Book Title: Tirthankar Varddhaman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 3
________________ प्रकाशकीय परम पूज्य मुनिश्री विद्यानन्दजी ने अपने मेरठ-वर्षायोग में जो अध्ययनअनुसंधान किया और जो अभीक्ष्ण स्वाध्याय-सिद्धि की, उसी की एक अपूर्व परिणति है उनकी आज से बीसेक वर्ष पूर्व प्रकाशित कृति “वीर प्रभु" का यह आठवां उपस्कृत संस्करण । इसमें मुनिश्री ने भगवान् महावीर के जीवन पर खोजपूर्ण सामग्री तो दी ही है, साथ ही उन तथ्यों का भी संतुलित समायोजन किया है जो अब तक हुई गंभीर खोजों के फलागम हैं। यही कारण है कि इसमें प्रागैतिहामिक, ऐतिहासिक, ज्योतिषिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से महत्वपूर्ण प्रामाणिक विवरण भी सम्मिलित हुए हैं । वास्तव में मुनिश्री अविराम दाड़ती सदासद्य: उस नदी की भांति हैं जो हर घाट-बाट पर निर्मल है और जो किचित् भी कृपण नहीं है। वे ठहरे हुए जल तो हैं नहीं कि एक बार जितना बटोर लिया उसे ही इतिश्री मानकर चलें; वे अनेकान्त की मंगल मूर्ति हैं और इमीलिए प्रत्येक दृष्टिकोण का सम्मान करते हैं और उसमें से प्रयोजनोपयोगी निर्दोष तथ्यों को अंगीकार कर लेते हैं। यही कारण है कि प्रस्तुत कृति में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में लभ्य चक्रवृद्धिक आनन्द की छटा मिलेगी। अनेकान्तात्मक सत्यान्वेषण की सबसे प्रमुख विशेषता यही है कि उसमें वस्तु का मूल व्यक्तित्व तो अक्षत बना ही रहता है माथ ही चित्त पर एक वर्धमान ताजगी और मुरभि वरसती रहती है। मुनिश्री प्रवचन-शैली में लिखते हैं, इसीलिए उनके प्रतिपादन सरल, मुगम, उदाहरणों में पुष्ट और सुग्राह्य हैं । पुस्तक की एक और विशेषता यह है कि इसमें भगवान महावीर के जीवन का असंदिग्ध वृत्तान्त तो है ही, साथ ही जैन मिद्धान्तों का एक मारपूर्ण व्यक्तित्व भी झलक उठा है। - वैशाली के सम्बन्ध में मुनिश्री ने जो विवरण दिये हैं, वे किसी भी गणतन्त्र के लिए गौरव का विपय हो सकत हैं। जब विश्व के अन्य देश गजनीति के शैशव से गजर रहे थे, तब वैशाली अपने तारुण्य-शीर्ष पर थी। जैनों ने न केवल धर्म, नंस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में सर्वोच्चता उपलब्ध को थी वरन् उन्होंने पार्थिव समृद्धियों के भो उस तल को लिया था जहाँ पहुंचकर आदमी लोटने लगता है । इसका मलतव यह हुआ कि जैन राजन्यवर्ग ने पार्थिवता की उस मीमा को भी लांचना शुरू किया था जहां पहुंचकर वह स्वयं निस्मार और निरर्थक दीखने लगती है। महावीर का वैराग्य कोई लाचारी नहीं है और न ही वह पलायन है, वह मुनियांजिन पद-निक्षेप है अध्यात्म की दिशा में । वह अनन्त ऐश्वर्य के बीच में आनेवाली मंगल ध्वनि है, जिसने आगे चलकर भारत के भाल का शृंगार किया है। महावीरकालीन भारत निपट अशान्त था और शान्ति की तलाश कर रहा था। इसके विपरीत भारतीय धरती पर कई जगह पशुओं की निरीह चीत्कारें और रक्तपात थे । इन निराशाओं

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