Book Title: Yogdarshan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Sukhlal Sanghavi

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Page 194
________________ [१०७] है, चित्तनिरोध नहीं। ज्ञान भी ऐसा समझना चाहिये जो अध्यात्म भावनासे होनेवाले समभावके प्रवाहवाला हो, यही ज्ञान राजयोग कहलाता है। सारांश यह है कि चित्तका जय हो या बाह्य इन्द्रियोंका जय हो सबका मुख्य उपाय उक्त ज्ञानरूप राजयोग ही है, प्राणायाम आदि हठयोग नहीं। क्योंकि विकासमार्गमें विघ्नरूप होनेसे हठयोगके अभ्यासका शास्त्रमें चार बार निषेध किया है। तृतीय पाद. सूत्र ५५-इसके भाष्यमें भाष्यकारने सांख्यसिद्धांतके अनुसार योगदर्शनका सिद्धांत बतलाते हुए मुख्य तीन बातें लिखी हैं । (१) कैवल्य अर्थात् मुक्तिका मतलब भोगके श्रभावसे हैं । भोग सुख, दुःख, ज्ञान प्रादिरूप है जो वास्तवमें प्रकृतिका विकार है, आत्मा-पुरुष-का नहीं। पुरुष तो कूटस्थ-नित्य होनेसे वास्तवमें न तो बद्ध है और न मुक्त। इसलिये पुरुपकी मुक्तिका मतलव उसमें आरोपित भोगके अभावमात्रसे है। (२) विवेकख्याति अर्थात् जड चेतनका भेदज्ञान ही मोक्षका मुख्य उपाय है । भेदज्ञान हो जानेसे अविद्या आदि क्लेश और कर्मविपाकका अभाव हो जाता है। इस अभावका होना ही मुक्ति है। मुक्तिके पूर्वमें सर्वज्ञत्व (सर्वविषयक ज्ञान ) किसीको होता है और

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