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[५८] परिचय पूरे तोरसे दिया है, और जगह जगह पतञ्जलिके योगशास्त्रगत खास साङ्केतिक शब्दोंका जैन सङ्केतोंके साथ मिलान करके सङ्कीर्ण-दृष्टिवालोंके लिये एकताका मार्ग खोल दिया है। जैन विद्वान् यशोविजयवाचकने हरिभद्रसूरिसूचित एकताके मार्गको विशेष विशाल बनाकर पतञ्जलिके योगसूत्रको जैन प्रक्रियाके अनुसार समझानेका थोडा किन्तु मार्मिक प्रयास किया है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी वत्तीसियोंमें उन्होंने पतञ्जलिके योगसूत्रगत कुछ विषयोंपर खास बत्तीसियाँ भी रची हैं। इन सब बातोंको संक्षेपमें बतलानेका १ उक्तं च योगमार्गहस्तपोनिधूतकल्मषैः। .
भावियोगहितायोचैर्मोहदीपसमं वचः॥ ( योग. वि. श्लो. ६६) टीका ' उक्तं च निरूपितं पुनः योगमार्गहरध्यात्मविद्भिः पतञ्जलिप्रभृतिभिः । एतप्रधानः सच्छाद्धः शीलवान् योगतत्परः । जानात्यतीन्द्रियानास्तथा चाह महामतिः " ॥ ( योगदृष्टि समुच्चय श्लो. १००) टीका तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः '। ऐसा ही भाव गुणग्राही श्रीयशोविजयजीने अपनी योगावतारद्वात्रिंशिकामें प्रकाशित किया है। देखो-श्लो. २० टीका।
२ देखो योगबिन्दु श्लोक ४१८, ४२० । ३ देखो उनकी बनाई हुई पातजलसूत्रवृत्ति ।
४ देखो पातञ्जलयोगलक्षणविचार, ईशानुग्रहविचार, योगावतार, क्लेशहानोपाय और योगमाहात्म्य द्वात्रिंशिका ।