________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भेल-सेल का नाम दिया जा रहा है और व्यर्थ में उसकी आलोचना नहीं है। की जा रही है। पुन: जहाँ तक मेरी जानकारी है डॉ. चन्द्रा ने एक वर्तमान में उपलब्ध आगमों के संस्करणों में लाडनूं और महावीर भी ऐसा पाठ नहीं सुझाया है, जो आदर्श सम्मत नहीं है। उन्होंने मात्र विद्यालय के संस्करण अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, किन्तु उनमें यही प्रयत्न किया है कि जो भी प्राचीन शब्द रूप किसी भी एक आदर्शप्रत भी "त" श्रुति और “य" श्रुति को लेकर या मध्यवर्ती व्यंजनों के में एक-दो स्थानों पर भी मिल गये, उन्हें आधार मानकर अन्य स्थलों लोप सम्बन्धी जो वैविध्य है, वह न केवल आश्चर्यजनक है, अपितु पर भी वही प्राचीन रूप रखने का प्रयास किया है। यदि उन्हें भेल-सेल विद्वानों के लिए चिन्तनीय भी है। करना होता तो वे इतने साहस के सभी पूज्य मुनिजनों एवं विद्वानों यहाँ महावीर विद्यालय से प्रकाशित स्थानांगसूत्र के ही एक-दो के विचार जानने के लिये उसे प्रसारित नहीं करते। फिर जब पारख उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ - जी स्वयं यह कहते हैं कि कुल 116 पाठभेदों में केवल 1 “आउसंतेण" चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा-सुती नाम एगे सुती, सईनाम एगे असई, को छोड़कर शेष 115 पाठभेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ में कोई फर्क चउभंगो। नहीं पड़ता- तो फिर उन्होंने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया जिससे एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा सुती णामं एगे सुती, उनके श्रम की मूल्यवत्ता को स्वीकार करने के स्थान पर उसे नकारा चउभंगो। जा रहा है? आज यदि आचारांग के लगभग 40 से अधिक संस्करण -(चतुर्थ) स्थान, प्रथम उद्देशक, सूत्रक्रमांक 241, पृ० 94) हैं- और यह भी सत्य है कि सभी ने आदर्शों के आधार पर ही इस प्रकार यहाँ आप देखेंगे कि एक ही सत्र में "सती" और पाठ छापे हैं तो फिर किसे शुद्ध और किसे अशुद्ध कहें? क्या सभी “सुई' दोनों रूप उपस्थित हैं। इससे मात्र शब्द-रूप में ही भेद नहीं को समान रूप से शुद्ध मान लिया जायेगा। क्या हम ब्यावर, जैन होता है, अर्थ भेद भी हो सकता है, क्योंकि "सुती" का अर्थ है विश्वभारती, लाडनूं और महावीर विद्यालय वाले संस्करणों को समान सूत से निर्मित, जबकि “सुई" (शुचि) का अर्थ है पवित्र। इस प्रकार महत्त्व का समझें? भय भेल-सेल का नहीं है, भय यह है कि अधिक इसी सूत्र में “णाम" और "नाम" दोनों शब्द रूप एक ही साथ उपस्थित प्रामाणिक एवं शुद्ध संस्करण के निकल जाने से पूर्व संस्करणों की हैं। इसी स्थानांगसूत्र से एक अन्य उदाहरण लीजिए- सूत्र क्रमांक सम्पादन में रही कमियाँ उजागर हो जाने का और यही खीज का मूल 445, पृ० 197 पर “निर्ग्रन्थ" शब्द के लिए प्राकृत शब्दरूप"नियंठ" कारण प्रतीत होता है। पुन: क्या श्रद्धेय पारखजी यह बता सकते हैं प्रयुक्त है तो सूत्र 446 में “निग्गंथ" और पाठान्तर में "नितंठ' रूप कि क्या कोई भी ऐसी आदर्श प्रति है, जो पूर्णत: शुद्ध है- जब भी दिया गया है। इसी ग्रन्थ में सूत्र संख्या 458, पृ. 