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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श अन्तर्गत सर्वप्रथम सामायिक आदि छः आवश्यकों का उल्लेख किया अङ्ग बाह्यों को आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त, ऐसे दो विभागों ध्ययन, दशा, कल्प-व्यवहार, निशीथ में बाँटा जाता था। आवश्यक-व्यतिरिक्त में भी कालिक और उत्कालिक और ऋषिभाषित के नाम देकर अन्त में आदि शब्द से अन्य ग्रन्थों ऐसे दो विभाग सर्वमान्य थे। लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के बाद का ग्रहण किया है। किन्तु अङ्गबाह्य में स्पष्ट नाम तो उन्होंने केवल से अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र-यह वर्तमान बारह ही दिये हैं। इसमें कल्प-व्यवहार का एकीकरण किया गया है। वर्गीकरण अस्तित्व में आया है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर एक अन्य सूचना से यह भी ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थभाष्य में उपाङ्ग दोनों परम्पराओं में सभी अङ्गबाह्य आगमों के लिए प्रकीर्णक (पइण्णय) संज्ञा का निर्देश है। हो सकता है कि पहले 12 अङ्गों के समान ही नाम भी प्रचलित रहा है। 12 उपाङ्ग माने जाते हों। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलङ्क, विद्यानन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों ने अङ्गबाह्य में न केवल उत्तराध्ययन, अर्धमागधी आगम-साहित्य की प्राचीनता एवं रचनाकाल दशवकालिक आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अपितु कालिक एवं भारत जैसे विशाल देश में अतिप्राचीनकाल से ही अनेक बोलियों उत्कालिक ऐसे वर्गों का भी नाम निर्देश (1/20) किया है। हरिवंशपुराण का अस्तित्व रहा है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भारत में तीन प्राचीन एवं धवलाटीका में आगमों का जो वर्गीकरण उपलब्ध होता है उसमें भाषाएँ प्रचलित रही हैं- संस्कृत, प्राकृत और पालि। इनमें संस्कृत 12 अङ्गों एवं 14 अङ्गबाह्यों का उल्लेख है। उसमें भी अङ्गबाह्यों के दो रूप पाये जाते हैं- छान्दस् और साहित्यिक संस्कृत। वेद में सर्वप्रथम छ: आवश्यकों का उल्लेख है, तत्पश्चात् दशवैकालिक, छान्दस् संस्कृत में है, जो पालि और प्राकृत के निकट है। उपनिषदों उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कप्पाकप्पीय (कल्पिकाकल्पिक), महाकप्पीय की भाषा छान्दस् की अपेक्षा साहित्यिक संस्कृत के अधिक निकट (महाकल्प), पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निशीथ का उल्लेख है। इस है। प्राकृत भाषा में निबद्ध जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें अर्धमागधी प्रकार धवला में 12 अङ्ग और 14 अङ्गबाह्यों की गणना की गयी। आगम साहित्य प्राचीनतम है। यहाँ तक कि आचाराङ्ग का प्रथम श्रुतस्कन्ध इसमें भी कल्प और व्यवहार को एक ही ग्रन्थ माना गया है। ज्ञातव्य और ऋषिभाषित तो अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी प्राचीन है कि तत्त्वार्थभाष्य की अपेक्षा इसमें कप्पाकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक है। ये दोनों ग्रन्थ लगभग ई०पू० पाँचवीं-चौथी शताब्दी की रचनाएँ और महापुण्डरीक-ये चार नाम अधिक हैं। किन्तु भाष्य में उल्लिखित हैं। आचाराङ्ग की सूत्रात्मक औपनिषदिक शैली उसे उपनिषदों का दशा और ऋषिभाषित को छोड़ दिया गया है। इसमें जो चार नाम निकटवर्ती और स्वयं भगवान् महावीर की वाणी सिद्ध करती है। भाव, अधिक हैं- उनमें कप्पाकप्पीय और महाकप्पीय का उल्लेख भाषा और शैली तीनों के आधार पर यह