Book Title: Trushna ka Jal Diwakar Chitrakatha 030
Author(s): Madankunvar, Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 25
________________ तृष्णा का जाल सोचते-सोचते सहसा कपिल के विचारों को झटका लगा मूर्ख कपिल, क्या माँग रहा है, जो तुझे दे रहा है तू उसे ही हड़पना चाहता है, छि: छिः कृतघ्न ! LJLJI | कपिल को जैसे अनुभव होने लगा-वह तृष्णा के भँवर-जाल में फँसकर गोते खा रहा है। कई बड़े-बड़े मगरमच्छ उसे निगलने को मुँह बांये खड़े हैं। (GMAIVINUTww तृष्णा IMATREAMIRANE लालच अहंकार कपिल चौंक गया 200 तृष्णा का कोई पार नहीं।। यदि समूचे संसार का धन वैभव भी मिल गया तो भी मेरा मन नहीं भरेगा। Ve ATVGn CEO AJM MARG 23 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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