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पाँच भूमिकाओं में विभक्त करके हर एक भूमिकाके लक्षण बहुत स्पष्ट दिखाये हैं । और जगह जगह जैन परिभाषा के साथ बौद्ध तथा योगदर्शनकी परिभाषाका मिलान करके परिभाषाभेदकी दिवारको तोडकर उसकी चोटमें छिपी हुई योगवस्तुकी भिन्नभिन्नदर्शनसम्मत एकरूपताका स्फुट प्रदर्शन कराया है । अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय ये योगमार्ग की पाँच भूमिकायें हैं। इनमें से पहली चारको पतंजलि संप्रज्ञात और अन्तिम भूमिकाको असंज्ञात कहते हैं । यही संक्षेपमें योगविन्दुकी वस्तु है ।
योगदृष्टिसमुच्चयमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका वर्णन योगविन्दुकी अपेक्षा दूसरे ढंगसे है । उसमें आध्यात्मिक विकासके प्रारंभ के पहले की स्थितिको अर्थात् अचरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण संसारकालीन आत्माकी स्थितिको दृष्टि कहकर उसके तरतम भावको अनेक दृष्टांत द्वारा समझाया
१ योगबिंदु, ३१, ३५७, ३५६, ३६१, ३६३, ३.६५ । २ " यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः ।
सत्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्वैषोऽन्वर्थतोऽपि हि ॥ २७३॥ वरबोधिसमेतो वा तीर्थकृद्यो भविष्यति ।
तथा भव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः” ॥ २७४॥
योगबिन्दु |
३ देखो योगबिंदु ४१८, ४२० ।