस्कन्ध के 16, आचाराङ्ग के चूलिका की रचना मान लेते हैं। मेरी दृष्टि में ये दोनों ही मत समीचीन नहीं सहित 25 अध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार के 26 अध्ययन आदि हैं। देवर्धि के सङ्कलन, सम्पादन एवं ताडपत्रों पर लेखन काल को का उल्लेख होने से इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ इसमें निर्दिष्ट उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता। अङ्ग आगम तो प्राचीन ही आगमों के स्वरूप के निर्धारित होने के पश्चात् ही बना होगा। पुन: है। ईसा पूर्व चौथी शती में पाटलीपुत्र की वाचना में जिन द्वादश अङ्गों इसमें चतुर्दश गुणस्थानों का जीवस्थान के रूप में स्पष्ट उल्लेख मिलता की वाचना हुई थी, वे निश्चित रूप से उसके पूर्व ही बने होंगे। यह है। यह निश्चित है कि गुणस्थान का यह सिद्धान्त उमास्वाति के पश्चात् सत्य है कि आगमों में देवर्धि की वाचना के समय अथवा उसके बाद अर्थात् ईसा की चतुर्थ शती के बाद ही अस्तित्व में आया है। यदि भी कुछ प्रक्षेप हुए हों, किन्तु उन प्रक्षेपों के आधार पर सभी अङ्ग इसमें जीवठाण के रूप में चौदह गुणस्थानों के उल्लेख को बाद में
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________________ 10 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रक्षिप्त भी मान लिया जाय तो भी अपनी भाषा-शैली और विषय-वस्तु उल्लिखित इसके दस अध्यायों की चर्चा होती रही है। हो सकता है की दृष्टि से इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की 3-4 शती से पहले का कि इसकी माथुरी वाचना में ये दस अध्ययन रहे होंगे। नहीं है। हो सकता है उसके कुछ अंश प्राचीन हों, लेकिन आज उन्हें बहुत कुछ यही स्थिति अनुत्तरौपपातिकदशा की है। स्थानाङ्गसूत्र खोज पाना अति कठिन कार्य है। जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है, की सूचना के अनुसार इसमें निम्न दस अध्ययन कहे गये हैंविद्वानों के अनुसार इससे अनेक स्तर हैं। इसमें कुछ स्तर अवश्य 1. ऋषिदास, 2. धन्य, 3. सुनक्षत्र, 4. कार्तिक, 5. संस्थान, ही ई.पू. के हैं, किन्तु समवायाङ्ग की भाँति भगवती में भी पर्याप्त ६.शालिभद्र, 7. आनन्द, 8. तेतली, 9. दशार्णभद्र, 10. अतिमुक्ति। प्रक्षेप हुआ है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम, उपलब्ध अनुत्तरौपपातिकदशा में तीन वर्ग हैं, उसमें द्वितीय वर्ग में प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, नन्दी आदि परवर्ती आगमों का निर्देश हुआ ऋषिदास, धन्य और सुनक्षत्र ऐसे तीन अध्ययन मिलते हैं इनमें भी है। इनके उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि इसके सम्पादन के समय धन्य का अध्ययन ही विस्तृत है। सुनक्षत्र और ऋषिदास के विवरण इसमें ये और इसी प्रकार की अन्य सूचनायें दे दी गयी हैं। इससे अत्यन्त संक्षेप में ही हैं। स्थानाङ्ग में उल्लिखित शेष सात अध्याय यह प्रतिफलित होता है कि वल्लभी वाचना में इसमें पर्याप्त रूप से वर्तमान अनुत्तरौपपातिकसूत्र में उपलब्ध नहीं होते। इससे यह प्रतीत परिवर्धन और संशोधन अवश्य हुआ है, फिर भी इसके कुछ शतकों होता है कि यह ग्रन्थ वलभी वाचना के समय ही अपने वर्तमान स्वरूप की प्राचीनता निर्विवाद है। कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान् इसके में आया होगा। प्राचीन एवं परवर्ती स्तरों के पृथक्करण का कार्य कर रहे हैं। उनके जहाँ तक प्रश्नव्याकरणदशा का प्रश्न है इतना निश्चित है कि वर्तमान निष्कर्ष प्राप्त होने पर ही इसका रचनाकाल निश्चित किया जा प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु न केवल स्थानाङ्ग में उल्लिखित सकता है। विषय-वस्तु से भिन्न है, अपितु नन्दी और समवायाङ्ग की उल्लिखित उपासकदशा आगम-साहित्य में श्रावकाचार का वर्णन करने वाला। विषय-वस्तु से भी भिन्न है। प्रश्रव्याकरण की वर्तमान आस्रव और प्रथम ग्रन्थ है। स्थानाङ्गसूत्र में उल्लिखित इसके दस अध्ययनों और संवर द्वार वाली विषय-वस्तु का सर्वप्रथम निर्देश नन्दीचूर्णि में मिलता उनकी विषय-वस्तु में किसी प्रकार के परिवर्तन होने के सङ्केत नहीं है। इससे यह फलित होता है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र नन्दी के मिलते हैं। अत: मैं समझता हूँ कि यह ग्रन्थ भी अपने वर्तमान स्वरूप पश्चात् ई.सन् की पाँचवीं-छठी शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ में ई.पू. की ही रचना है और इसके किसी भी अध्ययन का विलोप है। इतना तो निश्चित है कि नन्दी के रचयिता देववाचक के सामने नहीं हुआ है। श्रावकव्रतों को अणुव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में वर्गीकृत यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं था। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा, करने के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्टत: इसका अनुसरण देखा जाता अन्तकृद्दशा और अनुत्तरौपपातिकदशा में जो परिवर्तन हुए थे, वे है। अत: यह तत्त्वार्थ से अर्थात् ईसा की तीसरी शती से परवर्ती नहीं नन्दीसूत्रकार के पूर्व हो चुके थे, क्योंकि वे उनके इस परिवर्तित स्वरूप हो सकता है। ज्ञातव्य है कि अनुत्तरौपपातिक में उपलब्ध वर्गीकरण का विवरण देते हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने एक स्वतन्त्र परवर्ती है, क्योंकि उसमें गुणव्रत की अवधारणा आ गयी है। लेख में की है जो 'जैन आगम-साहित्य', सम्पादक डॉ. के.आर.चन्द्रा, ___अङ्ग आगम साहित्य में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का उल्लेख अहमदाबाद, में प्रकाशित है।* हमें स्थानाङ्ग सूत्र में मिलता है। इसमें इसके निम्न दस अध्याय उल्लिखित इसी प्रकार जब हम उपाङ्ग साहित्य की ओर आते हैं तो उसमें हैं- नमि, मातङ्ग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, जमालि, भगालि, रायपसेणियसुत्त में राजा पसेणीय द्वारा आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध किंकिम, पल्लतेतिय, फाल अम्बडपुत्र। इनमें से सुदर्शन सम्बन्धी कुछ में जो प्रश्न उठाये गये हैं उनका विवरण हमें पालित्रिपिटक में भी उपलब्ध अंश को छोड़कर वर्तमान अन्तकृद्दशासूत्र में ये कोई भी अध्ययन नहीं होता है। इससे यह फलित होता है कि औपपातिक का यह अंश मिलते हैं। किन्तु समवायाङ्ग और नन्दीसूत्र में क्रमश: इसके सात और कम से कम पालित्रिपिटक जितना प्राचीन तो है ही। जीवाजीवाभिगम आठ वर्गों के उल्लेख मिलते हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि के रचनाकाल को निश्चित रूप से बता पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी स्थानाङ्ग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा का प्राचीन अंश विलुप्त हो गया विषय-वस्तु के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वह ग्रन्थ ई.पू. है। यद्यपि समवायाङ्ग और नन्दी में क्रमश: इसके सात एवं आठ वर्गों की रचना होनी चाहिये। उपाङ्ग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को तो स्पष्टत: का उल्लेख होने से इतना तय है कि वर्तमान अन्तकृद्दशा समवायाङ्ग / आर्य श्याम की रचना माना जाता है। आर्य श्याम का आचार्यकाल और नन्दी की रचना के समय अस्तित्व में आ गया था। अत: इसका वी.नि.सं. 335-376 के मध्य माना जाता है। अत: इसका रचनाकाल वर्तमान स्वरूप ईसा की चौथी-पाँचवीं शती का है। उसके प्राचीन दस ई.पू. द्वितीय शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। अध्यायों के जो उल्लेख हमें स्थानाङ्ग में मिलते हैं, उन्हीं दस अध्ययनों इसी प्रकार उपाङ्ग वर्ग के अन्तर्गत वर्णित चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति के उल्लेख दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में यथा अकलङ्क और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति- ये तीन प्रज्ञप्तियाँ भी प्राचीन ही हैं। वर्तमान के राजवार्तिक, धवला, अङ्गप्रज्ञप्ति आदि में भी मिलते हैं। इससे यह में चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है। किन्तु फलित होता है कि इस अङ्ग आगम के प्राचीन स्वरूप के विलुप्त सूर्यप्रज्ञपित में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है वह वेदाङ्ग ज्योतिष के हो जाने के पश्चात् भी माथुरी वाचना की अनश्रति से स्थानाङ्ग में : 1. इस ग्रन्थ में भी यह लेख प्रकाशित है।
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________________ 11 अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श समान है, इससे इसकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है। यह ग्रन्थ किसी भी संघ-भेद या सम्प्रदाय-भेद के पूर्व की रचना हैं। अत: इनकी प्राचीनता भी स्थिति में ई.पू. प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। इन तीनों प्रज्ञप्तियों में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। 'आवश्यक' श्रमणों की दैनन्दिन को दिगम्बर परम्परा में भी दृष्टिवाद के एक अंश- परिकर्म के अन्तर्गत क्रियाओं का ग्रन्थ था अत: इसके कुछ प्राचीन पाठ तो भगवान् महावीर माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ भी दृष्टिवाद के पूर्ण विच्छेद एवं सम्प्रदाय- के समकालिक ही माने जा सकते हैं। चूँकि दशवैकालिक, उत्तराध्ययन भेद के पूर्व का ही होना चाहिये। और आवश्यक के सामायिक आदि विभाग दिगम्बर और यापनीय परम्परा छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार को स्पष्टतः भद्रबाहु में भी मान्य रहे हैं, अत: इनकी प्राचीनता असंदिग्ध है। प्रथम की रचना माना गया है। अत: इसका काल ई.पू. चतुर्थ-तृतीय प्रकीर्णक साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में है। शताब्दी के बाद का भी नहीं हो सकता है। ये सभी ग्रन्थ अचेल परम्परा अत: ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन हैं ही, इसमें सन्देह नहीं किया में भी मान्य रहे हैं। इसी प्रकार निशीथ भी अपने मूल रूप में तो जा सकता। पुन: आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि आदि आचाराङ्ग की ही एक चूला रहा है, बाद में उसे पृथक् किया गया प्रकीर्णकों की सैंकड़ों गाथाएँ यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवतीआराधना है। अत: इसकी प्राचीनता में भी सन्देह नहीं किया जा सकता। याकोबी, में पायी जाती हैं, मूलाचार एवं भगवतीआराधना भी छठी शती से शुबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने एकमत से छेदसूत्रों की प्राचीनता परवर्ती नहीं हैं। अत: इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई.सन की चौथी-पाँचवीं स्वीकार की है। इस वर्ग में मात्र जीतकल्प ही ऐसा ग्रन्थ है जो निश्चित शती के परवर्ती नहीं माना जा सकता। यद्यपि वीरभद्र द्वारा रचित कुछ ही परवर्ती है। पं०दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह आचार्य प्रकीर्णक नवीं-दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इसी प्रकार चलिकास्त्रों जिनभद्र की कृति है। ये जिनभद्र विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता हैं। इनका के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ काल अनेक प्रमाणों से ई.सन् की सातवीं शती निश्चित है। अतः विद्वानों ने आर्यरक्षित के समय का माना है। अत: वह ई.सन् की जीतकल्प का भी काल वही होना चाहिये। मेरी दृष्टि में पं. दलसुखभाई __प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए। नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवर्धि की यह मान्यता निरापद नहीं है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इन्द्रनन्दि से पूर्ववर्ती हैं अत: उनका काल भी पाँचवीं शताब्दी से परवर्ती नहीं के छेदपिण्डशास्त्र में जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त देने का विधान हो सकता। किया गया है, इससे फलित होता है कि यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध आगमों में प्रक्षेपों को छोड़कर सम्प्रदाय-भेद से पूर्व की रचना होनी चाहिये। हो सकता है इसके कर्ता अधिकांश ग्रन्थ तो ई.पू. के हैं। यह तो एक सामान्य चर्चा हुई, अभी जिनभद्र विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र से भिन्न हों और उनके पूर्ववर्ती इन ग्रन्थों में से प्रत्येक के काल-निर्धारण के लिए स्वतन्त्र और सम्प्रदाय भी हों। किन्तु इतना निश्चित है कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। आशा है जैन आगमों की सूची मिलती है उसमें जीतकल्प का नाम नहीं है। अतः विद्वानों की भावी पीढ़ी इस दिशा में कार्य करेगी। यह उसके बाद की ही रचना होगी। इसका काल भी ई.सन् की पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिये। इसकी दिगम्बर और यापनीय परम्परा आगमों की वाचनाएँ में मान्यता तभी सम्भव हो सकती है जब यह स्पष्ट रूप से संघभेद यह सत्य है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी के पूर्व निर्मित हुआ हो। स्पष्ट संघ-भेद पाँचवीं शती के उत्तरार्ध में आगमों के अन्तिम स्वरूप का निर्धारण वलभी वाचना में वी.न.संवत् अस्तित्व में आया है। छेद वर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र 980 या 993 में हुआ किन्तु उसके पूर्व भी आगमों की वाचनाएँ ने किया था, यह सुनिश्चित है। आचार्य हरिभद्र का काल ई.सन् की तो होती रही हैं। जो ऐतिहासिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार आठवीं शती माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही निर्मित अर्धमागधी आगमों की पाँच वाचनाएँ होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। हुआ होगा। हरिभद्र इसके उद्धारक अवश्य हैं, किन्तु रचयिता नहीं। मात्र इतना माना जा सकता है कि उन्होंने इसके त्रुटित भाग की रचना प्रथम वाचना की हो। इस प्रकार इसका काल भी आठवीं शती से पूर्व का ही है। प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् हुई। मूलसूत्रों के वर्ग में दशवकालिक को आर्य शय्यंभव की कृति परम्परागत मान्यता तो यह है कि मध्यदेश में द्वादशवर्षीय भीषण अकाल माना जाता है। इनका काल महावीर के निर्वाण के 75 वर्ष बाद का के कारण कुछ मुनि काल-कवलित हो गये और कुछ समुद्र के तटवर्ती है। अत: यह ग्रन्थ ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन प्रदेशों की ओर चले गये। अकाल की समाप्ति पर वे मुनिगण वापस यद्यपि एक सङ्कलन है, किन्तु इसकी प्राचीनता में कोई शंका नहीं लौटे तो उन्होंने यह पाया कि उनका आगम-ज्ञान अंशत: विस्मृत एवं है। इसकी भाषा-शैली तथा विषय-वस्तु के आधार पर विद्वानों ने इसे विशृङ्खलित हो गया है और कहीं-कहीं पाठभेद हो गया है। अत: उस ई.पू. चौथी-तीसरी शती का ग्रन्थ माना है। मेरी दृष्टि में यह पूर्व युग के प्रमुख आचार्यों ने पाटलीपुत्र में एकत्रित होकर आगमज्ञान को प्रश्नव्याकरण का ही एक विभाग था। इसकी अनेक गाथाएँ तथा कथानक व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य का कोई पालित्रिपिटक साहित्य, महाभारत आदि में यथावत् मिलते हैं। दशवैकालिक विशिष्ट ज्ञाता वहाँ उपस्थित नहीं था। अत: ग्यारह अङ्ग तो व्यवस्थित और उत्तराध्ययन यापनीय और दिगम्बर परम्परा में मान्य रहे हैं, अत: ये किये गये, किन्तु दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्निहित साहित्य को व्यवस्थित
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________________ 12 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ नहीं किया जा सका, क्योंकि उसके विशिष्ट ज्ञाता भद्रबाहु उस समय उत्तर, पूर्व और मध्य क्षेत्र में विचरण करने वाला मुनि संघ मथुरा नेपाल में थे। संघ की विशेष प्रार्थना पर उन्होंने स्थूलिभद्र आदि कुछ में एकत्रित हुआ, उसी समय दक्षिण-पश्चिम में विचरण करने वाला मुनियों को पूर्व साहित्य की वाचना देना स्वीकार किया। स्थूलिभद्र मुनि संघ वल्लभी (सौराष्ट्र) में आर्य नागार्जुन के नेतृत्व में एकत्रित भी उनसे दस पूर्वो तक का ही अध्ययन अर्थ सहित कर सके और हुआ। इसे नागार्जुनीय वाचना भी कहते हैं। शेष चार पूर्वो का मात्र शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर पाये। आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी इस प्रकार पाटलीपुत्र की वाचना में द्वादश अङ्गों को सुव्यवस्थित वाचना समकालिक हैं। नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल और करने का प्रयत्न अवश्य किया गया, किन्तु उनमें एकादश अङ्ग ही नागार्जुन के मध्य आर्य हिमवन्त का उल्लेख है। इससे यह फलित सुव्यवस्थित किये जा सके। दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्भुक्त पूर्व साहित्य होता है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन समकालिक ही रहे होंगे। को पूर्णत: सुरक्षित नहीं किया जा सका और उसका क्रमश: विलोप नन्दी स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल के सन्दर्भ में यह कहा गया है होना प्रारम्भ हो गया। फलत: उसकी विषय-वस्तु को लेकर अङ्गबाह्य कि उनका अनुयोग आज भी दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में प्रचलित है। इसका ग्रन्थ निर्मित किये जाने लगे। एक तात्पर्य यह भी हो सकता है कि उनके द्वारा सम्पादित आगम दक्षिण भारत में प्रचलित थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता द्वितीय वाचना है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के विभाजन के फलस्वरूप जिस आगमों की द्वितीय वाचना ई.पू. द्वितीय शताब्दी में महावीर यापनीय सम्प्रदाय का विकास हुआ था उसमें आर्य स्कन्दिल के द्वारा के निर्वाण के लगभग 300 वर्ष पश्चात् उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर सम्पादित आगम ही मान्य किये जाते थे और इस यापनीय सम्प्रदाय सम्राट् खारवेल के काल में हुई थी। इस वाचना के सन्दर्भ में विशेष का प्रभाव क्षेत्र मध्य और दक्षिण भारत था। आचार्य पाल्यकीर्ति जानकारी प्राप्त नहीं होती है- मात्र यही ज्ञात होता है कि इसमें श्रुत शाकटायन ने तो स्त्री-निर्वाण प्रकरण में स्पष्ट रूप से मथुरागम का के संरक्षण का प्रयत्न हुआ था। वस्तुत: उस युग में आगमों के उल्लेख किया है। अत: यह स्पष्ट है कि यापनीय सम्प्रदाय जिन आगमों अध्ययन-अध्यापन की परम्परा गुरु-शिष्य के माध्यम से मौखिक रूप को मान्य करता था, वे माथुरी वाचना के आगम थे। मूलाचार, भगवतीमें ही चलती थी। अत: देशकालगत प्रभावों तथा विस्मृति-दोष के आराधना आदि यापनीय आगमों में वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य आचाराङ्ग, कारण उसमें स्वाभाविक रूप से भिन्नता आ जाती थी। अत: वाचनाओं उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, संग्रहणीसूत्रों, नियुक्तियों के माध्यम से उनके भाषायी स्वरूप तथा पाठभेद को सुव्यवस्थित किया आदि की सैकड़ों गाथाएँ आज भी उपलब्ध हो रही हैं। इससे यही जाता था। कालक्रम में जो स्थविरों के द्वारा नवीन ग्रन्थों की रचना फलित होता है कि यापनीयों के पास माथुरी वाचना के आगम थे। होती थी, उस पर भी विचार करके उन्हें इन्हीं वाचनाओं में मान्यता हम यह भी पाते हैं कि यापनीय ग्रन्थों में जो आगमों की गाथाएँ मिलती प्रदान की जाती थी। इसी प्रकार परिस्थितिवश आचार-नियमों में एवं हैं वे न तो अर्धमागधी में हैं, न महाराष्ट्री प्राकृत में, अपितु वे शौरसेनी उनके आगमिक सन्दर्भो की व्याख्या में जो अन्तर आ जाता था, उसका में हैं। मात्र यही नहीं अपराजित की भगवतीआराधना की टीका में निराकरण भी इन्हीं वाचनाओं में किया जाता था। खण्डगिरि पर हुई आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, निशीथ आदि से जो अनेक अवतरण इस द्वितीय वाचना में ऐसे किन विवादों का समाधान खोजा गया था- दिये हैं वे सभी अर्धमागधी में न होकर शौरसेनी में हैं। इसकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इससे यह फलित होता है कि स्कंदिल की अध्यक्षता वाली माथुरी वाचना में आगमों की अर्धमागधी भाषा पर शौरसेनी का प्रभाव आ तृतीय वाचना गया था। दूसरे माथुरी वाचना के आगमों के जो भी पाठ भगवतीआराधना आगमों की तृतीय वाचना वी.नि.संवत् 827 अर्थात् ई.सन् की टीका आदि में उपलब्ध होते हैं, उनमें वल्लभी वाचना के वर्तमान की तीसरी शताब्दी में मथुरा में आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में हुई। इसलिए आगमों से पाठभेद भी देखा जाता है। साथ ही अचेलकत्व की समर्थक इसे माथुरी वाचना या स्कन्दिली वाचना के नाम से भी जाना जाता है। कुछ गाथाएँ और गद्यांश भी पाये जाते हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में माथुरी वाचना के सन्दर्भ में दो प्रकार की मान्यताएँ नन्दीचूर्णि में हैं। प्रथम अनुयोगद्वारसूत्र, प्रकीर्णकों, नियुक्ति आदि की कुछ गाथाएँ क्वचित् मान्यता के अनुसार सुकाल होने के पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता पाठभेद के साथ मिलती हैं- सम्भवतः उन्होंने ये गाथाएँ यापनीयों में शेष रहे मुनियों की स्मृति के आधार पर कालिकसूत्रों को सुव्यवस्थित के माथुरी वाचना के आगमों से ही ली होगी। किया गया है। अन्य कुछ का मन्तव्य यह है कि इस काल में सूत्र एक ही समय में आर्य स्कन्दिल द्वारा मथुरा में और नागार्जुन नष्ट नहीं हुआ था किन्तु अनुयोगधर स्वर्गवासी हो गये थे। अत: एक द्वारा वल्लभी में वाचना किये जाने की एक सम्भावना यह भी हो सकती मात्र जीवित स्कन्दिल ने अनुयोगों का पुनः प्रवर्तन किया। है कि दोनों में किन्हीं बातों को लेकर मतभेद थे। सम्भव है कि इन मतभेदों में वस्त्र-पात्र आदि सम्बन्धी प्रश्न भी रहे हों। पं. कैलाशचन्द्रजी चतुर्थ वाचना ने जैन साहित्य का इतिहास- पूर्व पीठिका (पृ. 500) में माथुरी चतुर्थ वाचना तृतीय वाचना के समकालीन ही है। जिस समय वाचना की समकालीन वल्लभी वाचना के प्रमुख रूप में देवर्धिगणि
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श 13 का उल्लेख किया है, यह उनकी भ्रान्ति है। वास्तविकता तो यह है की वाचना के समय द्वादश अङ्गों को ही व्यवस्थित करने का प्रयत्न कि माथुरी वाचना का नेतृत्व आर्य स्कन्दिल और वल्लभी की हुआ था। उसमें एकादश अङ्ग सुव्यवस्थित हुए और बारहवें दृष्टिवाद, प्रथम वाचना का नेतृत्व आर्य नागार्जुन कर रहे थे और ये दोनों जिसमें अन्य दर्शन एवं महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा का साहित्य समकालिक थे, यह बात हम नन्दीसूत्र के प्रमाण से पूर्व में ही कह समाहित था, इसका सङ्कलन नहीं किया जा सका। इसी सन्दर्भ में चुके हैं। यह स्पष्ट है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन की वाचना स्थूलिभद्र के द्वारा भद्रबाहु के सानिध्य में नेपाल जाकर चतुर्दश पूर्वो में मतभेद था। के अध्ययन की बात कही जाती है। किन्तु स्थूलिभद्र भी मात्र दस पं०कैलाशचन्द्रजी ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि वल्लभी वाचना पूर्वो का ही ज्ञान अर्थ सहित ग्रहण कर सके, शेष चार पूर्वो का केवल नागार्जुन की थी तो देवर्धि ने वल्लभी में क्या किया? साथ ही उन्होंने शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर सके। इसका फलितार्थ यही है कि पाटलीपुत्र यह भी कल्पना कर ली कि वादिवेतालशान्तिसूरि वल्लभी की वाचना की वाचना में एकादश अङ्गों का ही सङ्कलन और सम्पादन हुआ था। में नागार्जुनीयों का पक्ष उपस्थित करने वाले आचार्य थे। हमारा यह किसी भी चतुर्दश पूर्वविद् की उपस्थिति नहीं होने से दृष्टिवाद के दुर्भाग्य है कि दिगम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बर साहित्य का समग्र एवं सङ्कलन एवं सम्पादन का कार्य नहीं किया जा सका। निष्पक्ष अध्ययन किये बिना मात्र यत्र-तत्र उद्धृत या अंशत: पठित उपाङ्ग साहित्य के अनेक ग्रन्थ जैसे प्रज्ञापना आदि, छेदसूत्रों अंशों के आधार पर अनेक भ्रान्तियाँ खड़ी कर दी। इसके प्रमाण के में आचारदशा, कल्प, व्यवहार आदि तथा चूलिकासूत्रों में नन्दी, रूप में उनके द्वारा उद्धृत मूल गाथा में ऐसा कहीं कोई उल्लेख ही अनुयोगद्वार आदि- ये सभी परवर्ती कृति होने से इस वाचना में नहीं है कि शान्तिसूरि वल्लभी वाचना के समकालिक थे। यदि हम सम्मिलित नहीं किये गये होंगे। यद्यपि आवश्यक, दशवैकालिक, आगमिक व्याख्याओं को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि अनेक वर्षों उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ पाटलीपुत्र की वाचना के पूर्व के हैं, किन्तु तक नागार्जुनीय और देवर्धि की वाचनाएँ साथ-साथ चलती रही हैं, इस वाचना में इनका क्या किया गया, यह जानकारी प्राप्त नहीं है। क्योकि इनके पाठान्तरों का उल्लेख मूल ग्रन्थों में कम और टीकाओं हो सकता है कि सभी साधु-साध्वियों के लिये इनका स्वाध्याय आवश्यक में अधिक हुआ है। होने के कारण इनके विस्मृत होने का प्रश्न ही न उठा हो। पाटलीपुत्र वाचना के बाद दूसरी वाचना उड़ीसा के कुमारी पर्वत पञ्चम वाचना (खण्डगिरि) पर खारवेल के राज्य काल में हई थी। इस वाचना के वी.नि. के 980 वर्ष पश्चात् ई. सन् की पाँचवीं शती के उत्तरार्द्ध सम्बन्ध में मात्र इतना ही ज्ञात है कि इसमें भी श्रुत को सुव्यवस्थित में आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी करने का प्रयत्न किया गया था। सम्भव है कि इस वाचना में ई.पू. वाचना के लगभग 150 वर्ष पश्चात् देवर्धिगणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता प्रथम शती से पूर्व रचित ग्रन्थों के सङ्कलन और सम्पादन का कोई में पुन: वल्लभी में एक वाचना हुई। इस वाचना में मुख्यत: आगमों प्रयत्न किया गया हो। को पुस्तकारुढ़ करने का कार्य किया गया। ऐसा लगता है कि इस जहाँ तक माथुरी वाचना का प्रश्न है, इतना तो निश्चित है कि वाचना में माथुरी और नागार्जुनीय दोनों वाचनाओं को समन्वित किया उसमें ई.सन् की चौथी शती तक के रचित सभी ग्रन्थों के सङ्कलन गया है और जहाँ मतभेद परिलक्षित हुआ वहाँ “नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' एवं सम्पादन का प्रयत्न किया गया होगा। इस वाचना के कार्य के ऐसा लिखकर नागार्जुनीय पाठ को भी सम्मिलित किया गया है। सन्दर्भ में जो सूचना मिलती है, उसमें इस वाचना में कालिकसूत्रों प्रत्येक वाचना के सन्दर्भ में प्राय: यह कहा जाता है कि मध्यदेश को व्यवस्थित करने का निर्देश है। नन्दिसूत्र में कालिकसूत्र को अङ्गबाह्य, में द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रमणसंघ समुद्रतटीय प्रदेशों की आवश्यक व्यतिरिक्त सूत्रों का ही एक भाग बताया गया है। कालिकसूत्रों ओर चला गया और वृद्ध मुनि, जो इस अकाल में लम्बी यात्रा न के अन्तर्गत उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, कर सके कालगत हो गये। सुकाल होने पर जब मुनिसंघ लौटकर निशीथ तथा वर्तमान में उपाङ्ग के नाम से अभिहित अनेक ग्रन्थ आते आया तो उसने यह पाया कि इनके श्रुतज्ञान में विस्मृति और विसंगति हैं। हो सकता है कि अङ्ग सूत्रों की जो पाटलीपुत्र की वाचना चली आ गयी है। प्रत्येक वाचना से पूर्व अकाल की यह कहानी मुझे बुद्धिगम्य / आ रही थी वह मथुरा में मान्य रही हो, किन्तु उपाङ्गों में से कुछ नहीं लगती है। मेरी दृष्टि में प्रथम वाचना में श्रमण संघ के विशृङ्खलित को तथा कल्प आदि छेदसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया हो। किन्तु होने का कारण अकाल की अपेक्षा मगध राज्य में युद्ध से उत्पन्न अशांति यापनीय ग्रन्थों की टीकाओं में जो माथुरी वाचना के आगमों के उद्धरण और अराजकता ही थी क्योंकि उस समय नन्दों के अत्याचारों एवं मिलते हैं, उन पर जो शौरसेनी का प्रभाव दिखता है, उससे ऐसा चन्द्रगुप्त मौर्य के आक्रमण के कारण मगध में अशांति थी। उसी के लगता है कि माथुरी वाचना में न केवल कालिक सूत्रों का अपितु फलस्वरूप श्रमण संघ सुदूर समुद्रीतट की ओर या नेपाल आदि पर्वतीय उस काल तक रचित सभी ग्रन्थों के सङ्कलन का काम किया गया क्षेत्र की ओर चला गया था। भद्रबाहु की नेपाल यात्रा का भी सम्भवत: था। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना अचेलता की पोषक यापनीय यही कारण रहा होगा। परम्परा में भी मान्य रही है। यापनीय ग्रन्थों की व्याख्याओं एवं टीकाओं __ जो भी उपलब्ध साक्ष्य हैं उनसे यह फलित होता है कि पाटलिपुत्र में इस वाचना के आगमों के अवतरण तथा इन आगमों के प्रामाण्य
