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[ १२७] . सिर्फ जनसमुदायका नाम नहीं है किन्तु तीर्थका मतलब
शास्त्रोक्त क्रियावाले चतुर्विध संघसे है। शास्त्राज्ञा नहीं माननेवाले जनसमुदायको तीर्थ नहीं किन्तु हड्डीओंका संघातमात्र कहा है । इस दशामें यह स्पष्ट है कि यदि तीर्थकी रक्षाके वहानेसे अविधिका स्थापन किया जाय तो अन्तमें अविधिमात्र बाकी रहनेसे शास्त्रविहित क्रियारूप विधिका सर्वथा लोप ही हो जायगा । ऐसा लोप ही तीर्थका नाश है, इससे अविधिके पक्षपातियोंके पल्लेमें तीर्थ-रक्षारूप लाभके बदले तीर्थ-नाशरूप हानि ही शेष रहती है जो मुनाफेको चाहनेवालेके लिए मूल पूँजीके नाशके बराबर है।
सूत्रोक्त क्रियाका लोप अहितकारी कैसे होता है यह दिखाते हैं... गाथा १५---वह अथात् अविधिके पक्षपातसे होनेवाला सूत्रोक्त विधिका नाश चक्र (अनिष्ट परिणाम देनेवाला) ही है। जो स्वयं मरा हो और जो मारा गया हो उन दोनोंमें विशेषता अवश्य है, यह वात तीर्थके उच्छेदसे डरनेवालोंको विचारना चाहिए । .. खुलासा-जो शिथिलाचारी गुरु मोले शिष्योंको धमके नामसे अपनी जालमें फाँसते हैं और अविधि (शास्त्र विरुद्ध ) धर्मका उपदेश करते हैं उनसे जब कोई शास्त्रविरुद्ध उपदेशः न देनेके लिये कहता है तब वे धर्मोच्छेदका