197 पर आदर्शों में भिन्नता और अशुद्धियाँ हैं, तो उन्हें दूर करने के लिये धम्मत्थिकातं, अधम्मत्थिकातं और आगासत्थिकायं- इस प्रकार विद्वान् व्याकरण के अतिरिक्त किसका सहारा लेंगे? क्या आज तक “काय' शब्द के दो भिन्न शब्द रूप काय और कातं दिये गये हैं। कोई भी आगम ग्रन्थ बिना व्याकरण का सहारा लिये मात्र आदर्श के यद्यपि “त" श्रुति प्राचीन अर्द्धमागधी की पहचान है, किन्तु प्रस्तुत आधार पर छपा है। प्रत्येक सम्पादक व्याकरण का सहारा लेकर ही सन्दर्भ में सुती, निठंत और कातं में जो "त" का प्रयोग है वह मुझे आदर्श की अशुद्धि को ठीक करता है। यदि वे स्वयं यह मानते हैं परवर्ती लगता है। लगता है कि "य" श्रुति को "त" श्रुति में बदलने कि आदर्शों में अशुद्धियाँ स्वाभाविक हैं, तो फिर उन्हें शुद्ध किस के प्रयत्न भी कालान्तर में हुए और इस प्रयत्न में बिना अर्थ का विचार आधार पर किया जायेगा? मैं भी यह मानता हूँ कि सम्पादन में आदर्श किये "य" को "त" कर दिया गया है। शुचि का सूती, निर्ग्रन्थ का प्रति का आधार आवश्यक है। किन्तु न तो मात्र आदर्श से और न नितंठ और काय का कातं किस प्राकृत व्याकरण के नियम से बनेगा, मात्र व्याकरण के नियमों से समाधान होता है, उसमें दोनों का सहयोग मेरी जानकारी में तो नहीं है। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक एक उदाहरण आवश्यक है। मात्र यही नहीं अनेक प्रतों को सामने रखकर तुलना हमें हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित नियुक्तिसंग्रह में करके एवं विवेक से भी पाठ शुद्ध करना होता है। जैसा कि आचार्य ओघनियुक्ति के प्रारम्भिक मंगल में मिलता हैश्री तुलसी जी ने मुनि श्री जम्बूविजय जी को अपनी सम्पादन शैली नमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, का स्पष्टीकरण करते हुए बताया था। णमो लोए सव्वसाहूणं, आदरणीय पारखजी एवं उनके द्वारा उद्धृत मुनि श्री जम्बूविजयजी एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं का यह कथन कि आगमों में अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ प्रायः हवइ मंगल।।१।। नहीं मिलते हैं, स्वयं ही यह बताता है कि क्वचित् तो मिलते हैं। यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ नमो अरिहंताणं में प्रारम्भ में "न' पुन: इस सम्बन्ध में डॉ. चन्द्रा ने आगमोदय समिति के संस्करण, रखा गया जबकि णमो सिद्धाणं से लेकर शेष चार पदों में आदि का टीका तथा चूर्णि के संस्करणों से प्रमाण भी दिये हैं। वस्तुतः लेखन "न" "ण' कर दिया गया है। किन्तु “एसो पंचनमुक्कारों" में पुन: की सुविधा के कारण ही अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ आदर्शों में "न" उपस्थित है। हम आदणीय पारखजी से इस बात में सहमत कम होते गये हैं। किन्तु लोकभाषा में वे आज भी जीवित हैं। अत: हो सकते हैं कि भिन्न कालों में भिन्न व्यक्तियों से चर्चा करते हुए प्राकृत चन्द्रा जी के कार्य को प्रमाणरहित या आदर्शरहित कहना उचित भाषा के भिन्न शब्द रूपों का प्रयोग हो सकता है। किन्तु ग्रन्थ-निर्माण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org