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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श 37 के समय और वह भी एक ही सूत्र या वाक्यांश में दो भिन्न रूपों वे जो कार्य कर रहे हैं वह न केवल करणीय है बल्कि एक सही का प्रयोग तो कभी भी नहीं होगा, पुन: यदि हम यह मानते हैं कि दिशा देने वाला कार्य है। हम उन्हें सुझाव तो दे सकते हैं लेकिन आगम सर्वज्ञ वचन हैं, तो जब सामान्य व्यक्ति भी ऐसा नहीं करता अनधिकृत रूप से येन-केन प्रकारेण सर्वज्ञ और शास्त्र-श्रद्धा की दुहाई है, तो फिर सर्वज्ञ कैसे करेगा? इस प्रकार की भिन्नता के लिए लेखक देकर उनकी आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं रखते। क्योंकि नहीं, अपितु प्रतिलिपिकार ही उत्तरदायी होता है। अत: ऐसे पाठों वे जो भी कार्य कर रहे हैं वह बौद्धिक ईमानदारी के साथ, निर्लिप्त का शुद्धीकरण अनुचित नहीं कहा जा सकता। एक ही सूत्र में “सुती” भाव से तथा सम्प्रदायगत आग्रहों से ऊपर उठकर कर रहे हैं, उनकी और “सुई" "नाम" और "णाम", "नियंठ" और "निग्गंथ", "कातं" नियत में भी कोई शंका नहीं की जा सकती। अत: मैं जैन विद्या और "कायं" ऐसे दो शब्द रूप नहीं हो सकते। उनका पाठ संशोधन के विद्वानों से नम्र निवेदन करूँगा कि वे शान्तचित्त से उनके प्रयत्नों आवश्यक है। यद्यपि इसमें भी यह सावधानी आवश्यक है कि "त" की मूल्यवत्ता को समझें और अपने सुझावों एवं सहयोग से उन्हें इस श्रुति की प्राचीनता के व्यामोह में कहीं सर्वत्र “य" का "त" नहीं दिशा में प्रोत्साहित करें। दूसरी ओर मैं प्रो. चन्द्रा से भी निवेदन कर दिया जावे, जैसे शुचि-सुइ का "सुती', निग्गंथ का “नितंठ" करूँगा कि वे बिना प्रमाण के ऐसा कोई परिशोधन न करे। अथवा कायं का “कातं" पाठ महावीर विद्यालय वाले संस्करण में है। हम पारखजी से इस बात में सहमत हैं कि कोई भी पाठ आदर्श आगमों के विच्छेद की अवधारणा में उपलब्ध हुए बिना नहीं बदला जाय, किन्तु “आदर्श' में उपलब्ध आगम के विच्छेद की यह अवधारणा जैनधर्म के श्वेताम्बर एवं होने का यह अर्थ नहीं है कि "सर्वत्र" और सभी "आदर्शो' में उपलब्ध दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में उल्लिखित है। दिगम्बर परम्परा में आगमों हो। हाँ यदि आदर्शों या आदर्श के अंश में प्राचीन पाठ मात्र एक के विच्छेद की यह अवधारणा तिलोयपण्णत्ति, षट्खण्डागम की दो स्थलों पर ही मिलें और उनका प्रतिशत 20 से भी कम हो तो धवलाटीका, हरिवंशपुराण, आदिपुराण आदि में मिलती है। इन सब वहाँ उन्हें प्रायः न बदला जाय। किन्तु यदि उनका प्रतिशत 20 से ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ति अपेक्षाकृत प्राचीन है। तिलोयपण्णत्ति का अधिक हो तो उन्हें बदला जा सकता है- शर्त यही हो कि आगम रचनाकाल विद्वानों ने ईसा की छठी-सातवीं शती के लगभग माना का वह अंश परवर्ती या प्रक्षिप्त न हो-जैसे आचारांग का दूसरा श्रुतस्कन्ध है। इसके पश्चात् षट्खण्डागम की धवला टीका, हरिवंशपुराण, या प्रश्नव्याकरण। किन्तु एक ही सूत्र में यदि इस प्रकार के भिन्न रूप आदिपुराण आदि ग्रन्थ आते हैं जो लगभग ई. की नवीं शती की आते हैं तो एक स्थल पर भी प्राचीन रूप मिलने पर अन्यत्र उन्हें रचनाएँ हैं। हरिवंश पुराण में आगम-विच्छेद की चर्चा को कुछ विद्वानों परिवर्तित किया जा सकता है। ने प्रक्षिप्त माना है, क्योंकि वह यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है और पाठ शुद्धीकरण में दूसरी सावधानी यह आवश्यक है कि आगमों यापनीयों में नवीं-दसवीं शताब्दी तक आगमों के अध्ययन और उन में कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश हैं अथवा संग्रहिणियों और नियुक्तियों की पर टीका लिखने की परम्परा जीवित रही है। सम्भव यह भी है कि अनेकों गाथाएँ भी अवतरित की गयीं, ऐसे स्थलों पर पाठ-शुद्धिकरण जिस प्रकार श्वेताम्बरों में आगमों के विच्छेद की चर्चा होते हुए भी करते समय प्राचीन रूपों की उपेक्षा करनी होगी और आदर्श में उपलब्ध आगमों की परम्परा जीवित रही उसी प्रकार यापनीयों में भी श्रुत-विच्छेद पाठ को परवर्ती होते हुए भी यथावत् रखना होगा।इस तथ्य को हम की परम्परा का उल्लेख होते हुए भी श्रुत के अध्ययन एवं उन पर इस प्रकार भी समझा सकते हैं कि यदि एक अध्ययन, उद्देशक या टीका आदि के लेखन की परम्परा जीवित रही है। पुन: हरिवंशपुराण एक पैराग्राफ में यदि 70 या 80 प्रतिशत प्रयोग महाराष्ट्री या "य" में भी मात्र पूर्व एवं अंग ग्रन्थ के विच्छेद की चर्चा है, शेष ग्रन्थ श्रुति के हैं और मात्र 10 प्रतिशत प्रयोग प्राचीन अर्द्धमागधी के हैं तो थे ही। तो वहाँ पाठ के महाराष्ट्री रूप को रखना ही उचित होगा। सम्भव इन ग्रन्थों के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् गौतम, है कि वह. प्रक्षिप्त रूप हो, किन्तु इसके विपरीत उनमें 60 प्रतिशत सुधर्मा (लोहार्य) और जम्बू ये तीन आचार्य केवली हुए, इन तीनों प्राचीन रूप हैं और 40 प्रतिशत अर्वाचीन महाराष्ट्री के रूप हैं, तो का सम्मिलित काल 62 वर्ष माना गया है। तत्पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, वहाँ प्राचीन रूप रखे जा सकते हैं। अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच आचार्य चतुर्दश पूर्वो के पुन: आगम-संपादन और पाठ-शुद्धीकरण के इस उपक्रम में दिये धारक श्रुतकेवली हुए। इन पाँच आचार्यों का सम्मिलित काल 100 जाने वाले मूलपाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप में दिया जाय, किन्तु वर्ष है। इस प्रकार भद्रबाहु के काल तक अंग और पूर्व की परम्परा पाद टिप्पणियों में सम्पूर्ण पाठान्तरों का संग्रह किया जाय। इसका अविच्छिन्न बनी रही। उसके बाद प्रथम पूर्व साहित्य का विच्छेद प्रारम्भ लाभ यह होगा कि कालान्तर में यदि कोई संशोधन कार्य करें तो हुआ। भद्रबाहु के पश्चात् विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, उसमें सुविधा हो। धृतिसेन, विजय बुद्धिल, धर्मसेन और गंगदेव- ये ग्यारह आचार्य प्रो. के.आर चन्द्रा अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद भी आगमों दस पूर्वो के धारक हुए। इनका सम्मिलित काल 183 वर्ष माना गया के पाठ संशोधन का जो यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और श्रमसाध्य कार्य है। इस प्रकार वीरनिर्वाण के पश्चात् 345 वर्ष तक पूर्वधरों का अस्तित्व कर रहे हैं, उसकी मात्र आलोचना करना कथमपि उचित नहीं है, क्योंकि रहा। इसके बाद पूर्वधरों के विच्छेद के साथ ही पूर्व ज्ञान का विच्छेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210119
Book TitleArdhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size5 MB
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