SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 12 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ नहीं किया जा सका, क्योंकि उसके विशिष्ट ज्ञाता भद्रबाहु उस समय उत्तर, पूर्व और मध्य क्षेत्र में विचरण करने वाला मुनि संघ मथुरा नेपाल में थे। संघ की विशेष प्रार्थना पर उन्होंने स्थूलिभद्र आदि कुछ में एकत्रित हुआ, उसी समय दक्षिण-पश्चिम में विचरण करने वाला मुनियों को पूर्व साहित्य की वाचना देना स्वीकार किया। स्थूलिभद्र मुनि संघ वल्लभी (सौराष्ट्र) में आर्य नागार्जुन के नेतृत्व में एकत्रित भी उनसे दस पूर्वो तक का ही अध्ययन अर्थ सहित कर सके और हुआ। इसे नागार्जुनीय वाचना भी कहते हैं। शेष चार पूर्वो का मात्र शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर पाये। आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी इस प्रकार पाटलीपुत्र की वाचना में द्वादश अङ्गों को सुव्यवस्थित वाचना समकालिक हैं। नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल और करने का प्रयत्न अवश्य किया गया, किन्तु उनमें एकादश अङ्ग ही नागार्जुन के मध्य आर्य हिमवन्त का उल्लेख है। इससे यह फलित सुव्यवस्थित किये जा सके। दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्भुक्त पूर्व साहित्य होता है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन समकालिक ही रहे होंगे। को पूर्णत: सुरक्षित नहीं किया जा सका और उसका क्रमश: विलोप नन्दी स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल के सन्दर्भ में यह कहा गया है होना प्रारम्भ हो गया। फलत: उसकी विषय-वस्तु को लेकर अङ्गबाह्य कि उनका अनुयोग आज भी दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में प्रचलित है। इसका ग्रन्थ निर्मित किये जाने लगे। एक तात्पर्य यह भी हो सकता है कि उनके द्वारा सम्पादित आगम दक्षिण भारत में प्रचलित थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता द्वितीय वाचना है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के विभाजन के फलस्वरूप जिस आगमों की द्वितीय वाचना ई.पू. द्वितीय शताब्दी में महावीर यापनीय सम्प्रदाय का विकास हुआ था उसमें आर्य स्कन्दिल के द्वारा के निर्वाण के लगभग 300 वर्ष पश्चात् उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर सम्पादित आगम ही मान्य किये जाते थे और इस यापनीय सम्प्रदाय सम्राट् खारवेल के काल में हुई थी। इस वाचना के सन्दर्भ में विशेष का प्रभाव क्षेत्र मध्य और दक्षिण भारत था। आचार्य पाल्यकीर्ति जानकारी प्राप्त नहीं होती है- मात्र यही ज्ञात होता है कि इसमें श्रुत शाकटायन ने तो स्त्री-निर्वाण प्रकरण में स्पष्ट रूप से मथुरागम का के संरक्षण का प्रयत्न हुआ था। वस्तुत: उस युग में आगमों के उल्लेख किया है। अत: यह स्पष्ट है कि यापनीय सम्प्रदाय जिन आगमों अध्ययन-अध्यापन की परम्परा गुरु-शिष्य के माध्यम से मौखिक रूप को मान्य करता था, वे माथुरी वाचना के आगम थे। मूलाचार, भगवतीमें ही चलती थी। अत: देशकालगत प्रभावों तथा विस्मृति-दोष के आराधना आदि यापनीय आगमों में वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य आचाराङ्ग, कारण उसमें स्वाभाविक रूप से भिन्नता आ जाती थी। अत: वाचनाओं उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, संग्रहणीसूत्रों, नियुक्तियों के माध्यम से उनके भाषायी स्वरूप तथा पाठभेद को सुव्यवस्थित किया आदि की सैकड़ों गाथाएँ आज भी उपलब्ध हो रही हैं। इससे यही जाता था। कालक्रम में जो स्थविरों के द्वारा नवीन ग्रन्थों की रचना फलित होता है कि यापनीयों के पास माथुरी वाचना के आगम थे। होती थी, उस पर भी विचार करके उन्हें इन्हीं वाचनाओं में मान्यता हम यह भी पाते हैं कि यापनीय ग्रन्थों में जो आगमों की गाथाएँ मिलती प्रदान की जाती थी। इसी प्रकार परिस्थितिवश आचार-नियमों में एवं हैं वे न तो अर्धमागधी में हैं, न महाराष्ट्री प्राकृत में, अपितु वे शौरसेनी उनके आगमिक सन्दर्भो की व्याख्या में जो अन्तर आ जाता था, उसका में हैं। मात्र यही नहीं अपराजित की भगवतीआराधना की टीका में निराकरण भी इन्हीं वाचनाओं में किया जाता था। खण्डगिरि पर हुई आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, निशीथ आदि से जो अनेक अवतरण इस द्वितीय वाचना में ऐसे किन विवादों का समाधान खोजा गया था- दिये हैं वे सभी अर्धमागधी में न होकर शौरसेनी में हैं। इसकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इससे यह फलित होता है कि स्कंदिल की अध्यक्षता वाली माथुरी वाचना में आगमों की अर्धमागधी भाषा पर शौरसेनी का प्रभाव आ तृतीय वाचना गया था। दूसरे माथुरी वाचना के आगमों के जो भी पाठ भगवतीआराधना आगमों की तृतीय वाचना वी.नि.संवत् 827 अर्थात् ई.सन् की टीका आदि में उपलब्ध होते हैं, उनमें वल्लभी वाचना के वर्तमान की तीसरी शताब्दी में मथुरा में आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में हुई। इसलिए आगमों से पाठभेद भी देखा जाता है। साथ ही अचेलकत्व की समर्थक इसे माथुरी वाचना या स्कन्दिली वाचना के नाम से भी जाना जाता है। कुछ गाथाएँ और गद्यांश भी पाये जाते हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में माथुरी वाचना के सन्दर्भ में दो प्रकार की मान्यताएँ नन्दीचूर्णि में हैं। प्रथम अनुयोगद्वारसूत्र, प्रकीर्णकों, नियुक्ति आदि की कुछ गाथाएँ क्वचित् मान्यता के अनुसार सुकाल होने के पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता पाठभेद के साथ मिलती हैं- सम्भवतः उन्होंने ये गाथाएँ यापनीयों में शेष रहे मुनियों की स्मृति के आधार पर कालिकसूत्रों को सुव्यवस्थित के माथुरी वाचना के आगमों से ही ली होगी। किया गया है। अन्य कुछ का मन्तव्य यह है कि इस काल में सूत्र एक ही समय में आर्य स्कन्दिल द्वारा मथुरा में और नागार्जुन नष्ट नहीं हुआ था किन्तु अनुयोगधर स्वर्गवासी हो गये थे। अत: एक द्वारा वल्लभी में वाचना किये जाने की एक सम्भावना यह भी हो सकती मात्र जीवित स्कन्दिल ने अनुयोगों का पुनः प्रवर्तन किया। है कि दोनों में किन्हीं बातों को लेकर मतभेद थे। सम्भव है कि इन मतभेदों में वस्त्र-पात्र आदि सम्बन्धी प्रश्न भी रहे हों। पं. कैलाशचन्द्रजी चतुर्थ वाचना ने जैन साहित्य का इतिहास- पूर्व पीठिका (पृ. 500) में माथुरी चतुर्थ वाचना तृतीय वाचना के समकालीन ही है। जिस समय वाचना की समकालीन वल्लभी वाचना के प्रमुख रूप में देवर्धिगणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210119
Book TitleArdhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy