Book Title: Yogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Author(s): Nainmal V Surana
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 383
________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३५६ निमित्त प्राये बारातियों के भोजन के लिए वध होगा, तो उनका हृदय करुणासिक्त हो गया । उन्होंने सारथी को तुरन्त रथ लौटा लेने का आदेश दिया । उनकी आज्ञा का पालन हुआ और रथ लौटने लगा । रथ को लौटा ले जाते देखकर राजीमती श्री नेमिनाथ से निवेदन करने लगी ।) अर्थ - भावार्थ - हे प्राणनाथ ! हे प्रारण प्रिय ! मैं निरन्तर आठ जन्मों से आपकी प्रियतमा रही हूँ, जिससे आप मेरे प्रतमराम बन गये हैं, आप मेरी आत्मा में पूर्ण रूप से रम गये हैं । मुक्ति-नारी से तो पका कभी कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा, फिर उससे सम्बन्ध रखने के लिए आप क्यों इतने उत्सुक हैं ? ।। १ ।। अर्थ - भावार्थ - हे मेरे प्राण - प्रिय ! आप घर पधारो । हे मेरी श्राशाओं के विश्राम-स्थल ! श्राप रथ को पुन: इस ओर घुमायो । हे साजन ! आप अपना रथ वापिस लाम्रो । हे प्रारण वल्लभ ! आपके रथ के साथ मेरी गई हुई आशाएँ भी लौट आयेंगी । प्रियतम ! मेरे मनोरथों के साथ आप अपना रथ लौटा लामो ॥ २ ॥ ग्रतः हे. अर्थ - भावार्थ - प्राप कहते हैं कि मैं मुक्ति - रमणी के प्रति आसक्त हो गया हूँ। मैं आपसे पूछती हूँ, हें जगत् के स्वामी प्रियतम ! आप सत्य बतलायें कि पत्नी के प्रति आपका यह स्नेह है क्या ? महादेव शंकर का प्रेम देखिये जो पार्वती को अपने प्राधे शरीर में धारण करके अर्द्धनारीश्वर कहलाते हैं । एक आप नारी के प्रेमी हैं जो मेरा हाथ तक नहीं पकड़ते ।। ३॥ अर्थ - भावार्थ- पशुओं की चीख सुनकर मन में विचार करके पशुओं पर करुणा लाकर आपने उन्हें बन्धन मुक्त कर दिया। परन्तु मुझे आश्चर्य होता है कि आपके हृदय में मनुष्य के लिए तनिक भी दया नहीं है । आप ही बताइये कि यह किस कुल का प्रचार है ? यह किस घर की मर्यादा है ? ॥ ४ ॥ अर्थ - भावार्थ हे प्रियतम ! आपने अपने हृदय में से प्रेम रूपी कल्पवृक्ष को उखाड़ कर उसमें योगरूपी धतूरे का वपन किया है । हे प्राण- वल्लभ ! आप सत्य - सत्य बतायें कि ऐसी बुद्धिमानी सिखाने वाला Sataar शूर-वीर गुरु आपको मिला है ? ।। ५ ।।

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