________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श भारत में कागज का प्रचलन न होने से ग्रन्थ भोजपत्रों या ताड़पत्रों वाचक हो गया। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने उसे गुप्तशासक पर लिखे जाते थे। ताड़पत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रामगुप्त मान लिया है और उसके द्वारा प्रतिष्ठापित विदिशा की जिन रखना जैन मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल ____ मूर्तियों के अभिलेखों से उसकी पुष्टि भी कर दी। जबकि वस्तुत: वह था। लगभग ई. सन् की 5 वीं शती तक इस कार्य को पाप-प्रवृत्ति निर्देश बुद्ध के समकालीन रामपुत्र नामक श्रमण आचार्य के सम्बन्ध माना जाता था तथा इसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था भी थी। फलतः में था, जो ध्यान एवं योग के महान् साधक थे और जिनसे स्वयं महावीर के पश्चात् लगभग 1000 वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत-परम्परा भगवान् बुद्ध ने ध्यान प्रक्रिया सीखी थी। उनसे सम्बन्धित एक अध्ययन पर ही आधारित रहा। श्रुत-परम्परा के आधार पर आगमों के भाषिक ऋषिभाषित में आज भी है, जबकि अंतकृद्ददशा में उनसे सम्बन्धित स्वरूप को सुरक्षित रखना कठिन था। अत: उच्चारण शैली का भेद जो अध्ययन था, वह आज विलुप्त हो चुका है। इसकी विस्तृत चर्चा आगमों के भाषिक स्वरूप के परिवर्तन का कारण बन गया। Aspects of Jainology Vol. II में मैंने अपने एक स्वतन्त्र लेख में 5. आगमिक एवं आगम तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों की है। इसी प्रकार आचारांग एवं सूत्रकृतांग में प्रयुक्त "खेत्तन" शब्द, का जो परिवर्तन देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों जो "क्षेत्रज्ञ" (आत्मज्ञ) का वाची था, महाराष्ट्री के प्रभाव से आगे (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र चलकर “खेयण्ण" बन गया और उसे "खेदज्ञ" का वाची मान लिया के होते थे, उन पर भी उस क्षेत्र की बोली/भाषा का प्रभाव रहता गया। इसकी चर्चा प्रो. के. आर. चन्द्रा ने श्रमण 1992 में प्रकाशित था और असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली के शब्द रूपों को लिख अपने लेख में की है। अत: स्पष्ट है कि इन परिवर्तनों के कारण अनेक देता था। उदाहरण के रूप में चाहे मूल पाठ में “गच्छति' लिखा स्थलों पर बहुत अधिक अर्थभेद भी हो गये हैं। आज वैज्ञानिक रूप हो लेकिन प्रचलन में “गच्छई" का व्यवहार है, तो प्रतिलिपिकार से सम्पादन की जो शैली विकसित हुई है उसके माध्यम से इन समस्याओं "गच्छई' रूप ही लिख देगा। के समाधान की अपेक्षा है। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया था 6. जैन आगम एवं आगम तुल्य ग्रन्थ में आये भाषिक परिवर्तनों कि आगमिक एवं आगम तुल्य ग्रन्थों के प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में सम्पादित के लिए श्वेताम्बर परम्परा में प्रो. के.आर. चन्द्रा और दिगम्बर परम्परा होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का में आचार्य श्री विद्यानन्द जी के सानिध्य में श्री बलभद्र जैन ने प्रयत्न प्रयत्न नहीं किया अपितु उन्हें सम्पादित करते समय अपने युग एवं क्षेत्र प्रारम्भ किया है। किन्तु इन प्रयत्नों का कितना औचित्य है और इस के प्रचलित भाषायी स्वरूप के आधार पर उनमें परिवर्तिन कर दिया। सन्दर्भ में किन-किन सावधानियों की आवश्यकता है, यह भी विचारणीय यही कारण है कि अर्द्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में है। यदि प्राचीन रूपों को स्थिर करने का यह प्रयत्न सम्पूर्ण सावधानी संकलित एवं सम्पादित हुए तो उनका भाषिक स्वरूप अर्द्धमागधी की और ईमानदारी से न हुआ तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया और जब वलभी में लिखे गये प्रथमतः, प्राकृत के विभिन्न भाषिक रूप लिये हुए इन ग्रन्थों में तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। यह अलग बात है कि ऐसा पारस्परिक प्रभाव और पारस्परिक अवदान को अर्थात् किसने किस परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उसमें अर्द्धमागधी के तत्त्व परम्परा से क्या लिया है, इसे समझने के लिए आज जो सुविधा है, भी बने रहे। वह इनमें भाषिक एकरूपता लाने पर समाप्त हो जायेगी। आज नमस्कार सम्पादन और प्रतिलिपि करते समय भाषिक स्वरूप की एकरूपता मंत्र में "नमो” और “णमो' शब्द का जो विवाद है, उसका समाधान पर विशेष बल नहीं दिए जाने के कारण जैन आगम एवं आगमतुल्य और कौन सा शब्दरूप प्राचीन है इसका निश्चय, हम खारवेल और साहित्य अर्द्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री की खिचड़ी ही बन गया मथुरा के अभिलेखों के आधार पर कर सकते हैं और यह कह सकते और विद्वानों ने उनकी भाषा को जैन-शौरसेनी और जैन-महाराष्ट्री ऐसे हैं कि अर्द्धमागधी का "नमो” रूप प्राचीन है, जबकि शौरसेनी और नाम दे दिये। न प्राचीन संकलन कर्ताओं ने उस पर ध्यान दिया और महाराष्ट्री का “णमो” रूप परवर्ती है, क्योंकि ई. की दूसरी शती तक न आधुनिक काल के सम्पादनों, प्रकाशनों में इस तथ्य पर ध्यान दिया अभिलेखों में कहीं भी "णमो' रूप नहीं मिलता। जबकि छठी शती गया। परिणामत: एक ही आगम के एक ही विभाग में “लोक", "लोग", से दक्षिण भारत के जैन अभिलेखों में “णमो” रूप बहुतायत से मिलता "लोअ" और "लोय' ऐसे चारों ही रूप देखने को मिल जाते हैं। है। इससे फलित यह निकलता है कि णमो रूप परवर्ती है और जिन यद्यपि सामान्य रूप से तो इन भाषिक रूपों के परिवर्तनों के ग्रन्थों में "न" के स्थान पर “ण” की बहुलता है, वे ग्रन्थ भी परवर्ती कारण कोई बहुत बड़ा अर्थ-भेद नहीं होता है, किन्तु कभी-कभी इनके हैं। यह सत्य है कि 'नमो' से परिवर्तित होकर ही “णमो" रूप बना कारण भयंकर अर्थ-भेद भी हो जाता है। इस सन्दर्भ में एक दो उदाहरण है। जिन अभिलेखों में “णमो" रूप मिलता है वे सभी ई. सन् की देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूँगा। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग चौथी शती के बाद के ही हैं। इसी प्रकार से नमस्कार मंत्र की अन्तिम का प्राचीन पाठ "रामपुत्ते' बदलकर चूर्णि में “रामाउत्ते" हो गया, गाथा में- एसो पंच नमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाण च किन्तु वही पाठ सूत्रकृतांग की शीलांक की टीका में “रामगुत्ते" हो सव्वेसिं पढ़म हवइ मंगलं- ऐसा पाठ है। इनमें प्रयुक्त प्रथमाविभक्ति गया। इस प्रकार जो शब्द रामपुत्र का वाचक था, वह रामगुप्त का में “एकार" के स्थान पर “ओकार" का प्रयोग तथा "हवति" के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org