Book Title: Tulsi Prajna 1996 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ द्वारा प्रतिपादित है और उनका संकलन गणधरों द्वारा कृत है, इसलिए वे पुराण-- प्राचीन है । उनको भाषा 'प्राकृत अर्द्धमागधी' है और उसमें अठारह देशी भाषाओं का संमिश्रण है। अनेक वैयाकरण आर्ष और देश्य भाषाओं का व्याकरण के नियमों से नियंत्रित नहीं मानते । डॉ. पिशल ने इस विषय पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी की है "भारतीय वैयाकरण पुराने जैन-सूत्रों की भाषा को आर्षम अर्थात ऋषियों की भाषा" का नाम देते हैं । हेमचन्द्र ने १, ३ में बताया है कि उसके व्याकरण के सब नियम आर्ष-भाषा में लागू नहीं होते, क्योंकि आर्षभाषा में इसके बहुत से अपवाद हैं और वह २, १७४ में बताता है कि ऊपर लिखे नियम और अपवाद आर्ष-भाषा में लागू नहीं होते; उसमें मनमाने नियम काम में लाये जाते हैं । त्रिविक्रम अपने व्याकरण में आर्ष और देश्य भाषाओं को व्याकरण के बाहर ही रखता है; क्योंकि इनकी उत्पत्ति स्वतंत्र है जो जनता में रूढ़ि बन गई थी (रूढ़त्वात्)। इसका अर्थ यह है कि आर्षभाषा की प्रकृति या मूल संस्कृत नहीं है और यह बहुधा अपने स्वतंत्र नियमों का पालन करती है (स्वतन्त्रत्वाच्च भूयसा) । प्रेमचन्द्र तर्कवागीण ने दण्डिन् के काव्यादर्श १,३३ की टीका करते हुए एक उद्धरण दिया है, जिसमें प्राकृत का दो प्रकारों में भेद किया गया है। एक प्रकार की प्राकृत वह बताई गई है, जो आर्ष भाषा से निकली है और दूसरी प्राकृत वह है जो आर्ष के समान है-आर्षोत्थम् आर्षतुल्यम् च द्विविधम् प्राकृतम् विदुः । 'रुद्रट' के काव्यालंकार २,१२ पर टीका करते हुए 'नमिसाधु' ने प्राकृत नाम की व्युत्पत्ति यों बताई है कि प्राकृत भाषा की प्रकृति अर्थात् आधारभूत भाषा वह है जो प्राकृतिक है, और जो सब प्राणियों की बोलचाल की भाषा है तथा जिसे व्याकरण आदि के नियम नियन्त्रित नहीं करते; चूंकि वह प्राकृत से पैदा हुई है अथवा प्राकृतजन की बोली है इसलिए इसे प्राकृत भाषा कहते हैं । अथवा इसका वह भी अर्थ हो सकता है कि प्राकृत प्राक्कृत शब्दों से बनी हो । इसका तात्पर्य हुआ कि वह भाषा जो बहुत पुराने समय से चली आई हो । साथ ही यह भी कहा जाता है कि वह प्राकृत जो आर्ष शास्त्रों में पाई जाती है अर्थात् अर्द्धमागध वह भाषा है, जिसे देवता बोलते हैं-'आरिसवयणे सिद्ध देवाणं अद्धमागहावाणी' । इस लेखक के अनुसार प्राकृत वह भाषा है जिसे स्त्रियां, बच्चे आदि बिना कष्ट के समझ लेते हैं, इसलिए मध्यभाषा सब भाषाओं की जड़ है । बरसाती पानी की तरह प्रारंभ में इसका एक ही रूप था; किन्तु नाना देशों में और नाना जातियों में बोली जाने के कारण (उनके व्याकरण के नियमों में भिन्नता आ जाने के कारण) तथा नियमों में समय-समय पर सुधार चलते रहने से भाषा के रूप में भिन्नता आई । इसका फल यह हुआ कि संस्कृत और अन्य भाषाओं के अपभ्रंश रूप बन गये, जो 'रुद्रट' ने २.१२ में गिनाये हैं। यहां यह बात खंड २२, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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