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[६२] है। इस सूत्रपातका पूर्ववर्ती समय जो आध्यात्मिकविकासरहित होता है, वह जैनशास्त्रमें अचरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है । और उत्तरवर्ती समय जो आध्यात्मिक विकासके क्रमवाला होता है, वह चरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। अचरमपद्भलपरावर्तन और चरमपुद्गलपरावर्तनकालके परिमाणके बीच सिंधु और विंदुका सा अंतर होता है । जिस आत्माका संसारप्रवाह चरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण शेप रहता है, उसको जैन परिभाषामें 'अपुनर्वधक' और सांख्यपरिभाषामें 'निवृत्ताधिकार प्रकृति' कहते हैं। अपुनर्बन्धक या निवृत्ताधिकार प्रकृति आत्माका आंतरिक परिचय इतना ही है कि उसके ऊपर मोहका दवाव कम होकर उलटे मोहके ऊपर उस आत्माका दबाव शुरू होता है। यही आध्यात्मिक विकासका वीजारोपण है। यहींसे योगमार्गका आरंभ हो आनेके कारण उस आत्माकी प्रत्येक प्रवृत्तिमें सरलता, नम्रता, उदारता, परोपकारपरायणता आदि सदाचार वास्तविकरूपमें दिखाई देते हैं । जो उस विकासोन्मुख आत्माका बाह्य परिचय है"। इतना उत्तर देकर आचार्यने योगके आरंभसे लेकर योगकी पराकाष्टा तकके आध्यात्मिक विकासको क्रमिक वृद्धिको स्पष्ट समझानेके लिये उसको
१ देखो मुत्यद्वेषद्वात्रिंशिका २८ । २ देखो योगविंदु १७८, २०१ ।
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