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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ के उल्लेख मिलते हैं। आर्य शाकटायन ने अपनी स्त्री-निर्वाण प्रकरण का ही उल्लेख मिलता है। प्राचीन ग्रन्थों में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस एवं अपने व्याकरण की स्वोपज्ञटीका में न केवल मथुरा आगम का वर्गों का कहीं कोई निर्देश नहीं है। उल्लेख किया है, अपितु उनकी अनेक मान्यताओं का निर्देश भी किया इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा है तथा अनेक अवतरण भी दिये हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना पर के सन्दर्भ में स्थानाङ्ग में जो दस-दस अध्ययन होने की सूचना है अपराजित की टीका में भी आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, निशीथ के अवतरण उसके स्थान पर इनमें भी जो वर्गों की व्यवस्था की गई वह देवर्धि भी पाये जाते हैं, यह हम पूर्व में कह चुके हैं। की ही देन है। उन्होंने इनके विलुप्त अध्यायों के स्थान पर अनुश्रुति से आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना वस्तुत: उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ प्राप्त सामग्री जोड़कर इन ग्रन्थों को नये सिरे से व्यवस्थित किया था। संघ के सचेल-अचेल दोनों पक्षों के लिये मान्य थी और उसमें दोनों यह एक सुनिश्चित सत्य है कि आज प्रश्नव्याकरण की आस्रव-संवर ही पक्षों के सम्पोषक साक्ष्य उपस्थित थे। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक द्वार सम्बन्धी जो विषय-वस्तु उपलब्ध है वह किसके द्वारा सङ्कलित रूप से उठता है कि यदि माथुरी वाचना उभय पक्षों को मान्य थी व सम्पादित है यह निर्णय करना कठिन कार्य है, किन्तु यदि हम तो फिर उसी समय नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में वाचना करने यह मानते हैं कि नन्दीसूत्र के रचयिता देवर्धि न होकर देव वाचक की क्या आवश्यकता थी। मेरी मान्यता है कि अनेक प्रश्नों पर स्कंदिल ___हैं, जो देवर्धि से पूर्व के हैं तो यह कल्पना भी की जा सकती है और नागार्जुन में मतभेद रहा होगा। इसी कारण से नागार्जुन को स्वतन्त्र कि देवर्धि ने आस्रव व संवर द्वार सम्बन्धी विषय-वस्तु को लेकर वाचना करने की आवश्यकता पड़ी। प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषय-वस्तु का जो विच्छेद हो गया था, उसकी इस समस्त चर्चा से पं. कैलाशचन्द्रजी के इस प्रश्न का उत्तर पूर्ति की होगी। इस प्रकार ज्ञाताधर्म से लेकर विपाकसूत्र तक के छ: भी मिल जाता है कि वल्लभी की दूसरी वाचना में क्या किया गया? अङ्ग आगमों में जो आंशिक या सम्पूर्ण परिवर्तन हुए हैं, वे देवर्धि एक ओर मुनि श्री कल्याणविजयजी की मान्यता यह है कि वल्लभी के द्वारा ही किये हुए माने जा सकते हैं। यद्यपि यह परिवर्तन उन्होंने में आगमों को मात्र पुस्तकारुढ़ किया गया तो दूसरी ओर पं.कैलाशचन्द्रजी किसी पूर्व परम्परा या अनुश्रुति के आधार पर ही किया होगा यह यह मानते हैं कि वल्लभी में आगमों को नये सिरे से लिखा गया, विश्वास किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त देवर्धि ने एक यह महत्त्वपूर्ण किन्तु ये दोनों ही मत मुझे एकाङ्गी प्रतीत होते हैं। यह सत्य है कि कार्य भी किया कि जहाँ अनेक आगमों में एक ही विषय-वस्तु का वल्लभी में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया, अपितु उन्हें विस्तृत विवरण था वहाँ उन्होंने एक स्थल पर विस्तृत विवरण रखकर सङ्कलित एवं सम्पादित भी किया गया किन्तु यह सङ्कलन एवं सम्पादन अन्यत्र उस ग्रन्थ का निर्देश कर दिया। हम देखते हैं कि भगवती आदि निराधार नहीं था। न तो दिगम्बर परम्परा का यह कहना उचित है कुछ प्राचीन स्तरों के आगमों में भी, उन्होंने प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार कि वल्लभी में श्वेताम्बरों ने अपनी मान्यता के अनुरूप आगमों को जैसे परवर्ती आगमों का निर्देश करके आगमों में विषय-वस्तु के नये सिरे से रच डाला और न यह कहना ही समुचित होगा कि वल्लभी पुनरावर्तन को कम किया। इसी प्रकार जब एक ही आगम में कोई में जो आगम सङ्कलित किये गये वे अक्षुण्ण रूप से वैसे ही थे जैसे- विवरण बार-बार आ रहा था तो उस विवरण के प्रथम शब्द के बाद पाटलीपुत्र आदि की पूर्व वाचनाओं में उन्हें सङ्कलित किया गया था। 'जाव' शब्द रखकर अन्तिम शब्द का उल्लेख कर उसे संक्षिप्त बना यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु के साथ-साथ अनेक आगम दिया। इसके साथ ही उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जो यद्यपि ग्रन्थ भी कालक्रम में विलुप्त हुए हैं। वर्तमान आगमों का यदि सम्यक् परवर्तीकाल की थीं, उन्हें भी आगमों में दे दिया जैसे स्थानाङ्गसूत्र प्रकार से विश्लेषण किया जाय तो इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। में सात निह्नवों और सात गणों का उल्लेख। इस प्रकार वल्लभी की आज आचाराङ्ग का सातवाँ अध्ययन विलुप्त है। इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारुढ़ किया गया, अपितु उनकी अनुत्तरौपपातिक व विपाकदशा के भी अनेक अध्याय आज अनुपलब्ध विषय-वस्तु को सुव्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया। सम्भव हैं। नन्दीसूत्र की सूची के अनेक आगम ग्रन्थ आज अनुपलब्ध हैं। है कि इस सन्दर्भ में प्रक्षेप और विलोपन भी हुआ होगा, किन्तु यह इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हमने आगमों के विच्छेद की चर्चा के सभी अनुश्रुति या परम्परा के आधार पर किया गया था अन्यथा आगमों प्रसङ्ग में की है। ज्ञातव्य है कि देवर्धि की वल्लभी वाचना में न केवल को मान्यता न मिलती। आगमों को पुस्तकारुढ़ किया गया है, अपितु उन्हें सम्पादित भी किया सामान्यतया यह माना जाता है कि वाचनाओं में केवल अनुश्रुति गया है। इस सम्पादन के कार्य में उन्होंने आगमों की अवशिष्ट उपलब्ध से प्राप्त आगमों को ही सङ्कलित किया जाता था, किन्तु मेरी दृष्टि विषय-वस्तु को अपने ढङ्ग से पुन: वर्गीकृत भी किया था और परम्परा में वाचनाओं में न केवल आगम पाठों को सम्पादित एवं सङ्कलित या अनुश्रुति से प्राप्त आगमों के वे अंश जो उनके पूर्व की वाचनाओं किया जाता था, अपितु उनमें नवनिर्मित ग्रन्थों को मान्यता भी प्रदान में समाहित नहीं थे, उन्हें समाहित भी किया। उदाहरण के रूप में की जाती थी और जो आचार और विचार सम्बन्धी मतभेद होते थे ज्ञाताधर्मकथा में सम्पूर्ण द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्ग और अध्ययन उन्हें समन्वित या निराकृत भी किया जाता था। इसके अतिरिक्त इन इसी वाचना में समाहित किये गये हैं, क्योकि श्वेताम्बर, यापनीय एवं वाचनाओं में वाचना स्थलों की अपेक्षा से आगमों के भाषिक स्वरूप दिगम्बर परम्परा के प्रतिक्रमणसूत्र एवं अन्यत्र उसके उन्नीस अध्ययनों में भी परिवर्तन हुआ है।
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श 15 उदाहरण के रूप में आगम पटना अथवा उड़ीसा के कुमारी पर्वत हो। फिर भी देवर्धि को जो आगम परम्परा से प्राप्त थे, उनका और (खण्डगिरि) में सुव्यवस्थित किये गये थे, उनकी भाषा अर्धमागधी माथुरी वाचना के आगमों का मूलस्रोत तो एक ही था। हो सकता ही रही, किन्तु जब वे आगम मथुरा और वल्लभी में पुन: सम्पादित है कि कालक्रम में भाषा एवं विषय-वस्तु की अपेक्षा दोनों में क्वचित् किये गये तो उनमें भाषिक परिवर्तन आ गये। माथुरी वाचना में जो अन्तर आ गये हों। अत: यह दृष्टिकोण भी समुचित नहीं होगा कि आगमों का स्वरूप तय हुआ था, उस पर व्यापक रूप से शौरसेनी देवर्धि की वल्लभी वाचना के आगम माथुरी वाचना के आगमों से का प्रभाव आ गया था। दुर्भाग्य से आज हमें माथरी वाचना के आगम नितान्त भिन्न थे। उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु इन आगमों के जो उद्धृत अंश उत्तर भारत की अचेल धारा यापनीय-संघ के ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में यापनीयों के आगम उद्धृत मिलते हैं, उनमें हम यह पाते हैं कि भावगत समानता के होते यापनीय संघ के आचार्य आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, हुए भी शब्द-रूपों और भाषिक स्वरूप में भिन्नता है। आचाराङ्ग दशवकालिक, कल्प, निशीथ, व्यवहार, आवश्यक आदि आगमों को उत्तराध्ययन, निशीथ, कल्प, व्यवहार आदि से जो अंश भगवतीआराधना मान्य करते थे। इस प्रकार आगमों के विच्छेद होने की जो दिगम्बर की टीका में उद्धृत हैं वे अपने भाषिक स्वरूप और पाठभेद की अपेक्षा मान्यता है, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यापनीय आचार्यों द्वारा निर्मित से वल्लभी के आगमों से किञ्चित् भिन्न हैं। किसी भी ग्रन्थ में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि अङ्गादि-आगम __अत: इन वाचनाओं के कारण आगमों में न केवल भाषिक परिवर्तन विच्छिन्न हो गये हैं। वे आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, दशवैकालिक, हुए, अपितु पाठान्तर भी अस्तित्व में आये हैं। वल्लभी की अन्तिम उत्तराध्ययन, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, कल्प आदि को अपनी वाचना में वल्लभी की ही नागार्जुनीय वाचना के पाठान्तर तो लिये परम्परा के ग्रन्थों के रूप में उद्धृत करते थे। इस सम्बन्ध में आदरणीय गये, किन्तु माथुरी वाचना के पाठान्तर समाहित नहीं हैं। यद्यपि कुछ पं.नाथूराम प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 91) का यह कथन विद्वानों की मान्यता है कि वल्लभी की देवर्धि वाचना का आधार माथुरी द्रष्टव्य है- “अक्सर ग्रन्थकार किसी मत का खण्डन करने के लिए वाचना के आगम थे और यही कारण था कि उन्होंने नागार्जुनीय वाचना उसी मत के ग्रन्थों का हवाला दिया करते हैं और अपने सिद्धान्त के पाठान्तर दिये हैं। किन्तु मेरा मन्तव्य इससे भिन्न है। मेरी दृष्टि को पुष्ट करते हैं। परन्तु इस टीका (अर्थात् भगवती-आराधना की में उनकी वाचना का आधार भी परम्परा से प्राप्त नागार्जुनीय वाचना विजयोदया टीका) में ऐसा नहीं है, इसमें तो टीकाकार ने अपने ही के पूर्व के आगम रहे होंगे, किन्तु जहाँ उन्हें अपनी परम्परागत वाचना आगमों का हवाला देकर अचेलता सिद्ध की है।" / का नागार्जुनीय वाचना से मतभेद दिखायी दिया, वहाँ उन्होंने नागार्जुनीय आगमों के अस्तित्व को स्वीकार कर उनके अध्ययन और स्वाध्याय वाचना का उल्लेख कर दिया, क्योंकि माथुरी वाचना स्पष्टत: शौरसेनी सम्बन्धी निर्देश भी यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में स्पष्ट रूप से उपलब्ध से प्रभावित थी, दूसरे उस वाचना के आगमों के जो भी अवतरण होते हैं। मूलाचार (5/80-82) में चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का आज मिलते हैं उनमें कुछ वर्तमान आगमों की वाचना से मेल नहीं उल्लेख है- 1 गणधर कथित, 2. प्रत्येकबुद्ध कथित, 3. श्रुतकेवलि खाते हैं। उनसे यही फलित होता है कि देवर्धि की वाचना का आधार कथित और 4. अभिन्न दशपूर्वी कथित। स्कंदिल की वाचना तो नहीं रही है। तीसरे माथुरी वाचना के अवतरण इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि संयमी पुरुषों एवं स्त्रियों आज यापनीय ग्रन्थों में मिलते हैं, उनसे इतना तो फलित होता है अर्थात् मुनियों एवं आर्यिकाओं के लिए अस्वाध्यायकाल में इनका कि माथी वाचना के आगमों में भी वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एवं स्त्री की स्वाध्याय करना वर्जित है, किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे ग्रन्थ तद्भव मुक्ति के उल्लेख तो थे, किन्तु उनमें अचेलता को उत्सर्ग मार्ग हैं जिनका अस्वाध्यायकाल में पाठ किया जा सकता है, जैसे---आराधना माना गया था। यापनीय ग्रन्थों में उद्धृत, अचेलपक्ष के सम्पोषक कुछ (भगवती आराधना या आराधनापताका), नियुक्ति , मरणविभक्ति, संग्रह अवतरण तो वर्तमान वल्लभी वाचना के आगमों यथा आचाराङ्ग के (पंचसंग्रह या संग्रहणीसूत्र), स्तुति (देविंदत्थु), प्रत्याख्यान (आउरपच्चक्खाण प्रथम श्रुतस्कन्ध आदि में मिलते हैं, किन्तु कुछ अवतरण वर्तमान एवं महापच्चक्खाण), धर्मकथा (ज्ञाताधर्मकथा) तथा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ। वाचना में नहीं मिलते हैं। अतः माथुरी वाचना के पाठान्तर वल्लभी यहाँ पर चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का जो उल्लेख हुआ है, की देवर्धि की वाचना में समाहित नहीं हुए हैं, इसकी पुष्टि होती है। उस पर थोड़ी विस्तृत चर्चा अपेक्षित है, क्योंकि मूलाचार की मूलगाया मुझे ऐसा लगता है कि वल्लभी की देवर्धि की वाचना का आधार में मात्र इन चार प्रकार के सूत्रों का उल्लेख हुआ है। उसमें इन ग्रन्थों माथुरी वाचना के आगम न होकर उनकी अपनी ही गुरु-परम्परा से का नाम निर्देश नहीं है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि न तो यापनीय प्राप्त आगम रहे होंगे। मेरी दृष्टि में उन्होंने नागार्जुनीय वाचना के ही परम्परा से सम्बद्ध थे और न उनके सम्मुख ये ग्रन्थ ही थे। अत: पाठान्तर अपनी वाचना में समाहित किये- क्योंकि दोनों में भाषा इस प्रसंग में उनकी प्रत्येक-बुद्धकथित की व्याख्या पूर्णतः भ्रान्त ही एवं विषय-वस्तु दोनों ही दृष्टि से कम ही अन्तर था। माथुरी वाचना है। मात्र यही नहीं, अगली गाथा की टीका में उन्होंने "थुदि" के आगम या तो उन्हें उपलब्ध ही नहीं थे अथवा भाषा एवं विषय-वस्तु / "पच्चक्खाण" एवं "धम्मकहा" को जिन ग्रन्थों से समीकृत किया दोनों की अपेक्षा भिन्नता अधिक होने से उन्होंने उसे आधार न बनाया है वह तो और भी अधिक भ्रामक है। आश्चर्य है कि वे "थुदि" से
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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ देवागमस्तोत्र और परमेष्ठिस्तोत्र को समीकृत करते हैं, जबकि मूलाचार आगमों को मानता था। इस संघ के आचार्य अपराजितसूरि की संस्कृत का मन्तव्य अन्य ही है। जहाँ तक गणधरकथित ग्रन्थों का प्रश्न है टीका भगवती आराधना नामक प्राचीन ग्रन्थ पर है, जो मुद्रित भी वहाँ लेखक का तात्पर्य आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अंग ग्रन्थों से है, हो चुकी है। उसमें नग्नता के समर्थन में अपराजितसूरि ने आगम-ग्रन्थों प्रत्येकबुद्धकथित ग्रन्थों से तात्पर्य प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित से अनेक उद्धरण दिये हैं, जिनमें से अनेक उद्धरण वर्तमान आगमों आदि से है, क्योंकि ये ग्रन्थ प्रत्येकबुद्धकथित माने जाते हैं। ये ग्रन्थ में नहीं मिलते। आदरणीय पंडितजी ने यहाँ जो “अनेक" शब्द का प्रत्येकबुद्धकथित हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख भी समवायांग, उत्तराध्ययननियुक्ति प्रयोग किया है वह भ्रान्ति उत्पन्न करता है। मैंने अपराजितसूरि की आदि में है। श्रुतकेवलिकथित ग्रन्थों से तात्पर्य आचार्य शय्यम्भवरचित टीका में उद्धृत आगमिक सन्दर्भो की श्वेताम्बर आगमों से तुलना करने दशवैकालिक, आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) रचित बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध पर स्पष्ट रूप से यह पाया है कि लगभग 90 प्रतिशत सन्दर्भो में (आयारदसा), व्यवहार आदि से है तथा अभिन्न दशपूर्वीकथित ग्रन्थों आगमों की अर्धमागधी प्राकृत पर शौरसेनी प्राकृत के प्रभाव के से उनका तात्पर्य कम्मपयडी आदि "पूर्व" साहित्य के ग्रन्थों से है। फलस्वरूप हुए आंशिक पाठभेद को छोड़कर कोई अन्तर नहीं है। यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि यदि यापनीय परम्परा में जहाँ किंचित् पाठभेद है वहाँ भी अर्थ-भेद नहीं है। आदरणीय पंडितजी ये ग्रन्थ विच्छिन्न माने जाते, तो फिर इनके स्वाध्याय का निर्देश लगभग ने इस ग्रन्थ में भगवती आराधना की विजयोदया टीका (पृ० ३२०ईसा की छठी शताब्दी के ग्रन्थ मूलाचार में कैसे हो पाता। दिगम्बर 327) से एक उद्धरण दिया है, जो वर्तमान आचारांग में नहीं मिलता परम्परा के अनुसार तो वीरनिर्वाण के 683 वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा है। उनके द्वारा प्रस्तुत वह उद्धरण निम्न हैकी दूसरी शती में आचारांग धारियों की परम्परा भी समाप्त हो गई तथा चोक्तमाचाराने-सुदं *आउस्सत्तो* भगवदा एवमक्खादा थी फिर वीरनिर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् भी आचारांग आदि के इह खलु संयमाभिमुख दुविहा इत्थी पुरिसा जादा हवंति। तं जहा स्वाध्याय करने का निर्देश देने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। सव्वसमण्णगदे णो सव्वसमण्णागेद चेव। तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिणा ज्ञातव्य है कि मूलाचार की यही गाथा कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड में भी हत्थपायणीपादे सव्विंदिय समण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थ मिलती है, किन्तु कुन्दकुन्द आगमों के उपर्युक्त प्रकारों का उल्लेख धारिउं एवं परिहिउं एवं अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति। करने के पश्चात् उनकी स्वाध्याय विधि के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते निश्चय ही उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में इसी रूप में शब्दश: नहीं हैं। जबकि मूलाचार स्पष्ट रूप से उनके स्वाध्याय का निर्देश करता है, किन्तु “सव्वसमन्नागय' नामक पद और उक्त कथन का भाव है। मात्र यही नहीं मूलाचार में आगमों के अध्ययन की उपधान विधि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में आज भी सुरक्षित अर्थात् तपपूर्वक आगमों के अध्ययन करने की विधि का भी उल्लेख है। अतः इस आधार पर यह कल्पना करना अनुचित होगा कि यापनीय है। आगमों के अध्ययन की यह उपधान विधि श्वेताम्बरों में आज भी परम्परा का आचारांग, वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध आचारांग प्रचलित है। विधिमार्गप्रपा (पृ० 49-51) में इसका विस्तृत उल्लेख से भिन्न था। क्योंकि अपराजितसूरि द्वारा उद्धृत आचारांग के अन्य है। इससे यह भी स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि मूलाचार सन्दर्भ आज भी श्वेताम्बर परम्परा के इसी आचारांग में उपलब्ध हैं। आगमों को विच्छिन्न नहीं मानता था। यापनीय परम्परा में ये अंग आगम अपराजित ने आचारांग के “लोकविचय" नामक द्वितीय अध्ययन के और अंगबाह्य आगम प्रचलन में थे, इसका एक प्रमाण यह भी है पंचम उद्देशक का उल्लेखपूर्वक जो उद्धरण दिया है, वह आज भी कि नवीं शताब्दी में यापनीय आचार्य अपराजित भगवती आराधना उसी अध्याय के उसी उद्देशक में उपलब्ध है। इसी प्रकार उसमें "अहं की टीका में न केवल इन आगमों से अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते पुण एवं जाणेज्ज उपातिकते हेमंते... ठविज्ज" जो यह पाठ आचारांग हैं, अपितु स्वयं दशवैकालिक पर टीका भी लिख रहे हैं। मात्र यही से उद्धृत है- वह भी वर्तमान आचारांग के अष्टम अध्ययन के चतुर्थ, नहीं, यापनीय पर्युषण के अवसर पर कल्पसूत्र की वाचना भी करते उद्देशक में है। उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग कल्प आदि के सन्दर्भो की भी थे, ऐसा निर्देश स्वयं दिगम्बराचार्य कर रहे हैं। लगभग यही स्थिति है। अब हम उत्तराध्ययन के सन्दर्भो पर विचार करेंगे। आदरणीय पंडितजी ने जैन साहित्य की पूर्वपीठिका में अपराजित क्या यापनीय आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से भिन्न थे? की भगवतीआराधना की टीका की निम्न दो गाथाएँ उद्धृत की हैं__ इस प्रसंग में यह विचारणीय है कि यापनीयों के ये आगम कौन परिचत्तेसु वत्येसु ण पुणो चेलमादिए। से थे? क्या वे इन नामों से उपलब्ध श्वेताम्बर परम्परा के आगमों अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा। से भिन्न थे या यही थे? हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों ने यह कहने सचेलगो सुखी भवदि असुखी वा वि अचेलगो। का अतिसाहस भी किया है कि ये आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चिंतए।। से सर्वथा भिन्न थे। प० कैलाशचन्द्रजी (जैन साहित्य का इतिहास, पंडितजी ने इन्हें उत्तराध्ययन की गाथा कहा है और उन्हें वर्तमान पूर्व पीठिका, पृ० 525) ने ऐसा ही अनुमान किया है। वे लिखते उत्तराध्ययन में उपलब्ध भी बताया है। किन्तु जब हमने स्वयं पंडितजी है “जैन परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर के समान एक यापनीय द्वारा ही सम्पादित एवं अनुवादित भगवती आराधना की टीका देखी संघ भी था। यह संघ यद्यपि नग्नता का पक्षधर था, तथापि श्वेताम्बरी तो उसमें इन्हें स्पष्ट रूप से उत्तराध्ययन की गाथाएँ नहीं कहा गया
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________________ 17 अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श है। उसमें मात्र “इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति" कहकर इन्हें अर्धमागधी की रचना है। इससे ऐसा लगता है कि यापनीयों ने अपने उद्धृत किया गया है। आदरणीय पंडितजी को यह भ्रान्ति कैसे हो समय के अविभक्त परम्परा के आगमों को मान्य करते हुए भी उन्हें गई, हम नहीं जानते। पुन: ये गाथाएँ भी चाहे शब्दश: उत्तराध्ययन शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करने का प्रयास किया था, अन्यथा में न हों, किन्तु भावरूप से तो दोनों ही गाथाएँ और शब्द-रूप से अपराजित की टीका में मूल आगमों के उद्धरणों का शौरसेनी रूप इनके आठ चरणों में से चार चरण तो उपलब्ध ही हैं। उपर्युक्त उद्धृत न मिलकर अर्धमागधी रूप ही मिलता। इस सम्बन्ध में पं० नाथूरामजी गाथाओं से तुलना के लिए उत्तराध्ययन की ये गाथाएँ प्रस्तुत हैं- प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 60) का निम्न वक्तव्य विचार"परिजुण्णेहि पत्थेहि होक्खामि त्ति अचेलए। णीय हैअदुवा "सचेलए होक्खं" इदं भिक्खू न चिन्तए।। "श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य जो आगम ग्रन्थ हैं, यापनीय संघ शायद "एगया अचेलए होई सचेले यावि एगया।" उन सभी को मानता था, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि दोनों के आगमों एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए।। में कुछ पाठभेद था और उसका कारण यह हो कि उपलब्ध वल्लभी - उत्तराध्ययन, 2/12-13 वाचना के पहले की कोई वाचना (संभवत: माथुरी वाचना) यापनीय जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में ही चूर्णि में आगत पाठों और संघ के पास थी, क्योकि विजयोदया टीका में आगमों के जो उद्धरण शीलांक या अभयदेव की टीका में आगत पाठों में अर्धमागधी और हैं वे श्वेताम्बर आगमों में बिल्कुल ज्यों के त्यों नहीं बल्कि कुछ पाठभेद के महाराष्ट्री प्राकृत की दृष्टि से पाठभेद रहा है, उसी प्रकार यापनीय परम्परा साथ मिलते हैं। यापनीय के पास स्कंदिल की माथुरी वाचना के आगम के आगम के पाठ माथुरी वाचना के होने के कारण शौरसेनी प्राकृत थे यह मानने में एक बाधा आती है, वह यह कि स्कंदिल की वाचना से युक्त रहे होंगे। किन्तु यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि का काल वीरनिर्वाण 827-840 अर्थात् ईसा की तृतीय शती का प्राचीन स्तर के सभी आगम ग्रन्थ मूलत: अर्धमागधी के रहे हैं। उनमें अन्त और चतुर्थ शती का प्रारम्भ है, जबकि संघभेद उसके लगभग 200 जो महाराष्ट्री या शौरसेनी के शब्द-रूप उपलब्ध होते हैं, वे परवर्ती वर्ष पहले ही घटित हो चुका था।" किन्तु पं० नाथूरामजी की यह हैं। विजयोदया में आचारांग आदि के सभी आगमिक सन्दर्भो को देखने शंका इस आधार पर निरस्त हो जाती है कि वास्तविक सम्प्रदाय-भेद ईस्वी से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूर्णत: शौरसेनी प्रभाव से युक्त हैं। सन् की द्वितीय शताब्दी में न होकर पाँचवीं शती में हुआ। यद्यपि मूलत: आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगम तो निश्चित ही अर्धमागधी यह माना जाता है कि फल्गुमित्र की परम्परा की कोई वाचना थी, किन्तु में रहे हैं। यहाँ दो सम्भावनाएँ हो सकती हैं, प्रथम यही है कि इस वाचना के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश कहीं भी उपलब्ध नहीं है। माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी का प्रभाव आया हो और निष्कर्ष यह है कि यापनीय आगम वही थे, जो उन नामों से यापनीयों ने उसे मान्य रखा हो। दूसरे यह है कि यापनीयों द्वारा उन आज श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध हैं। मात्र उनमें किंचित् पाठभेद था आगमों का शौरसेनीकरण करते समय श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारांग तथा भाषा की दृष्टि से शौरसेनी का प्रभाव अधिक था। यापनीय ग्रन्थों आदि से उनमें पाठभेद हो गया हो, किन्तु इस आधार पर भी यह में आगमों के जो उद्धरण मिलते हैं उनमें कुछ तो वर्तमान श्वेताम्बर कहना उचित नहीं होगा कि यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा के आगम परम्परा के आगमों में अनुपलब्ध हैं, कुछ पाठान्तर के साथ उपलब्ध भिन्न थे। ऐसा पाठभेद तो एक ही परम्परा के आगमों में भी उपलब्ध हैं। जो अनुपलब्ध हैं, उनके सम्बन्ध में दो विकल्प हैं-प्रथम यह है। स्वयं पं० कैलाशचन्द्रजी ने अपने ग्रन्थ जैन साहित्य का इतिहास- कि मूलागमों के वे अंश बाद के श्वेताम्बर आचार्यों ने अगली वाचना पूर्वपीठिका में अपराजितसूरि की भगवती आराधना की टीका से में निकाल दिये और दूसरा यह कि वे अंश यापनीय मान्यता के प्रक्षिप्त आचारांग का जो उपर्युक्त पाठ दिया है, उसमें और स्वयं उनके द्वारा अंश हों। किन्तु प्रथम विकल्प में इसलिए विश्वास नहीं होता कि सम्पादित भगवती आराधना की अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत यदि परवर्ती वाचनाओं में वे सब बातें, जो उस युग के आचार्यों को पाठ में ही अन्तर है--एक में “थीण" पाठ है--दूसरे में “थीरांग' मान्य नहीं थीं या उनकी परम्परा के विरूद्ध थीं, निकाल दी गई होती पाठ है, जिससे अर्थ-भेद भी होता है। एक ही लेखक और सम्पादक तो वर्तमान श्वेताम्बर आगमों में अचेलता के समर्थक सभी अंश निकाल की कृति में भी पाठभेद हो तो भिन्न परम्पराओं में किंचित् पाठभेद दिये जाने चाहिए थे। मुझे ऐसा लगता है कि आगमों की वाचनाओं होना स्वाभाविक है, किन्तु उससे उनकी पूर्ण भिन्नता की कल्पना नहीं (संकलन) के समय केवल वे ही अंश नहीं आ पाये थे जो विस्मृत की जा सकती है। पुनः यापनीय परम्परा द्वारा उद्धृत आचारांग, हो गये थे अथवा पुनरावृत्ति से बचने के लिए "जाव" पाठ देकर उत्तराध्ययन आदि के उपर्युक्त पाठों की अचेलकत्व की अवधारणा का वहाँ से हटा दिये गये थे। मान्यता भेद के कारण कुछ अंश जानबूझकर प्रश्न है, वह श्वेताबम्बर परम्परा के आगमों में आज भी उपलब्ध है। निकाले गये हों, ऐसा कोई भी विश्वसनीय प्रमाण हमें नहीं मिलता इसी प्रसंग में उत्तराध्ययन की जो अन्य गाथाएँ उद्धृत की गई है। किन्तु यह हो सकता है कि वे अंश किसी अन्य गण की वाचना हैं, वे आज भी उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन में कुछ पाठभेद के के रहे हों, जिनके प्रतिनिधि उस वाचना में सम्मिलित नहीं थे। कुछ साथ उपलब्ध हैं। आराधना की टीका में उद्धृत इन गाथाओं पर भी ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि विभिन्न गणों में वाचना-भेद या पाठभेद शौरसेनी का स्पष्ट प्रभाव है। यह भी स्पष्ट है कि मूल उत्तराध्ययन होता था।
