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________________ 24 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 15. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क 75, 'अरहंतान वधमानस्य'। के ही शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय परम्परा में मान्य थे और 16. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.५१, क्रमाङ्क८० 'नमो अरहंतान..द्वन"। जिनकी भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर शूरसेन प्रदेश, जहाँ से शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ, वहाँ मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में के शिलालेखों में दूसरी-तीसरी शती तक णकार एवं 'द' श्रुति के विस्तृत चर्चा मैंने “जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगम्बर आगमों एवं नाटकों तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख की शौरसेनी का जन्म ईसा की दूसरी शती के पूर्व का नहीं है, जबकि सकते हैं। नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक के अभिलेखों से अर्थात् वस्तुत: आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते हैं ई.पू. तीसरी शती से सिद्ध होता है। इससे यही फलित होता है कि उनमें मुख्यत: निम्न ग्रन्थ आते हैं - अर्धमागधी आगम प्राचीन थे, आगमों का शब्द रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ है, न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में। दिगम्बर अ. यापनीय मान्य आगमों की शौरसेनी की जिस प्राचीनता का बढ़-चढ़ कर 1. कसायपाहुड, लगभग ईसा की चौथी शती, गुणधर . दावा किया जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही 2. षट्खण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्ध, पुष्पदंत और प्रभावित है और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर अपितु भूतबली विषय-वस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पाँचवी शती के पूर्व 3. भगवतीआराधना, ईसा की छठी शती, शिवार्य का नहीं है। 4. मूलाचार, ईसा की छठी शती, वट्टकेर यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकृत है, तो फिर सम्पूर्ण देश में ईसा ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मूलत: यापनीय परम्परा के हैं और की तीसरी-चौथी शती तक एक भी अभिलेख शौरसेनी प्राकृत में क्यों इनमें अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य आगमों, विशेष रूप से नियुक्तियों नहीं मिलता है। अशोक के अभिलेख, खारवेल के अभिलेख, बलडी और प्रकीर्णकों के समरूप हैं। के अभिलेख और मथुरा के शताधिक अभिलेख कोई भी तो शौरसेनी प्राकृत में नहीं हैं। इन सभी अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय बोलियों से ब. कुन्दकुन्द द्वारा रचित ईसा की लगभग छठी शती के ग्रन्थ प्रभावित मागधी ही है। अत: उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, 5. समयसार किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है। अत: प्राकृतों में 6. नियमसार अर्धमागधी ही प्राचीन है, क्योंकि मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में भी 7. प्रवचनसार 'नमो अरहंतानं', 'नमो वधमानस' आदि अर्धमागधी शब्द रूप मिलते 8. पञ्चास्तिकायसार हैं। श्वेताम्बर आगमों एवं अभिलेखों में आये 'अरहंतानं' पाठ को तो 9. अष्टपाहुड (इनका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध है, क्योंकि प्राकृत-विद्या में खोटे सिक्के की तरह बताया गया है, इसका अर्थ इसकी भाषा में अपभ्रंश के शब्द भी पाये जाते हैं)। है कि यह पाठ शौरसेनी का नहीं है (प्राकृत-विद्या, अक्टूबर-दिसम्बर 94, पृ.१०-११)। अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हुई है। स अन्य ग्रन्थ, ईसा की छठी शती के पश्चात् १०.तिलोयपण्णत्ति-यतिवृषभ शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता ११.लोकविभाग जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से समझ १२.जम्बूद्वीपपण्णत्ति लेना चाहिए कि आचाराङ्ग आदि द्वादशाङ्गी जिन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर १३.अङ्गपण्णत्ति और यापनीय परम्परा आगम कहकर उल्लेख करती हैं, वे सभी मूलतः १४.क्षपणसार अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर परम्परा में नन्दीसूत्र में १५.गोम्मटसार (दसवीं शती) उल्लिखित आगम हो, चाहे मूलाचार, भगवती आराधना और उनकी किन्तु इनमें से कषायपाहुड को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा टीकाओं में या तत्त्वार्थ और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लिखित नहीं है, जो पाँचवीं शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान आगम हो, अथवा अङ्गपण्णत्ति एवं धवला के अङ्ग और अङ्ग बाह्य सिद्धान्त एवं सप्तभङ्गी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की के रूप में उल्लिखित आगम हो, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो चर्चा जैन दर्शन में पांचवीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है। शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध रहा हो। हाँ इतना अवश्य है कि इनमें से श्वेताम्बर आगमों में समवायाङ्ग और आवश्यकनियुक्ति की दो प्रक्षिप्त कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित संस्करण माथुरी वाचना के लगभग गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णत: अनुपस्थित है, जबकि चतुर्थ शती के समय अस्तित्व में अवश्य आये थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द आगम कहना उचित नहीं होगा, वस्तुत: ये आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, के ग्रन्थों में इनकी चर्चा पायी जाती है, अत: ये सभी ग्रन्थ उनसे दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210119
Book TitleArdhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size5 MB
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