________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श के रूप में अन्य उपलब्ध शब्द रूपों को भी अनिवार्य रूप से रखा के नियम थोपे नहीं जा सकते कि वे व्याकरण के नियमों के अनुसार जाय, साथ ही भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति ही बोलें। यह कोई तर्क नहीं, मात्र उनकी श्रद्धा का अतिरेक ही है। आधार रूप में मान्य की गयी हो उसकी मूल प्रतिछाया को भी प्रकाशित प्रथम प्रश्न तो यही है कि क्या अर्धमागधी आगम अपने वर्तमान स्वरूप किया जाय, क्योंकि छेड़-छाड़ के इस क्रम में जो साम्प्रदायिक में सर्वज्ञ की वाणी है? क्या उनमें किसी प्रकार का विलोपन, प्रक्षेप आग्रह कार्य करेंगे, उससे ग्रन्थ की मौलिकता को पर्याप्त धक्का लग या परिवर्तन नहीं हुआ है? यदि ऐसा है तो उनमें अनेक स्थलों पर सकता है। अन्तर्विरोध क्यों है? कहीं लोकान्तिक देवों की संख्या आठ है तो आचार्य शान्तिसागर जी और उनके समर्थक कुछ दिगम्बर विद्वानों कहीं नौ क्यों है? कहीं चार स्थावर और दो त्रस हैं, कहीं तीन त्रस द्वारा षट्खण्डागम (1/1/93) में से "संजद" पाठ को हटाने की और तीन स्थावर कहे गये, तो कहीं पाँच स्थावर और एक वस। यदि एवं श्वेताम्बर परम्परा में मुनि श्री फूलचन्द जी द्वारा परम्परा के विपरीत आगम शब्दश: महावीर की वाणी है, तो आगमों और विशेष रूप लगने वाले कुछ आगम के अंशों को हटाने की कहानी अभी हमारे से अंग आगमों में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुए गणों . सामने ताजा ही है। यह तो भाग्य ही था कि इस प्रकार के प्रयत्नों के उल्लेख क्यों हैं? यदि कहा जाय कि भगवान सर्वज्ञ थे और उन्होंने को दोनों ही समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने स्वीकार नहीं किया और इस भविष्य की घटनाओं को जानकर यह उल्लेख किया तो प्रश्न यह प्रकार से सैद्धान्तिक संगति के नाम पर जो कुछ अनर्थ हो सकता। कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था, उससे हम बच गये। किन्तु आज भी “षट्खण्डागम" के ताम्र था वह भूतकाल में क्यों कहा गया। क्या भगवती में गोशालक के पत्रों एवं प्रथम संस्करण की मुद्रित प्रतियों में 'संजद' शब्द अनुपस्थित प्रति जिस अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग हुआ है क्या वह अंश वीतराग है। इसी प्रकार फूलचन्द जी द्वारा सम्पादित अंग-सुत्ताणि में कुछ आगम भगवान महावीर की वाणी हो सकती है? क्या आज प्रश्नव्याकरणदशा, पाठों का जो विलोपन हुआ है वे प्रतियाँ तो भविष्य में भी रहेंगी, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा की विषयवस्तु वही अत: भविष्य में तो यह सब निश्चय ही विवाद का कारण बनेगा। इसलिये है, जो स्थानांग में उल्लिखित है? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन ऐसे किसी भी प्रयत्न से पूर्व पूरी सावधानी एवं सजगता आवश्यक हुआ है, आज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं। है। मात्र "संजद' पद हट जाने से उस ग्रन्थ के यापनीय होने की आज ऐसे अनेक तथ्य हैं, जो वर्तमान आगमसाहित्य को अक्षरश: जो पहचान है, वही समाप्त हो जाती और जैन परम्परा के इतिहास सर्वज्ञ के वचन मानने में बाधक हैं। परम्परा के अनुसार भी सर्वज्ञ के साथ अनर्थ हो जाता। तो अर्थ (विषयवस्तु) के प्रवक्ता हैं- शब्द रूप तो उनको गणधरों - उपर्युक्त समस्त चर्चा से मेरा प्रयोजन यह नहीं है कि अर्द्धमागधी या परवर्ती स्थविरों द्वारा दिया गया है। क्या आज हमारे पास जो आगम आगम एवं आगम तुल्य शौरसेनी ग्रन्थों के भाषायी स्वरूप की एकरूपता हैं, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे शब्द रूप से गणधर गौतम ने उन्हें रचा एवं उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने का कोई प्रयत्न ही न हो। था? आगम ग्रन्थों में परवर्तीकाल में जो विलोपन, परिवर्तन, परिवर्धन मेरा दृष्टिकोण मात्र यह है कि उसमें विशेष सतर्कता की आवश्यकता आदि हुआ और जिनका साक्ष्य स्वयं आगम ही दे रहे हैं, उससे क्या है। साथ ही इस प्रयत्न का परिणाम यह न हो कि जो परवर्ती ग्रन्थ हम इन्कार कर सकते हैं? स्वयं देवर्धि ने इस तथ्य को स्वीकार किया प्राचीन अर्द्धमागधी आगम साहित्य के आधार पर निर्मित हुए हैं, उनकी है तो फिर हम नकारने वाले कौन होते हैं। आदरणीय पारखजी लिखते उस रूप में पहचान ही समाप्त कर दी जाये और इस प्रकार आज है- “पण्डितों से हमारा यही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेल-सेल ग्रन्थों के पौर्वापर्य के निर्धारण का जो भाषायी आधार है वह भी नष्ट के वही पाठ प्रदान करें जो तीर्थकरों ने अर्थरूप में प्ररुपित और गधणरों हो जाये। यदि प्रश्नव्याकरण, नन्दीसूत्र आदि परवर्ती आगमों की भाषा ने सूत्ररूप में संकलित किया था। हमारे लिये वही शुद्ध है। सर्वज्ञों को प्राचीन अर्द्धमागधी में बदला गया अथवा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का को जिस अक्षर, शब्द, पद, वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीष्ट था, या मूलाचार और भगवती आराधना का पूर्ण शौरसेनीकरण किया गया वह सूचित कर गये, अब उसमें असर्वज्ञ फेर बदल नहीं कर सकता।" तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे उनकी पहचान और इतिहास उनके इस कथन के प्रति मेरा प्रथम प्रश्न तो यही है कि आज तक ही नष्ट हो जायेगा। आगमों में जो परिवर्तन होता रहा वह किसने किया? आज हमारे पास जो लोग इस परिवर्तन के पूर्णत: विरोधी हैं उनसे भी मैं सहमत जो आगम हैं उनमें एकरूपता क्यों नहीं है? आज मुर्शिदाबाद, हैदराबाद, नहीं हूँ। मैं यह मानता हूँ आचारांग, ऋषिभाषित एवं सूत्रकृतांग जैसे बम्बई, लाडनूं आदि के संस्करणों में इतना अधिक पाठ भेद क्यों प्राचीन आगमों का इस दृष्टि से पुन: सम्पादन होना चाहिए। इस प्रकिया है? इनमें से हम किस संस्करण को सर्वज्ञ वचन माने और आपके के विरोध में जो स्वर उभर कर सामने आये हैं उनमें जौहरीमल जी शब्दों में किसे भेल-सेल कहें? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि क्या आज पारख का स्वर प्रमुख है। वे विद्वान् अध्येता ओर श्रद्धाशील दोनों पण्डित आगमों में कोई भेल-सेल कर रहे हैं या फिर वे उसके शुद्ध ही हैं। फिर भी तुलसी-प्रज्ञा में उनका जो लेख प्रकाशित हुआ है स्वरूप को सामने लाना चाहते हैं? किसी भी पाश्चात्य संशोधक दृष्टि उसमें उनका वैदुष्य श्रद्धा के अतिरेक में दब सा गया है। उनका सर्वप्रथम सम्पन्न विद्वान् ने आगमों में कोई भेल-सेल किया? इसका एक भी तर्क यह है कि आगम सर्वज्ञ के वचन हैं, अत: उन पर व्याकरण उदाहरण हो तो हमें बतायें। दुर्भाग्य यह है कि शुद्धि के प्रयत्न को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org