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________________ 18 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आगमों में पाठभेद एवं प्रक्षेप हैं, क्योंकि इनके कारण अनेक यापनीय ग्रन्थों का यापनीय स्वरूप विभिन्न गणों के निर्माण का एक कारण वाचना भेद भी माना ही विकृत हो गया है। हमारे दिगम्बर विद्वान् श्वेताम्बर ग्रन्थों में प्रक्षेपण गया है। यह कहा जाता है कि महावीर के ग्यारह गणधरों की नौ की बात तो कहते हैं, किन्तु वे इस बात को विस्मृत कर जाते हैं वाचनाएँ थीं अर्थात् महावीर के काल में भी वाचना-भेद था क्योंकि कि स्वयं उन्होंने यापनीय और अपने ग्रन्थों में भी किस प्रकार हेरप्रत्येक वाचनाचार्य की अध्यापन शैली भिन्न होती थी। ज्ञातव्य है कि फेर किये हैं। इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर दिगम्बर जैन परम्परा में शब्द के स्थान पर अर्थ पर बल दिया जाता था, तीर्थङ्कर विद्वानों का मत प्रस्तुत करना चाहूँगा। को अर्थ का प्रवर्तक माना गया था जबकि वैदिक परम्परा शब्द प्रधान पं० कैलाशचन्द्रजी स्व-सम्पादित "भगवती आराधना" की थी। यही कारण है कि जैनों ने यह माना कि चाहे शब्द-भेद हो, पर प्रस्तावना (पृ० 9) में लिखते हैं—“विजयोदया के अध्ययन से प्रकट अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि वाचना भेद बढ़ते गये। होता है कि उनके सामने टीका लिखते समय जो मूलग्रन्थ उपस्थित हमें यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक उद्धरणों से वर्तमान आगमों था, उसमें और वर्तमान मूल (ग्रन्थ) में अन्तर है। अनेक गाथाओं के पाठों का जो पाठभेद मिलता है उनका कारण वाचना-भेद है,अर्थ- में वे शब्द नहीं मिलते जो टीकाओं में हैं।" भेद नहीं, क्योंकि ऐसे अनुपलब्ध अंशों या पाठभेदों में विषय-प्रतिपादन इससे स्पष्ट होता है कि जब दिगम्बर आचार्यों ने इस यापनीय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है। किन्तु इस सम्भावना से पूरी ग्रन्थ को अपने में समाहित किया होगा तो इसकी मूल गाथाओं के तरह इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्वयं यापनीयों ने भी अपनी शब्दों में भी हेर-फेर कर दिया होगा। यदि पं० कैलाशचन्द्रजी ने उन मान्यता की पुष्टि के लिए कुछ अंश जोड़े हों अथवा परिवर्तित किये सभी स्थलों का जहाँ उन्हें पाठभेद प्रतीत हुआ, निर्देश किया होता हों। श्वेताम्बर परम्परा में भी वल्लभी वाचना में या उसके पश्चात् भी तो सम्भवतः हम अधिक प्रामाणिकता से कुछ बात कह सकते थे। आगमों में कुछ अंश जुड़ते रहे हैं--इस तथ्य से इन्कार नहीं किया टीका और मूल के सारे अन्तरों को हम भी अभी तक खोज नहीं जा सकता। हम पण्डित कैलाशचन्द्रजी (जैन साहित्य का इतिहास पाये हैं। अत: अभी तो उनके मत को ही विश्वसनीय मानकर संतोष पूर्वपीठिका, पृ० 527) के इस कथन से सहमत हैं कि वल्लभी वाचना करेंगे। स्वयंभू के रिट्ठनेमिचरिउ (हरिवंशपुराण) में भी इसी प्रकार की के समय और उसके बाद भी आगमों के स्वरूप में कुछ परिवर्तन छेड़-छाड़ हुई थी। इस सन्दर्भ में पं० नाथूरामजी प्रेमी (जैन साहित्य हुए हैं। किन्तु उनके द्वारा प्रयुक्त "बहुत" शब्द आपत्तिजनक है। और इतिहास,पृ० 202) लिखते हैं- "इसमें तो संदेह नहीं है कि फिर भी ध्यान रखना होगा कि इनमें प्रक्षेप ही अधिक हुआ है, विस्मृति इस अन्तिम अंश में मुनि जसकित्ति (यशकीर्ति) का भी हाथ है, परन्तु को छोड़कर जान-बूझकर निकाला कुछ नहीं गया है। यह कितना है यह निर्णय करना कठिन है। बहुत कुछ सोच-विचार किन्तु ऐसा प्रक्षेप मात्र श्वेताम्बरों ने किया है और दिगम्बरों तथा के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि मुनि जसकित्ति को इस ग्रन्थ यापनीयों ने नहीं किया है--यह नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि की कोई ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रति मिली थी जिसके अन्तिम पत्र नष्ट-भ्रष्ट यापनीय परम्परा ने भी आगमों में अपने अनुकूल कुछ अंश प्रक्षिप्त थे और शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थीं, इसलिए उन्होंने गोपगिरि किये हों। मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों को देखने से ऐसा (ग्वालियर) के समीप कुमरनगरी के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने स्पष्ट लगता है कि उन्होंने अर्धमागधी आगम साहित्य की ही सैकड़ों के लिए इसे ठीक किया अर्थात् जहाँ-जहाँ जितना अंश फट गया गाथाएँ शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करके अपने इन ग्रन्थों की रचना था या नष्ट हो गया था, उसको स्वयं रचकर जोड़ दिया और जहाँकी है, मूलाचार का लगभग आधा भाग प्रकीर्णकों, नियुक्तियों एवं जहाँ जोड़ा, वहाँ-वहाँ अपने परिश्रम के एवज में अपना नाम भी जोड़ आगमों की गाथाओं से निर्मित है। यह तो निश्चित है कि प्राचीन आगम दिया। इससे स्पष्ट है कि कुछ दिगम्बर आचार्यों ने दूसरों की रचनाओं साहित्य अर्धमागधी में था। यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक सन्दर्भ को भी अपने नाम पर चढ़ा लिया। के सदैव शौरसेनी रूप ही मिलते हैं, जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में भी पर्याप्त रूप से मिलावट हुई हैं कि उन्होंने अर्धमागधी आगम-साहित्य को शौरसेनी में अपने ढंग है। जहाँ "तिलोयपण्णत्ति' का ग्रन्थ-परिमाण 8000 श्लोक बताया से रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया होगा और इस प्रयत्न में उन्होंने गया है वहाँ वर्तमान तिलोयपण्णत्ति का श्लोक-परिमाण 9340 है अपने मत की पुष्टि का भी प्रयास किया होगा। अर्थात् लगभग 1340 श्लोक अधिक हैं। पं० नाथूरामजी प्रेमी के अत: इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यापनीय शब्दों में- “ये इस बात के संकेत देते हैं कि पीछे से इसमें मिलावट आचार्यों ने भी मूल आगमों के साथ छेड़छाड़ की थी और अपने की गयी है।" इस सन्दर्भ में पं० फूलचन्द्रशास्त्री के, जैन साहित्य मत की पुष्टि हेतु उन्होंने उनमें परिवर्धन और प्रक्षेप भी किये। भास्कर, भाग 11, अंक प्रथम में प्रकाशित “वर्तमान तिलोयपण्णत्ति मात्र श्वेताम्बर और यापनीय ही आगमों के साथ छेड़छाड़ करने और उसके रचनाकार का विचार" नामक लेख के आधार पर वे लिखते के दोषी नहीं हैं, बल्कि दिगम्बर आचार्य और पण्डित भी इस दौड़ हैं- “उससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ अपने असल रूप में नहीं में पीछे नहीं रहे हैं। यापनीय ग्रन्थों में दिगम्बर परम्परा के द्वारा जो रहा है। उसमें न केवल बहुत सा लगभग एक अष्टमांश प्रक्षिप्त है, प्रक्षेपण और परिवर्तन किये गये हैं वे तो और भी अधिक विचारणीय बल्कि बहुत-सा परिवर्तन और परिशोध भी किया गया है, जो मूल
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________________ 19 अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ग्रन्थ कर्ता के अनुकूल नहीं है।" इसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त की मूल की, वहाँ यापनीयों ने श्वेताम्बर मान्य आगमों और आगमिक गाथाएँ 180 थीं, किन्तु आज उसमें 233 गाथाएँ मिलती हैं- अर्थात् व्याख्याओं से और दिगम्बरों ने यापनीय परम्परा के ग्रन्थों से ऐसी उसमें 53 गाथाएँ परवर्ती आचार्यों द्वारा प्रक्षिप्त हैं। यही स्थिति कुन्दकुन्द ही छेड़-छाड़ की। के समयसार, वट्टकेर के मूलाचार आदि की भी है। प्रकाशित संस्करणों निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार की छेड़-छाड़ प्राचीन काल से में भी गाथाओं की संख्याओं में बहुत अधिक अन्तर है। समयसार लेकर वर्तमान काल तक होती रही है। कोई भी परम्परा इस सन्दर्भ के ज्ञानपीठ के संस्करण में 415 गाथाएँ हैं तो अजिताश्रम संस्करण में पूर्ण निर्दोष नहीं कही जा सकती। अत: किसी भी परम्परा का अध्ययन में 437 गाथाएँ। मूलाचार के दिगम्बर जैनग्रन्थमाला के संस्करण में करते समय यह आवश्यक है कि हम उन प्रक्षिप्त अथवा परिवर्धित 1242 गाथाएँ हैं। तो फलटण के संस्करण में 1414 गाथायें हैं, अंशों पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें, क्योंकि इस छेड़-छाड़ में कहीं अर्थात् 162 गाथायें अधिक हैं, यह सब इस बात का प्रमाण है कि कुछ ऐसा अवश्य रह जाता है, जिससे यथार्थता को समझा जा सकता है। दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने श्वेताम्बरों और यापनीयों की अपेक्षा परिवर्धनों और परिवर्तनों के बावजूद भी श्वेताम्बर आगमों की बहुत अधिक प्रक्षेप एवं परिवर्तन किया है। इन उल्लेखों के अतिरिक्त एक विशेषता है, वह यह कि वे सब बातें भी जिनका उनकी परम्परा वर्तमान में भी इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रयास हुए हैं, जैसे “धवला" से स्पष्ट विरोध है, उनमें यथावत् रूप से सुरक्षित हैं। यही कारण के सम्पादन के समय मूल ग्रन्थ षट्खण्डागम से “संजद" पद को है कि श्वेताम्बर आगम जैन धर्म के प्राचीन स्वरूप की जानकारी देने हटा देना, ताकि उस ग्रन्थ के यापनीय स्वरूप या स्त्री-मुक्ति के समर्थक में आज भी पूर्णतया सक्षम हैं। आवश्यकता है निष्पक्ष भाव से उनके होने का प्रमाण नष्ट किया जा सके। इस सन्दर्भ में दिगम्बर समाज अध्ययन की। क्योकि उनमें बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है, जिसमें में कितनी ऊहापोह मची थी और पक्ष-विपक्ष में कितने लेख लिखे जैनधर्म के विकास और उसमें आये परिवर्तनों को समझा जा सकता गये थे, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। यह भी सत्य है कि अन्त है। यही बात किसी सीमा तक यापनीय और दिगम्बर ग्रन्थों के सन्दर्भ में मूलप्रति में "संजद" पद पाया गया। तथापि ताम्रपत्र वाली प्रति में भी कही जा सकती है, यद्यपि श्वेताम्बर साहित्य की अपेक्षा वह में वह पद नहीं लिखा गया, सम्भवत: भविष्य में वह एक नई समस्या अल्प ही है। प्रक्षेप और परिष्कार के बाद भी समग्र जैन साहित्य में उत्पन्न करेगा। इस सन्दर्भ में भी मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर __ बहुत कुछ ऐसा है, जो सत्य को प्रस्तुत करता है, किन्तु शर्त यही दिगम्बर परम्परा के मान्य विद्वान् पं० कैलाशचन्द्रजी के शब्दों को ही है कि उसका अध्ययन ऐतिहासिक और सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से हो, उद्धृत कर रहा हूँ। पं० बालचन्द्रशास्त्री की कृति “षखण्डागम- तभी हम सत्य को समझ सकेंगे। परिशीलन" के अपने प्रधान सम्पादकीय में वे लिखते हैं-"समूचा ग्रन्थ प्रकाशित होने से पूर्व ही एक और विवाद उठ खड़ा हुआ। प्रथम जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी? भाग के सूत्र 93 में जो पाठ हमें उपलब्ध था, उनमें अर्थ-संगति की वर्तमान में 'प्राकृत-विद्या' नामक शोध पत्रिका के माध्यम से जैन दृष्टि से “संजदासंजद" के आगे "संजद' पद जोड़ने की आवश्यकता विद्या के विद्वानों का एक वर्ग आग्रहपूर्वक यह मत प्रतिपादित कर प्रतीत हुई, किन्तु इससे फलित होने वाली सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं से रहा है “जैन आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी, जो कालान्तर कुछ विद्वानों के मन आलोडित हुए और वे “संजद" पद को जोड़ना में परिवर्तित करके अर्धमागधी बना दी गई"। इस वर्ग का यह भी एक अनधिकार चेष्टा कहने लगे। इस पर बहुत बार मौखिक शास्त्रार्थ दावा है कि शौरसेनी प्राकृत ही प्राचीनतम प्राकृत है और अन्य सभी भी हुए और उत्तर-प्रत्युत्तर रूप लेखों की श्रृंखलाएँ भी चल पड़ी, प्राकृतें यथा- मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि इसी से विकसित जिनका संग्रह कुछ स्वतंत्र ग्रन्थों में प्रकाशित भी हुआ। इसके मौखिक हुई हैं, अत: वे सभी शौरसेनी प्राकृत से परवर्ती भी हैं। इसी क्रम समाधान हेतु जब सम्पादकों ने ताड़पत्रीय प्रतियों के पाठ की सूक्ष्मता / में दिगम्बर परम्परा में आगमों के रूप में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के से जाँच करायी तब पता चला कि वहाँ की दोनों भिन्न प्रतियों में हमारा ग्रन्थों में निहित अर्धमागधी और महाराष्ट्री शब्दरूपों को परिवर्तित सुझाया गया 'संजद' पद विद्यमान है। इससे दो बातें स्पष्ट हुई- कर उन्हें शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक सुनियोजित प्रयत्न भी एक तो यह कि सम्पादकों ने जो पाठ-संशोधन किया है, वह गम्भीर किया जा रहा है। इस समस्त प्रचार-प्रसार के पीछे मूलभूत उद्देश्य चिन्तन और समझदारी पर आधारित है और दूसरी यह कि मूल प्रतियों यह है कि श्वेताम्बर मान्य आगमों को दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य से पाठ मिलान की आवश्यकता अब भी बनी हुई है, क्योंकि जो ग्रन्थों से अर्वाचीन और अपने शौरसेनी में निबद्ध आगमतुल्य ग्रन्थों पाठान्तर मूडबिद्री से प्राप्त हुए थे और तृतीय भाग के अन्त में समाविष्ट को प्राचीन सिद्ध किया जाये। इस पारस्परिक विवाद का एक परिणाम किये गये थे उनमें यह संशोधन नहीं मिला।" यह भी हो रहा है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के बीच कटुता की मेरे उपर्युक्त लेखन का तात्पर्य किसी की भावनाओं को ठेस खाई गहरी होती जा रही है और इन सब में एक निष्पक्ष भाषाशास्त्रीय पहुँचाना नहीं है, किन्तु मूलग्रन्थों के साथ ऐसी छेड़-छाड़ करने के अध्ययन को पीछे छोड़ दिया जा रहा है। प्रस्तुत निबन्ध में मैं इन लिए श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय सभी समानरूप से दोषी हैं। जहाँ सभी प्रश्नों पर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में ग्रन्थों श्वेताम्बर ने अपने ही पूर्व अविभक्त परम्परा के आगमों से ऐसी छेड़-छाड़ के आलोक में चर्चा करने का प्रयत्न करूँगा।
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________________ 20 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ क्या आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था? दूसरी ओर प्राकृत-विद्या के सम्पादक डॉ. सुदीप जी का कथन ___ यहाँ सर्वप्रथम मैं इस प्रश्न की चर्चा करना चाहूँगा कि क्या जैन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है और हमने उसे आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था और उसे बाद अविकल रूप से यथावत् दिया है। मात्र इतना ही नहीं डॉ. सुदीपजी में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया? जैन विद्या के कुछ का तो यह भी कथन है कि तुलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी वे विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम साहित्य मूलत: शौरसेनी टॉटिया जी से मिले हैं और टॉटिया जी ने उन्हें कहा है कि वे अपने कथन प्राकृत में निबद्ध हुआ था और उसे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित पर आज भी दृढ़ हैं। टॉटिया जी के इस कथन को उन्होंने किया गया। अपने इस कथन के पक्ष में वे श्वेताम्बर, दिगम्बर किन्हीं प्राकृत-विद्या जुलाई-सितम्बर 96 के अङ्क में निम्न शब्दों में प्रस्तुत भी आगमों का प्रमाण न देकर प्रो. टॉटिया के व्याख्यान से कुछ अंश किया - उद्धृत करते हैं। डॉ. सुदीप जैन ने 'प्राकृत विद्या', जनवरी-मार्च 96 “मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत तथ्यों पर के सम्पादकीय में उनके कथन को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है- पूर्णतया दृढ़ हूँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है जिससे "हाल ही में श्री लालबहादुरशास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पत्र विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है"। (पृ. 9) . द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्दस्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत भाषाशास्त्री यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों सम्पादकों एवं दार्शनिक विचारक प्रो० नथमल जी टॉटिया ने स्पष्ट रूप से घोषित के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और उसका मूल किया कि "श्रमण-साहित्य का प्राचीन रूप, चाहे वे बौद्धों के त्रिपिटक मन्तव्य क्या है, इसका निर्णय तो तभी सम्भव है जब डॉ. टॉटिया आदि हों, श्वेताम्बरों के आचाराङ्गसूत्र, दशवैकालिकसूत्र आदि हों अथवा स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य दें, किन्तु वे इस सम्बन्ध में दिगम्बरों के षट्खण्डागमसूत्र, समयसार आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत मौन हैं। मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद नहीं आया। मैं डॉ. टॉटिया की उलझन समझता हूँ। एक ओर कुन्दकुन्दमें श्रीलंका में एक बृहत्सङ्गीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध भारती ने उन्हें कुन्दकुन्द व्याख्यानमाला में आमन्त्रित कर पुरस्कृत किया बौद्धसाहित्य का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी में निबद्ध है तो दूसरी और वे जैन विश्वभारती की सेवा में हैं, जब जिस मञ्च बौद्धसाहित्य के ग्रन्थों को अग्निसात् कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे दिये होंगे और जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार रूप क्रमश: अर्धमागधी में बदल गया। यदि हम वर्तमान अर्धमागधी नहीं करती है कि डॉ. टॉटिया जैसे गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम-साहित्य मानने पर जोर ऐसे वक्तव्य दें। कहीं न कहीं शब्दों की जोड़-तोड़ अवश्य हो रही देंगे, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहिले है। डॉ. सुदीपजी प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर 96 में डॉ. टॉटिया अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य जी के उक्त व्याख्यानों के विचार बिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत को भी 500 वर्ष ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा।" उन्होंने स्पष्ट किया करते हुए लिखते हैं कि- "हरिभद्र का सारा योगशतक धवला कि आज भी आचाराङ्गसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के से है।" शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जबकि नये प्रकाशित संस्करणों में उन इसका तात्पर्य है कि हरिभद्र के योगशतक को धवला के आधार शब्दों का अर्द्धमागधीकरण हो गया है। उन्होंने कहा कि पक्षव्यामोह पर बनाया गया है। क्या टॉटिया जी जैसे विद्वान् को इतना भी इतिहास के कारण ऐसे परिवर्तनों से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूलरूप बोध नहीं है कि योगशतक के कर्ता हरिभद्रसूरि और धवला के कर्ता खो रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगम्बर जैन साहित्य में में कौन पहले हुआ है? यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि हरिभद्रसूरि ही शौरसेनी भाषा के प्राचीनरूप सुरक्षित उपलब्ध हैं।" का योगशतक (आठवीं शती), धवला (१०वीं शती) से पूर्ववर्ती है। निस्संदेह प्रोटॉटिया जैन और बौद्ध विद्याओं के वरिष्ठतम विद्वानों मुझे विश्वास ही नहीं होता है, कि टॉटिया जी जैसा विद्वान् इस ऐतिहासिक में एक हैं और उनके कथन का कोई अर्थ और आधार भी होगा। सत्य को अनदेखा कर दे। कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मरोड़ खड़ा किया जा रहा है। डॉ. टॉटिया जी को अपनी चुप्पी तोड़कर कर प्रस्तुत किया गया है, यह एक विवादास्पद प्रश्न है? क्योंकि एक इस भ्रम का निराकरण करना चाहिए। वस्तुत: यदि कोई भी चर्चा ओर तुलसीप्रज्ञा के सम्पादक का कहना है कि टॉटिया जी ने इसका प्रमाणों के आधार पर नहीं होती है तो उसको कैसे मान्य किया जा खण्डन किया है। वे तुलसीप्रज्ञा (अप्रैल-जून, 96, खण्ड 22, अंक सकता है, फिर चाहे उसे कितने ही बड़े विद्वान् ने क्यों न कहा हो? 4) में लिखते हैं कि- "डॉ. नथमल टॉटिया ने दिल्ली की एक यदि व्यक्ति का ही महत्त्व मान्य है, तो अभी संयोग से टॉटिया जी पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित इस कथन का खण्डन से भी वरिष्ठ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जैन, बौद्ध विद्याओं के महामनीषी किया है कि महावीरवाणी शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट और स्वयं टॉटिया जी के गुरु पद्मविभूषण पं. दलसुखभाई मालवणिया मत प्रकट किया कि आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृताङ्ग और हमारे बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रामाणिक मानकर दशवैकालिक में अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है।" प्राकृत-विद्या के सम्पादक को स्वीकार करना होगा। खैर यह सब
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श 21 प्रास्ताविक बातें थीं, जिससे यह समझा जा सके कि समस्या क्या अर्थ में लिखा है- “एक योजन तक भगवान की वाणी स्वयमेव है, कैसे उत्पन्न हुई और प्रस्तुत स्पष्टीकरण की क्या आवश्यकता है? सुनाई देती है। उसके आगे संख्यात योजनों तक उस दिव्यध्वनि का हमें तो व्यक्तियों के कथनों या वक्तव्यों पर न जाकर तथ्यों के प्रकाश विस्तार मगध जाति के देव करते हैं। अत: अर्धमागधी भाषा देवकृत में इसकी समीक्षा करनी है कि आगमों की मूलभाषा क्या थी और है। (षट्प्राभृतम्, चतुर्थ बोध गाथा 32, पाहुडटीका, पृ०१७६)। अर्धमागधी और शौरसेनी में कौन प्राचीन है? ___ मात्र यही नहीं वर्तमान में भी दिगम्बर परम्परा के महान् संत एवं आचार्य विद्यासागर जी के प्रमुख शिष्य मुनि श्री प्रमाणसागरजी आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी अपनी पुस्तक 'जैनर्धमदर्शन' में लिखते हैं कि 'उन भगवान् महावीर यह एक सुनिश्चित सत्य है कि महावीर का जन्मक्षेत्र और कार्यक्षेत्र का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ। दोनों ही मुख्य रूप से मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में ही था, अतः जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह मानकर चल यह स्वाभाविक है कि उन्होंने जिस भाषा को बोला होगा वह समीपवर्ती रही हैं कि भगवान् का उपदेश अर्धमागधी में हुआ था और इसी भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी ही रही होगी। में उनके उपदेशों के आधार पर आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर व्यक्ति की भाषा कभी भी अपनी मातृभाषा से अप्रभावित नहीं होती शौरसेनी के नाम से नया विवाद खड़ा करके इस खाई को चौड़ा क्यों है। पुनः श्वेताम्बर परम्परा में मान्य जो भी आगम साहित्य आज उपलब्ध किया जा रहा है? हैं, उनमें अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है यह तो आगमिक प्रमाणों की चर्चा हुई। व्यावहारिक एवं कि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिये थे। ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं - - इस सम्बन्ध में अर्धमागधी आगम-साहित्य से कुछ प्रमाण प्रस्तुत 1. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिये तो यह स्वाभाविक किये जा रहे हैं यथा - है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का प्रणयन किया होगा। 1. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। -समवायाङ्ग, अत: सिद्ध है कि आगमों की मूल भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित समवाय 34, सूत्र 22 / / मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही है, यह मानना होगा। 2. तए णं समणे भगवं महावीरे कुणिअस्स भंभसारपुत्तस्स अद्धमागहीए 2. इसके विपरीत शौरसेनी आगमतुल्य मान्य ग्रन्थों में से किसी एक भासाए भासत्ति अरिहाधम्म परिकहइ। - औपपातिकसूत्र। भी ग्रन्थ में एक भी सन्दर्भ ऐसा नहीं है, जिससे यह प्रतिध्वनित 3. गोयमा! देवाणं अद्धमागहीए भासाए भासंति सवियणं अद्धमागहा भी होता हो कि आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। उनमें भासा भासिज्जमाणी विसज्जति।- भगवई, लाडनूं : शतक 5, मात्र यह उल्लेख है कि तीर्थङ्करों की जो वाणी खिरती है, वह उद्देशक 4, सूत्र 93 / सर्वभाषारूप परिणत होती है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है 4. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तमाहणस्स देवाणंदा माहणीए कि उनकी वाणी जनसाधारण को आसानी से समझ में आती तीसे य महति महलियाए इसिपरिसाए मणिपरिसाए जइपरिसाए.... थी। वह लोकवाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की क्षेत्रीय सव्व भासणुगामणिए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमगहाए बोलियों के शब्द रूप भी होते थे और यही कारण था कि उसे भासाइ धम्म परिकहइ। - भगवई लाडनूं, शतक 9, उद्देशक मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था। 33, सूत्र 149 / 3. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता है, उसका वहाँ 5. तए णं समणे भगवं महावीरे जामालिस्स खत्तियकुमारस्स.... की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक है। प्राचीन स्तर के जैन अद्धमगाहाए भासाए भासइ धम्म परिकहइ। -भगवई, लाडनं आगम यथा आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग इसिभासियइं (ऋषिभाषित), : शतक 9, उद्देशक 33, सूत्र 163 / उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र 6. सव्वसत्तसमदरिसीहिं अद्धमागहीए भासाए सुत्तं उवदिठ्ठ। - में रचित हैं और उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएँ आचाराङ्गचूर्णि, जिनदासगणि, पृ० 255 / हैं। मूल आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं है कि महावीर मात्र इतना ही नहीं, दिगम्बर परम्परा में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द ने बिहार, बङ्गाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार किया के ग्रन्थ बोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध है, उसकी टीका हो। अत: उनकी भाषा अर्धमागधी ही रही होगी। में दिगम्बर आचार्य श्रुतसागर जी लिखते हैं कि भगवान् महावीर 4. पुनः आगमों की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में और दूसरी खण्डगिरि ने अर्धमागधी भाषा में अपना उपदेश दिया। प्रमाण के लिये उस (उड़ीसा) में हुई, ये दोनों क्षेत्र मथुरा से पर्याप्त दूरी पर स्थित टीका के अनुवाद का वह अंश प्रस्तुत है - अर्ध मगध देश हैं, अत: कम से कम प्रथम और द्वितीय वाचना के समय तक भाषात्मक और अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती है। अर्थात् ई.पू. दूसरी शती तक उनके शौरसेनी में रूपान्तरित होने शङ्का- अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है, का या उससे प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। क्योंकि भगवान् की भाषा ही अर्धमागधी है? उत्तर- मगध देव यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म एवं विद्या का केन्द्र के सान्निध्य से होने से आचार्य प्रभाचन्द्र ने नन्दीश्वर भक्ति के पाटलिपुत्र से हटकर लगभग ई.पू. प्रथम शती में मथुरा बना तो उस
