Book Title: Sukta Muktavali
Author(s): Purvacharya, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 216
________________ अकारादिक्रमः . s श्लोकाद्य श्लोकाद्य अधिकाराङ्कः श्लोकाङ्कः । अधिकाराङ्कः श्लोकाङ्कः । श्लोकाचं अधिकाराङ्कः श्लोकाङ्क: सूकमुक्तावल्या | जेण परो दूमिजइ ७२५ जो देइ कगयकोडिं जं विहि करइ स १८ जेता यस्य बृहस्पतिः १८ जो पढइ अपुवं जं सक्कइ तं कीरइ ५५ ॥१०५॥ 151जे निच्चमप्पमत्ता १०८ जो पूएइ तिसंझं ६२ जे परदारपरम्मुह ९६ जो वजइ परदारं टकच्छेदे न मे दुःखं १२६ जैनो धर्मः प्रकटविभवः १ जं अजिअं चरित्तं ११२ जो करिवराण कुंभे १८ जं अप्पह न सुहायई १ तकाविहूणो विजो ११२ जो कारवेइ पहिम ६३ ।। जं अवसरे न हूअं तच्चारित्रं न कि सेवे ५८ जोगी जोइ न जग विचारा१२६ ५६ जं आरुग्गमुदग्ग० ७१ तज्ज्ञानमेव न भवति ४३ जोगी जोग धंधोलीओ रे १२६ । जं चिअ विहिणा तत्त्वमेको द्वयोर्मत्रः २३ जो गुणइ लक्खमेगं ६५ जं छन्नं आयरियं तत्तिअमित्तं जंपह ७२ जो गुणवंतउ सो २७ जं तवसंजमहीणं तत्र धाम्नि वसेद्गहमेधी ५७ है जो जस्स खलु सहावो ३८ १२ । जं नरए नेरइया १४ तत्र न्यायार्जितं क्षेत्रं ८३ जो जाणइ जस्स गुणे १२५ जं नारया न कम्मं १०८ ३ । तथाविधः शास्त्र. ४१ 6 ACCREASOORA w ac m en ॥१०५॥ Jain Education For Privale & Personal use only w.jainelibrary.org

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