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________________ / हा अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श में दशवकालिक मूल का और वीरनिर्वाण सं. 21,000 में दशवैकालिक थे। इनके बाद अंग एवं पूर्व के एकदेश ज्ञाता आचार्यों की परम्परा के अर्थ का विच्छेद होगा- यह कहा गया है। भी समाप्त हो गयी हो, ऐसा उल्लेख हमें किसी भी दिगम्बर ग्रन्थ _ज्ञातव्य है कि पण्डित दलसुखभाई ने जैन साहित्य के बृहद् में नहीं मिला। यही कारण है कि पं. दलसुखभाई मालवणिया (वही, इतिहास की भूमिका (पृ. 61) में आचारांग का विच्छेद वीरनिर्वाण पृ० 62) आदि कुछ विद्वान् इन उल्लेखों को श्रुतधरों के विच्छेद के 2300 वर्ष पश्चात् लिखा है किन्तु मूल गाथा से कहीं भी यह का उल्लेख मानते हैं न कि श्रुत के विच्छेद का। पुन: इस चर्चा में अर्थ फलित नहीं होता। उन्होंने किस आधार पर यह अर्थ किया यह मात्र पूर्व और अंग साहित्य के विच्छेद की ही चर्चा हुई है। कालिक हम नहीं जानते हैं। हो सकता हैं कि उनके पास इस गाथा का कोई और उत्कालिक सूत्रों के अथवा छेदसूत्रों के विच्छेद की कहीं कोई दूसरा पाठान्तर रहा हो। चर्चा दिगम्बर परम्परा में नहीं उठी है। दुर्भाग्य यह है कि दिगम्बर इस प्रकार हम देखते है कि अंग आगमों के विच्छेद की चर्चा विद्वानों ने श्रुतधरों के विच्छेद को ही श्रुत का विच्छेद मान लिया श्वेताम्बर परम्परा में भी चली है, किन्तु इसके बावजूद भी श्वेताम्बर और कालिक, उत्कालिक आदि आगमों के विच्छेद की कोई चर्चा परम्परा ने अंग साहित्य को, चाहे आंशिक रूप से ही क्यों न हो, न होने पर भी उनका विच्छेद स्वीकार कर लिया। यह सत्य है कि सुरक्षित रखने का प्रयास किया है। जब श्रुत के अध्ययन की परम्परा मौखिक हो तो श्रुतधर के विच्छेद __प्रथम तो प्रश्न यह है कि क्या विच्छेद का अर्थ तत्-तत् ग्रन्थ से श्रुत का विच्छेद मानना होगा, किन्तु जब श्रुत लिखित रूप में भी का सम्पूर्ण रूप से विनाश है? मेरी दृष्टि में विच्छेद का अर्थ यह हो, तो श्रुतधर के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद नहीं माना जा नहीं कि उस ग्रन्थ का सम्पूर्ण लोप हो गया। मेरी दृष्टि में विच्छेद सकता। दूसरे मौखिक परम्परा से चले आ रहे श्रुत में विस्मृति आदि का तात्पर्य उसके कुछ अंशों का विच्छेद ही मानना होगा। यदि हम के कारण किसी अंश-विशेष के विच्छेद को पूर्ण विच्छेद मानना भी निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में समीचीन नहीं है। विच्छेद की इस चर्चा का तात्पर्य मात्र यही है कि भी जो अंग साहित्य आज अवशिष्ट हैं वे उस रूप में तो नहीं हैं महावीर की यह श्रुत-सम्पदा अक्षुण्ण नहीं रह सकी और उसके कुछ जिस रूप में उनकी विषय-वस्तु का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, अंश विलुप्त हो गये। अत: आंशिक रूप में जिनवाणी आज भी है, नन्दीसूत्र आदि में हुआ है। यह सत्य है कि न केवल पूर्व साहित्य इसे स्वीकार करने में किसी को कोई विप्रतिपत्ति नहीं होनी चाहिये। का अपितु अंग साहित्य का भी बहुत कुछ अंश विच्छिन्न हुआ है। आज आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का सातवाँ महापरिज्ञा नामक अध्याय अर्धमागधी आगमों की विषय-वस्तु सरल है अनुपलब्ध है। भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, अर्धमागधी आगम साहित्य की विषय-वस्तु मुख्यत: उपदेशपरक, प्रश्नव्याकरण, विपाकदशा आदि ग्रन्थों