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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ पर शौरसेनी का प्रभाव आना प्रारम्भ हुआ। यद्यपि मथुरा से प्राप्त दूसरी है, यही कारण था कि जो उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ मथुरा में एकत्रित शती तक के अभिलेखों का शौरसेनी के प्रभाव से मुक्त होना यही हुआ उसके आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली-शौरसेनी से प्रभावित हुए सिद्ध करता है कि जैनागमों पर शौरसेनी का प्रभाव दूसरी शती के और जो पश्चिमी भारत का निर्ग्रन्थ संघ वलभी में एकत्रित हुआ उसके पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ होगा। सम्भवतः फल्गुमित्र (दूसरी शती) के आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुए। पुन: समय या उसके भी पश्चात् स्कंदिल (चतुर्थ शती) की माथुरी वाचना यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन दोनों वाचनाओं में सम्पादित के समय उन पर शौरसेनी प्रभाव आया था, यही कारण है कि यापनीय आगमों का मूल आधार तो अर्धमागधी आगम ही थे, यही कारण परम्परा में मान्य आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, निशीथ, कल्प है कि शौरसेनी आगम न तो शुद्ध शौरसेनी में हैं और न वलभी वाचना आदि जो आगम रहे हैं, वे शौरसेनी से प्रभावित रहे हैं। यदि डॉ० के आगम शुद्ध महाराष्ट्री में हैं, उन दोनों में अर्धमागधी के शब्द रूप टॉटिया ने यह कहा है कि आचाराङ्ग आदि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी तो उपलब्ध होते ही हैं। शौरसेनी आगमों में तो अर्धमागधी के साथ-साथ प्रभावित संस्करण भी था जो मथुरा क्षेत्र में विकसित यापनीय परम्परा महाराष्ट्री प्राकृत के शब्द रूप भी बहुलता से मिलते हैं, यही कारण को मान्य था, तो उनका कथन सत्य है, क्योंकि भगवती आराधना है कि भाषाविद् उनकी भाषा को जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री की टीका में आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, निशीथ आदि के जो सन्दर्भ दिये कहते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि जिन शौरसेनी आगमों की दुहाई दीजा गये हैं वे सभी शौरसेनी से प्रभावित हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि रही है, उनमें से अनेक 50 प्रतिशत से अधिक अर्धमागधी और महाराष्ट्री नहीं है कि आगमों की रचना शौरसेनी में हुई थी और बाद में वे प्राकृत से प्रभावित हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य आगमों में प्राकृत अर्धमागधी में रूपान्तरित किये गये। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना के रूपों का जो वैविध्य है उसके कारणों की विस्तृत चर्चा मैंने अपने स्कंदिल के समय महावीर निर्वाण के लगभग आठ सौ वर्ष पश्चात् लेख “जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन' में की है। हुई थी और उसमें आगमों की वाचना हुई, वे सभी उसके पूर्व अस्तित्व में थे। यापनीयों ने आगमों के इसी शौरसेनी प्रभावित संस्करण को क्या शौरसेनी आगमों के भाषिक स्वरूप में एकरूपता है? मान्य किया था, किन्तु दिगम्बरों को तो वे आगम भी मान्य नहीं थे, किन्तु डॉ. सुदीप जैन का दावा है कि- "आज भी शौरसेनी क्योंकि उनके अनुसार तो इस माथुरी वाचना के लगभग दो सौ वर्ष आगम-साहित्य में भाषिक तत्त्व की एकरूपता है, जबकि अर्धमागधी पूर्व ही आगम साहित्य विलुप्त हो चुका था। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम-साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते हैं। उदाहरणस्वरूप आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, शौरसेनी में सर्वत्र “ण” का प्रयोग मिलता है, कहीं भी 'न' का प्रयोग व्यवहार, निशीथ आदि तो ई.पू. चौथी शती से दूसरी शती तक की नहीं है, जबकि अर्धमागधी में नकार के साथ-साथ णकार का प्रयोग रचनाएँ हैं, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। ज्ञातव्य भी विकल्पत: मिलता है। यदि शौरसेनी युग में नकार का प्रयोग अलग है कि मथुरा का जैन विद्या के केन्द्र के रूप में विकास ई.पू. प्रथम भाषा में प्रचलित होता तो दिगम्बर साहित्य में कहीं तो विकल्प से शती से ही हुआ है और उसके पश्चात् ही इन आगमों पर शौरसेनी प्राप्त होता।" (प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर, 96, पृ.७)। प्रभाव आया होगा। यहाँ डॉ. सुदीप जैन ने दो बातें उठाई है- प्रथम शौरसेनी आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की और दूसरी 'ण' कार और आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कब और कैसे? 'न' कार की। क्या सुदीप जी, आपने शौरसेनी आगम साहित्य के यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि स्कंदिल की इस माथुरी वाचना के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई प्रामाणिक अध्ययन समय ही समानान्तर रूप से एक वाचना वल्लभी (गुजरात) में नागार्जुन किया है? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत की अध्यक्षता में हुई थी और इसी काल में उन पर महाराष्ट्री प्रभाव नहीं करते? आप केवल 'ण' कार का ही उदाहरण क्यों देते हैंभी आया क्योंकि उस क्षेत्र की प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत थी। इसी महाराष्ट्री वह तो महाराष्ट्री और शौरसेनी दोनों में सामान्य है। दूसरे शब्द रूपों प्राकृत से प्रभावित आगम आज तक श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं। की चर्चा क्यों नहीं करते हैं? नीचे मैं दिगम्बर शौरसेनी आगमतल्य अत: इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आगमों ग्रन्थों से ही कुछ उदाहरण दे रहा हूँ, जिनसे उनके भाषिकतत्त्व की के महाराष्ट्री प्रभावित और शौरसेनी प्रभावित संस्करण जो लगभग ईसा एकरूपता का दावा कितना खोखला है यह सिद्ध हो जाता है। मात्र की चतुर्थ-पञ्चम शती में अस्तित्व में आये, उनका मूल आधार यही नहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थ अर्धमागधी आगम ही थे। यह भी ज्ञातव्य है कि न तो स्कंदिल की न केवल अर्धमागधी से प्रभावित हैं, अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री माथुरी वाचना में और न नागार्जुन की वलभी वाचना में आगमों की प्राकृत से भी प्रभावित हैं - भाषा में सोच-समझ पूर्वक कोई परिवर्तन किया गया था। वास्तविकता 1. आत्मा के लिये अर्धमागधी में आता, अत्ता, अप्पा आदि शब्द यह है कि उस युग तक आगम कण्ठस्थ चले आ रहे थे और कोई रूपों का प्रयोग उपलब्ध है, जबकि शौरसेनी में “द" श्रुति के भी कण्ठस्थ ग्रन्थ स्वाभाविक रूप से कण्ठस्थ करने वाले व्यक्ति की कारण "आदा" रूप बनता है। समयसार में “आदा'' के साथ-साथ क्षेत्रीय बोली से अर्थात् उच्चारण शैली से अप्रभावित नहीं रह सकता “अप्पा' शब्द रूप जो कि अर्धमागधी का है अनेक बार प्रयोग
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________________ 23 "249, अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श में आया है। केवल समयसार में ही नहीं, अपितु नियमसार (120, 'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन 121,183) आदि में भी “अप्पा" शब्द का प्रयोग है। अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई सुदीप 2. श्रुत का शौरसेनी रूप "सुद" बनता है। शौरसेनी आगमतुल्य जी आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी में नकार और णकार ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर "सुद" "सुदकेवली" शब्द के प्रयोग दोनों पाये जाते हैं। किन्तु दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में सर्वत्र भी हुए हैं, जबकि समयसार (वर्णी ग्रन्थमाला, गाथा 9 एवं 10) णकार का पाया जाना यही सिद्ध करता है कि जिस शौरसेनी को आप में स्पष्ट रूप में "सुयकेवली" "सुयणाण" शब्दरूपों का भी प्रयोग अरिष्टनेमि के काल से प्रचलित प्राचीनतम प्राकृत कहना चाहते हैं, मिलता है और ये दोनों महाराष्ट्री शब्द रूप हैं तथा परवर्ती भी उस णकार प्रधान शौरसेनी का जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी तक हैं। अर्धमागधी में तो सदैव ‘सुत' शब्द का प्रयोग होता है। हुआ भी नहीं था। “ण” की अपेक्षा न का प्रयोग प्राचीन है। ई.पू. 3. शौरसेनी “द" श्रुतिप्रधान है साथ ही उसमें “लोप" की प्रवृत्ति तृतीय शती के अशोक के अभिलेख एवं ई.पू. द्वितीय शती के खारवेल अत्यल्प है, अत: उसके क्रिया रूप “हवदि, होदि, कुणदि, के शिलालेख से लेकर मथुरा के शिलालेख (ई.पू. दूसरी शती से गिण्हदि, कुव्वदि, परिणमदि, भण्णदि, पस्सदि आदि बनते हैं। ईसा की दूसरी शती तक) इन लगभग 80 जैन शिलालेखों में एक इन क्रिया रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में हुआ भी है, किन्तु उन्हीं भी णकार का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा ग्रन्थों के क्रिया रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव “णमो” “अरिहंताणं" और "णमो वड्डमाणं' का सर्वथा अभाव है। है, इसे निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता है - यहाँ हम केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धृत कर रहे हैं, जिनमें जाणइ (गाथा सं. 10), हवई (11,315,386,384), मुणइ इन शब्दों का प्रयोग हुआ है- ज्ञातव्य है कि ये सभी अभिलेखीय (32), वुच्चइ (45), कुव्वइ (81,286,319,321,325,340), साक्ष्य जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2 से प्रस्तुत हैं, जो दिगम्बर जैन परिणमइ (76,79,80), (ज्ञातव्य है कि समयसार के इसी संस्करण समाज द्वारा ही प्रकाशित हैं - की गाथा क्रमांक 77,78,79, में परिणमदि रूप भी मिलता है)। 1. हाथीगुंफा बिहार का शिलालेख- प्राकृत, जैन सम्राट् खारवेल, इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप, जैसे वेयई (84), कुणई मौर्यकाल १६५वाँ वर्ष, पृ.४ लेख क्रमाङ्क 2- नमो अरहंतानं, (71,96,289,293,322,326), होइ (94,197,306,349, नमो सवसिधानं 358), करेई (94,237,238,328,348), हवई (41,326, 2. बैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरि बिहार, प्राकृत, मौर्यकाल 329), जाणई (185,316,319,320,361), बहइ (189), १६५वॉ वर्ष लगभग ई.पू. दूसरी शती पृ.११, ले.क्र. सेवइ (197), मरइ (257,290), (जबकि गाथा 258 में मरदि 'अरहन्तपसादन'। है), पावइ (291,292), धिप्पइ (296), उप्पज्जइ (308), 3. मथुरा, प्राकृत महाक्षत्रप शोडाशके 81 वर्ष का. पृ.१२, क्रमाङ्क विणस्सइ (312,345), दीसइ (323), आदि भी मिलते हैं 5, 'नम अरहतो वधमानस'। (समयसार वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी)। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं- 4. मथुरा, प्राकृत काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे.एफ.फ्लीट ऐसे अनेक महाराष्ट्री प्राकृत के क्रिया रूप समयसार में उपलब्ध हैं। के अनुसार लगभग 14-13 ई.पूर्व का होना चाहिए, पृ. 15, न केवल समयसार अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार क्रमाङ्क 8, 'अरहतो वर्धमानस्य'। आदि की भी यही स्थिति है। 5. मथुरा, प्राकृत सम्भवत: 14-13, ई.पू. प्रथमशती, पृ.१५, लेख बारहवीं शती में रचित वसुनन्दिकृत श्रावकाचार (भारतीय ज्ञानपीठ क्रमाङ्क 10, 'मा अरहतपूजा'। संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी बदतर है, 6. मथुरा, प्राकृत पृ.१७, क्रमाङ्क 14, ‘मा अहतानं श्रमणश्रविका'। उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं में 40 प्रतिशत क्रिया रूप महाराष्ट्री 7. मथुरा, प्राकृत पृ.१७, क्रमाङ्क 15, 'नमो अरहंतानं'। प्राकृत के हैं। 8. मथुरा, प्राकृत पृ.१८, क्रमाङ्क 16, 'नमो अरहतो महाविरस'। इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों के 9. मथुरा, प्राकृत हुविष्क संवत् 39- हस्तिस्तम्भ, पृ.३४, क्रमाङ्क भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न केवल 43, 'अयर्येन रुद्रदासेन' अरहंतनं पुजाये। अधिक वैविध्य है, अपितु उस महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव १०.मथुरा, प्राकृत भग्न वर्ष 93, पृ.४६, क्रमाङ्क 67, 'नमो अर्हतो है, जिसे सुदीप जी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ महाविरस्य'। प्राचीन होते तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहाँ से 11. मथुरा, प्राकृत वासुदेव सं.९८, पृ.४७, क्रमाङ्क 60, 'नमो अरहतो आता? प्रो.ए.एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार की भूमिका में स्पष्टतः महावीरस्य। स्वीकार किया है कि उसकी भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। 12. मथुरा, प्राकृत पृ.४८, क्रमाङ्क 71, 'नमो अरहंतानं सिहकसं'। प्रो.खड़बड़ी ने तो षट्खण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं 13. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क 72, 'नमो अरहंतान'। माना है। 14. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क 73, 'नमो अरहंतान'।
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________________ 24 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 15. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क 75, 'अरहंतान वधमानस्य'। के ही शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय परम्परा में मान्य थे और 16. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.५१, क्रमाङ्क८० 'नमो अरहंतान..द्वन"। जिनकी भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर शूरसेन प्रदेश, जहाँ से शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ, वहाँ मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में के शिलालेखों में दूसरी-तीसरी शती तक णकार एवं 'द' श्रुति के विस्तृत चर्चा मैंने “जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगम्बर आगमों एवं नाटकों तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख की शौरसेनी का जन्म ईसा की दूसरी शती के पूर्व का नहीं है, जबकि सकते हैं। नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक के अभिलेखों से अर्थात् वस्तुत: आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते हैं ई.पू. तीसरी शती से सिद्ध होता है। इससे यही फलित होता है कि उनमें मुख्यत: निम्न ग्रन्थ आते हैं - अर्धमागधी आगम प्राचीन थे, आगमों का शब्द रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ है, न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में। दिगम्बर अ. यापनीय मान्य आगमों की शौरसेनी की जिस प्राचीनता का बढ़-चढ़ कर 1. कसायपाहुड, लगभग ईसा की चौथी शती, गुणधर . दावा किया जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही 2. षट्खण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्ध, पुष्पदंत और प्रभावित है और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर अपितु भूतबली विषय-वस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पाँचवी शती के पूर्व 3. भगवतीआराधना, ईसा की छठी शती, शिवार्य का नहीं है। 4. मूलाचार, ईसा की छठी शती, वट्टकेर यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकृत है, तो फिर सम्पूर्ण देश में ईसा ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मूलत: यापनीय परम्परा के हैं और की तीसरी-चौथी शती तक एक भी अभिलेख शौरसेनी प्राकृत में क्यों इनमें अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य आगमों, विशेष रूप से नियुक्तियों नहीं मिलता है। अशोक के अभिलेख, खारवेल के अभिलेख, बलडी और प्रकीर्णकों के समरूप हैं। के अभिलेख और मथुरा के शताधिक अभिलेख कोई भी तो शौरसेनी प्राकृत में नहीं हैं। इन सभी अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय बोलियों से ब. कुन्दकुन्द द्वारा रचित ईसा की लगभग छठी शती के ग्रन्थ प्रभावित मागधी ही है। अत: उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, 5. समयसार किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है। अत: प्राकृतों में 6. नियमसार अर्धमागधी ही प्राचीन है, क्योंकि मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में भी 7. प्रवचनसार 'नमो अरहंतानं', 'नमो वधमानस' आदि अर्धमागधी शब्द रूप मिलते 8. पञ्चास्तिकायसार हैं। श्वेताम्बर आगमों एवं अभिलेखों में आये 'अरहंतानं' पाठ को तो 9. अष्टपाहुड (इनका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध है, क्योंकि प्राकृत-विद्या में खोटे सिक्के की तरह बताया गया है, इसका अर्थ इसकी भाषा में अपभ्रंश के शब्द भी पाये जाते हैं)। है कि यह पाठ शौरसेनी का नहीं है (प्राकृत-विद्या, अक्टूबर-दिसम्बर 94, पृ.१०-११)। अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हुई है। स अन्य ग्रन्थ, ईसा की छठी शती के पश्चात् १०.तिलोयपण्णत्ति-यतिवृषभ शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता ११.लोकविभाग जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से समझ १२.जम्बूद्वीपपण्णत्ति लेना चाहिए कि आचाराङ्ग आदि द्वादशाङ्गी जिन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर १३.अङ्गपण्णत्ति और यापनीय परम्परा आगम कहकर उल्लेख करती हैं, वे सभी मूलतः १४.क्षपणसार अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर परम्परा में नन्दीसूत्र में १५.गोम्मटसार (दसवीं शती) उल्लिखित आगम हो, चाहे मूलाचार, भगवती आराधना और उनकी किन्तु इनमें से कषायपाहुड को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा टीकाओं में या तत्त्वार्थ और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लिखित नहीं है, जो पाँचवीं शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान आगम हो, अथवा अङ्गपण्णत्ति एवं धवला के अङ्ग और अङ्ग बाह्य सिद्धान्त एवं सप्तभङ्गी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की के रूप में उल्लिखित आगम हो, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो चर्चा जैन दर्शन में पांचवीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है। शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध रहा हो। हाँ इतना अवश्य है कि इनमें से श्वेताम्बर आगमों में समवायाङ्ग और आवश्यकनियुक्ति की दो प्रक्षिप्त कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित संस्करण माथुरी वाचना के लगभग गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णत: अनुपस्थित है, जबकि चतुर्थ शती के समय अस्तित्व में अवश्य आये थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द आगम कहना उचित नहीं होगा, वस्तुत: ये आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, के ग्रन्थों में इनकी चर्चा पायी जाती है, अत: ये सभी ग्रन्थ उनसे दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञ
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श 25 भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती का एक भी ऐसा ग्रन्थ या अभिलेख दिखा दें, जो अर्धमागधी आगमों टीकाएँ गुणस्थान की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करती हैं। उमास्वाति का और मागधी प्रधान अशोक, खारवेल, आदि के अभिलेखों से प्राचीन काल तीसरी-चौथी शती के लगभग है। अत: यह निश्चित है कि गुणस्थान हो। अर्धमागधी के अतिरिक्त जिस महाराष्ट्री प्राकृत को वे शौरसेनी का सिद्धान्त पाँचवीं शती में अस्तित्व में आया है। अत: शौरसेनी से परवर्ती बता रहे हैं, उसमें सातवाहन नरेश हाल की गाथा सप्तशती प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा लगभग प्रथम शती में रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से है, ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व का नहीं है। प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य प्राचीन है। ग्रन्थों में मात्र कसायपाहुड ही ऐसा है जो स्पष्टत: गुणस्थानों का पुन: मैं डॉ.सुदीप के निम्न कथन की ओर पाठकों का ध्यान उल्लेख नहीं करता है, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से 12 गुणस्थानों दिलाना चाहूँगा, वे प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर 96 में लिखते हैं की चर्चा उपलब्ध है, अत: वह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस कि दिगम्बरों के ग्रन्थ उस शौरसेनी प्राकृत में हैं, जिससे 'मागधी' अवस्थाओं, जिनका उल्लेख आचाराङ्गनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में है, आदि प्राकृतों का जन्म हुआ, इस सम्बन्ध में मेरा उनसे निवेदन है से परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमण काल की कि मागधी के सम्बन्ध में 'प्रकृति: शौरसेनी' (प्राकृतप्रकाश, 11/2) रचना है, अत: उसका काल भी चौथी से पाँचवीं शती के बीच सिद्ध इस कथन की वे जो व्याख्या कर रहे हैं वह भ्रान्त है और वे स्वयं होता है। भी शौरसेनी के सम्बन्ध में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' (प्राकृतप्रकाश, 12/ 2), इस सूत्र की व्याख्या में 'प्रकृति:' का जन्मदात्री यह अर्थ अस्वीकार शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला कर चुके हैं। इसकी विस्तृत समीक्षा हमने अग्रिम पृष्ठों में की है। शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार भी किया जाता इसके प्रत्युत्तर में मेरा दूसरा तर्क यह है कि यदि शौरसेनी प्राकृत है कि यह नारायण कृष्ण और तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही ग्रन्थों के आधार पर ही मागधी के प्राकृत आगमों की रचना हुई, तो है, क्योंकि इन दोनों महापुरुषों का जन्म शूरसेन जनपद में हुआ था उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थ का उल्लेख क्यों नहीं है? और ये शौरसेनी प्राकृत में ही अपना वाक् व्यवहार करते थे। डॉ.सुदीप श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी सन्दर्भ दिखा दें, जिनमें भगवतीआराधना, जी के शब्दों में “इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव मूलाचार, षट्खण्डागम, तिलोयपण्णत्ति, प्रवचनसार, समयसार, से शूरसेन जनपद में जन्मी शौरसेनी प्राकृत भाषा को सम्पूर्ण आर्यावर्त नियमसार आदि का उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी मलयगिरि (तेरहवीं में प्रसारित होने का सुअवसर मिला था।" (प्राकृतविद्या-जुलाई-सितम्बर शती) ने मात्र 'समयपाहुड' का उल्लेख किया है। इसके विपरीत 96, पृ.६)। मूलाचार, भगवतीआराधना और षट्खण्डागम की टीकाओं में एवं यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी लें, तो प्रश्न तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि सभी उठता है अरिष्टनेमि के पूर्व नमि मिथिला में जन्मे थे, वासुपूज्य चम्पा दिगम्बर टीकाओं में इन आगमों एवं नियुक्तियों के उल्लेख हैं। में जन्मे थे, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ और श्रेयांस काशी जनपद में जन्मे थे, भगवतीआराधना की टीका में तो आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, कल्प तथा यही नहीं प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव और मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या निशीथ से अनेक अवतरण भी दिये गये हैं। मूलाचार में न केवल में जन्मे थे। ये सभी क्षेत्र तो मगध के ही निकटवर्ती हैं, अत: इनकी अर्धमागधी आगमों का उल्लेख है, अपितु उनकी सैकड़ों गाथाएँ भी मातृभाषा तो अर्धमागधी रही होगी। भाई सुदीप जी के अनुसार यदि हैं। मूलाचार में आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, शौरसेनी अरिष्टनेमि जितनी प्राचीन है, तो फिर अर्धमागधी तो ऋषभ चन्द्रवेध्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि की अनेक गाथाएँ अपने जितनी प्राचीन सिद्ध होती है, अत: शौरसेनी से अर्धमागधी प्राचीन शौरसेनी शब्द रूपों में यथावत् पायी जाती हैं। दिगम्बर परम्परा में जो प्रतिक्रमणसूत्र उपलब्ध हैं, उसमें ज्ञातासूत्र यदि शौरसेनी प्राचीन होती तो सभी प्राचीन अभिलेख और प्राचीन के उन्हीं 19 अध्ययनों के नाम मिलते हैं, जो वर्तमान में श्वेताम्बर आगमिक ग्रन्थ शौरसेनी में मिलते, किन्तु ईसा की चौथी, पाँचवीं परम्परा में उपलब्ध ज्ञाताधर्मकथा में उपलब्ध हैं। तार्किक दृष्टि से यह शती से पूर्व का कोई भी जैन ग्रन्थ और अभिलेख शौरसेनी में उपलब्ध स्पष्ट है कि जो ग्रन्थ जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख करता है, वह उनसे क्यों नहीं होता है? पुनः नाटकों में भी भास के समय से अर्थात् परवर्ती ही होता है, पूर्ववर्ती कदापि नहीं। शौरसेनी आगम या आगमतुल्य ईसा की दूसरी शती से ही शौरसेनी के प्रयोग (वाक्यांश) उपलब्ध ग्रन्थों में यदि अर्धमागधी आगमों के नाम मिलते हैं तो फिर शौरसेनी होते हैं। और उसका रचित साहित्य अर्धमागधी आगमों से प्राचीन कैसे हो नाटकों में शौरसेनी प्राकृत की उपलब्धता के आधार पर उसकी सकता है? प्राचीनता का गुणगान किया जाता है, मैं विनम्रतापूर्वक पूछना चाहूँगा आदरणीय टॉटिया जी के माध्यम से यह बात भी उठायी गयी कि क्या इन उपलब्ध नाटकों में कोई भी नाटक ईसा की दूसरी-तीसरी कि मूलत: आगम शौरसेनी में रचित थे और कालान्तर में उनका शती से पूर्व का है? फिर उन्हें शौरसेनी की प्राचीनता का आधार अर्धमागधीकरण (महाराष्ट्रीकरण) किया गया। यह एक ऐतिहासिक सत्य कैसे माना जा सकता है। मात्र नाटक ही नहीं, वे शौरसेनी प्राकृत है कि जैनधर्म का उद्भव मगध में हुआ और वहीं से वह दक्षिणी