सम्पूर्ण पालि और प्राकृत नन्दीसूत्र में भी है, मात्र पुण्डरीक और महापुण्डरीक ये दो नाम साहित्य में प्राचीनतम है। आत्मा के स्वरूप एवं अस्तित्व सम्बन्धी विशेष हैं। इसके विवरण औपनिषदिक विवरणों के अनुरूप हैं। इसमें प्रतिपादित दिगम्बर परम्परा में आचार्य शुभचन्द्र कृत अङ्गप्रज्ञप्ति (अङ्गपण्णत्ति) महावीर का जीवनवृत्त भी अलौकिकता और अतिशयता रहित है। ऐसा नामक एक ग्रन्थ मिलता है। यह ग्रन्थ धवलाटीका के पश्चात् का प्रतीत प्रतीत होता है कि यह विवरण भी उसी व्यक्ति द्वारा कहा गया है, होता है। इसमें धवलाटीका में वर्णित 12 अङ्गप्रविष्ट व 14 अङ्गबाह्य जिसने स्वयं उनकी जीवनचर्या को निकटता से देखा और जाना होगा। ग्रन्थों की विषय-वस्तु का विवरण दिया गया है। इसमें अङ्गबाह्य ग्रन्थों अर्धमागधी आगम साहित्य में ही सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के की विषय-वस्तु का विवरण संक्षिप्त ही है। इस ग्रन्थ में और दिगम्बर छठे अध्याय, आचारङ्गचूला और कल्पसूत्र में भी महावीर की जीवनचर्या परम्परा के अन्य ग्रन्थों में अङ्गबाह्यों को प्रकीर्णक भी कहा गया है का उल्लेख है, किन्तु वे भी आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा (3.10) / इसमें कहा गया है कि सामायिक प्रमुख 14 प्रकीर्णक परवर्ती हैं, क्योंकि उनमें क्रमश: अलौकिकता, अतिशयता और अङ्गबाह्य हैं। इसमें दिये गये विषय-वस्तु के विवरण से लगता है अतिरञ्जना का प्रवेश होता गया है। इसी प्रकार ऋषिभाषित की कि यह विवरण मात्र अनुश्रुति के आधार पर लिखा गया है, मूल साम्प्रदायिक अभिनिवेश से रहित उदारदृष्टि तथा भाव और भाषागत ग्रन्थों को लेखक ने नहीं देखा है। इसमें भी पुण्डरीक और महापुण्डरीक अनेक तथ्य उसे आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर सम्पूर्ण का उल्लेख है। इन दोनों ग्रन्थों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में मुझे प्राकृत एवं पालिसाहित्य में प्राचीनतम सिद्ध करते हैं। पालिसाहित्य कहीं नहीं मिला। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के सूत्रकृताङ्ग में एक अध्ययन में प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात माना जाता है, किन्तु अनेक तथ्यों के का नाम पुण्डरीक अवश्य मिलता है। प्रकीर्णकों में एक सारावली आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि ऋषिभाषित, सुत्तनिपात से भी प्रकीर्णक है। इसमें पुण्डरीक महातीर्थ (शत्रुञ्जय) की महत्ता का विस्तृत प्राचीन है। अर्धमागधी आगमों की प्रथम वाचना स्थूलिभद्र के समय विवरण है। सम्भव है कि पुण्डरीक सारावली प्रकीर्णक का ही यह अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी शती में हुई थी, अत: इतना निश्चित् है कि दूसरा नाम हो। फिर भी स्पष्ट प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में उस समय तक अर्धमागधी आगम-साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा। इस प्रकार अर्धमागधी आगम-साहित्य के कुछ ग्रन्थों के रचनाकाल इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथम शती से लेकर दसवीं शती की उत्तर सीमा ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी सिद्ध होती है, जो कि तक आगमों को नन्दीसूत्र की शैली में अङ्ग और अङ्गबाह्य- पुनः इस साहित्य की प्राचीनता को प्रमाणित करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210119
Book TitleArdhamagadhi Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size5 MB
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