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तृष्णा का जाल
-कपिल मुनि की आत्मकथा सुनकर अनेक लोगों के मन की आँखें खुलीं। उन्हें भी तृष्णा पर विजय पाने का संतोष रूपी मार्ग मिल गया। -वहाँ से चलकर कपिल मुनि नगर से दूर सुनसान खंडहरों में जाकर ध्यानस्थ हो गये। वे निर्भय थे, भय का कोई कारण ही उनके पास नहीं था। रात्रि के गहन अंधकार में चोरों की एक टोली वहाँ आई। अपने शून्य खंडहरों में किसी अज्ञात व्यक्ति को खड़ा देखकर उन्होंने पूछाकौन हो तुम? -कपिल मुनि ने कहा-मैं श्रमण हूँ। -चोर-यहाँ क्यों खड़े हो? -कपिल मुनि-आत्मा के भीतर छुपे असीम धन को पाने। -चोर-वह कौन-सा धन है? क्या हमें भी बता सकते हो? -कपिल मुनि-क्यों नहीं ! वह धन तो ऐसा है जिसे पाने के बाद चक्रवर्ती सम्राट् का वैभव भी तुच्छ है। ऐसा धन पाने के बाद व्यक्ति दुःख, चिन्ता, शोक से मुक्त हो जाता है। अगले जन्म में भी उसे दुर्गति का भय नहीं रहता। -यह सुनकर चोरों का सरदार बलभद्र आगे आया। बोला-श्रमण . क्या तुम सच कह रहे हो? ऐसा गूढ़ धन तुम्हारे पास है? कपिल मुनि-हाँ, मेरे पास है, तुम्हें भी मिल सकता है, तुम्हारे पास भी है। -सरदार-श्रमण ! तुम्हारी बातें बड़ी मनोरंजक लग रही हैं। हमें भी बताओ, ऐसा वह धन कौन-सा है? कैसे, कहाँ मिलेगा, जिसे पाकर हम कभी दुःखी नहीं होंगे?
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