की भी बहुत कुछ सामग्री आचारपरक एवं कथापरक है। भगवती के कुछ अंश, प्रज्ञापना, विच्छिन्न हुई है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। स्थानांग में दस अनुयोगद्वार, जो कि अपेक्षाकृत परवर्ती है, को छोड़कर उनमें प्राय: दशाओं की जो विषय-वस्तु वर्णित है, वह उनकी वर्तमान विषय-वस्तु गहन दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओं का अभाव है। विषय-प्रतिपादन से मेल नहीं खाती है। उनमें जहाँ कुछ प्राचीन अध्ययन विलुप्त हुए सरल, सहज और सामान्य व्यक्ति के लिए भी बोधगम्य है। वह मुख्यत: हैं, वहीं कुछ नवीन सामग्री समाविष्ट भी हुई है। अन्तिम वाचनाकार विवरणात्मक एवं उपदेशात्मक है। इसके विपरीत शौरसेनी आगमों देवर्धिगणि ने स्वयं भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मुझे जो में आराधना और मूलाचार को छोड़कर लगभग सभी ग्रन्थ दार्शनिक भी त्रुटित सामग्री मिली है, उसको ही मैंने संकलित किया है। अतः एवं सैद्धान्तिक चर्चा से युक्त हैं। वे परिपक्व दार्शनिक विचारों के आगम ग्रन्थों के विच्छेद की जो चर्चा है, उसका अर्थ यही लेना चाहिये परिचायक हैं। गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की वे गहराइयाँ, जो शौरसेनी कि यह श्रुत-संपदा यथावत् रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी। वह आंशिक आगमों में उलब्ध हैं, अर्धमागधी आगमों में उनका प्रायः अभाव ही रूप से विस्मृति के गर्भ में चली गई। क्योंकि भगवान महावीर के है। कुन्दकुन्द के समयसार के समान उनमें सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्वाण के पश्चात् लगभग एक हजार वर्ष तक यह साहित्य मौखिक अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता। रहा और मौखिक परम्परा में विस्मृति स्वाभाविक है। विच्छेद का क्रम यद्यपि ये सब उनकी कमी भी कही जा सकती है, किन्तु चिन्तन के तभी रुका जब आगमों को लिखित रूप दे दिया गया। विकास क्रम की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह फलित दिगम्बर परम्परा में श्रुत-विच्छेद सम्बन्धी जो चर्चा है उसके सम्बन्ध होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य प्राथमिक स्तर का होने से में यह बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि उसमें श्रुतधरों के अर्थात् प्राचीन भी है और साथ ही विकसित शौरसेनी आगमों के लिए श्रुत के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा हुई है न कि श्रुत ग्रन्थों आधार-भूत भी। समवायांग में जीवस्थानों के नाम से 14 गुणस्थानों के विच्छेद की चर्चा हुई है। दूसरे यह कि पूर्व और अंग के इस का मात्र निर्देश है, जबकि षट्खण्डागम जैसा प्राचीन शौरसेनी आगम विच्छेद की चर्चा में भी पूर्व और अंगों के एकदेश ज्ञाता आचार्यों भी उनकी गम्भीरता से चर्चा करता है। मूलाचार, भगवतीआराधना, का अस्तित्व तो स्वीकार किया ही गया है। धरसेन के सम्बन्ध में कुन्दकुन्द के ग्रन्थ और गोम्मटसार आदि सभी में गुणस्थानों की विस्तृत भी मात्र यह कहा गया है कि वे अंग और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता चर्चा है। चूँकि तत्त्वार्थ में गुणस्थानों की चर्चा का एवं स्याद्वाद-सप्तभंगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210119
Book TitleArdhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size5 MB
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