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________________ 26 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ एवं उत्तरपश्चिमी भारत में फैला। अत: आवश्यकता हुई अर्धमागधी प्रान्तों के लोग भी आसानी से समझ सकें। अत: बुद्धवचन मूलतः आगमों के शौरसेनी और महाराष्ट्री रूपान्तरण की, न कि शौरसेनी मागधी में थे, न कि शौरसेनी में। बौद्ध त्रिपिटक की पालि और जैन आगमों के अर्धमागधी रूपान्तरण की। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगमों की अर्धमागधी में कितना साम्य है, यह तो सुत्तनिपात और आगम ही शौरसेनी या महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुए न कि शौरसेनी इसिभासियाइं के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन आगम अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए। अत: ऐतिहासिक तथ्यों की पालि ग्रन्थों एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अधिक दूरी अवहेलना कर मात्र कुतर्क करना कहाँ तक उचित है? नहीं है। जिस समय अर्धमागधी और पालि में ग्रन्थ रचना हो रही थी, उस समय तक शौरसेनी एक बोली थी, न कि एक साहित्यिक बुद्ध वचनों की मूल भाषा मागधी थी, न कि शौरसेनी भाषा। साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की तीसरी शौरसेनी को मूलभाषा एवं मागधी से प्राचीन सिद्ध करने हेतु शताब्दी के बाद ही हुआ है। संस्कृत के पश्चात् सर्वप्रथम साहित्यिक आदरणीय प्रो.नथमल जी टाटिया के नाम से यह भी प्रचारित किया भाषा के रूप में यदि कोई भाषा विकसित हुई है तो वे अर्धमागधी जा रहा है कि “शौरसेनी पालि भाषा की जननी है- यह मेरा स्पष्ट एवं पालि ही हैं, न कि शौरसेनी। शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या चिन्तन है। पहले बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे, उनको जला दिया नाटकों के अंश ईसा की दूसरी-तीसरी शती से पूर्व का नहीं हैगया और पालि में लिखा गया।" (प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर 96, जबकि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम-साहित्य के अनेक ग्रन्थ पृ.१०।) ई.पू. तीसरी-चौथी शती में निर्मित हो चुके थे। टॉटिया जी जैसा बौद्ध-विद्या का प्रकाण्ड विद्वान ऐसी कपोलकल्पित बात कैसे कह सकता है? यह विचारणीय है। क्या ऐसा कोई 'प्रकृतिः शौरसेनी' का सम्यक अर्थ भी अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध है, जिसके आधार पर जो विद्वान् मागधी को शौरसेनी से परवर्ती एवं उसी से विकसित यह कहा जा सकता है कि मूल बुद्धवचन शौरसेनी में थे। यदि हो मानते हैं वे अपने कथन का आधार वररुचि (लगभग ७वीं शती) के तो आदरणीय टॉटिया जी या भाई सुदीप जी उसे प्रस्तुत करें, अन्यथा प्राकृतप्रकाश और हेमचन्द्र (लगभग १२वीं शताब्दी) के प्राकृतव्याकरण ऐसी आधारहीन बातें करना विद्वानों के लिये शोभनीय नहीं है। यह के निम्न सूत्रों को बताते हैं - बात तो बौद्ध विद्वान् स्वीकार करते हैं कि मूल बुद्धवचन 'मागधी' अ. 1. प्रकृति: शौरसेनी / / 10/2 / / में थे और कालान्तर में उनकी भाषा को संस्कारित करके पालि में अस्याः पैशाच्या प्रकृतिः शौरसेनी। स्थितायां शौरसेन्या लिखा गया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार मागधी और पैशाचीलक्षणं प्रवर्तितव्यम् / अर्धमागधी में किञ्चित् अन्तर है, उसी प्रकार 'मागधी' और 'पालि' 2. प्रकृति: शौरसेनी / / 11/2 / / में भी किञ्चित् अन्तर है, वस्तुत: ‘पालि' भगवान् बुद्ध की मूल भाषा अस्याः मागध्या: प्रकृति: शौरसेनीति वेदितव्यम् / 'मागधी' का एक संस्कारित रूप ही है। यही कारण है कि कुछ विद्वान् वररुचिकृत 'प्राकृत प्रकाश। पालि को मागधी का ही एक प्रकार मानते हैं, दोनों में बहुत अधिक ब. 1. शेषं शौरसेनीवत् / / 8/4/302 / / अन्तर नहीं है। पालि, संस्कृत और मागधी की मध्यवर्ती भाषा है या मागध्या यदुक्तं, ततोऽन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम् / मागधी का ही साहित्यिक रूप है। यह तो प्रमाणसिद्ध है कि भगवान 2. शेषं शौरसेनीवत् / / 8/4/323 / / बुद्ध ने मागधी में ही अपने उपदेश दिये थे- क्योंकि उनकी जन्मस्थली पैशाच्यां यदुक्तं, तओअन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति। और कार्यस्थली दोनों मगध और उसका निकटवर्ती प्रदेश ही था। 3. शेषं शौरसेनीवत् / / 8/4/446 / / बौद्ध विद्वानों का स्पष्ट मन्तव्य है कि मागधी ही मूल भाषा है। इस अपभ्रंशो प्राय: + शौरसेनीवत् कार्यं भवति। सम्बन्ध में बुद्धघोष का निम्न कथन सबसे बड़ा प्रमाण है - अप्रभंशभाषायां प्राय: शौरसेनीभाषातुल्यकार्य जायते; शौरसेनीसा मागधी मूलभासा नरायाय आदिकप्पिका / भाषायाः ये नियमाः सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि ब्रह्मणो च अस्सुतालापा संबुद्धा चापि भासरे / / जायते। - हेमचन्द्रकृत 'प्राकृतव्याकरण'। अर्थात् मागधी ही मूलभाषा है, जो सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न अत: इस प्रसङ्ग में तो यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इन हुई और न केवल ब्रह्मा (देवता) अपितु बालक और बुद्ध भी इसी सूत्रों में 'प्रकृति' शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, इसे समझें। यदि भाषा में बोलते हैं - (See-The preface to the Childer's Pali हम यहाँ प्रकृति का अर्थ उद्भव का कारण मानते हैं, तो निश्चित ही Dictionary). इन सूत्रों का यह ‘फलित होता है कि मागधी या पैशाची का उद्भव इससे यही फलित होता है मूल बुद्धवचन मागधी में थे। पालि शौरसेनी से हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन भाषा मानने उसी मागधी का संस्कारित साहित्यिक रूप है, जिसमें कालान्तर में वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उद्भूत मानने वाले ये विद्वान् बुद्धवचन लिखे गये। वस्तुत: पालि के रूप में मागधी का एक ऐसा वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों नहीं करते, जिसमें शौरसेनी संस्करण तैयार किया गया, जिसे संस्कृत के विद्वान् और भिन्न-भिन्न की प्रकृति संस्कृत बताई गयी है यथा- "शौरसेनी–१२/१ टीका
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________________ 27 अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श शूरसेनानां भाषा शौरसेनी सा च लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीक्रियते इति उसी का देश-प्रदेश के आधार पर किया गया संस्कारित रूप संस्कृत वेदितव्यम्। अधिकारसूत्रमेतदापरिच्छेदसमाप्तेः 12/1, प्रकृतिः और उसके विभिन्न भेद, अर्थात् विभिन्न साहित्यिक प्राकृतें हैं। सत्य संस्कृतम्-१२/२। टीका- शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृति: संस्कृतम्।। यह है कि बोली के रूप में तो प्राकृतें ही प्राचीन हैं और संस्कृत प्राकृतप्रकाश के उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार करना उनका संस्कारित रूप हैं- वस्तुत: संस्कृत विभिन्न प्राकृत बोलियों होगा कि शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई। इस प्रकार प्रकृति के बीच सेतु का काम करने वाली एक सामान्य साहित्यिक भाषा के का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी प्राकृतप्रकाश के आधार पर यह रूप में अस्तित्व में आई। भी मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी और उसी से शौरसेनी उत्पन्न यदि हम भाषा-विकास की दृष्टि से इस प्रश्न पर चर्चा करें तो हुई। क्या शौरसेनी के पक्षधर इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार भी यह स्पष्ट है कि संस्कृत सुपरिमार्जित; सुव्यवस्थित और व्याकरण हैं? भाई सुदीप जी, जो शौरसेनी के पक्षधर हैं और 'प्रकृतिः शौरसेनी' के आधार पर सुनिबद्ध भाषा है। यदि हम यह मानते हैं कि संस्कृत के आधार पर मागधी को शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी से प्राकृतें निर्मित हुई हैं, तो हमें यह भी मानना होगा कि मानव जाति 'प्रकृति संस्कृतम् -प्राकृतप्रकाश 12/2' के आधार पर यह मानने अपने आदिकाल में व्याकरणशास्त्र के नियमों से संस्कृत भाषा बोलती को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा है। वे थी और उसी से अपभ्रष्ट होकर शौरसेनी और शौरसेनी से अपभ्रष्ट स्वयं लिखते हैं “आज जितने भी प्राकृत व्याकरणशास्त्र उपलब्ध हैं, होकर मागधी, पैशाची, अपभ्रंश आदि भाषाएँ निर्मित हुईं। इसका वे सभी संस्कृत भाषा में हैं एवं संस्कृत व्याकरण के मॉडल पर निर्मित अर्थ यह भी होगा कि मानव जाति की मूल भाषा अर्थात् संस्कृत से हैं। अतएव उनमें 'प्रकृति: संस्कृतम्' जैसे प्रयोग को देखकर कतिपयजन अपभ्रष्ट होते-होते ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ, किन्तु मानव ऐसा भ्रम करने लगते हैं कि प्राकृतभाषा संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई, जाति और मानवीय संस्कृति के विकास का वैज्ञानिक इतिहास इस ऐसा अर्थ कदापि नहीं है- 'प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर 96, बात को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। पृ.१४। भाई सुदीप जी, जब शौरसेनी की बारी आती है, तब आप वह तो यही मानता है कि मानवीय बोलियों के संस्कार द्वारा प्रकृति का अर्थ आधार मॉडल करें और जब मागधी का प्रश्न आये ही विभिन्न साहित्यिक भाषाएँ अस्तित्व में आईं अर्थात् विभिन्न बोलियों तक आप 'प्रकृति: शौरसेनी' का अर्थ मागधी शौरसेनी से उत्पन्न हुई से ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ है। वस्तुत: इस विवाद के मूल ऐसा करें- यह दोहरा मापदण्ड क्यों? क्या केवल शौरसेनी को प्राचीन में साहित्यिक भाषा और लोक भाषा अर्थात् बोली के अन्तर को नहीं और मागधी को आर्वाचीन बताने के लिये। वस्तुत: प्राकृत और संस्कृत समझ पाना है। वस्तुत: प्राकृतें अपने मूलस्वरूप में भाषाएँ न होकर शब्द स्वयं ही इस बात के प्रमाण हैं कि उनमें मूलभाषा कौन बोलियाँ रही हैं। यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्राकृत कोई सी है? एक बोली नहीं अपितु बोली समूह का नाम है। जिस प्रकार प्रारम्भ संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात का सूचक है कि संस्कृत स्वाभाविक में विभिन्न प्राकृतों अर्थात् बोलियों को संस्कारित करके एक सामान्य या मूल भाषा न होकर एक संस्कारित कृत्रिम भाषा है। प्राकृत शब्दों वैदिक भाषा का निर्माण हुआ, उसी प्रकार कालक्रम में विभिन्न बोलियों एवं शब्द रूपों का व्याकरण द्वारा संस्कार करके जो भाषा निर्मित होती को अलग-अलग रूप में संस्कारित करके उनसे विभिन्न साहित्यिक है, उसे ही संस्कृत कहा जा सकता है, जिसे संस्कारित न किया गया प्राकृतों का निर्माण हुआ। अत: यह एक सुनिश्चित सत्य है कि बोली हो वह संस्कृत कैसे होगी? वस्तुत: प्राकृत स्वाभाविक या सहज भाषा के रूप में प्राकृतें मूल एवं प्राचीन हैं और उन्हीं से संस्कृत का विकास है और उसी को संस्कारित करके संस्कृत भाषा निर्मित हुई है। इस एक 'कामन' (Common) भाषा के रूप में हुआ। प्राकृतें बोलियाँ हैं दृष्टि से प्राकृत मूल भाषा है और संस्कृत उससे उद्भूत हुई है। और संस्कृत भाषा। बोली को व्याकरण से संस्कारित करके एकरूपता हेमचन्द्र के पूर्व थारापद्रगच्छीय नमिसाधु ने रुद्रट के काव्यालङ्कार देने से भाषा का विकास होता है। भाषा से बोली का विकास नहीं की टीका में प्राकृत और संस्कृत शब्द का अर्थ स्पष्ट कर दिया है। होता है। विभिन्न प्राकृत बोलियों को आगे चलकर व्याकरण के नियमों वे लिखते हैं - से संस्कारित किया गया तो उनसे विभिन्न प्राकृतों का जन्म हुआ। सकल जगज्जन्तेनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यापारः जैसे मागधी बोली से मागधी प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी प्रकृति: तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्। आरिसवयणे सिद्धं, देवाणं अद्धमागहा प्राकृत का और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्री प्राकृत का विकास वाणी इत्यादि, वचनाद्वा प्राक् पूर्वकृतं प्राकृतम्- बालमहिलादि सुबोधं हुआ। प्राकृत के शौरसेनी, मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि भेद तत्-तत् सकलभाषानिबन्धनभूतवचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं न कि किसी प्राकृत विशेष से। च देशविशेषात् संस्कारकरणात् च समासादितविशेषं सत् संस्कृतादुत्तर- यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण सातवीं शती भेदानाप्नोति। - काव्यालङ्कार टीका नमिसाधु, 2/12 / से पूर्व का नहीं है। साथ ही उनमें प्रत्येक प्राकृत के लिये अलग-अलग अर्थात् जो संसार के प्राणियों का व्याकरण आदि के लिये भी मॉडल अपनाये गये हैं। वररुचि के लिये शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत सुबोध है और पूर्व में निर्मित होने से (प्राक्कृत) सभी भाषाओं की है, जबकि हेमचन्द्र के लिये शौरसेनी की प्रकृति (महाराष्ट्री) प्राकृत रचना का आधार है वह तो मेघ से निर्मुक्त जल की तरह सहज है, है, अत: प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। अन्यथा हेमचन्द्र के
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________________ 28 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ शौरसेनी के सम्बन्ध में 'शेषं प्राकृतवत्' (8/04/286) का अर्थ होगा टॉटिया जी जैसा विद्वान् इस प्रकार की मिथ्या धारणा को शौरसेनी महाराष्ट्री से उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में रूपान्तरित हुएनहीं होगा। यह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि टॉटिया जी का यह कथन कि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे और क्या अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे? फिर पालि और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए' सत्य है, तो उन्हें या प्राकृत विद्या, जनवरी-मार्च 96 के सम्पादकीय में डॉ.सुदीप सुदीप जी को इसका प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए। जैन ने प्रोटॉटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि "श्वेताम्बर वस्तुतः जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृतमय ही था, जिसका जाता है तो एकरूपता के लिये नियम या व्यवस्था आवश्यक होती स्वरूप क्रमश: अर्धमागधी के रूप में बदल गया"। इस सन्दर्भ में है और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न प्राकृतों को हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम-साहित्य शौरसेनी जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो उनके लिये भी व्याकरण प्राकृत में था, तो फिर वर्तमान उपलब्ध पाठों में कहीं भी शौरसेनी के नियम आवश्यक हुए और ये व्याकरण के नियम मुख्यत: संस्कृत की 'द' श्रुति का प्रभाव क्यों नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत हम से गृहीत किये गये। जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति यह पाते हैं कि दिगम्बर परम्परा में मान्य शौरसेनी आगम-साहित्य बताई जाती है तब वहाँ तात्पर्य होता है कि उस भाषा के व्याकरण पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्द रूप हैं? उदाहरण की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में दिगम्बर के रूप में जब हम शौरसेनी के व्याकरण की चर्चा करते हैं तो हम परम्परा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो.ए.एन. उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं है कि प्रवचनसार की भाषा पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा को छोड़कर जिसकी चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत का पर्याप्त प्रभाव है और अर्धमागधी भाषा की अनेक विशेषताएँ के शब्द रूप हैं। उत्तराधिकार के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं। किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता है फिर इसमें स्वर-परिवर्तन, मध्यवर्ती व्यञ्जनों के परिवर्तन, 'य' श्रुति बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है। जब साहित्यिक भाषा इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान ही मिलते हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगम्बर बनती है तब उसके लिये व्याकरण के नियम बनाये जाते हैं, ये व्याकरण विद्वान् प्रो.खडबडी का कहना है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध के नियम जिस भाषा के शब्दरूपों के आधार पर उस भाषा के शब्दरूपों शौरसेनी नहीं है। इस प्रकार जहाँ एक ओर दिगम्बर विद्वान् इस तथ्य को समझाते हैं वही भाषा की किसी प्रकृति कहलाते हैं। यह सत्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर है कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके बाद बनता है। आगमों की अर्धमागधी भाषा का प्रभाव है वहाँ यह कैसे माना जा शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत मानने का अर्थ इतना सकता है कि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरित ही है कि इन भाषाओं के जो भी व्याकरण बने हैं वे संस्कृत शब्द हुए। अपितु इससे तो यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम रूपों के आधार पर बने हैं। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत ही शौरसेनी में रूपान्तरित हुए हैं। पुन: अर्धमागधी भाषा के स्वरूप का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने या बोलने वालों के लिये के सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है उसका नहीं बनाया गया, अपितु, उनके लिये बनाया गया जो संस्कृत में लिखते स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। सम्भवतः ये विद्वान् अर्धमागधी और या बोलते थे। यदि हमें किसी संस्कृत के जानकार व्यक्ति को प्राकृत महाराष्ट्री के अन्तर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाये हैं तथा सामान्यतः के शब्द या शब्दरूपों को समझाना हो तो हमें उसका आधार संस्कृत अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर ही चलते रहे हैं। को ही बनाना होगा और उसी के आधार पर यह समझाना होगा कि यही कारण है कि डॉ.ए.एन उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' श्रुति को संस्कृत के किसी शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्दरूप कैसे निष्पन्न अर्धमागधी का लक्षण बताते हैं। जबकि वह मूलत: महाराष्ट्री हुआ है इसलिये जो भी प्राकृत व्याकरण निर्मित किये गये अपरिहार्य प्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का। अर्धमागधी तो 'त' श्रुति रूप से वे संस्कृत शब्दों या शब्दरूपों को आधार मानकर प्राकृत शब्द प्रधान है। या शब्दरूपों की व्याख्या करते हैं / संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा में कहने का इतना ही तात्पर्य है। इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची या कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्ट्री प्राकृत की 'य' अपभ्रंश की 'प्रकृति' शौरसेनी को कहा जाता है तो उसका तात्पर्य श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह मानना पूर्णत: मिथ्या है कि होता है, प्रस्तुत व्याकरण के नियमों में इन भाषाओं के शब्दरूपों को श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ है। शौरसेनी शब्दों को आधार मानकर समझाया गया है। 'प्राकृतप्रकाश' वास्तविकता यह है कि अर्धमागधी आगम ही माथुरी और वलभी की टीका में वररुचि ने स्पष्टत: लिखा है- शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां वाचनाओं के समय क्रमश: शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्रभावित प्रकृतिः संस्कृतम् (12/2) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द हैं उनकी प्रकृति या आधार संस्कृत शब्द हैं। हुए हैं।
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________________ 29 अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृतों में तीन प्रकार के शब्दरूप से और भाई सुदीपजी से साग्रह निवेदन करूँगा की वे आचाराङ्ग, मिलते हैं- तद्भव, तत्सम और देशज। देशज शब्द वे हैं जो किसी ऋषिभाषित, सत्रकताङ्ग आदि की कि शब्द वे हैं जो किसी ऋषिभाषित, सूत्रकृताङ्ग आदि की किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों में 'ट' देश विशेष में किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त हैं। इनके अर्थ की व्याख्या श्रुति प्रधान पाठ दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो पाठ मिल रहे हैं, के लिये व्याकरण की कोई आवश्यकता नहीं होती है। तद्भव शब्द वे अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि शौरसेनी के। यह एक वे हैं जो संस्कृत शब्दों से निर्मित हैं जबकि संस्कृत के समान शब्द अलग बात है कि कुछ शब्दरूप आर्ष अर्धमागधी और शौरसेनी में तत्सम हैं। संस्कृत व्याकरण में दो शब्द प्रसिद्ध हैं- प्रकृति और समान हैं। प्रत्यय। इनमें मूल शब्दरूप को प्रकृति कहा जाता है। मूल शब्द से वस्तुत: इन प्राचीन प्रतियों में न तो 'द' श्रति देखी जाती है जो शब्दरूप बना है वह तद्भव है। प्राकृत-व्याकरण संस्कृत शब्द और न "न" के स्थान पर "ण" की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसे से प्राकृत का तद्भव शब्दरूप कैसे बना है, इसकी व्याख्या करता व्याकरण में शौरसेनी की विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह है है। अत: यहाँ संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसेनी रूपान्तरण हुआ है न कि शौरसेनी तद्भव शब्दों के सन्दर्भ में संस्कृत शब्द को आदर्श मानकर या मॉडल आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण। यह सत्य है कि न केवल अर्धमागधी मानकर यह व्याकरण लिखा गया है। अत: प्रकृति का अर्थ आदर्श आगमों पर अपितु शौरसेनी आगमतुल्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर या मॉडल है। संस्कृत शब्द रूप को मॉडल/आदर्श मानना इसलिये भी महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट प्रभाव है जिसे हम पूर्व में सिद्ध आवश्यक था कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के जानकार विद्वानों को कर चुके हैं। दृष्टि में रखकर या उनके लिये ही लिखे गये थे। जब डॉ. सुदीपजी क्या पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा एवं श्वेताम्बर अर्धमागधी सौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृति: संस्कृतम्' का अर्थ मॉडल या आदर्श आगमों का अस्तित्व नहीं था? करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि के सन्दर्भ में प्रकृतिः शौरसेनी डॉ.सुदीपजी द्वारा टॉटियाजी के नाम से उद्धृत यह कथन कि का अर्थ भी यही करना चाहिए कि शौरसेनी को मॉडल या आदर्श 1500 वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था' पूर्णत: मानकर इनका व्याकरण लिखा गया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता भ्रान्त है। आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित जैसे आगमों को पाश्चात्य है कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्र विद्वानों ने एक स्वर से ई.पू. तीसरी-चौथी शताब्दी या उससे भी पहले ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों का माना है। क्या उस समय से आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध को समझाया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री प्राचीन न होकर शौरसेनी में निबद्ध थे। ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई। 'ण' कार की प्रवृत्ति वाली शौरसेनी का जन्म तो उस समय हुआ ही नहीं था, अन्यथा अशोक के अभिलेखों में और मथुरा (जो शौरसेनी प्राचीन कौन? अर्धमागधी या शौरसेनी की जन्मभूमि है) के जैन अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य इसी सन्दर्भ में टॉटिया जी के नाम से यह भी प्रतिपादित किया वाले शब्द रूप उपलब्ध होने चाहिए थे? क्या शौरसेनी प्राकृत में गया है कि "यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम-साहित्य को ही मूल निबद्ध ऐसा एक भी ग्रन्थ है जो ई०पू० में रचा गया हो? सत्य तो आगम-साहित्य मानने पर जोर देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज यह है कि भास (ईसा की दूसरी शती) के नाटकों के अतिरिक्त ईसा से 1500 वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से, इस स्थिति में हमें की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक भी ग्रन्थ अपने आगम साहित्य को ही ५००ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा।" नहीं था। जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी के आगम ई०पू० ज्ञातव्य है कि यहाँ भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अन्तर को न तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुन: यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह कह रहे हैं उसे महाराष्ट्री भी मान लें तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की समझ लेना चाहिए कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी के 'त' श्रुति प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। सातवाहन नरेश हाल की गाथा प्रधान पाठ चूर्णियों और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे सप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ है, जो ई०पू० प्रथम शती हैं। उससे नि:सन्देह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी 'त' श्रुति से ईसा की प्रथम शती के मध्य रचित है। यह एक संकलन ग्रन्थ प्रधान थी और उसमें लोप की प्रवृत्ति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी है जिसमें अनेक ग्रन्थों से माथाएँ संकलित की गई हैं। इसका तात्पर्य भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्राचीन भी है। यदि श्वेताम्बर आगम यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे। शौरसेनी से महाराष्ट्री में जिसे दिगम्बर विद्वान् भ्रान्ति से अर्धमागधी कालिदास के नाटक, जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता कह रहे हैं, बदले गये तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में 'त' श्रुति है, भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ के स्थान पर 'द' श्रुति के पाठ क्यों उपलब्ध नहीं होते हैं जो शौरसेनी स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से, अपितु परवर्ती 'य' की विशेषता है। इस प्रसङ्ग में डॉ. टॉटियाजी के नाम से यह भी श्रुति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा कहा गया है कि आज भी आचाराङ्गसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में की पाँचवीं, छठी शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं। षट्खण्डागम शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टॉटियाजी और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग 5 वीं
