Book Title: Yogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Author(s): Nainmal V Surana
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 429
________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ४०२ शुद्धातम अनुभव सदा, स्वसमय एह विलास रे । X X X दर्शन ज्ञान चरण थकी, अलख सरूप अनेक रे I निर्विकल्प रस पीजिये. शुद्ध निरंजन एक रे ॥ X X X व्यवहारे लखे दोहिला, कांइ न श्रावे हाथ रे । शुद्धनय थापना सेवतां, नवी रहे दुविधा साथ रे 11 इससे ज्ञात होता है कि श्रीमद् श्रानन्दघनजी की शुद्ध निश्चय-नय कथित, आत्मा के शुद्ध धर्म में अत्यन्त रुचि थी और वे आत्मा के शुद्ध धर्म में ही मस्त थे । श्रीमद् की गच्छ एवं श्रागमों की मान्यता गच्छना भेद बहु नयण निहालता, तत्त्व नी वात करतां न लाजे । उदर भरणादि निज कार्य करता थका, मोह नडिया कलिकाल राजे || श्री अनन्तनाथ के स्तवन में श्रीमद् तत्कालीन गच्छों के साधुओं को क्लेश न करने के सम्बन्ध में उपालम्भ दिया है । श्री अनन्तनाथ के स्तवन में ही वे कहते हैं किपाप नहीं कोई उत्सूत्र भाषण जिस्यो, : धर्म नहीं कोई जगसूत्र सरीखों । सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेह शुद्ध चारित्र परखो || पैंतालीस प्रागम सूत्र गिने जाते हैं । उत्सूत्र भाषण के समान कोई पाप नहीं है । पैंतालीस आगम निम्नलिखित हैं: १. आचारांग, २. सुयगडांग, ३. ठाणांग, ४. समवायांग, ५. भगवती, ६. ज्ञाता-धर्मकथा, ७. उपासकदशांग, ८. अंतगड़दशांग,

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