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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श स्वरूप निश्चित करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर कहीं क्रिया रूपों में भी "त" श्रुति उपलब्ध होती है और कहीं उसके दोनों परम्पराओं में कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं मिलता, जो विशुद्ध रूप लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है। प्राचीन आगमों में हुए इन भाषिक से किसी एक प्राकृत का प्रतिनिधित्व करता हो। आज उपलब्ध विभिन्न परिवर्तनों से उनके अर्थ में भी कितनी विकृति आयी, इसका भी डॉ. श्वेताम्बर अर्द्धमागधी आगमों में चाहे प्रतिशतों में कुछ भिन्नता हो, चन्द्रा ने अपने लेखों के माध्यम से संकेत किया है तथा यह बताया किन्तु व्यापक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। आचारांग है कि अर्द्धमागधी “खेतन्न' शब्द किस प्रकार "खेयन्त्र" बन गया और ऋषिभाषित जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में अर्द्धमागधी के लक्षण और उसका जो मूल “क्षेत्रज्ञ" अर्थ था वह बदलकर "खेदज्ञ' हो प्रमुख होते हुए भी कहीं-कहीं आंशिक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव गया। इन सब कारणों से उन्होंने पाठ संशोधन हेतु एक योजना प्रस्तुत आ ही गया है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में की और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के प्रथम एक ओर अर्द्धमागधी का तो दूसरी ओर महाराष्ट्री का प्रभाव देखा उद्देशक की भाषा का सम्पादन कर उसे प्रकाशित भी किया है। इसी जाता है। कुछ ऐसे ग्रन्थ भी हैं जिनमें लगभग 60 प्रतिशत शौरसेनी क्रम में मैंने भी आगम संस्थान उदयपुर के डॉ. सुभाष कोठारी एवं एवं 40 प्रतिशत महाराष्ट्री पायी जाती है-जैसे वसुनन्दी के श्रावकाचार डॉ. सुरेश सिसोदिया द्वारा आचारांग के विभिन्न प्रकाशित संस्करणों का प्रथम संस्करण। ज्ञातव्य है कि इसके परवर्ती संस्करणों में से पाठान्तरों का संकलन करवाया है। इसके विरोध में पहला स्वर शौरसेनीकरण अधिक है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी यत्र-तत्र महाराष्ट्री श्री जौहरीमल जी पारख ने उठाया है। श्वेताम्बर विद्वानों में आयी इस का पर्याप्त प्रभाव देखा जाता है। इन सब विभिन्न भाषिक रूपों के चेतना का प्रभाव दिगम्बर विद्वानों पर भी पड़ा और आचार्य श्री विद्यानन्द पारस्परिक प्रभाव या मिश्रण के अतिरिक्त मुझे अपने अध्ययन के दौरान जी के निर्देशन में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को पूर्णत: शौरसेनी एक महत्त्वूपर्ण बात यह मिली कि जहाँ शौरसेनी ग्रन्थों में जब अर्द्धमागधी में रूपान्तरित करने का एक प्रयत्न प्रारम्भ हुआ है, इस दिशा में प्रथम आगमों के उद्धरण दिये गये, तो वहाँ उन्हें अपने अर्द्धमागधी रूप कार्य बलभद्र जैन द्वारा सम्पादित समयसार, नियमसार आदि का में न देकर उनका शौरसेनी रूपान्तरण करके दिया गया है। इसी प्रकार कुन्दकुन्द भारती से प्रकाशन है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में ही पं. महाराष्ट्री के ग्रन्थों में अथवा श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों ___ खुशालचन्द गोरावाला, पद्मचन्द्र शास्त्री आदि दिगम्बर विद्वानों ने इस में जब भी शौरसेनी के ग्रन्थ का उद्धरण दिया गया, तो सामान्यतया प्रवृत्ति का विरोध किया। उसे मूल शौरसेनी में न रखकर उसका महाराष्ट्री रूपान्तरण कर दिया आज श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में आगम या आगम रूप गया। उदाहरण के रूप में भगवती आराधना की