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________________ 30 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों और का सृजन हुआ है। पैशाची प्राकृत के प्रभाव से युक्त मात्र एक ग्रन्थउमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चतुर्थ शती) से परवर्ती ही सिद्ध प्राकृत धम्मपद मिला है। इन्हीं जन-बोलियों को जब एक साहित्यिक करती हैं, क्योंकि इनमें ये अवधारणाएँ अनुपस्थित हैं। इस सम्बन्ध भाषा का रूप देने का प्रयत्न जैनाचार्यों ने किया, तो उसमें भी आधारगत में मैंने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' और 'जैन विभिन्नता के कारण शब्द रूपों की विभिनता रह गई। सत्य तो यह धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला है। इस प्रकार है कि विभिन्न बोलियों पर आधारित होने के कारण साहित्यिक प्राकृतों सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी आगम नहीं, अपितु में भी शब्द रूपों की यह विविधता रह जाना स्वाभाविक है। शौरसेनी भाषा ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और शौरसेनी आगम विभिन्न बोलियों की लक्षणगत विशेषताओं के कारण ही प्राकृत ईसा० की 5 वी शती के पश्चात् अस्तित्व में आये। अच्छा होगा कि भाषाओं के विविध रूप बने हैं। बोलियों के आधार पर विकसित इन भाई सुदीप जी पहले मागधी और पालि तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृतों के जो मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि रूप बने हैं, उनमें के अन्तर एवं इनके प्रत्येक के लक्षणों तथा जैन आगमिक साहित्य भी प्रत्येक में वैकल्पिक शब्द रूप पाये जाते हैं। अत: उन सभी में के ग्रन्थों के कालक्रम और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण एकरूपता का अभाव है। फिर भी भाषाविदों लें और फिर प्रमाण सहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलायें, व्यर्थ / ने व्याकरण के नियमों के आधार पर उनकी कुछ लक्षणगत विशेषताएँ की आधारहीन भ्रान्तियाँ खड़ी करके समाज में कटुता के बीज न बोयें। मान ली हैं जैसे मागधी में "स" के स्थान पर “श", "र" के स्थान पर "ल" का उच्चारण होता है। अत: मागधी में “पुरुष" का "पुलिश" जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन और "राजा" का "लाजा' रूप पाया जाता है, जबकि महाराष्ट्री में जैन आगम मूलत: प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं, किन्तु प्राकृत एक "पुरिस" और "राया" रूप बनता है। जहाँ अर्द्धमागधी में "त" श्रुति भाषा न होकर, भाषा समूह है। प्राकृत के इन अनेक भाषिक रूपों की प्रधानता है और व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति अल्प है, वहीं शौरसेनी का उल्लेख हेमचन्द्र प्रभृति प्राकृत-व्याकरणविदों ने किया है। प्राकृत में “द" श्रुति की और महाराष्ट्री में "य" श्रुति की प्रधानता पायी के जो विभिन्न भाषिक रूप उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न भाषिक वर्गों में जाती है तथा लोप की प्रवृत्ति अधिक है। दूसरे शब्दों में अर्द्धमागधी विभक्त किया जाता है- मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, जैन-शौरसेनी, में "त" यथावत् रहता है, शौरसेनी में "त" के स्थान पर “द" और महाराष्ट्री, जैन महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड, चूलिका, ढक्की आदि। इन महाराष्ट्री में लुप्त-व्यंजन के बाद शेष रहे “अ” का “य' होता है। विभिन्न प्राकृतों से ही आगे चलकर अपभ्रंश के विविध रूपों का प्राकृतों में इन लक्षणगत विशेषताओं के बावजूद भी धातु रूपों एवं विकास हुआ और जिनसे कालान्तर में असमिया, बंगला, उड़िया, शब्द रूपों में अनेक वैकल्पिक रूप तो पाये ही जाते हैं। यहाँ यह भोजपुरी या पूर्वी हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि भी स्मरण रहे कि नाटकों में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृतों की अपेक्षा जैन भारतीय भाषाएँ अस्तित्व में आयीं। अत: प्राकृतें सभी भारतीय भाषाओं ग्रन्थों में प्रयुक्त इन प्राकृत भाषाओं का रूप कुछ भिन्न है और किसी की पूर्वज हैं और आधुनिक हिन्दी का विकास भी इन्हीं के आधार सीमा तक उनमें लक्षणगत बहुरूपता भी है। इसीलिए जैन आगमों पर हुआ। में प्रयुक्त मागधी को अर्धमागधी कहा जाता है, क्योंकि उसमें मागधी प्राकृत के सन्दर्भ में हमें एक दो बातें और समझ लेना चाहिए। के अतिरिक्त अन्य बोलियों के प्रभाव के कारण मागधी से भिन्न लक्षण प्रथम तो यह कि प्राकृत भाषा की आधारगत बहुविधता का कारण भी पाये जाते हैं। जहाँ अभिलेखीय प्राकृतों का प्रश्न है उनमें शब्द यह है कि उसका विकास विविध बोलियों से हुआ है और बोलियों रूपों की इतनी अधिक विविधता या भित्रता है कि उन्हें व्याकरण में विविधता होती है। साथ ही उनमें देश कालगत प्रभावों और की दृष्टि से व्याख्यायित कर पाना सम्भव ही नहीं है क्योंकि उनकी मुख-सुविधा (उच्चारण सुविधा) के कारण परिवर्तन होते रहते हैं। प्राकृत प्राकृत साहित्यिक प्राकृत न होकर स्थानीय बोलियों पर आधारित है। निर्झर की भाँति बहती भाषा है उसे व्याकरण में आबद्ध कर पाना यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जिस भाषा का प्रयोग सम्भव नहीं है। इसीलिए प्राकृत को “बहुल" अर्थात् विविध वैकल्पिक हुआ है, वह जैन-शौरसेनी कही जाती है। उसे जैन-शौरसेनी इसलिये रूपों वाली भाषा कहा जाता है। __ कहते हैं कि उसमें शौरसेनी के अतिरिक्त अर्द्धमागधी के भी कुछ लक्षण वस्तुतः प्राकृतें अपने मूल रूप में भाषा न होकर बोलियाँ ही पाये जाते हैं। उस पर अर्द्धमागधी- का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता रहीं हैं। यहाँ तक कि साहित्यिक नाटकों में भी इनका प्रयोग बोलियों है क्योंकि इसमें रचित ग्रन्थों का आधार अर्द्धमागधी आगम ही थे। के रूप में ही देखा जाता है और यही कारण है कि मृच्छकटिक जैसे इसी प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों ने प्राकृत के जिस भाषायी रूप को अपनाया नाटक में अनेक प्राकृतों का प्रयोग हुआ है, उसके विभिन्न पात्र भिन्न-भिन्न वह जैन-महाराष्ट्री कही जाती है। इसमें महाराष्ट्री के लक्षणों के अतिरिक्त प्राकृतें बोलते हैं। इन विभिन्न प्राकृतों में से अधिकांश का अस्तित्व कहीं-कहीं अर्द्धमागधी और शौरसेनी के लक्षण भी पाये जाते हैं, क्योंकि मात्र बोली के रूप में ही रहा, जिनके निदर्शन केवल नाटकों और इसमें रचित ग्रन्थों का आधार भी मुख्यत: अर्द्धमागधी और अंशत: अभिलेखों में पाये जाते हैं। मात्र अर्द्धमागधी, जैन-शौरसेनी और शौरसेनी साहित्य रहा है। जैन-महाराष्ट्री ही ऐसी भाषायें हैं, जिनमें जैनधर्म के विपुल साहित्य अत: जैन परम्परा में उपलब्ध किसी भी ग्रन्थ की प्राकृत का
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श स्वरूप निश्चित करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर कहीं क्रिया रूपों में भी "त" श्रुति उपलब्ध होती है और कहीं उसके दोनों परम्पराओं में कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं मिलता, जो विशुद्ध रूप लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है। प्राचीन आगमों में हुए इन भाषिक से किसी एक प्राकृत का प्रतिनिधित्व करता हो। आज उपलब्ध विभिन्न परिवर्तनों से उनके अर्थ में भी कितनी विकृति आयी, इसका भी डॉ. श्वेताम्बर अर्द्धमागधी आगमों में चाहे प्रतिशतों में कुछ भिन्नता हो, चन्द्रा ने अपने लेखों के माध्यम से संकेत किया है तथा यह बताया किन्तु व्यापक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। आचारांग है कि अर्द्धमागधी “खेतन्न' शब्द किस प्रकार "खेयन्त्र" बन गया और ऋषिभाषित जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में अर्द्धमागधी के लक्षण और उसका जो मूल “क्षेत्रज्ञ" अर्थ था वह बदलकर "खेदज्ञ' हो प्रमुख होते हुए भी कहीं-कहीं आंशिक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव गया। इन सब कारणों से उन्होंने पाठ संशोधन हेतु एक योजना प्रस्तुत आ ही गया है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में की और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के प्रथम एक ओर अर्द्धमागधी का तो दूसरी ओर महाराष्ट्री का प्रभाव देखा उद्देशक की भाषा का सम्पादन कर उसे प्रकाशित भी किया है। इसी जाता है। कुछ ऐसे ग्रन्थ भी हैं जिनमें लगभग 60 प्रतिशत शौरसेनी क्रम में मैंने भी आगम संस्थान उदयपुर के डॉ. सुभाष कोठारी एवं एवं 40 प्रतिशत महाराष्ट्री पायी जाती है-जैसे वसुनन्दी के श्रावकाचार डॉ. सुरेश सिसोदिया द्वारा आचारांग के विभिन्न प्रकाशित संस्करणों का प्रथम संस्करण। ज्ञातव्य है कि इसके परवर्ती संस्करणों में से पाठान्तरों का संकलन करवाया है। इसके विरोध में पहला स्वर शौरसेनीकरण अधिक है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी यत्र-तत्र महाराष्ट्री श्री जौहरीमल जी पारख ने उठाया है। श्वेताम्बर विद्वानों में आयी इस का पर्याप्त प्रभाव देखा जाता है। इन सब विभिन्न भाषिक रूपों के चेतना का प्रभाव दिगम्बर विद्वानों पर भी पड़ा और आचार्य श्री विद्यानन्द पारस्परिक प्रभाव या मिश्रण के अतिरिक्त मुझे अपने अध्ययन के दौरान जी के निर्देशन में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को पूर्णत: शौरसेनी एक महत्त्वूपर्ण बात यह मिली कि जहाँ शौरसेनी ग्रन्थों में जब अर्द्धमागधी में रूपान्तरित करने का एक प्रयत्न प्रारम्भ हुआ है, इस दिशा में प्रथम आगमों के उद्धरण दिये गये, तो वहाँ उन्हें अपने अर्द्धमागधी रूप कार्य बलभद्र जैन द्वारा सम्पादित समयसार, नियमसार आदि का में न देकर उनका शौरसेनी रूपान्तरण करके दिया गया है। इसी प्रकार कुन्दकुन्द भारती से प्रकाशन है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में ही पं. महाराष्ट्री के ग्रन्थों में अथवा श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों ___ खुशालचन्द गोरावाला, पद्मचन्द्र शास्त्री आदि दिगम्बर विद्वानों ने इस में जब भी शौरसेनी के ग्रन्थ का उद्धरण दिया गया, तो सामान्यतया प्रवृत्ति का विरोध किया। उसे मूल शौरसेनी में न रखकर उसका महाराष्ट्री रूपान्तरण कर दिया आज श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में आगम या आगम रूप गया। उदाहरण के रूप में भगवती आराधना की टीका में जो उत्तराध्ययन, में मान्य ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप के पुन: संशोधन की जो चेतना आचारांग आदि के उद्धरण पाये जाते हैं, वे उनके अर्द्धमागधी रूप जागृत हुई है, उसका कितना औचित्य है, इसकी चर्चा तो मैं बाद में न होकर शौरसेनी रूप में ही मिलते हैं। इसी प्रकार हरिभद्र ने में करूँगा। सर्वप्रथम तो इसे समझना आवश्यक है कि इन प्राकृत शौरसेनी प्राकृत के “यापनीय-तन्त्र' नामक ग्रन्थ से "ललितविस्तरा" आगम ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में किन कारणों से और किस प्रकार में जो उद्धरण दिया, वह महाराष्ट्री प्राकृत में ही पाया जाता है। के परिवर्तन आये हैं। क्योंकि इस तथ्य को पूर्णत: समझे बिना केवल इस प्रकार चाहे अर्द्धमागधी आगम हो या शौरसेनी आगम, उनके एक-दूसरे के अनुकरण के आधार पर अथवा अपनी परम्परा को प्राचीन उपलब्ध संस्करणों की भाषा न तो पूर्णत: अर्द्धमागधी है और न ही सिद्ध करने हेतु किसी ग्रन्थ के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कर देना शौरसेनी। अर्द्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही प्रकार के आगमों पर सम्भवत: इन ग्रन्थों के ऐतिहासिक क्रम एवं काल निर्णय एवं इनके महाराष्ट्री का व्यापक प्रभाव देखा जाता है जो कि इन दोनों की अपेक्षा पारस्परिक प्रभाव को समझने में बाधा उत्पन्न करेगा और इससे कई परवर्ती है। इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत के कुछ ग्रन्थों पर परवर्ती अपभ्रंश प्रकार के अन्य अनर्थ भी सम्भव हो सकते है। का भी प्रभाव देखा जाता है। इन आगमों अथवा आगम तुल्य ग्रन्थों किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि जैनाचार्यों एवं के भाषिक स्वरूप की विविधता के कारण उनके कालक्रम तथा पारस्परिक जैन विद्वानों ने अपने भाषिक व्यामोह के कारण अथवा प्रचलित भाषा आदान-प्रदान को समझने में विद्वानों को पर्याप्त उलझनों का अनुभव के शब्द रूपों के आधार पर प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के भाषिक होता है, मात्र इतना ही नहीं कभी-कभी इन प्रभावों के कारण इन स्वरूप में परिवर्तन किया है। जैन आगमों की वाचना को लेकर जो ग्रन्थों को परवर्ती भी सिद्ध कर दिया जाता है। मान्यताएँ प्रचलित हैं, उनके अनुसार सर्वप्रथम ई.पू. तीसरी शती में आज आगमिक साहित्य के भाषिक स्वरूप की विविधता को वीर निर्वाण के लगभग एक सौ पचास वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में प्रथम दूर करने तथा उन्हें अपने मूल स्वरूप में स्थिर करने के कुछ प्रयत्न वाचना हुई। इसमें उस काल तक निर्मित आगम ग्रन्थों, विशेषत: अंग भी प्रारम्भ हुए हैं। सर्वप्रथम डॉ. के. ऋषभचन्द्र ने प्राचीन अर्द्धमागधी आगमों का सम्पादन किया गया। यह स्पष्ट है कि पटना की यह वाचना आगम जैसे- आचारांग, सूत्रकृतांग में आये महाराष्ट्री के प्रभाव को मगध में हुई थी और इसलिए इसमें आगमों की भाषा का जो स्वरूप दूर करने एवं उन्हें अपने मूल स्वरूप में लाने के लिये प्रयत्न प्रारम्भ निर्धारित हुआ होगा, वह निश्चित ही मागधी रहा होगा। इसके पश्चात् किया है क्योंकि एक ही अध्याय या उद्देशक में “लोय" और "लोग" लगभग ई.पू. प्रथम शती में खारवेल के शासन काल में उड़ीसा में या “आया" और "आता" दोनों ही रूप देखे जाते हैं। इसी प्रकार द्वितीय वाचना हुई। यहाँ पर इसका स्वरूप अर्द्धमागधी रहा होगा,
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________________ 32 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ किन्तु इसके लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् स्कंदिल और आर्य नागार्जुन उपलब्ध है, उसमें अर्द्धमागधी का सर्वाधिक प्रतिशत इसी ग्रन्थ में की अध्ययक्षता में क्रमश: मथुरा व वलभी में वाचनाएँ हुई। सम्भव पाया जाता है। है कि मथुरा में हुई इस वाचना में अर्द्धमागधी आगमों पर व्यापक जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्द्धमागधी तथा शौरसेनी रूप से शौरसेनी का प्रभाव आया होगा। वलभी के वाचना वाले आगमों ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हुआ? इस प्रश्न का उत्तर में नागार्जुनीय पाठों के तो उल्लेख मिलते हैं, किन्तु स्कंदिल की वाचना अनेक रूपों में दिया जा सकता है। वस्तुत: इन ग्रन्थों में हुए भाषिक के पाठ भेदों का कोई निर्देश नहीं है। स्कंदिल की वाचना सम्बन्धी परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण हैं, पाठभेदों का यह अनुल्लेख विचारणीय है। नन्दीसूत्र में स्कंदिल के जिन पर हम क्रमश: विचार करेंगे। सम्बन्ध में यह कहा गया है कि उनके अनुयोग (आगम-पाठ) ही दक्षिण 1. भारत में जहाँ वैदिक परम्परा में वेद वचनों को मंत्र मानकर भारत क्षेत्र में आज भी प्रचलित हैं। सम्भवत: यह संकेत यापनीय उनके स्वर-व्यंजन की उच्चारण योजना को अपरिवर्तनीय बनाये रखने आगमों के सम्बन्ध में होगा। यापनीय परम्परा जिन आगमों को मान्य पर अधिक बल दिया गया, उनके लिये शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण कर रही थी, उसमें व्यापक रूप से भाषिक परिवर्तन किया गया था रही और अर्थ गौण। आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो और उन्हें शौरसेनी रूप दे दिया गया था। यद्यपि आज प्रमाण के वेद मंत्रों के उच्चारण, लय आदि के प्रति अत्यन्त सतर्क रहते हैं, अभाव में निश्चित रूप से यह बता पाना कठिन है कि यापनीय आगमों किन्तु वे उनके अर्थों को नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वेद शब्द की भाषा का स्वरूप क्या था, क्योकि यापनीयों द्वारा मान्य और रूप में यथावत् बने रहे। इसके विपरीत जैन परम्परा में यह माना व्याख्यायित वे आगम उपलब्ध नहीं हैं। यद्यपि अपराजित के द्वारा गया कि तीर्थङ्कर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं उनके वचनों को शब्द रूप दशवैकालिक पर टीका लिखे जाने का निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु तो गणधर आदि के द्वारा दिया जाता है। जैनाचार्यों के लिये कथन वह टीका भी आज प्राप्त नहीं है। अत: यह कहना तो कठिन है कि का तात्पर्य ही प्रमुख था, उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया। यापनीय आगमों की भाषा कितनी अर्द्धमागधी थी और कितनी शौरसेनी। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाय, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना किन्तु इतना तय है कि यापनीयों ने अपने ग्रन्थों में आगमों, प्रकीर्णकों चाहिये, यही जैन आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा। शब्द रूपों की उनकी एवं नियुक्तियों की जिन गाथाओं को गृहीत किया है अथवा उद्धृत इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते किया है वे सभी आज शौरसेनी रूपों में ही पायी जाती हैं। यद्यपि गये। आज भी उन पर बहुत कुछ अर्द्धमागधी का प्रभाव शेष रह गया है। 2. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए उसका दूसरा चाहे यापनीयों ने सम्पूर्ण आगमों के भाषायी स्वरूप को अर्द्धमागधी कारण यह था कि जैनभिक्षु-संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षुगण सम्मिलित से शौरसेनी में रूपान्तरित किया हो या नहीं, किन्तु उन्होंने आगम थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी साहित्य से जो गाथाएँ उद्धृत की हैं, वे अधिकांशत: आज अपने शौरसेनी उच्चारण शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती, फलत: आगम साहित्य स्वरूप में पायी जाती हैं। यापनीय आगमों के भाषिक स्वरूप में यह के भाषिक स्वरूप में भिन्नता आ गयी। परिवर्तन जानबूझकर किया गया या जब मथुरा जैनधर्म का केन्द्र बना 3. जैनभिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होते हैं, उनकी भ्रमणशीलता तब सहज रूप में यह परिवर्तन आ गया था, यह कहना कठिन है। के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य प्रदेशों की बोलियों जैनधर्म सदैव से क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाता रहा और यही कारण का प्रभाव पड़ता ही है। फलत: आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हो सकता है कि श्रुतपरम्परा से चली आयी इन गाथाओं में या तो या मिश्रण हो गया। उदाहरण के रूप में जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी सहज ही क्षेत्रीय प्रभाव आया हो या फिर उस क्षेत्र की भाषा को ध्यान प्रदेशों में अधिक विहार करता है तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम में रखकर उसे उस रूप में परिवर्तित किया गया हो। दोनों ही बोलियों का प्रभाव आ ही जाता है। अत: भाषिक स्वरूप यह भी सत्य है कि वलभी में जो देवर्धिगणि की अध्यक्षता में की एकरूपता समाप्त हो जाती है। वी.नि.सं. 980 या 993 में अन्तिम वाचना हुई, उसमें क्षेत्रगत महाराष्ट्री 4. सामान्यतया बुद्धवचन बुद्ध निर्वाण के 200-300 वर्ष के प्राकृत का प्रभाव जैन आगमों पर विशेषरूप से आया होगा, यही अन्दर ही अन्दर लिखित रूप में आ गए। अत: उनके भाषिक स्वरूप कारण है कि वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य अर्द्धमागधी आगमों की भाषा में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि का जो स्वरूप उपलब्ध है, उस पर महाराष्ट्री का प्रभाव ही अधिक उनकी उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही और वह आज है। अर्द्धमागधी आगमों में भी उन आगमों की भाषा महाराष्ट्री से अधिक भी है। थाई, बर्मा और श्रीलंका के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण प्रभावित हुई है, जो अधिक व्यवहार या प्रचलन में रहे। उदाहरण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता के रूप में उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगम है। इसके विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घ महाराष्ट्री से अधिक प्रभावित हैं। जबकि ऋषिभाषित जैसा आगम काल तक लिखित रूप में नहीं आ सका, वह गुरुशिष्य परम्परा से महाराष्ट्री के प्रभाव से बहुत कुछ मुक्त रहा है। उस पर महाराष्ट्री प्राकृत मौखिक ही चलता रहा, फलतः देशकालगत उच्चारण भेद से उनके का प्रभाव अत्यल्प है। आज अर्द्धमागधी का जो आगम साहित्य हमें भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया।
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श भारत में कागज का प्रचलन न होने से ग्रन्थ भोजपत्रों या ताड़पत्रों वाचक हो गया। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने उसे गुप्तशासक पर लिखे जाते थे। ताड़पत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रामगुप्त मान लिया है और उसके द्वारा प्रतिष्ठापित विदिशा की जिन रखना जैन मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल ____ मूर्तियों के अभिलेखों से उसकी पुष्टि भी कर दी। जबकि वस्तुत: वह था। लगभग ई. सन् की 5 वीं शती तक इस कार्य को पाप-प्रवृत्ति निर्देश बुद्ध के समकालीन रामपुत्र नामक श्रमण आचार्य के सम्बन्ध माना जाता था तथा इसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था भी थी। फलतः में था, जो ध्यान एवं योग के महान् साधक थे और जिनसे स्वयं महावीर के पश्चात् लगभग 1000 वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत-परम्परा भगवान् बुद्ध ने ध्यान प्रक्रिया सीखी थी। उनसे सम्बन्धित एक अध्ययन पर ही आधारित रहा। श्रुत-परम्परा के आधार पर आगमों के भाषिक ऋषिभाषित में आज भी है, जबकि अंतकृद्ददशा में उनसे सम्बन्धित स्वरूप को सुरक्षित रखना कठिन था। अत: उच्चारण शैली का भेद जो अध्ययन था, वह आज विलुप्त हो चुका है। इसकी विस्तृत चर्चा आगमों के भाषिक स्वरूप के परिवर्तन का कारण बन गया। Aspects of Jainology Vol. II में मैंने अपने एक स्वतन्त्र लेख में 5. आगमिक एवं आगम तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों की है। इसी प्रकार आचारांग एवं सूत्रकृतांग में प्रयुक्त "खेत्तन" शब्द, का जो परिवर्तन देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों जो "क्षेत्रज्ञ" (आत्मज्ञ) का वाची था, महाराष्ट्री के प्रभाव से आगे (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र चलकर “खेयण्ण" बन गया और उसे "खेदज्ञ" का वाची मान लिया के होते थे, उन पर भी उस क्षेत्र की बोली/भाषा का प्रभाव रहता गया। इसकी चर्चा प्रो. के. आर. चन्द्रा ने श्रमण 1992 में प्रकाशित था और असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली के शब्द रूपों को लिख अपने लेख में की है। अत: स्पष्ट है कि इन परिवर्तनों के कारण अनेक देता था। उदाहरण के रूप में चाहे मूल पाठ में “गच्छति' लिखा स्थलों पर बहुत अधिक अर्थभेद भी हो गये हैं। आज वैज्ञानिक रूप हो लेकिन प्रचलन में “गच्छई" का व्यवहार है, तो प्रतिलिपिकार से सम्पादन की जो शैली विकसित हुई है उसके माध्यम से इन समस्याओं "गच्छई' रूप ही लिख देगा। के समाधान की अपेक्षा है। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया था 6. जैन आगम एवं आगम तुल्य ग्रन्थ में आये भाषिक परिवर्तनों कि आगमिक एवं आगम तुल्य ग्रन्थों के प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में सम्पादित के लिए श्वेताम्बर परम्परा में प्रो. के.आर. चन्द्रा और दिगम्बर परम्परा होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का में आचार्य श्री विद्यानन्द जी के सानिध्य में श्री बलभद्र जैन ने प्रयत्न प्रयत्न नहीं किया अपितु उन्हें सम्पादित करते समय अपने युग एवं क्षेत्र प्रारम्भ किया है। किन्तु इन प्रयत्नों का कितना औचित्य है और इस के प्रचलित भाषायी स्वरूप के आधार पर उनमें परिवर्तिन कर दिया। सन्दर्भ में किन-किन सावधानियों की आवश्यकता है, यह भी विचारणीय यही कारण है कि अर्द्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में है। यदि प्राचीन रूपों को स्थिर करने का यह प्रयत्न सम्पूर्ण सावधानी संकलित एवं सम्पादित हुए तो उनका भाषिक स्वरूप अर्द्धमागधी की और ईमानदारी से न हुआ तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया और जब वलभी में लिखे गये प्रथमतः, प्राकृत के विभिन्न भाषिक रूप लिये हुए इन ग्रन्थों में तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। यह अलग बात है कि ऐसा पारस्परिक प्रभाव और पारस्परिक अवदान को अर्थात् किसने किस परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उसमें अर्द्धमागधी के तत्त्व परम्परा से क्या लिया है, इसे समझने के लिए आज जो सुविधा है, भी बने रहे। वह इनमें भाषिक एकरूपता लाने पर समाप्त हो जायेगी। आज नमस्कार सम्पादन और प्रतिलिपि करते समय भाषिक स्वरूप की एकरूपता मंत्र में "नमो” और “णमो' शब्द का जो विवाद है, उसका समाधान पर विशेष बल नहीं दिए जाने के कारण जैन आगम एवं आगमतुल्य और कौन सा शब्दरूप प्राचीन है इसका निश्चय, हम खारवेल और साहित्य अर्द्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री की खिचड़ी ही बन गया मथुरा के अभिलेखों के आधार पर कर सकते हैं और यह कह सकते और विद्वानों ने उनकी भाषा को जैन-शौरसेनी और जैन-महाराष्ट्री ऐसे हैं कि अर्द्धमागधी का "नमो” रूप प्राचीन है, जबकि शौरसेनी और नाम दे दिये। न प्राचीन संकलन कर्ताओं ने उस पर ध्यान दिया और महाराष्ट्री का “णमो” रूप परवर्ती है, क्योंकि ई. की दूसरी शती तक न आधुनिक काल के सम्पादनों, प्रकाशनों में इस तथ्य पर ध्यान दिया अभिलेखों में कहीं भी "णमो' रूप नहीं मिलता। जबकि छठी शती गया। परिणामत: एक ही आगम के एक ही विभाग में “लोक", "लोग", से दक्षिण भारत के जैन अभिलेखों में “णमो” रूप बहुतायत से मिलता "लोअ" और "लोय' ऐसे चारों ही रूप देखने को मिल जाते हैं। है। इससे फलित यह निकलता है कि णमो रूप परवर्ती है और जिन यद्यपि सामान्य रूप से तो इन भाषिक रूपों के परिवर्तनों के ग्रन्थों में "न" के स्थान पर “ण” की बहुलता है, वे ग्रन्थ भी परवर्ती कारण कोई बहुत बड़ा अर्थ-भेद नहीं होता है, किन्तु कभी-कभी इनके हैं। यह सत्य है कि 'नमो' से परिवर्तित होकर ही “णमो" रूप बना कारण भयंकर अर्थ-भेद भी हो जाता है। इस सन्दर्भ में एक दो उदाहरण है। जिन अभिलेखों में “णमो" रूप मिलता है वे सभी ई. सन् की देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूँगा। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग चौथी शती के बाद के ही हैं। इसी प्रकार से नमस्कार मंत्र की अन्तिम का प्राचीन पाठ "रामपुत्ते' बदलकर चूर्णि में “रामाउत्ते" हो गया, गाथा में- एसो पंच नमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाण च किन्तु वही पाठ सूत्रकृतांग की शीलांक की टीका में “रामगुत्ते" हो सव्वेसिं पढ़म हवइ मंगलं- ऐसा पाठ है। इनमें प्रयुक्त प्रथमाविभक्ति गया। इस प्रकार जो शब्द रामपुत्र का वाचक था, वह रामगुप्त का में “एकार" के स्थान पर “ओकार" का प्रयोग तथा "हवति" के
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________________ 34 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ स्थान पर "हवई" शब्द रूप का प्रयोग यह बताता है कि इसकी रचना होते हुए भी महाराष्ट्री रूप “खेयन्न' बनाये रखना उचित नहीं होगा। अर्धमागधी से महाराष्ट्री के संक्रमणकाल के बीच की है और यह अंश जहाँ तक अर्द्धमागधी आगम ग्रन्थों का प्रश्न है उन पर परवर्तीकाल नमस्कार मंत्र में बाद में जोड़ा गया है। इसमें शौरसेनी रूप “होदि" में जो शौरसेनी या महाराष्ट्री प्राकृतों का प्रभाव आ गया है, उसे दूर या “हवदि" के स्थान पर महाराष्ट्री शब्द रूप “हवई" है जो यह करने का प्रयत्न किसी सीमा तक उचित माना जा सकता है, किन्तु बताता है कि यह अंश मूलत: महाराष्ट्री में निर्मित हुआ था और वहीं इस प्रयत्न में भी निम्न सावधानियाँ अपेक्षित हैंसे शौरसेनी में लिया गया है। 1. प्रथम तो यह कि यदि मूल हस्तप्रतियों में कहीं भी वह शब्द इसी प्रकार शौरसेनी आगमों में भी इसके "हवइ' शब्द रूप रूप नहीं मिलता है, तो उस शब्द रूप को किसी भी स्थिति में परिवर्तित की उपस्थिति भी यही सूचित करती है कि उन्होंने इस अंश को परवर्ती न किया जाये। किन्तु प्राचीन अर्द्धमागधी शब्द रूप जो किसी भी महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थों से ही ग्रहण किया है। अन्यथा वहाँ मूल मूल हस्तप्रति में एक दो स्थानों पर भी उपलब्ध होता है, उसे अन्यत्र शौरसेनी का “हवदि" या "होदि" रूप ही होना था। आज यदि किसी परिवर्तित किया जा सकता है। यदि किसी अर्द्धमागधी के प्राचीन ग्रन्थ को शौरसेनी का अधिक आग्रह हो, तो क्या वे नमस्कार मंत्र के इस में “लोग" एवं “लोय' दोनों रूप मिलते हों तो वहाँ अर्वाचीन रूप "हवइ" शब्द को "हवदि" या "होदि" रूप में परिवर्तित कर देंगे? "लोय" को प्राचीन रूप "लोग' में रूपान्तरित किया जा सकता है जबकि तीसरी-चौथी शती से आज तक कहीं भी “हवइ" के अतिरिक्त किन्तु इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि एक पूरा अन्य कोई शब्द रूप उपलब्ध नहीं है। का पूरा गद्यांश या पद्यांश महाराष्ट्री में है और उसमें प्रयुक्त शब्दों प्राकृत के भाषिक स्वरूप के सम्बन्ध में दूसरी कठिनाई यह है के वैकल्पिक अर्द्धमागधी रूप किसी एक भी आदर्श प्रति में नहीं मिलते कि प्राकृत का मूल आधार क्षेत्रीय बोलियाँ होने से उसके एक ही हैं तो उन अंशों को परिवर्तित न किया जाये, क्योंकि सम्भावना यह है वह स्वयं इस बात का सूचक है कि चाहे शब्द रूप हो, चाहे धातु उस अंश के प्रक्षिप्त होने का आधार जो उसका भाषिक स्वरूप है, रूप हो, या उपसर्ग आदि हो, उनकी बहुविधता को अस्वीकार नहीं उसको बदलने से आगमिक शोध में बाधा उत्पन्न होगी। उदाहरण के किया जा सकता। एक बार हम मान भी लें कि एक क्षेत्रीय बोली रूप में आचारांग के प्रारम्भ में "सुयं मे आउसंतेण भगवया एवं में एक ही रूप रहा होगा, किन्तु चाहे वह शौरसेनी, अर्द्धमागधी या अक्खायं" के अंश को ही लें, जो सामान्यतया सभी प्रतियों में इसी महाराष्ट्री प्राकृत हो, साहित्यिक भाषा के रूप में इनके विकास के रूप में मिलता है। यदि हम इसे अर्द्धमागधी में रूपान्तरित करके "सुतं मूल में विविध बोलियाँ रही हैं। अत: भाषिक एकरूपता का प्रयत्न मे आउसन्तेणं भगवता एवं अक्खाता" कर देगें तो इसके प्रक्षिप्त प्राकृत की अपनी मूल प्रकृति की दृष्टि से कितना समीचीन होगा, होने की जो सम्भावना है वह समाप्त हो जायेगी। अतः प्राचीनस्तर यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। के आगमों में किस अंश के भाषिक स्वरूप को बदला जा सकता पुनः चाहे हम एक बार यह मान भी लें कि प्राचीन अर्द्धमागधी है और किसको नहीं, इस पर गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। का जो भी साहित्यिक रूप रहा वह बहुविध नहीं था और उसमें व्यंजनों इसी सन्दर्भ में ऋषिभाषित के एक अन्य उदाहरण पर भी विचार के लोप, उनके स्थान पर "अ" या "य" की उपस्थिति अथवा "न" कर सकते हैं। इसमें प्रत्येक ऋषि के कथन को प्रस्तुत करते हुए के स्थान पर “ण” की प्रवृत्ति नहीं रही होगी और इस आधार पर सामान्यतया यह गद्यांश मिलता है- अरहता इसिणा बुइन्तं, किन्तु आचारांग आदि की भाषा का अर्द्धमागधी स्वरूप स्थिर करने का हम देखते हैं कि इसके 45 अध्यायों में से 37 में “बुइन्त" पाठ प्रयत्न उचित भी मान लिया जाये, किन्तु यह भी सत्य है कि जैन है, जबकि 7 में “बुइयं” पाठ है। ऐसी स्थिति में यदि इस “बुइयं" परम्परा में शौरसेनी का आगम तुल्य साहित्य मूलत: अर्द्धमागधी पाठ वाले अंश के आस-पास अन्य शब्दों के प्राचीन अर्द्धमागधी रूप आगम-साहित्य के आधार पर और उससे ही विकसित हुआ, अतः मिलते हों तो "बुइयं' को बुइन्तं में बदला जा सकता है। किन्तु यदि उसमें जो अर्द्धमागधी या महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है, उसे पूर्णतः किसी शब्द रूप के आगे-पीछे के शब्द रूप भी महाराष्ट्री प्रभाव वाले निकाल देना क्या उचित होगा? यदि हमने यह दुःसाहस किया भी हों, तो फिर उसे बदलने के लिए हमें एक बार सोचना होगा। तो उससे ग्रन्थों के काल-निर्धारण आदि में और उनकी पारस्परिक कुछ स्थितियों में यह भी होता है कि ग्रन्थ की एक ही आदर्श प्रभावकता को समझने में, आज जो सुगमता है, वह नष्ट हो जायेगी। प्रति उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में जब तक उनकी प्रतियाँ उपलब्ध यही स्थिति महाराष्ट्री प्राकृत की भी है। उसका आधार भी न हों, तब तक उनके साथ छेड़-छाड़ करना उचित नहीं होगा। अत: अर्द्धमागधी और अंशत: शौरसेनी आगम रहे हैं। यदि उनके प्रभाव अर्द्धमागधी या शौरसेनी के भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के किसी को निकालने का प्रयत्न किया गया तो वह भी उचित नहीं होगा। निर्णय से पूर्व सावधानी और बौद्धिक ईमानदारी की आवश्यकता है। खेयण्ण का प्राचीन रूप खेत्तन्न है। महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थ में एक इस सन्दर्भ में अन्तिम रूप से एक बात और निवेदन करना आवश्यक बार खेत्तन्न रूप प्राप्त होता है तो उसे हम प्राचीन शब्द रूप मानकर है, वह यह कि यदि मूलपाठ में किसी प्रकार का परिवर्तन किया भी रख सकते हैं, किन्तु अर्द्धमागधी के ग्रन्थ में "खेतन" रूप उपलब्ध जाता है, तो भी इतना तो अवश्य ही करणीय होगा कि पाठान्तरों
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श के रूप में अन्य उपलब्ध शब्द रूपों को भी अनिवार्य रूप से रखा के नियम थोपे नहीं जा सकते कि वे व्याकरण के नियमों के अनुसार जाय, साथ ही भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति ही बोलें। यह कोई तर्क नहीं, मात्र उनकी श्रद्धा का अतिरेक ही है। आधार रूप में मान्य की गयी हो उसकी मूल प्रतिछाया को भी प्रकाशित प्रथम प्रश्न तो यही है कि क्या अर्धमागधी आगम अपने वर्तमान स्वरूप किया जाय, क्योंकि छेड़-छाड़ के इस क्रम में जो साम्प्रदायिक में सर्वज्ञ की वाणी है? क्या उनमें किसी प्रकार का विलोपन, प्रक्षेप आग्रह कार्य करेंगे, उससे ग्रन्थ की मौलिकता को पर्याप्त धक्का लग या परिवर्तन नहीं हुआ है? यदि ऐसा है तो उनमें अनेक स्थलों पर सकता है। अन्तर्विरोध क्यों है? कहीं लोकान्तिक देवों की संख्या आठ है तो आचार्य शान्तिसागर जी और उनके समर्थक कुछ दिगम्बर विद्वानों कहीं नौ क्यों है? कहीं चार स्थावर और दो त्रस हैं, कहीं तीन त्रस द्वारा षट्खण्डागम (1/1/93) में से "संजद" पाठ को हटाने की और तीन स्थावर कहे गये, तो कहीं पाँच स्थावर और एक वस। यदि एवं श्वेताम्बर परम्परा में मुनि श्री फूलचन्द जी द्वारा परम्परा के विपरीत आगम शब्दश: महावीर की वाणी है, तो आगमों और विशेष रूप लगने वाले कुछ आगम के अंशों को हटाने की कहानी अभी हमारे से अंग आगमों में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुए गणों . सामने ताजा ही है। यह तो भाग्य ही था कि इस प्रकार के प्रयत्नों के उल्लेख क्यों हैं? यदि कहा जाय कि भगवान सर्वज्ञ थे और उन्होंने को दोनों ही समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने स्वीकार नहीं किया और इस भविष्य की घटनाओं को जानकर यह उल्लेख किया तो प्रश्न यह प्रकार से सैद्धान्तिक संगति के नाम पर जो कुछ अनर्थ हो सकता। कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था, उससे हम बच गये। किन्तु आज भी “षट्खण्डागम" के ताम्र था वह भूतकाल में क्यों कहा गया। क्या भगवती में गोशालक के पत्रों एवं प्रथम संस्करण की मुद्रित प्रतियों में 'संजद' शब्द अनुपस्थित प्रति जिस अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग हुआ है क्या वह अंश वीतराग है। इसी प्रकार फूलचन्द जी द्वारा सम्पादित अंग-सुत्ताणि में कुछ आगम भगवान महावीर की वाणी हो सकती है? क्या आज प्रश्नव्याकरणदशा, पाठों का जो विलोपन हुआ है वे प्रतियाँ तो भविष्य में भी रहेंगी, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा की विषयवस्तु वही अत: भविष्य में तो यह सब निश्चय ही विवाद का कारण बनेगा। इसलिये है, जो स्थानांग में उल्लिखित है? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन ऐसे किसी भी प्रयत्न से पूर्व पूरी सावधानी एवं सजगता आवश्यक हुआ है, आज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं। है। मात्र "संजद' पद हट जाने से उस ग्रन्थ के यापनीय होने की आज ऐसे अनेक तथ्य हैं, जो वर्तमान आगमसाहित्य को अक्षरश: जो पहचान है, वही समाप्त हो जाती और जैन परम्परा के इतिहास सर्वज्ञ के वचन मानने में बाधक हैं। परम्परा के अनुसार भी सर्वज्ञ के साथ अनर्थ हो जाता। तो अर्थ (विषयवस्तु) के प्रवक्ता हैं- शब्द रूप तो उनको गणधरों - उपर्युक्त समस्त चर्चा से मेरा प्रयोजन यह नहीं है कि अर्द्धमागधी या परवर्ती स्थविरों द्वारा दिया गया है। क्या आज हमारे पास जो आगम आगम एवं आगम तुल्य शौरसेनी ग्रन्थों के भाषायी स्वरूप की एकरूपता हैं, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे शब्द रूप से गणधर गौतम ने उन्हें रचा एवं उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने का कोई प्रयत्न ही न हो। था? आगम ग्रन्थों में परवर्तीकाल में जो विलोपन, परिवर्तन, परिवर्धन मेरा दृष्टिकोण मात्र यह है कि उसमें विशेष सतर्कता की आवश्यकता आदि हुआ और जिनका साक्ष्य स्वयं आगम ही दे रहे हैं, उससे क्या है। साथ ही इस प्रयत्न का परिणाम यह न हो कि जो परवर्ती ग्रन्थ हम इन्कार कर सकते हैं? स्वयं देवर्धि ने इस तथ्य को स्वीकार किया प्राचीन अर्द्धमागधी आगम साहित्य के आधार पर निर्मित हुए हैं, उनकी है तो फिर हम नकारने वाले कौन होते हैं। आदरणीय पारखजी लिखते उस रूप में पहचान ही समाप्त कर दी जाये और इस प्रकार आज है- “पण्डितों से हमारा यही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेल-सेल ग्रन्थों के पौर्वापर्य के निर्धारण का जो भाषायी आधार है वह भी नष्ट के वही पाठ प्रदान करें जो तीर्थकरों ने अर्थरूप में प्ररुपित और गधणरों हो जाये। यदि प्रश्नव्याकरण, नन्दीसूत्र आदि परवर्ती आगमों की भाषा ने सूत्ररूप में संकलित किया था। हमारे लिये वही शुद्ध है। सर्वज्ञों को प्राचीन अर्द्धमागधी में बदला गया अथवा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का को जिस अक्षर, शब्द, पद, वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीष्ट था, या मूलाचार और भगवती आराधना का पूर्ण शौरसेनीकरण किया गया वह सूचित कर गये, अब उसमें असर्वज्ञ फेर बदल नहीं कर सकता।" तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे उनकी पहचान और इतिहास उनके इस कथन के प्रति मेरा प्रथम प्रश्न तो यही है कि आज तक ही नष्ट हो जायेगा। आगमों में जो परिवर्तन होता रहा वह किसने किया? आज हमारे पास जो लोग इस परिवर्तन के पूर्णत: विरोधी हैं उनसे भी मैं सहमत जो आगम हैं उनमें एकरूपता क्यों नहीं है? आज मुर्शिदाबाद, हैदराबाद, नहीं हूँ। मैं यह मानता हूँ आचारांग, ऋषिभाषित एवं सूत्रकृतांग जैसे बम्बई, लाडनूं आदि के संस्करणों में इतना अधिक पाठ भेद क्यों प्राचीन आगमों का इस दृष्टि से पुन: सम्पादन होना चाहिए। इस प्रकिया है? इनमें से हम किस संस्करण को सर्वज्ञ वचन माने और आपके के विरोध में जो स्वर उभर कर सामने आये हैं उनमें जौहरीमल जी शब्दों में किसे भेल-सेल कहें? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि क्या आज पारख का स्वर प्रमुख है। वे विद्वान् अध्येता ओर श्रद्धाशील दोनों पण्डित आगमों में कोई भेल-सेल कर रहे हैं या फिर वे उसके शुद्ध ही हैं। फिर भी तुलसी-प्रज्ञा में उनका जो लेख प्रकाशित हुआ है स्वरूप को सामने लाना चाहते हैं? किसी भी पाश्चात्य संशोधक दृष्टि उसमें उनका वैदुष्य श्रद्धा के अतिरेक में दब सा गया है। उनका सर्वप्रथम सम्पन्न विद्वान् ने आगमों में कोई भेल-सेल किया? इसका एक भी तर्क यह है कि आगम सर्वज्ञ के वचन हैं, अत: उन पर व्याकरण उदाहरण हो तो हमें बतायें। दुर्भाग्य यह है कि शुद्धि के प्रयत्न को
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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भेल-सेल का नाम दिया जा रहा है और व्यर्थ में उसकी आलोचना नहीं है। की जा रही है। पुन: जहाँ तक मेरी जानकारी है डॉ. चन्द्रा ने एक वर्तमान में उपलब्ध आगमों के संस्करणों में लाडनूं और महावीर भी ऐसा पाठ नहीं सुझाया है, जो आदर्श सम्मत नहीं है। उन्होंने मात्र विद्यालय के संस्करण अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, किन्तु उनमें यही प्रयत्न किया है कि जो भी प्राचीन शब्द रूप किसी भी एक आदर्शप्रत भी "त" श्रुति और “य" श्रुति को लेकर या मध्यवर्ती व्यंजनों के में एक-दो स्थानों पर भी मिल गये, उन्हें आधार मानकर अन्य स्थलों लोप सम्बन्धी जो वैविध्य है, वह न केवल आश्चर्यजनक है, अपितु पर भी वही प्राचीन रूप रखने का प्रयास किया है। यदि उन्हें भेल-सेल विद्वानों के लिए चिन्तनीय भी है। करना होता तो वे इतने साहस के सभी पूज्य मुनिजनों एवं विद्वानों यहाँ महावीर विद्यालय से प्रकाशित स्थानांगसूत्र के ही एक-दो के विचार जानने के लिये उसे प्रसारित नहीं करते। फिर जब पारख उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ - जी स्वयं यह कहते हैं कि कुल 116 पाठभेदों में केवल 1 “आउसंतेण" चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा-सुती नाम एगे सुती, सईनाम एगे असई, को छोड़कर शेष 115 पाठभेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ में कोई फर्क चउभंगो। नहीं पड़ता- तो फिर उन्होंने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया जिससे एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा सुती णामं एगे सुती, उनके श्रम की मूल्यवत्ता को स्वीकार करने के स्थान पर उसे नकारा चउभंगो। जा रहा है? आज यदि आचारांग के लगभग 40 से अधिक संस्करण -(चतुर्थ) स्थान, प्रथम उद्देशक, सूत्रक्रमांक 241, पृ० 94) हैं- और यह भी सत्य है कि सभी ने आदर्शों के आधार पर ही इस प्रकार यहाँ आप देखेंगे कि एक ही सत्र में "सती" और पाठ छापे हैं तो फिर किसे शुद्ध और किसे अशुद्ध कहें? क्या सभी “सुई' दोनों रूप उपस्थित हैं। इससे मात्र शब्द-रूप में ही भेद नहीं को समान रूप से शुद्ध मान लिया जायेगा। क्या हम ब्यावर, जैन होता है, अर्थ भेद भी हो सकता है, क्योंकि "सुती" का अर्थ है विश्वभारती, लाडनूं और महावीर विद्यालय वाले संस्करणों को समान सूत से निर्मित, जबकि “सुई" (शुचि) का अर्थ है पवित्र। इस प्रकार महत्त्व का समझें? भय भेल-सेल का नहीं है, भय यह है कि अधिक इसी सूत्र में “णाम" और "नाम" दोनों शब्द रूप एक ही साथ उपस्थित प्रामाणिक एवं शुद्ध संस्करण के निकल जाने से पूर्व संस्करणों की हैं। इसी स्थानांगसूत्र से एक अन्य उदाहरण लीजिए- सूत्र क्रमांक सम्पादन में रही कमियाँ उजागर हो जाने का और यही खीज का मूल 445, पृ० 197 पर “निर्ग्रन्थ" शब्द के लिए प्राकृत शब्दरूप"नियंठ" कारण प्रतीत होता है। पुन: क्या श्रद्धेय पारखजी यह बता सकते हैं प्रयुक्त है तो सूत्र 446 में “निग्गंथ" और पाठान्तर में "नितंठ' रूप कि क्या कोई भी ऐसी आदर्श प्रति है, जो पूर्णत: शुद्ध है- जब भी दिया गया है। इसी ग्रन्थ में सूत्र संख्या 458, पृ. 197 पर आदर्शों में भिन्नता और अशुद्धियाँ हैं, तो उन्हें दूर करने के लिये धम्मत्थिकातं, अधम्मत्थिकातं और आगासत्थिकायं- इस प्रकार विद्वान् व्याकरण के अतिरिक्त किसका सहारा लेंगे? क्या आज तक “काय' शब्द के दो भिन्न शब्द रूप काय और कातं दिये गये हैं। कोई भी आगम ग्रन्थ बिना व्याकरण का सहारा लिये मात्र आदर्श के यद्यपि “त" श्रुति प्राचीन अर्द्धमागधी की पहचान है, किन्तु प्रस्तुत आधार पर छपा है। प्रत्येक सम्पादक व्याकरण का सहारा लेकर ही सन्दर्भ में सुती, निठंत और कातं में जो "त" का प्रयोग है वह मुझे आदर्श की अशुद्धि को ठीक करता है। यदि वे स्वयं यह मानते हैं परवर्ती लगता है। लगता है कि "य" श्रुति को "त" श्रुति में बदलने कि आदर्शों में अशुद्धियाँ स्वाभाविक हैं, तो फिर उन्हें शुद्ध किस के प्रयत्न भी कालान्तर में हुए और इस प्रयत्न में बिना अर्थ का विचार आधार पर किया जायेगा? मैं भी यह मानता हूँ कि सम्पादन में आदर्श किये "य" को "त" कर दिया गया है। शुचि का सूती, निर्ग्रन्थ का प्रति का आधार आवश्यक है। किन्तु न तो मात्र आदर्श से और न नितंठ और काय का कातं किस प्राकृत व्याकरण के नियम से बनेगा, मात्र व्याकरण के नियमों से समाधान होता है, उसमें दोनों का सहयोग मेरी जानकारी में तो नहीं है। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक एक उदाहरण आवश्यक है। मात्र यही नहीं अनेक प्रतों को सामने रखकर तुलना हमें हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित नियुक्तिसंग्रह में करके एवं विवेक से भी पाठ शुद्ध करना होता है। जैसा कि आचार्य ओघनियुक्ति के प्रारम्भिक मंगल में मिलता हैश्री तुलसी जी ने मुनि श्री जम्बूविजय जी को अपनी सम्पादन शैली नमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, का स्पष्टीकरण करते हुए बताया था। णमो लोए सव्वसाहूणं, आदरणीय पारखजी एवं उनके द्वारा उद्धृत मुनि श्री जम्बूविजयजी एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं का यह कथन कि आगमों में अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ प्रायः हवइ मंगल।।१।। नहीं मिलते हैं, स्वयं ही यह बताता है कि क्वचित् तो मिलते हैं। यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ नमो अरिहंताणं में प्रारम्भ में "न' पुन: इस सम्बन्ध में डॉ. चन्द्रा ने आगमोदय समिति के संस्करण, रखा गया जबकि णमो सिद्धाणं से लेकर शेष चार पदों में आदि का टीका तथा चूर्णि के संस्करणों से प्रमाण भी दिये हैं। वस्तुतः लेखन "न" "ण' कर दिया गया है। किन्तु “एसो पंचनमुक्कारों" में पुन: की सुविधा के कारण ही अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ आदर्शों में "न" उपस्थित है। हम आदणीय पारखजी से इस बात में सहमत कम होते गये हैं। किन्तु लोकभाषा में वे आज भी जीवित हैं। अत: हो सकते हैं कि भिन्न कालों में भिन्न व्यक्तियों से चर्चा करते हुए प्राकृत चन्द्रा जी के कार्य को प्रमाणरहित या आदर्शरहित कहना उचित भाषा के भिन्न शब्द रूपों का प्रयोग हो सकता है। किन्तु ग्रन्थ-निर्माण
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श 37 के समय और वह भी एक ही सूत्र या वाक्यांश में दो भिन्न रूपों वे जो कार्य कर रहे हैं वह न केवल करणीय है बल्कि एक सही का प्रयोग तो कभी भी नहीं होगा, पुन: यदि हम यह मानते हैं कि दिशा देने वाला कार्य है। हम उन्हें सुझाव तो दे सकते हैं लेकिन आगम सर्वज्ञ वचन हैं, तो जब सामान्य व्यक्ति भी ऐसा नहीं करता अनधिकृत रूप से येन-केन प्रकारेण सर्वज्ञ और शास्त्र-श्रद्धा की दुहाई है, तो फिर सर्वज्ञ कैसे करेगा? इस प्रकार की भिन्नता के लिए लेखक देकर उनकी आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं रखते। क्योंकि नहीं, अपितु प्रतिलिपिकार ही उत्तरदायी होता है। अत: ऐसे पाठों वे जो भी कार्य कर रहे हैं वह बौद्धिक ईमानदारी के साथ, निर्लिप्त का शुद्धीकरण अनुचित नहीं कहा जा सकता। एक ही सूत्र में “सुती” भाव से तथा सम्प्रदायगत आग्रहों से ऊपर उठकर कर रहे हैं, उनकी और “सुई" "नाम" और "णाम", "नियंठ" और "निग्गंथ", "कातं" नियत में भी कोई शंका नहीं की जा सकती। अत: मैं जैन विद्या और "कायं" ऐसे दो शब्द रूप नहीं हो सकते। उनका पाठ संशोधन के विद्वानों से नम्र निवेदन करूँगा कि वे शान्तचित्त से उनके प्रयत्नों आवश्यक है। यद्यपि इसमें भी यह सावधानी आवश्यक है कि "त" की मूल्यवत्ता को समझें और अपने सुझावों एवं सहयोग से उन्हें इस श्रुति की प्राचीनता के व्यामोह में कहीं सर्वत्र “य" का "त" नहीं दिशा में प्रोत्साहित करें। दूसरी ओर मैं प्रो. चन्द्रा से भी निवेदन कर दिया जावे, जैसे शुचि-सुइ का "सुती', निग्गंथ का “नितंठ" करूँगा कि वे बिना प्रमाण के ऐसा कोई परिशोधन न करे। अथवा कायं का “कातं" पाठ महावीर विद्यालय वाले संस्करण में है। हम पारखजी से इस बात में सहमत हैं कि कोई भी पाठ आदर्श आगमों के विच्छेद की अवधारणा में उपलब्ध हुए बिना नहीं बदला जाय, किन्तु “आदर्श' में उपलब्ध आगम के विच्छेद की यह अवधारणा जैनधर्म के श्वेताम्बर एवं होने का यह अर्थ नहीं है कि "सर्वत्र" और सभी "आदर्शो' में उपलब्ध दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में उल्लिखित है। दिगम्बर परम्परा में आगमों हो। हाँ यदि आदर्शों या आदर्श के अंश में प्राचीन पाठ मात्र एक के विच्छेद की यह अवधारणा तिलोयपण्णत्ति, षट्खण्डागम की दो स्थलों पर ही मिलें और उनका प्रतिशत 20 से भी कम हो तो धवलाटीका, हरिवंशपुराण, आदिपुराण आदि में मिलती है। इन सब वहाँ उन्हें प्रायः न बदला जाय। किन्तु यदि उनका प्रतिशत 20 से ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ति अपेक्षाकृत प्राचीन है। तिलोयपण्णत्ति का अधिक हो तो उन्हें बदला जा सकता है- शर्त यही हो कि आगम रचनाकाल विद्वानों ने ईसा की छठी-सातवीं शती के लगभग माना का वह अंश परवर्ती या प्रक्षिप्त न हो-जैसे आचारांग का दूसरा श्रुतस्कन्ध है। इसके पश्चात् षट्खण्डागम की धवला टीका, हरिवंशपुराण, या प्रश्नव्याकरण। किन्तु एक ही सूत्र में यदि इस प्रकार के भिन्न रूप आदिपुराण आदि ग्रन्थ आते हैं जो लगभग ई. की नवीं शती की आते हैं तो एक स्थल पर भी प्राचीन रूप मिलने पर अन्यत्र उन्हें रचनाएँ हैं। हरिवंश पुराण में आगम-विच्छेद की चर्चा को कुछ विद्वानों परिवर्तित किया जा सकता है। ने प्रक्षिप्त माना है, क्योंकि वह यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है और पाठ शुद्धीकरण में दूसरी सावधानी यह आवश्यक है कि आगमों यापनीयों में नवीं-दसवीं शताब्दी तक आगमों के अध्ययन और उन में कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश हैं अथवा संग्रहिणियों और नियुक्तियों की पर टीका लिखने की परम्परा जीवित रही है। सम्भव यह भी है कि अनेकों गाथाएँ भी अवतरित की गयीं, ऐसे स्थलों पर पाठ-शुद्धिकरण जिस प्रकार श्वेताम्बरों में आगमों के विच्छेद की चर्चा होते हुए भी करते समय प्राचीन रूपों की उपेक्षा करनी होगी और आदर्श में उपलब्ध आगमों की परम्परा जीवित रही उसी प्रकार यापनीयों में भी श्रुत-विच्छेद पाठ को परवर्ती होते हुए भी यथावत् रखना होगा।इस तथ्य को हम की परम्परा का उल्लेख होते हुए भी श्रुत के अध्ययन एवं उन पर इस प्रकार भी समझा सकते हैं कि यदि एक अध्ययन, उद्देशक या टीका आदि के लेखन की परम्परा जीवित रही है। पुन: हरिवंशपुराण एक पैराग्राफ में यदि 70 या 80 प्रतिशत प्रयोग महाराष्ट्री या "य" में भी मात्र पूर्व एवं अंग ग्रन्थ के विच्छेद की चर्चा है, शेष ग्रन्थ श्रुति के हैं और मात्र 10 प्रतिशत प्रयोग प्राचीन अर्द्धमागधी के हैं तो थे ही। तो वहाँ पाठ के महाराष्ट्री रूप को रखना ही उचित होगा। सम्भव इन ग्रन्थों के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् गौतम, है कि वह. प्रक्षिप्त रूप हो, किन्तु इसके विपरीत उनमें 60 प्रतिशत सुधर्मा (लोहार्य) और जम्बू ये तीन आचार्य केवली हुए, इन तीनों प्राचीन रूप हैं और 40 प्रतिशत अर्वाचीन महाराष्ट्री के रूप हैं, तो का सम्मिलित काल 62 वर्ष माना गया है। तत्पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, वहाँ प्राचीन रूप रखे जा सकते हैं। अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच आचार्य चतुर्दश पूर्वो के पुन: आगम-संपादन और पाठ-शुद्धीकरण के इस उपक्रम में दिये धारक श्रुतकेवली हुए। इन पाँच आचार्यों का सम्मिलित काल 100 जाने वाले मूलपाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप में दिया जाय, किन्तु वर्ष है। इस प्रकार भद्रबाहु के काल तक अंग और पूर्व की परम्परा पाद टिप्पणियों में सम्पूर्ण पाठान्तरों का संग्रह किया जाय। इसका अविच्छिन्न बनी रही। उसके बाद प्रथम पूर्व साहित्य का विच्छेद प्रारम्भ लाभ यह होगा कि कालान्तर में यदि कोई संशोधन कार्य करें तो हुआ। भद्रबाहु के पश्चात् विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, उसमें सुविधा हो। धृतिसेन, विजय बुद्धिल, धर्मसेन और गंगदेव- ये ग्यारह आचार्य प्रो. के.आर चन्द्रा अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद भी आगमों दस पूर्वो के धारक हुए। इनका सम्मिलित काल 183 वर्ष माना गया के पाठ संशोधन का जो यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और श्रमसाध्य कार्य है। इस प्रकार वीरनिर्वाण के पश्चात् 345 वर्ष तक पूर्वधरों का अस्तित्व कर रहे हैं, उसकी मात्र आलोचना करना कथमपि उचित नहीं है, क्योंकि रहा। इसके बाद पूर्वधरों के विच्छेद के साथ ही पूर्व ज्ञान का विच्छेद
