________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ देवागमस्तोत्र और परमेष्ठिस्तोत्र को समीकृत करते हैं, जबकि मूलाचार आगमों को मानता था। इस संघ के आचार्य अपराजितसूरि की संस्कृत का मन्तव्य अन्य ही है। जहाँ तक गणधरकथित ग्रन्थों का प्रश्न है टीका भगवती आराधना नामक प्राचीन ग्रन्थ पर है, जो मुद्रित भी वहाँ लेखक का तात्पर्य आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अंग ग्रन्थों से है, हो चुकी है। उसमें नग्नता के समर्थन में अपराजितसूरि ने आगम-ग्रन्थों प्रत्येकबुद्धकथित ग्रन्थों से तात्पर्य प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित से अनेक उद्धरण दिये हैं, जिनमें से अनेक उद्धरण वर्तमान आगमों आदि से है, क्योंकि ये ग्रन्थ प्रत्येकबुद्धकथित माने जाते हैं। ये ग्रन्थ में नहीं मिलते। आदरणीय पंडितजी ने यहाँ जो “अनेक" शब्द का प्रत्येकबुद्धकथित हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख भी समवायांग, उत्तराध्ययननियुक्ति प्रयोग किया है वह भ्रान्ति उत्पन्न करता है। मैंने अपराजितसूरि की आदि में है। श्रुतकेवलिकथित ग्रन्थों से तात्पर्य आचार्य शय्यम्भवरचित टीका में उद्धृत आगमिक सन्दर्भो की श्वेताम्बर आगमों से तुलना करने दशवैकालिक, आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) रचित बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध पर स्पष्ट रूप से यह पाया है कि लगभग 90 प्रतिशत सन्दर्भो में (आयारदसा), व्यवहार आदि से है तथा अभिन्न दशपूर्वीकथित ग्रन्थों आगमों की अर्धमागधी प्राकृत पर शौरसेनी प्राकृत के प्रभाव के से उनका तात्पर्य कम्मपयडी आदि "पूर्व" साहित्य के ग्रन्थों से है। फलस्वरूप हुए आंशिक पाठभेद को छोड़कर कोई अन्तर नहीं है। यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि यदि यापनीय परम्परा में जहाँ किंचित् पाठभेद है वहाँ भी अर्थ-भेद नहीं है। आदरणीय पंडितजी ये ग्रन्थ विच्छिन्न माने जाते, तो फिर इनके स्वाध्याय का निर्देश लगभग ने इस ग्रन्थ में भगवती आराधना की विजयोदया टीका (पृ० ३२०ईसा की छठी शताब्दी के ग्रन्थ मूलाचार में कैसे हो पाता। दिगम्बर 327) से एक उद्धरण दिया है, जो वर्तमान आचारांग में नहीं मिलता परम्परा के अनुसार तो वीरनिर्वाण के 683 वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा है। उनके द्वारा प्रस्तुत वह उद्धरण निम्न हैकी दूसरी शती में आचारांग धारियों की परम्परा भी समाप्त हो गई तथा चोक्तमाचाराने-सुदं *आउस्सत्तो* भगवदा एवमक्खादा थी फिर वीरनिर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् भी आचारांग आदि के इह खलु संयमाभिमुख दुविहा इत्थी पुरिसा जादा हवंति। तं जहा स्वाध्याय करने का निर्देश देने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। सव्वसमण्णगदे णो सव्वसमण्णागेद चेव। तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिणा ज्ञातव्य है कि मूलाचार की यही गाथा कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड में भी हत्थपायणीपादे सव्विंदिय समण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थ मिलती है, किन्तु कुन्दकुन्द आगमों के उपर्युक्त प्रकारों का उल्लेख धारिउं एवं परिहिउं एवं अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति। करने के पश्चात् उनकी स्वाध्याय विधि के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते निश्चय ही उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में