टीका में जो उत्तराध्ययन, में मान्य ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप के पुन: संशोधन की जो चेतना आचारांग आदि के उद्धरण पाये जाते हैं, वे उनके अर्द्धमागधी रूप जागृत हुई है, उसका कितना औचित्य है, इसकी चर्चा तो मैं बाद में न होकर शौरसेनी रूप में ही मिलते हैं। इसी प्रकार हरिभद्र ने में करूँगा। सर्वप्रथम तो इसे समझना आवश्यक है कि इन प्राकृत शौरसेनी प्राकृत के “यापनीय-तन्त्र' नामक ग्रन्थ से "ललितविस्तरा" आगम ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में किन कारणों से और किस प्रकार में जो उद्धरण दिया, वह महाराष्ट्री प्राकृत में ही पाया जाता है। के परिवर्तन आये हैं। क्योंकि इस तथ्य को पूर्णत: समझे बिना केवल इस प्रकार चाहे अर्द्धमागधी आगम हो या शौरसेनी आगम, उनके एक-दूसरे के अनुकरण के आधार पर अथवा अपनी परम्परा को प्राचीन उपलब्ध संस्करणों की भाषा न तो पूर्णत: अर्द्धमागधी है और न ही सिद्ध करने हेतु किसी ग्रन्थ के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कर देना शौरसेनी। अर्द्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही प्रकार के आगमों पर सम्भवत: इन ग्रन्थों के ऐतिहासिक क्रम एवं काल निर्णय एवं इनके महाराष्ट्री का व्यापक प्रभाव देखा जाता है जो कि इन दोनों की अपेक्षा पारस्परिक प्रभाव को समझने में बाधा उत्पन्न करेगा और इससे कई परवर्ती है। इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत के कुछ ग्रन्थों पर परवर्ती अपभ्रंश प्रकार के अन्य अनर्थ भी सम्भव हो सकते है। का भी प्रभाव देखा जाता है। इन आगमों अथवा आगम तुल्य ग्रन्थों किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि जैनाचार्यों एवं के भाषिक स्वरूप की विविधता के कारण उनके कालक्रम तथा पारस्परिक जैन विद्वानों ने अपने भाषिक व्यामोह के कारण अथवा प्रचलित भाषा आदान-प्रदान को समझने में विद्वानों को पर्याप्त उलझनों का अनुभव के शब्द रूपों के आधार पर प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के भाषिक होता है, मात्र इतना ही नहीं कभी-कभी इन प्रभावों के कारण इन स्वरूप में परिवर्तन किया है। जैन आगमों की वाचना को लेकर जो ग्रन्थों को परवर्ती भी सिद्ध कर दिया जाता है। मान्यताएँ प्रचलित हैं, उनके अनुसार सर्वप्रथम ई.पू. तीसरी शती में आज आगमिक साहित्य के भाषिक स्वरूप की विविधता को वीर निर्वाण के लगभग एक सौ पचास वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में प्रथम दूर करने तथा उन्हें अपने मूल स्वरूप में स्थिर करने के कुछ प्रयत्न वाचना हुई। इसमें उस काल तक निर्मित आगम ग्रन्थों, विशेषत: अंग भी प्रारम्भ हुए हैं। सर्वप्रथम डॉ. के. ऋषभचन्द्र ने प्राचीन अर्द्धमागधी आगमों का सम्पादन किया गया। यह स्पष्ट है कि पटना की यह वाचना आगम जैसे- आचारांग, सूत्रकृतांग में आये महाराष्ट्री के प्रभाव को मगध में हुई थी और इसलिए इसमें आगमों की भाषा का जो स्वरूप दूर करने एवं उन्हें अपने मूल स्वरूप में लाने के लिये प्रयत्न प्रारम्भ निर्धारित हुआ होगा, वह निश्चित ही मागधी रहा होगा। इसके पश्चात् किया है क्योंकि एक ही अध्याय या उद्देशक में “लोय" और "लोग" लगभग ई.पू. प्रथम शती में खारवेल के शासन काल में उड़ीसा में या “आया" और "आता" दोनों ही रूप देखे जाते हैं। इसी प्रकार द्वितीय वाचना हुई। यहाँ पर इसका स्वरूप अर्द्धमागधी रहा होगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210119
Book TitleArdhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size5 MB
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