________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भिन्न रही है। इस प्राचीन शैली का सर्वप्रथम निर्देश हमें नन्दीसूत्र एवं 3. कल्प 3. चुल्लकल्पश्रुत पाक्षिकसूत्र (ईस्वी सन् पाँचवीं शती) में मिलता है। उस युग में आगमों 4. व्यवहार 4. महाकल्पश्रुत को अङ्गप्रविष्ट व अङ्गबाह्य- इन दो भागों में विभक्त किया जाता 5. निशीथ 5. निशीथ था। अङ्गप्रविष्ट के अन्तर्गत आचाराङ्ग आदि 12 अङ्ग आते थे। शेष 8. महानिशीथ 6. राजप्रश्नीय ग्रन्थ अङ्गबाह्य कहे जाते थे। उसमें अङ्गबाह्यों की एक संज्ञा प्रकीर्णक 7. ऋषिभाषित 7. जीवाभिगम भी थी। अङ्गप्रज्ञप्ति नामक दिगम्बर ग्रन्थ में भी अङ्गबाह्यों को प्रकीर्णक 8. प्रज्ञापना कहा गया है। अङ्गबाह्य को पुन: दो भागों में बाँटा जाता था- 9. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति 9. महाप्रज्ञापना 1. आवश्यक और 2. आवश्यक-व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत 10. चन्द्रप्रज्ञप्ति 10. प्रमादाप्रमाद सामायिक आदि छः ग्रन्थ थे। ज्ञातव्य है कि वर्तमान वर्गीकरण में 11. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति 11. नन्दी आवश्यक को एक ही ग्रन्थ माना जाता है और सामायिक आदि छः 12. महल्लिकाविमानप्रविभक्ति 12. अनुयोगद्वार आवश्यक अङ्गों को उसके एक-एक अध्याय रूप में माना जाता है, 13. अङ्गचूलिका 13. देवेन्द्रस्तव किन्तु प्राचीनकाल में इन्हें छः स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाता था। इसकी 14. वग्गचूलिका 14. तन्दुलवैचारिक पुष्टि अङ्गपण्णत्ति आदि दिगम्बर ग्रन्थों से भी हो जाती है। उनमें भी 15. चन्द्रवेध्यक सामायिक आदि को छ: स्वतन्त्र ग्रन्थ माना गया है। यद्यपि उसमें 16. अरुणोपपात 16. सूर्यप्रज्ञप्ति कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान के स्थान पर वैनयिक एवं कृतिकर्म नाम 17. वरुणोपपात 17. पौरुषीमण्डल मिलते हैं। आवश्यक-व्यतिरिक्त के भी दो भाग किये जाते थे- 18. गरुडोपपात 18. मण्डलप्रवेश 1. कालिक और 2. उत्कालिक। जिनका स्वाध्याय विकाल को छोड़कर 19. धरणोपपात 19. विद्याचरण विनिश्चय किया जाता था, वे कालिक कहलाते थे, जबकि उत्कालिक ग्रन्थों के 20. वैश्रमणोपपात 20. गणिविद्या अध्ययन या स्वाध्याय में काल एवं विकाल का विचार नहीं किया 21. वेलन्धरोपपात 21. ध्यानविभक्ति जाता था। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र के अनुसार आगमों के वर्गीकरण 22. देवेन्द्रोपपात 22. मरणविभक्ति की सूची निम्नानुसार है - 23. उत्थानश्रुत 23. आत्मविशोधि 24. समुत्थानश्रुत 24. वीतरागश्रुत श्रुत (आगम) 25. नागपरिज्ञापनिका 25. संलेखणाश्रुत 26. निरयावलिका 26. विहारकल्प (क) अङ्गप्रविष्ट (ख) अङ्गबाह्य 27. कल्पिका 27. चरणविधि 28. कल्पावतंसिका 28. आतुरप्रत्याख्यान 1. आचाराङ्ग 29. पुष्पिता 29. महाप्रत्याख्यान 2. सूत्रकृताङ्ग (क) आवश्यक (ख) आवश्यक व्यतिरिक्त 30. पुष्पचूलिका 3. स्थानाङ्ग 31. वृष्णिदशा 4. समवायाङ्ग 1. सामायिक 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति 2. चतुर्विंशतिस्तव इस प्रकार नन्दीसूत्र में 12 अङ्ग, 6 आवश्यक, 31 कालिक 6. ज्ञाताधर्मकथा 3. वन्दना एवं 29 उत्कालिक सहित 78 आगमों का उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य 7. उपासकदशाङ्ग 4. प्रतिक्रमण है कि आज इनमें से अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। 8. अन्तकृद्दशाङ्ग 5. कायोत्सर्ग 9. अनुत्तरौपपातिकदशांग६. प्रत्याख्यान यापनीय और दिगम्बर परम्परा में आगमों का वर्गीकरण 10. प्रश्रव्याकरण यापनीय और दिगम्बर परम्पराओं में जैन आगम-साहित्य के ११.विपाकसूत्र वर्गीकरण की जो शैली मान्य रही है, वह भी बहुत कुछ नन्दीसूत्र 12. दृष्टिवाद की शैली के ही अनुरूप है। उन्होंने उसे उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र से ग्रहण किया है। उसमें आगमों को अङ्ग और अङ्गबाह्य ऐसे दो (क) कालिक (ख) उत्कालिक वर्गों में विभाजित किया गया है। इनमें अङ्गों की बारह संख्या का 1. उत्तराध्ययन 2. दशाश्रुतस्कन्ध 1. दशवैकालिक 2. कल्पिकाकल्पिक नहीं है। मात्र यह कहा गया है अङ्गबाह्य अनेक प्रकार के हैं। किन्तु अपने तत्त्वार्थभाष्य (1/20) में आचार्य उमास्वाति ने अङ्ग-बाह्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org