Book Title: Trushna ka Jal Diwakar Chitrakatha 030
Author(s): Madankunvar, Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 30
________________ तृष्णा का जाल राजन् ! अब कोई इच्छा नहीं रही। मुझे वह धन मिल गया जिसे पाकर मनुष्य परम सुखी हो जाता है। कौन-सा धन है वह? संतोष धन ! संयम धन ! समूचा संसार तृष्णा के चक्कर में फँसा है। तृष्णा ही मनुष्य को भटकाती है। नागिन-सी डसती रहती) है। मैंने तृष्णा को जीत लिया। PROATIT राजा कपिल के निकट आकर उसका शान्त मुख हाँ राजन् ! अब मुझे संसार का देखने लगा। समस्त वैभव भी तुच्छ लग रहा है। संतोष का परम धन पा लिया क्या कह रहे हो है मैंने। जहाँ इच्छा है,वहाँ युवक? तुमने तृष्णा दुःख है। इच्छा को जीतना को जीत लिया? ही सुख का मार्ग है। soooooo koooooooo 28 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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