इसी रूप में शब्दश: नहीं हैं। जबकि मूलाचार स्पष्ट रूप से उनके स्वाध्याय का निर्देश करता है, किन्तु “सव्वसमन्नागय' नामक पद और उक्त कथन का भाव है। मात्र यही नहीं मूलाचार में आगमों के अध्ययन की उपधान विधि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में आज भी सुरक्षित अर्थात् तपपूर्वक आगमों के अध्ययन करने की विधि का भी उल्लेख है। अतः इस आधार पर यह कल्पना करना अनुचित होगा कि यापनीय है। आगमों के अध्ययन की यह उपधान विधि श्वेताम्बरों में आज भी परम्परा का आचारांग, वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध आचारांग प्रचलित है। विधिमार्गप्रपा (पृ० 49-51) में इसका विस्तृत उल्लेख से भिन्न था। क्योंकि अपराजितसूरि द्वारा उद्धृत आचारांग के अन्य है। इससे यह भी स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि मूलाचार सन्दर्भ आज भी श्वेताम्बर परम्परा के इसी आचारांग में उपलब्ध हैं। आगमों को विच्छिन्न नहीं मानता था। यापनीय परम्परा में ये अंग आगम अपराजित ने आचारांग के “लोकविचय" नामक द्वितीय अध्ययन के और अंगबाह्य आगम प्रचलन में थे, इसका एक प्रमाण यह भी है पंचम उद्देशक का उल्लेखपूर्वक जो उद्धरण दिया है, वह आज भी कि नवीं शताब्दी में यापनीय आचार्य अपराजित भगवती आराधना उसी अध्याय के उसी उद्देशक में उपलब्ध है। इसी प्रकार उसमें "अहं की टीका में न केवल इन आगमों से अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते पुण एवं जाणेज्ज उपातिकते हेमंते... ठविज्ज" जो यह पाठ आचारांग हैं, अपितु स्वयं दशवैकालिक पर टीका भी लिख रहे हैं। मात्र यही से उद्धृत है- वह भी वर्तमान आचारांग के अष्टम अध्ययन के चतुर्थ, नहीं, यापनीय पर्युषण के अवसर पर कल्पसूत्र की वाचना भी करते उद्देशक में है। उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग कल्प आदि के सन्दर्भो की भी थे, ऐसा निर्देश स्वयं दिगम्बराचार्य कर रहे हैं। लगभग यही स्थिति है। अब हम उत्तराध्ययन के सन्दर्भो पर विचार करेंगे। आदरणीय पंडितजी ने जैन साहित्य की पूर्वपीठिका में अपराजित क्या यापनीय आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से भिन्न थे? की भगवतीआराधना की टीका की निम्न दो गाथाएँ उद्धृत की हैं__ इस प्रसंग में यह विचारणीय है कि यापनीयों के ये आगम कौन परिचत्तेसु वत्येसु ण पुणो चेलमादिए। से थे? क्या वे इन नामों से उपलब्ध श्वेताम्बर परम्परा के आगमों अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा। से भिन्न थे या यही थे? हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों ने यह कहने सचेलगो सुखी भवदि असुखी वा वि अचेलगो। का अतिसाहस भी किया है कि ये आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चिंतए।। से सर्वथा भिन्न थे। प० कैलाशचन्द्रजी (जैन साहित्य का इतिहास, पंडितजी ने इन्हें उत्तराध्ययन की गाथा कहा है और उन्हें वर्तमान पूर्व पीठिका, पृ० 525) ने ऐसा ही अनुमान किया है। वे लिखते उत्तराध्ययन में उपलब्ध भी बताया है। किन्तु जब हमने स्वयं पंडितजी है “जैन परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर के समान एक यापनीय द्वारा ही सम्पादित एवं अनुवादित भगवती आराधना की टीका देखी संघ भी था। यह संघ यद्यपि नग्नता का पक्षधर था, तथापि श्वेताम्बरी तो उसमें इन्हें स्पष्ट रूप से उत्तराध्ययन की गाथाएँ नहीं कहा गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org