Book Title: Yogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Author(s): Nainmal V Surana
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 434
________________ श्री आनन्दघन पदावली-४०७ गये। उन्होंने पूछा 'यतिवर! कृपया हमें प्रात्मा की निशानी बतायें । इस पर श्रीमद् आनन्दघनजी ने कहा 'निशानी कहा बतावु रे मेरा अलख अगोचर रूप' और उन्हें आत्म तत्त्व की झलक बताई। 'पाशा औरन की क्या कोजे, ज्ञान सुधारस पीजे' पद में श्रीमद् ने आशा सम्बन्धी विचार बता कर आशा का परित्याग करके आत्मअनुभव-अमृत का पान करने का अपना संकल्प व्यक्त किया है। इस पद के सम्बन्ध में किंवदन्ती है कि जब श्रीमद् मारवाड़ में विचर रहे थे तब वहाँ स्थानकवासी जैनों का निवास था। वहाँ ऐसा प्रचार हुआ कि आनन्दघनजी गच्छ की क्रिया नहीं करते, स्थापनाचार्य नहीं रखते, एकलविहारी हैं और व्यवहार से भ्रष्ट हैं। एक बार अट्टम के पारणे पर वे मध्याह्न में भिक्षार्थ गये परन्तु किन्हीं कारणों से उन्हें आहार-पानी नहीं मिला। वे निराश हो गये तब उनके उद्गार निकले–'पाशा औरन की क्या कोजे।' आगे कहा कि 'पातम अनुभव रस के रसिया, उतरे न कबहु खुमारी' आदि विचारों के द्वारा उन्होंने अपनी आत्मा को ध्यानसमाधि में लीन कर दिया। _ 'अवधू नाम हमारा राखे' पद में अपना नाम एवं रूप नहीं है, .. इससे सम्बन्धित उद्गार हैं। इस पद के विषय में सुनने में आया है कि श्रीमद् आनन्दघनजी मारवाड़ के एक गाँव में एकान्त स्थान में आत्मध्यान में लीन थे। श्रावकों का उनके पास आना-जाना होता था। उस समय श्रावकों ने उन्हें निवेदन किया कि आपका नाम रखने के लिए आप किसी को शिष्य बना लें। तब अपने अन्तर के उद्गारों के रूप में 'अवध नाम हमारा राखे' पद की रचना की। नाम एवं रूप से भिन्न आत्मा की धुन में मस्त महापुरुष को नाम-रूप का मोह कैसे होगा? __ 'रातड़ी रमीने अहियां थी प्राविया' पद की अहमदाबाद में रचना हुई है। इस पद के सम्बन्ध में दन्त-कथा प्रचलित है कि उस समय श्रावकों को श्रद्धा थी कि आनन्दघनजी चमत्कारी महापुरुष हैं। उनके पास एक निर्धन श्रावक आता रहता था। एक दिन उस श्रावक ने उन्हें अपनी बात कह दी। उस समय श्रीमद् ने उस श्रावक को आत्मा के वास्तविक व्यापार का स्वरूप बताते हुए कहा कि प्रात्मा के पास व्यक्त धर्म की मूल रकम अल्प है और कर्म रूप ब्याज अधिक है, और 'मूलडो थोडो भाई, ब्याजडो घणो रे, केम करी दीधो रे जाय' पद की रचना की, जिसमें बाह्य से अहमदाबाद के माणेकचौक को अन्तर के माणेक चौक में उतार कर धर्म की दुकान प्रारम्भ करने का उपदेश दिया।

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