Book Title: Yogdarshan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Sukhlal Sanghavi

View full book text
Previous | Next

Page 195
________________ [ १०८ ] किसी को नहीं ( ३ ) जिसको सर्वज्ञत्व प्राप्त होता है उसको भी मुक्ति प्राप्त होनेपर अर्थात् मन, शरीर आदि छूट जाने पर वह नहीं रहता, क्योंकि सर्वज्ञत्व यह मनका कार्य है आत्माका नहीं, आत्मा तो कूटस्थ - निर्विकार चेतनस्वरूप है । इन तीनों बातोंके विषयमें जैनशास्त्रका जो मतभेद उसीको उपाध्यायजीने दिखाया है - ( १ ) सुख, दुःख आदिरूप भोग संसार अवस्था में आत्माका वास्तविक विकार हैं, मनका नहीं । इसलिये मुक्तिका मतलब संसारकालीन वास्तविक भोगके अभाव से है, आरोपित भोगके अभाव से नहीं। (२) विवेकख्याति (जैन परिभाषानुसार सम्यग्दर्शन) से और क्लेश आदिके अभावसे मोक्ष होता है सही, पर नेशका अभाव होते ही सर्वज्ञत्व अवश्य प्रकट होता है । मुक्ति पहले क्लेशकी निवृत्ति अवश्य हो जाती है, और केश ( मोह) की निवृत्ति हो जाने पर सर्वज्ञत्व ( केवलज्ञान ) अवश्य हो जाता है । ( ३ ) मुक्ति पानेवाले सभी आत्मा सर्वज्ञत्व नियमसे प्रकट होता है इतना ही नहीं, बल्कि वह प्रकट होने पर कायम रहता है, अर्थात् मुक्ति होने पर चला नहीं जाता | क्योंकि सर्व विषयक ज्ञान करना यह आत्माका स्वभाव है, मनका नहीं । संसारदशामें श्रात्माको ऐसा ज्ञान न होनेका कारण उसके ऊपर आचरणका होना है । मोक्षदशा में आवरणके न रहनेसे उक्त ज्ञान आप ही 3

Loading...

Page Navigation
1 ... 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232