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घर में एक सुन्दर शीशा था, टूट गया। पति बोला-'तुम्हारे डंडे से ही टूटा है, इसलिए तुम्हारे खर्चे से ही अब दूसरा शीशा आएगा। पत्नी बोली-'मैं इसमें क्या कर सकती थी ? मैंने तो डंडा तुम्हें मारने के लिए चलाया था, तुम अपने स्थान से हट क्यों गये ? परंपरा बदले यह व्यर्थ का तर्क है, कलह को बढ़ाने वाला तर्क है। मैं जो तर्क प्रस्तुत कर रहा हूं, वह इस संदर्भ में बहुत सार्थक और सटीक है, समाज के लिए उपयोगी है। आप लोग अपने बच्चों को पढ़ाते हैं, लड़कों को भी और लड़कियों की भी। ग्रेजुएशन कराते हैं, पोस्ट ग्रेजुएशन और रिसर्च भी कराते हैं। कितने वर्ष लगते हैं ? इसमें पन्द्रह वर्ष, बीस वर्ष भी लग जाते हैं। जैसे ही पढ़ाई पूरी होती है, उसके साथ ही चिंता शुरू हो जाती है कि कब नौकरी लगती है। वस्तुतः नौकरी के प्रयास तो शिक्षा प्राप्त करते समय ही शुरू हो जाते हैं। शिक्षा में आज ऐसी ही परंपरा चल रही है। मैं इस परंपरा को बदलने की बात कर रहा हूं और वह यह है कि बच्चे को पढ़ाते समय दस-पन्द्रह और बीस वर्ष तक धैर्य रखा जा सकता है तो क्या एक वर्ष
और नहीं लगाया जा सकता ? बी. ए., एम. ए. करने के बाद क्या एक वर्ष उसे और नहीं पढ़ाया जा सकता ? बुद्धि की तीक्ष्णता का अर्थ अब तक चली आ रही प्रणाली को बदलें। इसके साथ एक नयी बात जोड़ें। जीवन की यात्रा को चलाने के लिए, जीवन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए जो पढ़ाया जाता है, उसके साथ अच्छा जीवन जीने की शिक्षा एक वर्ष तक अवश्य दें। अगर यह बात जुड़ जाए तो शिक्षा की जो अपूर्णता या अपर्याप्तता है, उसे पूरा किया जा सकता है। इससे समाज को शिक्षा के क्षेत्र में एक नया विकल्प प्राप्त होगा। इस पर बहुत गंभीरता से चिंतन करना है। बच्चे को धन कमाने के लिए आपने खूब पढ़ाया, किन्तु सुखी जीवन जीने के लिए आपने उसे कोई शिक्षा नहीं दिलाई। पढ़ तो वह खूब गया, बुद्धि बहुत पैनी हो गयी, तर्कशक्ति प्रबल हो गयी, समझ प्रखर हो गयी। अब छोटी कोई बात होगी तो भी उसे अखरेगी। क्योंकि भावनात्मक
धर्म और शिक्षा / ३७
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