Book Title: Yogdarshan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Sukhlal Sanghavi

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Page 197
________________ [ ११०] व्यवहारका समर्थन किया है। इस प्रक्रियाके स्वरूपके द्वारा स्याद्वाद. पद्धतिका समर्थन करते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि एकसे अनेक और अनेकसे एक परिणाम माननेवाली स्यावाद शैलीका स्वीकार करने ही से उक्त सांख्य प्रक्रिया घट सकती है। ___सूत्र १८-इस सूत्रमें आत्माको अपरिणामी सावीत किया है । इसका समर्थन करते हुए भाष्यकारने कहा है कि शब्द आदि विषय कभी जाने जाते हैं और कभी नहीं । इसलिए चित्त तो परिणामी है, परंतु चित्तकी वृत्तियाँ कमी अज्ञात नहीं रहती। इसलिए प्रात्मा अपरिणामी अर्थात् कूटस्थ ही है । इस मन्तव्यका प्रतिवाद करते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि-जैसा चित्त परिणामी है वैसा आत्मा भी। आत्माको परिणामी मान लेने पर भी चित्तकी सदाशाततामें कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि चित्त ज्ञान-रूप है और ज्ञान आत्माका धर्म है। धर्म होनेसे वह आत्माके सन्निहित होनेके कारण कभी अज्ञात नहीं रहता। शब्द आदि विषय कभी ज्ञात, और कभी अज्ञात होते हैं। इसका कारण यह है कि शब्द आदि विषयका इन्द्रियके साथ जो व्यञ्जनावग्रहरूप सम्बन्ध है वह सदा नहीं रहता अर्थात् कभी होता है और कभी नहीं। यद्यपि इन्द्रियके द्वारा शब्द आदि विषय सदा नहीं जाने जाते परन्तु केवलज्ञानद्वारा सदा ही

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