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________________ 23 "249, अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श में आया है। केवल समयसार में ही नहीं, अपितु नियमसार (120, 'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन 121,183) आदि में भी “अप्पा" शब्द का प्रयोग है। अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई सुदीप 2. श्रुत का शौरसेनी रूप "सुद" बनता है। शौरसेनी आगमतुल्य जी आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी में नकार और णकार ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर "सुद" "सुदकेवली" शब्द के प्रयोग दोनों पाये जाते हैं। किन्तु दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में सर्वत्र भी हुए हैं, जबकि समयसार (वर्णी ग्रन्थमाला, गाथा 9 एवं 10) णकार का पाया जाना यही सिद्ध करता है कि जिस शौरसेनी को आप में स्पष्ट रूप में "सुयकेवली" "सुयणाण" शब्दरूपों का भी प्रयोग अरिष्टनेमि के काल से प्रचलित प्राचीनतम प्राकृत कहना चाहते हैं, मिलता है और ये दोनों महाराष्ट्री शब्द रूप हैं तथा परवर्ती भी उस णकार प्रधान शौरसेनी का जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी तक हैं। अर्धमागधी में तो सदैव ‘सुत' शब्द का प्रयोग होता है। हुआ भी नहीं था। “ण” की अपेक्षा न का प्रयोग प्राचीन है। ई.पू. 3. शौरसेनी “द" श्रुतिप्रधान है साथ ही उसमें “लोप" की प्रवृत्ति तृतीय शती के अशोक के अभिलेख एवं ई.पू. द्वितीय शती के खारवेल अत्यल्प है, अत: उसके क्रिया रूप “हवदि, होदि, कुणदि, के शिलालेख से लेकर मथुरा के शिलालेख (ई.पू. दूसरी शती से गिण्हदि, कुव्वदि, परिणमदि, भण्णदि, पस्सदि आदि बनते हैं। ईसा की दूसरी शती तक) इन लगभग 80 जैन शिलालेखों में एक इन क्रिया रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में हुआ भी है, किन्तु उन्हीं भी णकार का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा ग्रन्थों के क्रिया रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव “णमो” “अरिहंताणं" और "णमो वड्डमाणं' का सर्वथा अभाव है। है, इसे निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता है - यहाँ हम केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धृत कर रहे हैं, जिनमें जाणइ (गाथा सं. 10), हवई (11,315,386,384), मुणइ इन शब्दों का प्रयोग हुआ है- ज्ञातव्य है कि ये सभी अभिलेखीय (32), वुच्चइ (45), कुव्वइ (81,286,319,321,325,340), साक्ष्य जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2 से प्रस्तुत हैं, जो दिगम्बर जैन परिणमइ (76,79,80), (ज्ञातव्य है कि समयसार के इसी संस्करण समाज द्वारा ही प्रकाशित हैं - की गाथा क्रमांक 77,78,79, में परिणमदि रूप भी मिलता है)। 1. हाथीगुंफा बिहार का शिलालेख- प्राकृत, जैन सम्राट् खारवेल, इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप, जैसे वेयई (84), कुणई मौर्यकाल १६५वाँ वर्ष, पृ.४ लेख क्रमाङ्क 2- नमो अरहंतानं, (71,96,289,293,322,326), होइ (94,197,306,349, नमो सवसिधानं 358), करेई (94,237,238,328,348), हवई (41,326, 2. बैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरि बिहार, प्राकृत, मौर्यकाल 329), जाणई (185,316,319,320,361), बहइ (189), १६५वॉ वर्ष लगभग ई.पू. दूसरी शती पृ.११, ले.क्र. सेवइ (197), मरइ (257,290), (जबकि गाथा 258 में मरदि 'अरहन्तपसादन'। है), पावइ (291,292), धिप्पइ (296), उप्पज्जइ (308), 3. मथुरा, प्राकृत महाक्षत्रप शोडाशके 81 वर्ष का. पृ.१२, क्रमाङ्क विणस्सइ (312,345), दीसइ (323), आदि भी मिलते हैं 5, 'नम अरहतो वधमानस'। (समयसार वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी)। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं- 4. मथुरा, प्राकृत काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे.एफ.फ्लीट ऐसे अनेक महाराष्ट्री प्राकृत के क्रिया रूप समयसार में उपलब्ध हैं। के अनुसार लगभग 14-13 ई.पूर्व का होना चाहिए, पृ. 15, न केवल समयसार अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार क्रमाङ्क 8, 'अरहतो वर्धमानस्य'। आदि की भी यही स्थिति है। 5. मथुरा, प्राकृत सम्भवत: 14-13, ई.पू. प्रथमशती, पृ.१५, लेख बारहवीं शती में रचित वसुनन्दिकृत श्रावकाचार (भारतीय ज्ञानपीठ क्रमाङ्क 10, 'मा अरहतपूजा'। संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी बदतर है, 6. मथुरा, प्राकृत पृ.१७, क्रमाङ्क 14, ‘मा अहतानं श्रमणश्रविका'। उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं में 40 प्रतिशत क्रिया रूप महाराष्ट्री 7. मथुरा, प्राकृत पृ.१७, क्रमाङ्क 15, 'नमो अरहंतानं'। प्राकृत के हैं। 8. मथुरा, प्राकृत पृ.१८, क्रमाङ्क 16, 'नमो अरहतो महाविरस'। इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों के 9. मथुरा, प्राकृत हुविष्क संवत् 39- हस्तिस्तम्भ, पृ.३४, क्रमाङ्क भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न केवल 43, 'अयर्येन रुद्रदासेन' अरहंतनं पुजाये। अधिक वैविध्य है, अपितु उस महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव १०.मथुरा, प्राकृत भग्न वर्ष 93, पृ.४६, क्रमाङ्क 67, 'नमो अर्हतो है, जिसे सुदीप जी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ महाविरस्य'। प्राचीन होते तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहाँ से 11. मथुरा, प्राकृत वासुदेव सं.९८, पृ.४७, क्रमाङ्क 60, 'नमो अरहतो आता? प्रो.ए.एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार की भूमिका में स्पष्टतः महावीरस्य। स्वीकार किया है कि उसकी भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। 12. मथुरा, प्राकृत पृ.४८, क्रमाङ्क 71, 'नमो अरहंतानं सिहकसं'। प्रो.खड़बड़ी ने तो षट्खण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं 13. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क 72, 'नमो अरहंतान'। माना है। 14. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क 73, 'नमो अरहंतान'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210119
Book TitleArdhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size5 MB
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