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[६१] हैं जो अभी प्राप्त नहीं भी हैं। संभव है उन अप्राप्य ग्रन्थों में उनके वर्णनकी सी शैली रही हो, पर हमारे लिये तो यह वर्णनशैली और योग विषयक वस्तु बिल्कुल अपूर्व है। इस समय हरिभद्रसूरिके योगविषयक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो हमारे देखनेमें आये हैं। उनमेंसे षोडशक और योगविंशिकाके योगवर्णनकी शैली और योगवस्तु एक ही है। योगबिंदुकी विचारसरणी और वस्तु योगविंशिकासे जुदा है। योगदृष्टिसमुच्चयकी विचारधारा और वस्तु योगाविंदुसे भी जुदा है । इस प्रकार देखनेसे यह कहना पड़ता है कि हरिभद्रसरिने एक ही आध्यात्मिक विकासके क्रमका चित्र भिन्न भिन्न ग्रन्थोंमें भिन्न भिन्न वस्तुका उपयोग करके तीन प्रकारसे खींचा है। ___ कालकी अपरिमित लंबी नदीमें वासनारूप संसारका गहरा प्रवाह बहता है, जिसका पहला छोर (मूल) तो अनादि है, पर दूसरा (उत्तर) छोर सान्त है । इसलिये मुमुक्षुओंके वास्ते सबसे पहले यह प्रश्न बडे महत्त्वका है कि उक्त अनादि प्रवाहमें आध्यात्मिक विकासका आरंभ कबसे होता है ? और उस आरंभके समय आत्माके लक्षण कैसे हो जाते हैं ? जिनसे कि प्रारंभिक आध्यात्मिक विकास जाना जा सके। इस प्रश्नका उत्तर आचार्यने योगबिंदुमें दिया है। वे कहते हैं कि-" जब आत्माके ऊपर मोहका प्रभाव घटनेका प्रारंभ होता है, तभीसे आध्यात्मिक विकासका सूत्रपात हो जाता