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________________ 38 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हो गया। इनके पश्चात् नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस- तित्थोगालिय एवं अन्य ग्रन्थों के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि ये पाँच आचार्य एकादश अंगों के ज्ञाता हुए। इनका सम्मिलित काल श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हुए। 220 वर्ष माना गया। इस प्रकार भगवान् महावीर निर्वाण के 565 आर्य भद्रबाहु के स्वर्गवास के साथ ही चतुर्दश पूर्वधरों की परम्परा वर्ष पश्चात् आचारांग को छोड़कर शेष अंगों का भी विच्छेद हो गया। समाप्त हो गयी। इनका स्वर्गवास काल वीरनिर्वाण के 170 वर्ष पश्चात् इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य- ये चार आचार्य / माना जाता है। इसके पश्चात् स्थूलिभद्र दस पूर्वो के अर्थ सहित और आचारांग के धारक हुए। इनका काल 118 वर्ष रहा।इस प्रकार शेष चार पूर्वो के मूल मात्र के ज्ञाता हुए। यथार्थ में तो वे दस पूर्वो वीरनिर्वाण के 683 वर्ष पश्चात् अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के के ही ज्ञाता थे। तित्थोगालिय में स्थूलिभद्र को दस पूर्वधरों में प्रथम पूर्णज्ञाता आचार्यों की परम्परा समाप्त हो गई। इनके बाद आचार्य कहा गया है। उसमें अन्तिम दसपूर्वी सत्यमित्र (पाठभेद से सर्वमित्र) धरसेन तक अंग और पूर्व के एकदेश ज्ञाता (आंशिकज्ञाता) आचार्यों को बताया गया है, किन्तु उनके काल का निर्देश नहीं किया गया की परम्परा चली। उसके बाद पूर्व और अंग-साहित्य का विच्छेद हो है। उसके बाद उस ग्रन्थ में यह उल्लिखित है कि अनुक्रम से भगवान् गया। मात्र अंग और पूर्व के आधार पर उनके एकदेश ज्ञाता आचार्यों महावीर के निर्वाण के 1000 वर्ष पश्चात् वाचक वृषभ के समय में द्वारा निर्मित ग्रन्थ ही शेष रहे। अंग और पूर्वधरों की यह सूची हमने / पूर्वगत श्रुत का विच्छेद हो जायगा। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दस हरिवंशपुराण के आधार पर दी है। अन्य ग्रन्थों एवं श्रवणबेलगोला पूर्वधरों के पश्चात् भी पूर्वधरों की परम्परा चलती रही है, श्वेताम्बरों में कहीं नामों में और कहीं क्रम में अन्तर है, जिससे इनकी प्रामाणिकता के वर्गों का उल्लेख है। जो सम्पूर्ण दस पूर्वो के ज्ञाता होते थे, वे संदेहास्पद बन जाती है। किन्तु जो कुछ साहित्यिक और अभिलेखीय अभिन्न अक्षर दसपूर्वधर कहे जाते थे और जो आंशिक रूप से दस साक्ष्य उपलब्ध हैं उन्हें ही आधार बनाना होगा, अन्य कोई विकल्प पूर्वो के ज्ञाता होते थे, उन्हें भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर कहा जाता था। भी नहीं है। यद्यपि इन साक्ष्यों में भी एक भी साक्ष्य ऐसा नहीं है, इस प्रकार हम देखते हैं कि चतुर्दश पूर्वधरों के विच्छेद की जो सातवीं शती से पूर्व का हो। इन समस्त विवरणों से हम इस इस चर्चा में दोनों परम्परा में अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु को ही माना निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि दिगम्बर परम्परा में श्रुत विच्छेद की गया है। श्वेताबर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण के 170 वर्ष पश्चात् इस चर्चा का प्रारम्भ लगभग छठीं-सातवीं शताब्दी में हुआ और उसमें और दिगम्बर परम्परा के अनुसार 162 वर्ष पश्चात् चतुर्दश पूर्वधरों अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा का विच्छेद हुआ। यहाँ दोनों परम्पराओं में मात्र आठ वर्षों का अन्तर है। किन्तु दस पूर्वधरों के विच्छेद के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में श्वेताम्बर परम्परा में पूर्व-ज्ञान के विच्छेद की चर्चा तो नियुक्ति, कोई समरूपता नहीं देखी जाती है। श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य सर्वमित्र भाष्य, चूर्णि आदि आगामिक व्याख्या ग्रन्थों में हुई है। किन्तु और दिगम्बर परम्परा के अनुसार आर्य धर्मसेन या आर्य सिद्धार्थ अन्तिम अंग-आगमों के विच्छेद की चर्चा मात्र तित्थोगालिय प्रकीर्णक के दस पूर्वी हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में आर्य सर्वमित्र को अन्तिम दस अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। तित्थोगालिय प्रकीर्णक को देखने पूर्वधर कहा गया है। दिगम्बर परम्परा में भगवतीआराधना के कर्ता से लगता है कि यह ग्रन्थ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी में निर्मित शिवार्य के गुरुओं के नामों में सर्वगुप्तगणि और मित्रगणि नाम आते हआ है। इसका रचना काल और कुछ विषय-वस्तु भी तिलोयपण्णत्ति हैं किन्तु दोनों में कोई समरूपता हो यह निर्णय करना कठिन है। से समरूप ही है। इस प्रकीर्णक का उल्लेख नन्दीसूत्र की कालिक दिगम्बर परम्परा में दस पूर्वधरों के पश्चात् एकदेश पूर्वधरों का उल्लेख और उत्कालिक ग्रन्थों की सूची में नहीं है, किन्तु व्यवहारभाष्य (10/ तो हुआ है, किन्तु उनकी कोई सूची उपलब्ध नहीं होती। अत: इस 704) में इसका उल्लेख हुआ है। व्यवहारभाष्य स्पष्टत: सातवीं शताब्दी सम्बन्ध में किसी प्रकार की तुलना कर पाना सम्भव नहीं है। की रचना है। अन्तत: तित्थोगालिय पाँचवीं शती के पश्चात् तथा सातवीं पूर्व साहित्य के विच्छेद की चर्चा के पश्चात् तित्थोगालिय में शती के पूर्व अर्थात् लगभग ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में निर्मित अंग साहित्य के विच्छेद की चर्चा हुई है। जो निम्नानुसार हैहुआ होगा। यही काल तिलोयपण्णत्ति का भी है। इन दोनों ग्रन्थों में उसमें उल्लिखित है कि वीरनिर्वाण के 1250 वर्ष पश्चात् ही सर्वप्रथम श्रुत के विच्छेद की चर्चा है। तित्थोगालिय में तीर्थङ्करों विपाकसूत्र सहित छ: अंगों का विच्छेद हो जायेगा, इसके पश्चात् की माताओं के चौदह स्वप्न, स्त्री-मुक्ति तथा दस आश्चर्यों का उल्लेख वीरनिर्वाण सं. 1300 में समवायांग का, वीरनिर्वाण सं. 1350 होने से एवं नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार तथा आवश्यकनियुक्ति से इसमें में स्थानांग का, वीरनिर्वाण सं. 1400 में कल्प-व्यवहार का, वीरनिर्वाण अनेक गाथाएँ अवतरित किये जाने से यही सिद्ध होता है कि यह सं. 1500 में आयारदशा का, वीरनिर्वाण सं. 1900 में सूत्रकृतांग श्वेताम्बर ग्रन्थ है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णक रूप में इसकी आज का और वीरनिर्वाण सं. 2000 में निशीथसूत्र का विच्छेद होगा। ज्ञातव्य भी मान्यता है। इस ग्रन्थ की गाथा 807 से 857 तक में न केवल है कि इसके पश्चात् लगभग अठारह हजार वर्ष तक विच्छेद की कोई पूर्वो के विच्छेद की चर्चा है, अपितु अंग-साहित्य के विच्छेद की चर्चा नहीं है। फिर वीरनिर्वाण सं. 20,000 में आचारांग का, भी चर्चा है। वीरनिर्वाण सं. 20500 में उत्तराध्ययन का, वीरनिर्वाण सं. 20900
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________________ / हा अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श में दशवकालिक मूल का और वीरनिर्वाण सं. 21,000 में दशवैकालिक थे। इनके बाद अंग एवं पूर्व के एकदेश ज्ञाता आचार्यों की परम्परा के अर्थ का विच्छेद होगा- यह कहा गया है। भी समाप्त हो गयी हो, ऐसा उल्लेख हमें किसी भी दिगम्बर ग्रन्थ _ज्ञातव्य है कि पण्डित दलसुखभाई ने जैन साहित्य के बृहद् में नहीं मिला। यही कारण है कि पं. दलसुखभाई मालवणिया (वही, इतिहास की भूमिका (पृ. 61) में आचारांग का विच्छेद वीरनिर्वाण पृ० 62) आदि कुछ विद्वान् इन उल्लेखों को श्रुतधरों के विच्छेद के 2300 वर्ष पश्चात् लिखा है किन्तु मूल गाथा से कहीं भी यह का उल्लेख मानते हैं न कि श्रुत के विच्छेद का। पुन: इस चर्चा में अर्थ फलित नहीं होता। उन्होंने किस आधार पर यह अर्थ किया यह मात्र पूर्व और अंग साहित्य के विच्छेद की ही चर्चा हुई है। कालिक हम नहीं जानते हैं। हो सकता हैं कि उनके पास इस गाथा का कोई और उत्कालिक सूत्रों के अथवा छेदसूत्रों के विच्छेद की कहीं कोई दूसरा पाठान्तर रहा हो। चर्चा दिगम्बर परम्परा में नहीं उठी है। दुर्भाग्य यह है कि दिगम्बर इस प्रकार हम देखते है कि अंग आगमों के विच्छेद की चर्चा विद्वानों ने श्रुतधरों के विच्छेद को ही श्रुत का विच्छेद मान लिया श्वेताम्बर परम्परा में भी चली है, किन्तु इसके बावजूद भी श्वेताम्बर और कालिक, उत्कालिक आदि आगमों के विच्छेद की कोई चर्चा परम्परा ने अंग साहित्य को, चाहे आंशिक रूप से ही क्यों न हो, न होने पर भी उनका विच्छेद स्वीकार कर लिया। यह सत्य है कि सुरक्षित रखने का प्रयास किया है। जब श्रुत के अध्ययन की परम्परा मौखिक हो तो श्रुतधर के विच्छेद __प्रथम तो प्रश्न यह है कि क्या विच्छेद का अर्थ तत्-तत् ग्रन्थ से श्रुत का विच्छेद मानना होगा, किन्तु जब श्रुत लिखित रूप में भी का सम्पूर्ण रूप से विनाश है? मेरी दृष्टि में विच्छेद का अर्थ यह हो, तो श्रुतधर के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद नहीं माना जा नहीं कि उस ग्रन्थ का सम्पूर्ण लोप हो गया। मेरी दृष्टि में विच्छेद सकता। दूसरे मौखिक परम्परा से चले आ रहे श्रुत में विस्मृति आदि का तात्पर्य उसके कुछ अंशों का विच्छेद ही मानना होगा। यदि हम के कारण किसी अंश-विशेष के विच्छेद को पूर्ण विच्छेद मानना भी निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में समीचीन नहीं है। विच्छेद की इस चर्चा का तात्पर्य मात्र यही है कि भी जो अंग साहित्य आज अवशिष्ट हैं वे उस रूप में तो नहीं हैं महावीर की यह श्रुत-सम्पदा अक्षुण्ण नहीं रह सकी और उसके कुछ जिस रूप में उनकी विषय-वस्तु का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, अंश विलुप्त हो गये। अत: आंशिक रूप में जिनवाणी आज भी है, नन्दीसूत्र आदि में हुआ है। यह सत्य है कि न केवल पूर्व साहित्य इसे स्वीकार करने में किसी को कोई विप्रतिपत्ति नहीं होनी चाहिये। का अपितु अंग साहित्य का भी बहुत कुछ अंश विच्छिन्न हुआ है। आज आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का सातवाँ महापरिज्ञा नामक अध्याय अर्धमागधी आगमों की विषय-वस्तु सरल है अनुपलब्ध है। भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, अर्धमागधी आगम साहित्य की विषय-वस्तु मुख्यत: उपदेशपरक, प्रश्नव्याकरण, विपाकदशा आदि ग्रन्थों की भी बहुत कुछ सामग्री आचारपरक एवं कथापरक है। भगवती के कुछ अंश, प्रज्ञापना, विच्छिन्न हुई है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। स्थानांग में दस अनुयोगद्वार, जो कि अपेक्षाकृत परवर्ती है, को छोड़कर उनमें प्राय: दशाओं की जो विषय-वस्तु वर्णित है, वह उनकी वर्तमान विषय-वस्तु गहन दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओं का अभाव है। विषय-प्रतिपादन से मेल नहीं खाती है। उनमें जहाँ कुछ प्राचीन अध्ययन विलुप्त हुए सरल, सहज और सामान्य व्यक्ति के लिए भी बोधगम्य है। वह मुख्यत: हैं, वहीं कुछ नवीन सामग्री समाविष्ट भी हुई है। अन्तिम वाचनाकार विवरणात्मक एवं उपदेशात्मक है। इसके विपरीत शौरसेनी आगमों देवर्धिगणि ने स्वयं भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मुझे जो में आराधना और मूलाचार को छोड़कर लगभग सभी ग्रन्थ दार्शनिक भी त्रुटित सामग्री मिली है, उसको ही मैंने संकलित किया है। अतः एवं सैद्धान्तिक चर्चा से युक्त हैं। वे परिपक्व दार्शनिक विचारों के आगम ग्रन्थों के विच्छेद की जो चर्चा है, उसका अर्थ यही लेना चाहिये परिचायक हैं। गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की वे गहराइयाँ, जो शौरसेनी कि यह श्रुत-संपदा यथावत् रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी। वह आंशिक आगमों में उलब्ध हैं, अर्धमागधी आगमों में उनका प्रायः अभाव ही रूप से विस्मृति के गर्भ में चली गई। क्योंकि भगवान महावीर के है। कुन्दकुन्द के समयसार के समान उनमें सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्वाण के पश्चात् लगभग एक हजार वर्ष तक यह साहित्य मौखिक अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता। रहा और मौखिक परम्परा में विस्मृति स्वाभाविक है। विच्छेद का क्रम यद्यपि ये सब उनकी कमी भी कही जा सकती है, किन्तु चिन्तन के तभी रुका जब आगमों को लिखित रूप दे दिया गया। विकास क्रम की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह फलित दिगम्बर परम्परा में श्रुत-विच्छेद सम्बन्धी जो चर्चा है उसके सम्बन्ध होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य प्राथमिक स्तर का होने से में यह बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि उसमें श्रुतधरों के अर्थात् प्राचीन भी है और साथ ही विकसित शौरसेनी आगमों के लिए श्रुत के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा हुई है न कि श्रुत ग्रन्थों आधार-भूत भी। समवायांग में जीवस्थानों के नाम से 14 गुणस्थानों के विच्छेद की चर्चा हुई है। दूसरे यह कि पूर्व और अंग के इस का मात्र निर्देश है, जबकि षट्खण्डागम जैसा प्राचीन शौरसेनी आगम विच्छेद की चर्चा में भी पूर्व और अंगों के एकदेश ज्ञाता आचार्यों भी उनकी गम्भीरता से चर्चा करता है। मूलाचार, भगवतीआराधना, का अस्तित्व तो स्वीकार किया ही गया है। धरसेन के सम्बन्ध में कुन्दकुन्द के ग्रन्थ और गोम्मटसार आदि सभी में गुणस्थानों की विस्तृत भी मात्र यह कहा गया है कि वे अंग और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता चर्चा है। चूँकि तत्त्वार्थ में गुणस्थानों की चर्चा का एवं स्याद्वाद-सप्तभंगी
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________________ 40 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का अभाव है, अत: वे सभी रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियाँ मानी के पन्द्रहवें शतक में मंखली गोशाल की समालोचना भी की गई है। जा सकती हैं। इसी प्रकार कषायप्राभृत, षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं शौरसेनी आगम ग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त की जो गहन चर्चा है, वह भी के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अर्धमागधी आगम-साहित्य में अनुपलब्ध है। अत: शौरसेनी आगमों अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध की अपेक्षा अर्धमागधी आगमों की सरल, बोधगम्य एवं प्राथमिक स्तर हो जाता है। इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारचूला, की विवरणात्मक शैली उनकी प्राचीनता की सूचक है। दशवैकालिक, निशीथ आदि छेदसूत्र तथा उनके भाष्य और चूर्णियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या तथ्यों का सहज संकलन परिवर्तन हुआ है। इसी प्रकार ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, भगवती, अर्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है ज्ञाताधर्म कथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्थापत्यों का अत: अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें भिन्नताएँ भी पायी। महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पड़ा और दोनों के बीच सम्बन्धों में जाती हैं। वस्तुत: ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उनके कैसे परिवर्तन होता गया। इसी प्रकार के अनेक प्रश्न, जिनके कारण सम्पादन काल में भी संगतियुक्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया आज का जैन समाज साम्प्रदायिक कटघरों में बन्द है, अर्धमागधी आगमों गया है। एक ओर उत्सर्ग की दृष्टि से उनमें अहिंसा की सूक्ष्मता के के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं। शौरसेनी साथ पालन करने के निर्देश हैं तो दूसरी ओर अपवाद की अपेक्षा आगमोंमें मात्र मूलाचार और भगवती आराधना को, जो अपनी से ऐसे अनेक विवरण भी हैं जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के विषय-वस्तु के लिये अर्धमागधी आगम-साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि अनुकूल नहीं हैं। इसी प्रकार एक ओर उनमें मुनि की अचेलता का में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म प्रतिपादन-समर्थन किया गया है, तो दूसरी ओर वस्त्र-पात्र के साथ-साथ को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं। मुनि के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है। एक ओर केशलोच का विधान है तो दूसरी ओर क्षुर-मुण्डन की अनुज्ञा भी है। उत्तराध्ययन अर्धमागधी-आगमः शौरसेनी-आगम और परवर्ती महाराष्ट्री व्याख्या में वेदनीय के भेदों में क्रोध वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि साहित्य के आधार कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति अर्धमागधी-आगम शौरसेनी-आगम और महाराष्ट्री-आगमिक नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है। उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता व्याख्या साहित्य के आधार रहे हैं। अर्धमागधी आगमों की व्याख्या है कि अर्धमागधी आगम साहित्य जैन संघ का निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत के रूप में क्रमश: नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा आदि लिखे करता है। तथ्यों का यथार्थ रूप में प्रस्तुतीकरण उसकी अपनी विशेषता गये हैं, ये सभी जैनधर्म एवं दर्शन के प्राचीनतम स्रोत हैं। यद्यपि है। वस्तुत: तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण शौरसेनी आगम और व्याख्या साहित्य में चिन्तन के विकास के साथ-साथ अर्धमागधी आगम साहित्य के ग्रन्थों के काल-क्रम का निर्धारण भी देश, काल और सहगामी परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सहज हो जाता है। सामग्री भी है, जो उनकी अपनी मौलिक कही जा सकती है फिर भी अर्धमागधी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूलस्रोत के रूप में अर्धमागधी आगमों में जैनसंघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप स्वीकार किया जा सकता है। मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक यदि हम अर्धमागधी आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास, करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा के आचार एवं आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक (चन्दावेज्झय) आदि में उपलब्ध होती विचार में देश-कालगत परिस्थितियों के कारण कालक्रम में क्या-क्या हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी अनेक गाथाएँ अर्धमागधी आगम परिवर्तन हुए इसको जानने का आधार अर्धमागधी आगम ही है, क्योंकि और विशेष रूप से प्रकीर्णकों (पइन्ना) से मिलती हैं। षट्खण्डागम इन परिवर्तनों को समझने के लिए उनमें उन तथ्यों के विकास क्रम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती हैं, उनकी विस्तृत को खोजा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जैनधर्म में साम्प्रदायिक चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो.ए.एन. उपाध्ये व्याख्यानमाला अभिनिवेश कैसे दृढ़-मूल होता गया इसकी जानकारी ऋषिभाषित, में) की है। नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और भगवती के पन्द्रहवें शतक के समीक्षात्मक में भी पाई जाती हैं, जबकि समयसार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगम अध्ययन से मिल जाती है। ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, तुल्य ग्रन्थ भी हैं, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को असितदेवल, नारायण, याज्ञवल्क्य, बाहुक आदि ऋषियों को अर्हत् ही है। तिलोयपन्नत्ति का प्राथमिक रूप विशेष रूप से आवश्यकनियुक्ति ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। उत्तराध्ययन में भी कपिल, नमि, तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में करकण्ड, नग्गति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है। इस प्रकार गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को आचारभेद के बावजूद भी शौरसेनी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है परम्परा-सम्मत माना गया। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती कि उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम-साहित्य ही रहा है तथापि
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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श 41 उनमें जो सैद्धान्तिक गहराइयाँ और विकास परिलक्षित होते हैं, वे अन्त में विद्वानों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे आगमों और विशेष उनके रचनाकारों की मौलिक देन हैं। रूप से अर्धमागधी आगमों का अध्ययन श्वेताम्बर, दिगम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी या तेरापंथी दृष्टि से न करें अपितु इन साम्प्रदायिक अर्धमागधी आगमों का कर्तृत्व अज्ञात अभिनिवेशों से ऊपर उठकर करें, तभी हम उनके माध्यम से जैनधर्म अर्धमागधी आगमों में प्रज्ञापना, दशवैकालिक और छेदसूत्रों के के प्राचीन स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर सकेगें और प्रामाणिक रूप कर्तृत्व को छोड़कर शेष के रचनाकारों के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट से यह भी समझ सकेगें कि कालक्रम में उनमें कैसे और क्या परिवर्तन जानकारी प्राप्त नहीं होती है। यद्यपि दशवैकालिक आर्य शय्यम्भवसूरि हुए हैं। आज आवश्यकता है पं. बेचरदास जी जैसी निष्पक्ष एवं तटस्थ की, तीन छेदसूत्र आर्यभद्रबाहु की और प्रज्ञापना श्यामाचार्य की कृति बुद्धि से उनके अध्ययन की। अन्यथा दिगम्बर को उसमें वस्त्रसम्बन्धी मानी जाती है, महानिशीथ का उसकी दीमकों से भक्षित प्रति के आधार उल्लेख प्रक्षेप लगेंगे, तो श्वेताम्बर सारे वस्त्रपात्र के उल्लेखों को पर आचार्य हरिभद्र ने समुद्धार किया था, यह स्वयं उसी में उल्लिखित महावीरकालीन मानने लगेगा और दोनों ही यह नहीं समझ सकेंगे कि है, तथापि अन्य आगमों के कर्ताओं के बारे में हम अन्धकार में ही वस्त्र-पात्र का क्रमिक विकास किन परिस्थितियों में और कैसे हुआ हैं। सम्भवत: उसका मूल कारण यह रहा होगा कि सामान्यजन में इस है? इस सम्बन्ध में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका का अध्ययन बात का पूर्ण विश्वास बना रहे कि अर्धमागधी आगम गणधरों अथवा आवश्यक है क्योंकि ये इनके अध्ययन की कुंजियाँ हैं। शौरसेनी और पूर्वधरों की कृति है, इसलिये कर्ताओं ने अपने नाम का उल्लेख नहीं अर्धमागधी आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य किया। यह वैसी ही स्थिति है जैसी हिन्दू-पुराणों के कर्ता के रूप को यथार्थ रूप से आलोकित कर सकेगा। आशा है युवा-विद्वान् मेरी में केवल वेद व्यास को जाना जाता है। यद्यपि वे अनेक आचार्यों इस प्रार्थना पर ध्यान देगें। की और पर्याप्त परवर्तीकाल की रचनाएँ हैं। जैन आगम-साहित्य का परिचय देने के उद्देश्य से सम्प्रतिकाल इसके विपरीत शौरसेनी आगमों की मुख्य विशेषता यह है कि में अनेक प्रयत्न हुए हैं। सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों में हर्मन जैकोबी उनमें सभी ग्रन्थों का कर्तृत्व सुनिश्चित है। यद्यपि उनमें भी कुछ परिवर्तन शुबिंग, विण्टरनित्ज आदि ने अपनी भूमिकाओं एवं स्वतन्त्र निबन्धों और प्रक्षेप परवर्ती आचार्यों ने किये हैं। फिर भी इस सम्बन्ध में उनकी में इस पर प्रकाश डाला। इस दिशा में अंग्रेजी में सर्वप्रथम हीरालाल स्थिति अर्धमागधी आगम की अपेक्षा काफी स्पष्ट है। अर्धमागधी आगमों रसिकलाल कापड़िया में 'A History of the Cononical Literature of में तो यहाँ तक भी हुआ है कि कुछ विलुप्त कृतियों के स्थान पर the Jainas' नामक पुस्तक लिखी। यह ग्रन्थ अत्यन्त शोधपरक दृष्टि पर्याप्त परवर्ती काल में दूसरी कृति ही रख दी गई। इस सम्बन्ध में से लिखा गया और आज भी एक प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में मान्य प्रश्नव्याकरण की सम्पूर्ण विषय-वस्तु के परिवर्तन की चर्चा पूर्व में किया जाता है। इसके पश्चात् प्रो. जगदीशचन्द्र जैन का ग्रन्थ 'प्राकृत ही की जा चुकी है। अभी-अभी अंगचूलिया और बंगचूलिया नामक साहित्य का इतिहास' भी इस क्षेत्र में दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। पार्श्वनाथ दो विलुप्त आगमों का पता चला, ये भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय विद्याश्रम शोध संस्थान द्वारा जैन साहित्य का बृहद् इतिहास योजना संस्कृति विद्यामन्दिर में उपलब्ध हैं, जब इनका अध्ययन किया गया के अन्तर्गत प्रकाशित प्रथम तीनों खण्डों में प्राकृत आगम-साहित्य तो पता चला कि वे लोकाशाह के पश्चात् अर्थात् सोलहवीं या सत्रहवीं का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इसी दिशा में आचार्य शताब्दी में किसी अज्ञात आचार्य ने बनाकर रख दिये हैं। यद्यपि इससे देवेन्द्रमुनिशास्त्री की पुस्तक 'जैनागम : मनन और मीमांसा' भी एक यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह स्थिति सभी अर्धमागधी महत्त्वपूर्ण कृति है। मुनि नगराजजी की पुस्तक 'जैनागम आगमों की है। सत्य तो यह है कि उनके प्रक्षेपों और परिवर्तनों को और पाली-त्रिपिटक' भी तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से आसानी से पहचाना जा सकता है, जबकि शौरसेनी आगमों में हुए महत्त्वपूर्ण है। पं. कैलाशचन्द्र जी द्वारा लिखित 'जैन साहित्य के प्रक्षेपों को जानना जटिल है। इतिहास की पूर्व पीठिका' में अर्धमागधी आगम-साहित्य का और ___ आगमों की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में जिस अतिशयता की चर्चा उसके प्रथम भाग में शौरसेनी आगम साहित्य का उल्लेख हुआ है परवर्ती आचार्यों ने की है, वह उनके कथन की विश्वसनीयता पर प्रश्न किन्तु उसमें निष्पक्ष दृष्टि का निर्वाह नहीं हुआ है और अर्धमागधी चिह्न उपस्थित करती है। हमारी श्रद्धा और विश्वास चाहे कुछ भी हो आगम साहित्य के मूल्य और महत्त्व को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा किन्तु तर्कबुद्धि और गवेषणात्मक दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होता है गया है। कि आगम साहित्य की विषय-वस्तु को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया। पूज्य आचार्य श्री जयन्तसेनसूरि जी ने 'जैन आगम साहित्य यह कहना कि आचारांग के आगे प्रत्येक अंग ग्रन्थ की श्लोक संख्या : एक अनुशीलन' कृति की सृजना जनसाधारण को आगम-साहित्य एक दूसरे से क्रमशः द्विगुणित रही थी अथवा 14 वें पूर्व की विषय-वस्तु की विषय-वस्तु का परिचय देने के उद्देश्य की है, फिर भी उन्होंने इतनी थी कि उसे चौदह हाथियों के बराबर स्याही से लिखा जा सकता पूरी प्रामाणिकता के साथ संशोधनात्मक दृष्टि का भी निर्वाह था, आस्था की वस्तु हो सकती है, किन्तु बुद्धिगम्य नहीं है। किया है।